आत्मसंघर्ष और निर्णय की घोषणा का सवाल!
by Girijesh Tiwari on Monday, April 30, 2012 at 10:31pm ·
प्रिय मित्र, अभी तक जिन्दगी को जितना मैं समझ सका हूँ, उसके आधार पर कह सकता हूँ कि किशोरावस्था में हर आदमी अपने लिये एक आदर्श चुनता है, एक लक्ष्य निर्धारित करता है, एक सपना देखता है और उस सपने को पूरा करने के लिये अपनी पूरी ताकत लगाता है. जीवन के निर्धारित लक्ष्य के आधार पर मनुष्य की गतिविधियों और उसकी खुशी का आधार बनता और बदलता है. अधिकतर नौजवानों का लक्ष्य होता है नौकरी करना, कुछ का बिजनेस करना, मगर कुछ तो ऐसे होते ही हैं, जिनका लक्ष्य होता है मानवता की सेवा करना.
पढ़ने का अवसर वर्तमान व्यवस्था में केवल दस पन्द्रह प्रतिशत नौजवानों की किस्मत में ही है. बाकी तो पढाई से ही षड्यंत्रपूर्वक वंचित कर दिए जाते हैं. जो पढ पाते हैं, उनमें से नौकरी की कामना से पढ़ने वाले नौकरी पाने के बाद पढ़ना बन्द कर देते हैं. बिजनेस खड़ा करने के बाद तो कोई बिजनेसमैन पढता ही नहीं. मगर जिनका लक्ष्य मानवता की सेवा करना होता है, वे जीवन और जगत की गहराई और विविधता को जानने-समझने और आत्मसात करने की कामना से सतत सीखते रहना चाहते है और वे ही अनवरत पढते हैं. केवल वे ही हैं, जो आजीवन पढते रह सकते हैं. ज्ञान के समुद्र की गहराई में उतर कर उनको आनन्द मिलता है. सीखने के दौरान और भी अधिक सीखने की भूख उनमें बढती जाती है. जैसे-जैसे उनको अपनी सीमा का एहसास होता चला जाता है, वैसे-वैसे उनमे लगातार विनम्रता का विकास होता जाता है.
नौकर को तब खुशी मिलती है, जब उसकी तरक्की होती है या वेतन बढ़ता है. बिजनेसमैन को तब खुशी होती है, जब उसकी दूकान चमकती है या व्यापार फैलता है. इन दोनों को अपना लक्ष्य हासिल करने के लिये दूसरों के कन्धों पर पैर रख कर ऊपर चढ़ना पड़ता है. और इस प्रवृत्ति के चलते उनका अमानवीयकरण होता चला जाता है और धीरे-धीरे वे छुद्र और कुटिल मानसिकता के शिकार हो जाते हैं. जब दूसरे पीछे छूटेंगे, तभी एक कोई आगे बढ़ सकता है. जब कई लोगों के बिजनेस बर्बाद होंगे, तभी एक का साम्राज्य खड़ा हो सकता है. 'शिकार करो या शिकार हो जाओ' का तर्क उनकी गति को निर्धारित करता है. और अंततः वे अपने मूल मानवीय सद्गुणों से वंचित होते चले जाते है. और उनका व्यक्तित्व मानवताविरोधी मनोवृत्तियों वाला प्रतिनिधि चरित्र बन जाता है.
वहीँ दूसरों की सेवा करने की कामना से परिचालित होने वाले इन्सान को कल्पना में भी किसी का नुकसान करने में दिलचस्पी नहीं हो सकती. उसकी दिलचस्पी तो दूसरों को सफल बनाने में रहेगी. दूसरों को सुख पहुँचाने में ही उसे सुख महसूस होगा. दूसरों को संतुष्ट करने में ही उसे संतोष मिलेगा. उसकी हर एक गतिविधि का आधार मानवता की भलाई ही होता है. वह पूरी तरह से सरल और सहज होता है. वह किसी का भी शत्रु नहीं होता. किसी भी तरह की कुण्ठा की कोई गुन्जाइश उसके मनो-मस्तिष्क के भीतर नहीं होती. वह अपने कामों से संतुष्ट रहता है. अपनी भूमिका पर गौरव करता है. अलग-अलग परिस्थितियों में अलग-अलग लोगों के लिये उसके द्वारा किये जाने वाले प्रयासों का स्तर और मात्रा अलग-अलग हो सकती है और होती भी है. उसकी उपलब्धियाँ कम या अधिक हो सकती हैं और होती भी हैं. मगर हर बार उसके लिये उसकी अपनी कोशिश में एक अदभुत तृप्तिदायक आनंद बना रहता है.
इस तरह से तीन कोटि के मनुष्य हो गये - सर्वेन्ट, बिजनेसमैन और जेंटिलमैन. जेंटिलमैन इन सबमे सबसे बेहतर होता है और चूँकि वह लोगों के लिये संघर्ष करता है, लोगों की सेवा करता है, इसलिए लोग हैं जो उसे ग्रेटमैन कहने लगते हैं. जेंटिलमैन किसी भी आदमी को खुद को बनाना होता है. ग्रेटमैन आदमी को दूसरे लोग बनाते हैं. किसी को भी खुद को ग्रेटमैन बनाने के लिये कुछ भी नहीं करना पड़ता. अब चूँकि जेंटिलमैन संख्या में कम हो पाते हैं. इसलिए दूसरी दोनों कोटियों के व्यक्ति उनको अपने जैसा न पाकर और अपने को उनके धरातल पर पहुँच पाने में अक्षम देख कर उनको अपने से भिन्न कोटि का मनुष्य मानते हैं. वे उनको ईर्ष्या और श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं. वे उनकी प्रशंसा तो करते ही हैं मगर वे उनकी आलोचना भी करते हैं. वे सचेत तौर पर उनको अलग-थलग करते रहते हैं. उनसे दूर रह कर ही वे अपने ताल-तिकडम में लग सकते हैं.
इस तरह जेंटिलमैन को अलगाव का शिकार होना पड़ता है. उसे मुक्तिबोध के शब्दों में "बबूल के असंगपन" से समझौता करना पड़ता है. अकेले होने की यंत्रणा झेलनी पड़ती है. यही अकेलापन उसके अवसाद का आधार बनता है. उसे अपने आप से लगातार लड़ते रहना पड़ता है. ऐसे में उसके अन्दर से भी प्रतिक्रिया उगती है. प्रतिवाद करने की आतुरता में वह अपने सम्बन्धों को झटक कर तोड़ देना चाहता है. और कई बार इस निष्कर्ष तक जा पहुँचता है कि उसे ऐसे लोगों के साथ सम्बन्धों में नहीं जीना है, जो उसकी सम्वेदना को समझ ही नहीं सकते या उसे अव्यावहारिक और मूर्ख मानते हैं. यह निष्कर्ष कई बार निर्णय का रूप ले लेता है. मगर इस निर्णय की घोषणा उसको कमज़ोर करती है. मुक्ति का प्रयास, शान्ति की चाहत में सम्बन्धों को तोड़ने के निर्णय तक जब जा पहुँचता है, तो ऐसा निर्णय सम्बन्धों के निर्वाह की अक्षमता का द्योतक होता है.
बहुत बाद में आगे चल कर, तब जब सबकुछ समाप्त हो चुका होता है, अपनी असहिष्णुता से केवल एक ही बात समझ में आती है कि अभी सामने वाले की सीमाओं की पूरी पहिचान हो नहीं पाई है. उसकी विकासयात्रा के प्रति मन में आक्रोश और क्षोभ है. यह क्षोभ आतुरता का द्योतक है. ऐसे निर्णय की घोषणा के बाद अलगाव और अवसाद घटता नहीं, बल्कि और अधिक बढ़ जाता है. सम्बन्धों के बन्धनों से मुक्ति मिलने के बजाय अपने खुद के व्यक्तित्व के बन्धन और भी तीखे हो कर गड़ने लगते हैं. दूसरों के आचरण के प्रति क्षोभ अंततः अपने खुद के और अधिक अकेले हो जाने की पीड़ा बन जाता है. और फिर अकेले-अकेले किसी का भी विकास असंभव है, किसी की भी मुक्ति असंभव है. विकास के लिये संघर्ष और मुक्ति के लिये सहभागिता की ज़रूरत है. और दोनों ही के लिये लोगों की ज़रूरत है. फिर वे लोग ही, जो सबसे नज़दीक हैं, झटक कर सबसे दूर क्यों फेंके जायें! इसलिए आतुरता में आत्म-संघर्ष के सार-संकलन की घोषणा करने के पहले खूब अच्छी तरह सोच-विचार करना बेहतर होता है. अन्यथा केवल घनीभूत पश्चाताप हाथ लगता है. - गिरिजेश तिवारी, अप्रैल का आखिरी दिन.
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