Saturday, July 25, 2015

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देश में पहली बार पूर्ण बहुमत हासिल करने वाली भारतीय जनता पार्टी की सरकार बन चुकी है और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्राी पद पर क़ाबिज़ हो चुके हैं। ये कोई मामूली घटना नहीं है और इसे चुनाव में सिर्फ़ एक दल की हार और दूसरे की जीत के रूप में देखना ठीक नहीं होगा, क्योंकि इसने देश को ऐसे मोड़ पर ला खड़ा किया है जो उसे फासीवाद की आरे भी ढकले सकता है और  पूंजीवाद के नग्नतम रूप से उसका सामना भी करवा सकता है। अति दक्षिणपंथी राजनीति का इतना ताक़तवर होकर उभरना ख़तरनाक संकेत तो देता ही है, मगर ये इस बात का भी सबूत है कि बहुत सारी शक्तियां भी उसके साथ हैं जो उसे मज़बूती प्रदान कर रही हैं। इन शक्तियों में से एक मीडिया है और अब ये कोई छिपी हुई बात नहीं है। मीडिया ने इस आम चुनाव में एक अत्यधिक पक्षपातपूर्ण भूमिका निभाई और बड़ी निर्लज्जता के साथ निभाई। लेकिन मीडिया को अर्थव्यवस्था से अलग इकाई मानकर उसे कोसना तर्कसंगत नहीं है। ये ज़रूरी है कि उन शक्तियों की पहचान की जाये जो पीछे से उसका नियंत्रित -संचालित कर रही हैं  ताकि असली गुनाहगारों की शिनाख़्त की जा सके और उनसे ध्यान न हटे। वास्तव में सन् 2014 के चुनाव मीडिया के लिए कई तरह से महत्वपूर्ण रहे। पहली बार उसका चुनाव पर इतना व्यापक प्रभाव दिखा। ऐसा लगा मानो वही तय कर रहा हो कि किसकी सरकार बनेगी और कौन प्रधानमंत्राी होगा। चुनाव परिणाम साबित करते हैं कि सचमुच में उसकी भूमिका काफ़ी हद तक निर्णायक रही और उसने सबको अपना लोहा  मानने के लिए विवश कर दिया। ये मीडिया युग के आने आरै छा जाने का पम्राण है  लेिकन इससे भी बड़ी सर्चाइ यह है कि वह अब लोकतंत्र  के चौथे स्तंभ के रूप में, जैसा कि अकसर प्रचारित किया जाता है, जनता की इच्छाओं-आकांक्षाओं को अभिव्यक्त करने वाला उपकरण ही नहीं रह गया बल्कि जनमत के निर्माण का हथियार बन चुका है। उसने इतनी शक्ति प्राप्त कर ली है कि वह अब भावी प्रधानमंत्राी के निर्माण और स्थापना तक में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने लगा है। लेकिन उसकी ये बढ़ती ताक़त ढेर सारे प्रश्नों और आरोपों से घिरी हुई है। ये सवाल उसके चरित्रा और उदेश्यों  के सबंध  में उठे आरै पूरी  शिद्दत के साथ एक नही, सब तरफ़ से  उठाया गया है ।  इस बात का पम्राण ये है कि पहले सिर्फ़ कम्युनिस्ट पार्टियां ही मीडिया के पूंजीवादी शक्तियों के हाथों में खेलने और उनके पक्ष में पच्रारक की भूिमका निभाने का आरापे लगाती थी, जबकि इस बार लगभग सभी राजनीतिक दलों  ने उन्हीं की भाषा में मीडिया पर तीखे हमले किये। नवोदित आम आदमी पार्टी ने सबसे आक्रामक ढंग से मीडिया पर हमले करते हएु कहा कि वह कापार्रेटे जगत की कठपतुली  है ।  मीडिया के पक्षपाती व्यवहार से प्रभावित दूसरे दलों की भी यही शिकायत रही कि वह पैसे की ताक़त के सामने नतमस्तक हो गया है। जनता दल (यू) का तो यहां तक कहना था कि मीडिया अब पत्राकार नहीं, मालिक चला रहे हैं। आरै तो आरै कागंस्रे आरै बीजपेी ने भी, जो कि इस मीडिया का इस्तमेाल करके लाभ उठाती रही हैं  उस पर पक्षपात के आरोप जड़ दिये। बीजेपी की ओर से प्रधानमंत्राी पद के दावेदार नरेंद्र मोदी ने तो एक नया जुमला ही उछाल दिया न्यूज़ ट्रेडर का। उन्होंने अपने इंटरव्यू में पत्राकारों को सीधे-सीधे न्यूजट्रेडर यानी ख़बरों का कारोबारी कहा, जिसका एक मतलब तो ये है कि मीडिया बिकाऊ है और उसे ख़रीदा जा सकता है ।  निश्चय ही इस पदावली को उन्हानें  अपने अनुभव से  ही गढ़ा हागेा आरै उसका इस्तमेाल वे पत्राकारों का मुंह बंद करने के लिए कर रहे थे। लेकिन असली बात ये नहीं है बल्कि ये है कि मीडिया की न साख है आरै न धार, क्योंकि  वह न्यूज ट्रेडर  शब्द के इस्तमेाल पर र्काइे आपत्ति तक दर्ज नहैं करवा सका। ये उसके घटते आत्मविश्वास और गुलाम तथा आतंकित मानसिकता का भी परिचायक था। सवाल उठता है कि आखि़र ये नौबत क्यों आयी। उसकी हालत सड़क पर पड़े उस कुत्ते की तरह क्यों हो गयी जिसे हर आता-जाता लात मारकर आगे बढ़ जाता है। इसका जवाब जब हम ढूंढ़ने जायेंगे तो पायेंगे कि कहीं न कहीं इसकी तह में मीडिया का बदलता स्वामित्व है। मीडिया को चलानेवाली पूंजी और उस पूंजी को नियंत्रित करने वाले लोग तय कर रहे हैं कि मीडिया की भूमिका क्या होगी। अगर आम चनुाव का ही उदाहरण लें तो सोचना  चाहिए कि क्यों मीडिआ  की मोदी -भक्ति के  सदंर्भ में बार-बार कापार्रेटे जगत का नाम लिया जा रहा था। क्यों  यह कहा जा रहा था कि मीडिया अगर  मोदी  के अभियान का सक्रिय सहयोगी बन गया था तो इसकी वजह ये थी कि पूरा कार्पोरेट जगत चाहता था कि वे प्रधानमंत्राी बनें। वह कार्पोरेट जगत के एजेंडे को आगे बढ़ा रहा था, क्योंकि उसकी लगाम उसके हाथों में थी। अगर पिछले छह महीनों के मीडिया कंटेंट का अध्ययन किया जायेगा तो साफ़ हो जायेगा कि वह किस कदर मोदी के पक्ष में झुका हुआ था। सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज़ (सीएमएस) द्वारा जारी किये गये आकड़े  इसकी बानगी पेश  करते हैं ।  सीएमएस ने पाचं चनैला ंेक ेपा्रइम टाइम क ेकवरजे म ंेविभिन्न नतेाआ ंेकी हिस्सदेारी क ेआकंड़ ेदते ेहएु बताया कि राहलु गाध्ंाी क ेमकु़ाबल ेमादेी का ेपाचं गनुा अधिक कवरेज मिला जबकि अरविंद केजरीवाल की तुलना में ये अनुपात सात गुना था। हालांकि इन आंकड़ों में कंटेंट का रूप-रंग नज़र नहीं आता। अगर वह देखा जा सकता तो पता चलता कि मोदी का कवरेज किस कदर महिमागान से सराबोर था और उनके प्रतिद्वंद्वियों का दुराग्रहों से भरा हुआ। यही नहीं, इन पांच चैनलों में हिंदी के वे तीन कुख्यात चैनल शामिल ही नहीं थे जिन्होंने निर्लज्जता की तमाम सीमाएं लांघते हुए मोदी के प्रोपेगंडा का काम किया।देश में पहली बार पूर्ण बहुमत हासिल करने वाली भारतीय जनता पार्टी की सरकार बन चुकी है और नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्राी पद पर क़ाबिज़ हो चुके हैं। ये कोई मामूली घटना नहीं है और इसे चुनाव में सिर्फ़ एक दल की हार और दूसरे की जीत के रूप में देखना ठीक नहीं होगा, क्योंकि इसने देश को ऐसे मोड़ पर ला खड़ा किया है जो उस ेफासीवाद की आरे भी ढकले सकता ह ैआरै पजंूीवाद क ेनग्नतम रूप स ेउसका सामना भी करवा सकता है। अति दक्षिणपंथी राजनीति का इतना ताक़तवर होकर उभरना ख़तरनाक संकेत तो देता ही है, मगर ये इस बात का भी सबूत है कि बहुत सारी शक्तियां भी उसके साथ हैं जो उसे मज़बूती प्रदान कर रही हैं। इन शक्तियों में से एक मीडिया है और अब ये कोई छिपी हुई बात नहीं है। मीडिया ने इस आम चुनाव में एक अत्यधिक पक्षपातपूर्ण भूमिका निभाई और बड़ी निर्लज्जता के साथ निभाई। लेकिन मीडिया को अर्थव्यवस्था से अलग इकाई मानकर उसे कोसना तर्कसंगत नहीं है। ये ज़रूरी है कि उन शक्तियों की पहचान की जाये जो पीछे से उसका ेनियंित्रात-सचंालित कर रही ह,ैं ताकि असली गुनाहगारा ंेकी शिनाख़्त की जा सके और उनसे ध्यान न हटे। वास्तव में सन् 2014 के चुनाव मीडिया के लिए कई तरह से महत्वपूर्ण रहे। पहली बार उसका चुनाव पर इतना व्यापक प्रभाव दिखा। ऐसा लगा मानो वही तय कर रहा हो कि किसकी सरकार बनेगी और कौन प्रधानमंत्राी होगा। चुनाव परिणाम साबित करते हैं कि सचमुच में उसकी भूमिका काफ़ी हद तक निर्णायक रही और उसन ेसबका ेअपना लाहेा मानन ेक ेलिए विवश कर दिया। य ेमीडिया युग क ेआने आरै छा जान ेका पम्राण ह।ै लेिकन इसस ेभी बड़ी सर्चाइ य ेह ैकि वह अब लाकेतत्रंा के चौथे स्तंभ के रूप में, जैसा कि अकसर प्रचारित किया जाता है, जनता की इच्छाओं-आकांक्षाओं को अभिव्यक्त करने वाला उपकरण ही नहीं रह गया बल्कि जनमत के निर्माण का हथियार बन चुका है। उसने इतनी शक्ति प्राप्त कर ली है
नया पथ ❖ अप्रैल-सितंबर (संयुक्तांक): 2014 / 13
कि वह अब भावी प्रधानमंत्राी के निर्माण और स्थापना तक में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने लगा है। लेकिन उसकी ये बढ़ती ताक़त ढेर सारे प्रश्नों और आरोपों से घिरी हुई है। ये सवाल उसके चरित्रा और उद्दश्ेया ंेक ेसबंध्ंा म ंेउठ ेआरै परूी शिद्दत क ेसाथ एक नही,ं सब तरफ़ स ेउठाय ेगय।े इस बात का पम्राण ये है कि पहले सिर्फ़ कम्युनिस्ट पार्टियां ही मीडिया के पूंजीवादी शक्तियों के हाथों में खेलने और उनके पक्ष म ंेपच्रारक की भूिमका निभान ेका आरापे लगाती थी,ं जबकि इस बार लगभग सभी राजनीतिक दलांे ने उन्हीं की भाषा में मीडिया पर तीखे हमले किये। नवोदित आम आदमी पार्टी ने सबसे आक्रामक ढंग स ेमीडिया पर हमल ेकरत ेहएु कहा कि वह कापार्रेटे जगत की कठपतुली ह।ै मीडिया क ेपक्षपाती व्यवहार से प्रभावित दूसरे दलों की भी यही शिकायत रही कि वह पैसे की ताक़त के सामने नतमस्तक हो गया है। जनता दल (यू) का तो यहां तक कहना था कि मीडिया अब पत्राकार नहीं, मालिक चला रहे हैं। आरै ता ेआरै कागंस्रे आरै बीजपेी न ेभी, जा ेकि इस मीडिया का इस्तमेाल करक ेलाभ उठाती रही ह,ैं उस पर पक्षपात के आरोप जड़ दिये। बीजेपी की ओर से प्रधानमंत्राी पद के दावेदार नरेंद्र मोदी ने तो एक नया जुमला ही उछाल दिया न्यूज़ ट्रेडर का। उन्होंने अपने इंटरव्यू में पत्राकारों को सीधे-सीधे न्यूजट्रेडर यानी ख़बरों का कारोबारी कहा, जिसका एक मतलब तो ये है कि मीडिया बिकाऊ है और उसे ख़रीदा जा सकता ह।ै निश्चय ही इस पदावली का ेउन्हानंे ेअपन ेअनभ्ुावा ंेस ेही गढ़ा हागेा आरै उसका इस्तमेाल वे पत्राकारों का मुंह बंद करने के लिए कर रहे थे। लेकिन असली बात ये नहीं है बल्कि ये है कि मीडिया की न साख ह ैआरै न धार, क्यांिेक वह न्यजूटडेªर शब्द क ेइस्तमेाल पर र्काइे आपत्ति तक दर्ज नही ंकरवा सका। ये उसके घटते आत्मविश्वास और गुलाम तथा आतंकित मानसिकता का भी परिचायक था। सवाल उठता है कि आखि़र ये नौबत क्यों आयी। उसकी हालत सड़क पर पड़े उस कुत्ते की तरह क्यों हो गयी जिसे हर आता-जाता लात मारकर आगे बढ़ जाता है। इसका जवाब जब हम ढूंढ़ने जायेंगे तो पायेंगे कि कहीं न कहीं इसकी तह में मीडिया का बदलता स्वामित्व है। मीडिया को चलानेवाली पूंजी और उस पूंजी को नियंत्रित करने वाले लोग तय कर रहे हैं कि मीडिया की भूमिका क्या होगी। अगर आम चनुाव का ही उदाहरण ल ंेता ेसाचेना चाहिए कि क्या ंेमीडिया की मादेी-भक्ति क ेसदंर्भ म ंेबार-बार कापार्रेटे जगत का नाम लिया जा रहा था। क्या ंेय ेकहा जा रहा था कि मीडिया अगर मादेी क ेअभियान का सक्रिय सहयोगी बन गया था तो इसकी वजह ये थी कि पूरा कार्पोरेट जगत चाहता था कि वे प्रधानमंत्राी बनें। वह कार्पोरेट जगत के एजेंडे को आगे बढ़ा रहा था, क्योंकि उसकी लगाम उसके हाथों में थी। अगर पिछले छह महीनों के मीडिया कंटेंट का अध्ययन किया जायेगा तो साफ़ हो जायेगा कि वह किस कदर मोदी के पक्ष में झुका हुआ था। सेंटर फॉर मीडिया स्टडीज़ (सीएमएस) द्वारा जारी किये गय ेआकंड़ ेइसकी बानगी पश्ेा करत ेह।ैं सीएमएस न ेपाचं चनैला ंेक ेपा्रइम टाइम क ेकवरजे म ंेविभिन्न नतेाआ ंेकी हिस्सदेारी क ेआकंड़ ेदते ेहएु बताया कि राहलु गाध्ंाी क ेमकु़ाबल ेमादेी का ेपाचं गनुा अधिक कवरेज मिला जबकि अरविंद केजरीवाल की तुलना में ये अनुपात सात गुना था। हालांकि इन आंकड़ों में कंटेंट का रूप-रंग नज़र नहीं आता। अगर वह देखा जा सकता तो पता चलता कि मोदी का कवरेज किस कदर महिमागान से सराबोर था और उनके प्रतिद्वंद्वियों का दुराग्रहों से भरा हुआ। यही नहीं, इन पांच चैनलों में हिंदी के वे तीन कुख्यात चैनल शामिल ही नहीं थे जिन्होंने निर्लज्जता की तमाम सीमाएं लांघते हुए मोदी के प्रोपेगंडा का काम किया।

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