आम आदमी पार्टी: राजनीति में उबाल
दिल्ली विधानसभा चुनाव (दिसंबर 2013) में आम आदमी पार्टी की शानदार सफलता ने इस साल होने वाले आम चुनाव के नतीजों के बारे में पूर्वानुमानों और नजरिए को बदल दिया है। इससे चुनावी राजनीति के समीकरण भी परिवर्तित हो गए हैं। यद्यपि दिल्ली में भाजपा सबसे बडे़ दल के रूप में उभरी और वह सरकार बनाने का दावा प्रस्तुत कर सकती थी परंतु उसने ऐसा नहीं किया। यहां यह स्मरणीय है कि बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद, 1996 में हुए आम चुनाव में भाजपा सबसे बड़े दल के रूप में उभरी थी, उसने सरकार बनाने का दावा प्रस्तुत किया था और अल्प समय तक दिल्ली से राज भी किया था। इस बार दिल्ली के मामले में उसका रूख अलग था और उसने आगामी आम चुनाव को दृष्टिगत रखते हुए, दिल्ली में सरकार न बनाने का फैसला किया। शूरूआत में कुछ ना-नुकुर करने के बाद, आप ने जनता की राय जानने का उपक्रम किया और उसके बाद बहुमत में न होने के बावजूद सरकार बना ली।
इसके पहले कि हम दिल्ली विधानसभा चुनावों के नतीजों और आप की सरकार बनने से राजनीति के प्रांगण में आए परिवर्तनों की चर्चा करें, हम उन परिस्थितियों पर प्रकाष डालना चाहेंगे जिनके चलते आप उभरी। अरविंद केजरीवाल द्वारा अन्ना हजारे को सामने रखकर चलाए गए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन ने देष को हिलाकर रख दिया था। इस आंदोलन को व्यापक जनसमर्थन मिला। इसके समर्थकों में खाप पंचायतों से लेकर एमबीए और आई.टी. इंजीनियर व बिल्डरों से लेकर छोटे व्यापारी तक शामिल थे। इसे मुख्यतः मध्यम वर्ग का समर्थन प्राप्त था। इस आंदोलन को आरएसएस भी पर्दे के पीछे से समर्थन दे रहा था और लोगों की भीड़ इकट्ठा करने में आरएसएस का महत्वपूर्ण योगदान था। विरोध की इस लहर ने संसदीय व्यवस्था को भी चुनौती दी परंतु अन्ना-केजरीवाल के नेतृत्व में चले आंदोलन के दबाव के बावजूद, संसद का अस्तित्व बना रहा। आंदोलन के केन्द्र में थी यह मांग कि भ्रष्टाचार पर नियंत्रण के लिए लोकपाल विधेयक लाया जाना चाहिए। इसके बाद यह आंदोलन दो धाराओं में बंट गया। एक धारा केवल कांग्रेस पर हमला करने की हिमायती थी और इसकी आवाज बनीं किरण बेदी। दूसरी ओर, केजरीवाल के नेतृत्व वाली दूसरी धारा हर तरह के भ्रष्टाचार के विरोध में थी।
दूसरी धारा से उपजी आम आदमी पार्टी, जिसने दिल्ली विधानसभा चुनाव से अपनी राजनैतिक यात्रा षुरू की। उसने मुख्यतः ‘नगरपालिका स्तर’ के मुद्दों, विशेषकर बिजली, पानी पर जोर दिया और दिल्ली में धूम मचा दी। आप जनता को यह समझाने में सफल रही कि उसकी नीयत नेक है और उसकी पहुंच आम आदमी तक हो गई। झुग्गी झोपड़ी के लोगों में, चारों ओर व्याप्त भ्रष्टाचार के प्रति गुस्से को आप अपने प्रति समर्थन में बदलने में सफल रही। नतीजा यह हुआ कि दिल्ली के वे नागरिक, जो बढ़ती कीमतों और रोजाना की जिंदगी की अन्य समस्याओं से परेशान थे, उन्होंने कांग्रेस को छोड़कर आप का दामन थाम लिया। आप, भाजपा-आरएसएस के आधार में भी कुछ हद तक सेंध लगाने में सफल रही परंतु उसके समर्थक मुख्यतः वे थे, जो अब तक कांग्रेस का साथ देते आ रहे थे। यह भी हो सकता है कि कई लोगों ने, जो आप को वोट देने के इच्छुक रहे हों, उन्होंने इसलिए उसे वोट न दिया हो क्योंकि यह उसका पहला चुनाव था। आप की जीत का संदेश स्पष्ट है। उसे स्थापित पार्टियों के विकल्प के रूप में जनता ने स्वीकार कर लिया है। यह इस तथ्य से भी साफ है कि आप मेंशामिल होने के लिए दे श भर में हजारों लोग आतुर हैं और उसके लिए काम करने की इच्छा रखते हैं।
इसके पहले तक चुनावी परिदृष्य पर नरेन्द्र मोदी हावी थे, जिन्होंने ‘‘गुजरात के विकास’’ के अनवरत प्रचार के जरिए अपनी छवि एक ऐसे मजबूत नेता की बना ली थी जिसने गुजरात में कमाल कर दिखाया है। भाजपा ने उन्हें अपना प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया था और मोदी को आरएसएस का सहयोग और समर्थन भी प्राप्त था। मोदी, गुजरात कत्लेआम में अपनी भूमिका पर पर्दा डालने में सफल हो गए थे और उन्होंने इसके लिए एसआईटी की अपूर्ण जांच रपट को मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट द्वारा सही ठहराए जाने के तथ्य का जमकर दुरूपयोग किया। सच यह है कि उसी रिपोर्ट में मोदी के खिलाफ सुबूत हैं परंतु जैसे तैसे मोदी अब तक सजा से बचे हुए हैं। मोदी की आम सभाएं अत्यंत सुनियोजित होती हैं। इन आम सभाओं और मीडिया एक हिस्से की मदद से मोदी ऐसा माहौल बनाने में सफल हो गए मानो अगले चुनाव में उनकी विजय सुनिष्चित है। सोशल मीडिया में भी मोदी ने पैठ बना ली और वेबसाइटों और ब्लागों पर उनका गुणगान होने लगा। इसके साथ ही, मोदी-भाजपा-आरएसएस कांग्रेस और विषेशकर राहुल गांधी पर निशाना साधते रहे। सरदार वल्लभ भाई पटेल की भव्य मूर्ति की स्थापना की योजना, रन फाॅर यूनिटी व अन्य कई कार्यक्रम, मोदी के चुनाव अभियान का हिस्सा थे।
आप के उदय और इस एहसास ने कि वह भारतीय राजनैतिक परिदृष्य से जल्द गायब होने वाली नहीं है, नागपुर में बैठे आरएसएस के शीर्ष नेताओं और मोदी की टीम ने अपनी रणनीति बदल ली। अब उनके निशाने पर आप है। सोशल मीडिया और मुंहजबानी प्रचार के जरिए केजरीवाल, प्रशांत भूषण व अन्यों पर कटु हमले बोले जा रहे हैं। प्रशांत भूषण के इस संतुलित वक्तव्य की कि कष्मीर में सेना की तैनाती के संबंध में वहां के लोगों की राय को महत्व दिया जाना चाहिए, पर भारी बवाल मचा दिया गया। हिंदू रक्षक सेना नामक संगठन, जिसे आप संघ-भाजपा से जुड़ा हुआ बताती है, ने आप के दफ्तर में तोड़फोड़ की। यह अलग बात है कि स्वयं केजरीवाल ने भी इस वक्तव्य से अपने आप को अलग कर लिया है। आप को मिले अनापेक्षित भारी जनसमर्थन ने धर्मनिरपेक्ष प्रजातांत्रिक ताकतों की इस आशंका को कुछ हद तक दूर किया है कि मोदी प्रधानमंत्री बन जाएंगे और उसके बाद देश में फासीवाद का युग शुरू होगा। केजरीवाल मोदी को किस हद तक रोक पाएंगे यह कहना मुष्किल है। दोनों ओर से विभिन्न कारक काम कर रहे हैं। आप की छवि में तेजी से आ रहे सुधार और उसके बारे में लोगों की बदलती सोच को संघ-भाजपा-मोदी चुपचाप नहीं देखेंगे। बड़े औद्योगिक घराने भी चाहते हैं कि मोदी सत्ता में आएं क्योंकि वे सरकारी खजाने का मुंह उनके लिए खोलने में जरा भी संकोच नहीं करते। औद्योगिक घरानो द्वारा नियंत्रित मीडिया भी वर्तमान में आप के समर्थन में बात कर रहा है।
सन् 1998 मंे जब भाजपा एक बार फिर सबसे बड़े दल के रूप में उभरी तब कुछ अवसरवादी राजनैतिक समूह अलग-अलग आधारों पर उसका समर्थन करने के लिए तैयार हो गए। सौभाग्यवश उस समय मोदी नहीं थे। सौभाग्यवष उस समय मोदी के दाहिने हाथ अमित शाह भी नहीं थे। सौभाग्यवश उस समय भाजपा की सीटें कम थीं और उसे आरएसएस के हिन्दू राष्ट्र के एजेन्डे को लागू करते हुए भी अपने गठबंधन के साथियों की इच्छा का सम्मान करना पड़ता था। इस बार यदि मोदी के नेतृत्व में भाजपा सबसे बड़े दल के रूप में उभरी तो समीकरण एकदम अलग होंगे। भाजपा के पास अब देश पर शासन करने का अनुभव है और मोदी के पास दुनियाभर की चालों का खजाना है। मोदी अब तक कानून के लंबे हाथों की पकड़ में नहीं आ सके हैं। उनकी गुजरात कत्लेआम में महत्वपूर्ण भूमिका थी। उनके शासनकाल में फर्जी मुठभ्ेाड़ें हुईं हैं, एक युवा लड़की की जासूसी की गई है और अब तीस्ता सीतलवाड और अन्य मानवाधिकार रक्षकों को फंसाने की तैयारी हो रही है। मोदी दूसरे भाजपा नेताओं से अलग हैं। अगर भाजपा सत्ता मंे आ गई तो मोदी के नेतृत्व में वह पहले से कहीं अधिक आक्रामक होगी और अपनी चलाएगी।
आप की राजनीति क्या है? किसी पार्टी की राजनीति उसकी कथनी, करनी व घोषणापत्रों आदि से पता चलती है। आप ने अपनी नीतियों के बारे में अभी तक कोई सुस्पष्ट दस्तावेज जारी नहीं किया है यद्यपि उसका एक दृष्टिपत्र अवष्य सामने आया है। आप का जन्म भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन से हुआ है। यह आंदोलन सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक व्यवस्था को लगे रोग पर केन्द्रित न होकर उसके लक्षण पर केन्द्रित था। इस आंदोलन का लक्ष्य व्यवस्था परिवर्तन नहीं था। जो पार्टियां सामाजिक परिवर्तन की हामी होती हैं और जिनका समाज के दबे-कुचले और वंचित वर्गों के लिए कोई एजेन्डा होता है वे सामान्यतः बेहतर व्यवस्था की स्थापना की चाह से उपजती हैं। उनकी सुविचारित नीतियां और कार्यक्रम होते हैं। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को ब्रिटिश औपनिवेशवाद से मुकाबला करना था और इसलिए उसने नवोदित भारतीय राष्ट्रवाद को स्वर दिया। भगतसिंह समाजवादी राज्य की स्थापना करना चाहते थे और उन्होंने हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन की स्थापना की। अम्बेडकर ने वंचित वर्गों के श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा के लिए इंडीपेन्डेन्ट लेबर पार्टी बनाई और बाद में रिपब्लिकन पार्टी आॅफ इंडिया की नींव रखी। मुस्लिम श्रेष्ठि वर्ग अपना अलग राष्ट्र चाहता था और उसने मुस्लिम लीग की स्थापना की। हिन्दू श्रेष्ठि वर्ग का एक हिस्सा हिन्दू राष्ट्र का स्वप्न देखता था और इसलिए आरएसएस और हिन्दू महासभा अस्तित्व में आए। हाल के वर्षों में सोशलिस्ट पार्टियां भी अस्तित्व में आईं हैं। आप इस अर्थ में एक अलग तरह का प्रयोग है। वह अभी राजनैतिक दल का स्वरूप ग्रहण ही कर रही है और शायद उसके नेतृत्व की यह सोच होगी की आंदोलनों और आत्मावलोकन के जरिए शनैः-शनैः पार्टी की विचारधारा विकसित हो जाएगी। अब तक तो कष्मीर के मुद्दे पर पार्टी ने अपने ही नेता की बात से किनारा कर लिया है- एक ऐसी बात से जो उस सोच को प्रतिबिंबित करती है जिसके आधार पर हम भारतीय राष्ट्र का निर्माण करना चाहते हैं। शिक्षा के मुद्दे पर आप की प्रस्तावित नीति क्षेत्रवादी है। कई गंभीर मुद्दों पर उसका दृष्टिपत्र चुप है। पार्टी के निर्माण का यह दौर चुनौतीपूर्ण है। मुख्य मुद्दा यह है कि क्या आप अपनी सतही सोच से ऊपर उठकर आर्थिक नीति, सामाजिक व लैंगिक न्याय आदि जैसे मुद्दों पर अपनी आवाज बुलंद करेगी। आप से लोगों की ढेरों अपेक्षाएं हैं। केवल समय ही बताएगा कि शुरूआती दौर की मुष्किलातों से उबरने के बाद पार्टी किस रास्ते पर आगे बढेगी।
-राम पुनिया
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