सांस्कृतिक साम्राज्यवाद
आज का नव उदारवादी भूमंडलीकरण एक नए ढंग का साम्राज्यवाद है । पुराना साम्राज्यवाद अपने विस्तार और उपनिवेशों में अपने स्थायीत्व के लिए संस्कृति का इस्तेमाल तो करता था , लेकिन वह मुख्य रूप से आर्थिक तथा राजनीतिक साम्राज्यवाद ही होता था । हालाँकि पुरानी साम्राज्यवादी शक्तियां दुसरे देशों में घुसने , उन पर कब्जा करने और लम्बे समय तक उन पर शासन करने के लिए संस्कृति को माध्यम बनाती थीं । फिर भी वे मुख्यतौर पर अपनी आर्थिक राजनितिक और सैनिक शक्ति पर निर्भर करती थीं । संस्कृति का इस्तेमाल वे अपनी संस्कृति को श्रेष्ठ या एकमात्र संस्कृति बताने के लिए , अपने उपनिवेशों को सांस्कृतिक दृष्टि से दरिद्र या पिछड़ा हुआ बताकर उन पर अपनी धाक ज़माने के लिए , उन पर अपने शासन को उचित और आवश्यक ठहराने के लिये , उन्हें मानसिक रूप से अपना दास बनाने के लिए , उनके प्रतिरोध को समाप्त या कमजोर करने के लिए , उनकी विभिन्न संस्कृतियों के बीच कायम सहयोग और सौहार्द की जगह पारस्परिक विद्वेष पैदा करने के लिए तथा उन्हें आपस में लड़ा कर अपना उलू सीधा करने के लिए करती थीं । इन सब बातों को हम भारतीय ब्रिटिश साम्राज्यवाद के अंतर्गत रहने के अपने अनुभव से अच्छी तरह जानते हैं । आज का साम्राज्यवाद भी संस्कृति का इस्तेमाल लगभग इसी तरह और प्रायः इन्हीं उदेश्यों के लिए करता है । फर्क यह है कि पहले का साम्राज्यवाद यह काम अपने उपनिवेशों में करता था , आज भूमंडलीय स्तर पर करता है ।
आज का साम्राज्यवाद अमरीकी नेतृत्व में सारी दुनिया को तथाकथित विकसित और समृद्ध देशों का उपनिवेश बनाना चाहने वाला नया साम्राज्यवाद है । उसकी इस इच्छा और तदनुरूप अपनाई गयी रीति नीति को ही हम भूमंडलीकरण के रूप में क्रियान्वित होते देख रहे हैं । पुराने साम्राज्यवाद के आर्थिक , राजनीतिक और सैनिक पक्ष उसके साँस्कृतिक पक्ष से जयादा प्रमुख होते थे । लेकिन आज उसका संस्कृतिक पक्ष उनसे अधिक महत्वपूर्ण नहीं तो कम से कम उनके बराबर का ही महत्व पूर्ण पक्ष बन गया है । आज की
साम्राज्यवादी शक्तियां अखिल भूमण्डल पर शासन करना तो चाहती हैं , लेकिन जानती हैं कि ऐसा कर पाने में वे केवल आर्थिक , राजनीतिक और सैनिक वर्चस्व के बल पर समर्थ नहीं हो सकती । इसके लिए उन्हें स्वयं को दुनिया के लिए सांस्कृतिक रूप से स्वीकार्य बनाना होगा । यही कारण है कि संस्कृति आज इतनी महत्वपूर्ण हो उठी है कि एक ओर सांस्कृतिक साम्राज्यवाद कायम करने की जी तोड़ कोशिशें की जा रही हैं, तो दूसरी ओर दुनिया भर में ऐसी कोशिशों का विरोध और प्रतिरोध किया जा रहा है ।
पुराने साम्राज्यवाद और आज के साम्राज्यवाद में एक बहुत बड़ा और महत्वपूर्ण फर्क यह है कि प्रोद्योगिकी के अभूतपूर्व विकास ने --- सामरिक प्रद्योगिकी के विकास से भी अधिक सूचना और संचार की प्रद्योगिकी के विकास ने -- तथा उस प्रद्योगिकी पर साम्राज्यवादी देशों के नियंत्रण ने दुनिया में एक ऐसी नयी परिस्थिति पैदा कर दी है कि संस्कृति स्वयं एक बहुत बड़ा भूमंडलीय उद्योग और व्यापार बन गयी है । प्रिंट मीडिया हों या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ,साहित्य हो या सिनेमा , ज्ञान और मनोरंजन के समस्त क्षेत्रों में सांस्कृतिक वर्चस्व की एक विश्व् व्यापी लड़ाई छिड़ गयी है । इस लड़ाई में "सब जायज है " और " सब चलता है " की नितांत अंधी और अनैतिक "नीति " के अधर पर सत्य को असत्य से , ज्ञान को अज्ञान से , सूचना को गलत सूचना से , प्रेम को घृणा से , मनुष्यता को बर्बरता से और संस्कृति को अपसंस्कृति से अपदस्थ किया जा रहा है । इस प्रकार संस्कृति साम्राज्यवाद के आर्थिक राजनीतिक तथा सैनिक पक्षों के साथ बहुत गहराई से और बहुत व्यापक रूप में जुड़ गयी है ।
अतः सांस्कृतिक साम्राज्यवाद आज की दुनिया में चिंता का एक बड़ा कारण तथा चिंतन का एक बड़ा विषय बन गया है । तथाकथित पहली दुनिया तथाकथित तीसरी दुनिया पर अपना सांस्कृतिक साम्राज्य कायम के लिए ज्ञान ,विज्ञानं ,कला , साहित्य ,सूचना और मनोरंजन के समस्त साधनों तथा माध्यमों का इस्तेमाल अत्याधुनिक प्रोद्योगिकी के साथ कर रही है । लेकिन तीसरी दुनिया भी हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठी है । उसमें सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के विरुद्ध प्रयास किये जा रहे हैं । हम भी सांस्कृतिक साम्राज्यवाद की चपेट में हैं , लेकिन हम भी उसके विरुद्ध संघर्ष कर रहे हैं । जाहिर है कि हमारे साधन सिमित हैं और इस दिशा में किये जाने वाले सचेत एवं सगठित प्रयासों का अभाव है । इस आभाव की पूर्ती के लिए जरूरी है कि हम सांस्कृतिक साम्राज्यवाद को समझें और इसके विरुद्ध जन चेतना जगाएं ।
आज का नव उदारवादी भूमंडलीकरण एक नए ढंग का साम्राज्यवाद है । पुराना साम्राज्यवाद अपने विस्तार और उपनिवेशों में अपने स्थायीत्व के लिए संस्कृति का इस्तेमाल तो करता था , लेकिन वह मुख्य रूप से आर्थिक तथा राजनीतिक साम्राज्यवाद ही होता था । हालाँकि पुरानी साम्राज्यवादी शक्तियां दुसरे देशों में घुसने , उन पर कब्जा करने और लम्बे समय तक उन पर शासन करने के लिए संस्कृति को माध्यम बनाती थीं । फिर भी वे मुख्यतौर पर अपनी आर्थिक राजनितिक और सैनिक शक्ति पर निर्भर करती थीं । संस्कृति का इस्तेमाल वे अपनी संस्कृति को श्रेष्ठ या एकमात्र संस्कृति बताने के लिए , अपने उपनिवेशों को सांस्कृतिक दृष्टि से दरिद्र या पिछड़ा हुआ बताकर उन पर अपनी धाक ज़माने के लिए , उन पर अपने शासन को उचित और आवश्यक ठहराने के लिये , उन्हें मानसिक रूप से अपना दास बनाने के लिए , उनके प्रतिरोध को समाप्त या कमजोर करने के लिए , उनकी विभिन्न संस्कृतियों के बीच कायम सहयोग और सौहार्द की जगह पारस्परिक विद्वेष पैदा करने के लिए तथा उन्हें आपस में लड़ा कर अपना उलू सीधा करने के लिए करती थीं । इन सब बातों को हम भारतीय ब्रिटिश साम्राज्यवाद के अंतर्गत रहने के अपने अनुभव से अच्छी तरह जानते हैं । आज का साम्राज्यवाद भी संस्कृति का इस्तेमाल लगभग इसी तरह और प्रायः इन्हीं उदेश्यों के लिए करता है । फर्क यह है कि पहले का साम्राज्यवाद यह काम अपने उपनिवेशों में करता था , आज भूमंडलीय स्तर पर करता है ।
आज का साम्राज्यवाद अमरीकी नेतृत्व में सारी दुनिया को तथाकथित विकसित और समृद्ध देशों का उपनिवेश बनाना चाहने वाला नया साम्राज्यवाद है । उसकी इस इच्छा और तदनुरूप अपनाई गयी रीति नीति को ही हम भूमंडलीकरण के रूप में क्रियान्वित होते देख रहे हैं । पुराने साम्राज्यवाद के आर्थिक , राजनीतिक और सैनिक पक्ष उसके साँस्कृतिक पक्ष से जयादा प्रमुख होते थे । लेकिन आज उसका संस्कृतिक पक्ष उनसे अधिक महत्वपूर्ण नहीं तो कम से कम उनके बराबर का ही महत्व पूर्ण पक्ष बन गया है । आज की
साम्राज्यवादी शक्तियां अखिल भूमण्डल पर शासन करना तो चाहती हैं , लेकिन जानती हैं कि ऐसा कर पाने में वे केवल आर्थिक , राजनीतिक और सैनिक वर्चस्व के बल पर समर्थ नहीं हो सकती । इसके लिए उन्हें स्वयं को दुनिया के लिए सांस्कृतिक रूप से स्वीकार्य बनाना होगा । यही कारण है कि संस्कृति आज इतनी महत्वपूर्ण हो उठी है कि एक ओर सांस्कृतिक साम्राज्यवाद कायम करने की जी तोड़ कोशिशें की जा रही हैं, तो दूसरी ओर दुनिया भर में ऐसी कोशिशों का विरोध और प्रतिरोध किया जा रहा है ।
पुराने साम्राज्यवाद और आज के साम्राज्यवाद में एक बहुत बड़ा और महत्वपूर्ण फर्क यह है कि प्रोद्योगिकी के अभूतपूर्व विकास ने --- सामरिक प्रद्योगिकी के विकास से भी अधिक सूचना और संचार की प्रद्योगिकी के विकास ने -- तथा उस प्रद्योगिकी पर साम्राज्यवादी देशों के नियंत्रण ने दुनिया में एक ऐसी नयी परिस्थिति पैदा कर दी है कि संस्कृति स्वयं एक बहुत बड़ा भूमंडलीय उद्योग और व्यापार बन गयी है । प्रिंट मीडिया हों या इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ,साहित्य हो या सिनेमा , ज्ञान और मनोरंजन के समस्त क्षेत्रों में सांस्कृतिक वर्चस्व की एक विश्व् व्यापी लड़ाई छिड़ गयी है । इस लड़ाई में "सब जायज है " और " सब चलता है " की नितांत अंधी और अनैतिक "नीति " के अधर पर सत्य को असत्य से , ज्ञान को अज्ञान से , सूचना को गलत सूचना से , प्रेम को घृणा से , मनुष्यता को बर्बरता से और संस्कृति को अपसंस्कृति से अपदस्थ किया जा रहा है । इस प्रकार संस्कृति साम्राज्यवाद के आर्थिक राजनीतिक तथा सैनिक पक्षों के साथ बहुत गहराई से और बहुत व्यापक रूप में जुड़ गयी है ।
अतः सांस्कृतिक साम्राज्यवाद आज की दुनिया में चिंता का एक बड़ा कारण तथा चिंतन का एक बड़ा विषय बन गया है । तथाकथित पहली दुनिया तथाकथित तीसरी दुनिया पर अपना सांस्कृतिक साम्राज्य कायम के लिए ज्ञान ,विज्ञानं ,कला , साहित्य ,सूचना और मनोरंजन के समस्त साधनों तथा माध्यमों का इस्तेमाल अत्याधुनिक प्रोद्योगिकी के साथ कर रही है । लेकिन तीसरी दुनिया भी हाथ पर हाथ धरे नहीं बैठी है । उसमें सांस्कृतिक साम्राज्यवाद के विरुद्ध प्रयास किये जा रहे हैं । हम भी सांस्कृतिक साम्राज्यवाद की चपेट में हैं , लेकिन हम भी उसके विरुद्ध संघर्ष कर रहे हैं । जाहिर है कि हमारे साधन सिमित हैं और इस दिशा में किये जाने वाले सचेत एवं सगठित प्रयासों का अभाव है । इस आभाव की पूर्ती के लिए जरूरी है कि हम सांस्कृतिक साम्राज्यवाद को समझें और इसके विरुद्ध जन चेतना जगाएं ।
No comments:
Post a Comment