खरी खोटी
रणबीर
सामाजिक न्याय को परिभाषित करना मुश्किल काम सै। सामाजिक न्याय का मतलब सै अक समाज मैं सारे माणसां नै चाहे वे स्त्री हों या पुरुष हों, इस धर्म के हों या उस धर्म के हों,इस जाति के हों या उस जाति के हों—सबको समान रूप तैं जीने का अर अपना विकास करने का मौका मिलना चाहिये। ऐसा तभी हो सकै सै जब समाज मैं वर्ग-भेद समाप्त हो, मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण समाप्त हो। शायद 1935 मैं इस शब्द का इस्तेमाल करया गया जब संयुक्त राष्ट्र्र मैं संयुक्त राष्ट्र्र सामाजिक सुरक्षा अधिनियम पास करया गया। बेरोजगारी, बीमारी, शिक्षा, लैंगिक समानता, वृद्धावस्था के लिए बीमा आदि मुद्दे शामिल करे गये थे। 1938 मैं न्यूजीलैंड मैं प्रयोग हुआ तथा वृहद सामाजिक सुरक्षा पद्धति का विकास करया गया। आर्थिक विकास के साथ-साथ मानव विकास अर राष्ट्र्र विकास को भी शामिल किया गया। इसकी अलग-अलग अवधारणाएं आज भी मौजूद सैं। दलितों, स्त्रियों, आदिवासियों, गरीब सवर्णों आदि को विभिन्न प्रकार के आरक्षण देकर उन्हें सामाजिक अन्याय से बचाया जा सकता है। लेकिन क्या या समझ सही सै? क्या वास्तव मैं सामाजिक न्याय की मांग पूरी नहीं हो सकदी जब तक वर्ग, वर्ण, जाति, लिंग, धर्म, सम्प्रदाय इत्यादि के आधार पर करे जाने वाले भेदभाव को समाप्त न किया जाए? सवाल यो भी सै अक के वर्तमान व्यवस्था को कायम रखते हुए लोगों को सामाजिक न्याय उपलब्ध करवाया जा सकै सै? क्या यो जरूरी नहीं अक वर्तमान समाज व्यवस्था को बदलकर बराबरी अर भाईचारे आली इसी न्यायपूर्ण समाज व्यवस्था कायम करी जावै जिसमैं किसी के द्वारा किसी का दमन और उत्पीडऩ न हो? फेर सवाल उठै सै अक के यो सम्भव सै? जै हां तो क्यूकर? अन्याय का विरोध और न्याय की मांग असल मैं वोहे कर सकै सै जो या बात जानै सै अक न्याय के सै? सामाजिक न्याय असल मैं के सै इस बात को सही परिप्रेक्ष्य मैं समझना बहुत जरूरी सै। एक कान्ही यो सवाल देश की सभ्यता और संस्कृति से जुड़ा हुआ है तो दूसरी तरफ किसी देश की अर्थव्यवस्था और संवैधानिक व्यवस्था से भी गहन रूप से जुड़ता है। क्या दलितों को सवर्णों के विरुद्ध, पिछड़ों को अगड़ों के विरुद्ध, स्त्रियों को पुरुषों के विरुद्ध, एक धर्म सम्प्रदाय को दूसरे धर्म सम्प्रदाय के विरुद्ध लोगों को लड़ाकर किसी न्यायपूर्ण समाज व्यवस्था की स्थापना की जा सकती है? नहीं तो वर्तमान को सही-सही विश्लेषित करना बहुत जरूरी हो जाता है। आज का दौर समझना बहुत जरुरी है। वर्तमान में भूमंडलीकरण, उदारीकरण तथा निजीकरण की पूंजीवादी प्रक्रियाओं के चलते हमारे देश पर एक तरफ माओवाद का खतरा मंडरावण लागरया सै तो दूसरी तरफ धर्म अर संस्कृति के नाम पर सामाजिक न्याय की पुरानी व्यवस्थाओं को मजबूत बनाने वाली फासीवादी शक्तियों का प्रभाव बढ़ रहा है। इसके विरुद्ध एक स्वस्थ, प्रगतिशील, धर्मनिरपेक्ष तथा जनतांत्रिक राष्ट्रवाद को अपनाना हमारे लिए जरूरी हो गया है क्योंकि नवसाम्राज्यवादी और नवफासीवादी शक्तियों की मार अंतत: उन्हीं लोगों पर पडऩी है जो सामाजिक अन्याय के शिकार हैं। मगर यही ताकतें धर्म, सम्प्रदाय, वर्ण, जाति, रंग, लिंग, नस्ल, भाषा अर क्षेत्र के आधार पर लोगां नैं बांटण अर जनता नै एकजुट न होवण देवण मैं कामयाब होरी सैं। इसी हालत मैं सामाजिक न्याय की खातर करे जाने आले संघर्ष का इसा कौन-सा रूप हो सकै सै जो देश नै बाहरी गुलामी तै अर जनता नै भीतरी अन्याय तै बचा सकै? बड़ा अर जटिल सवाल सै। भारत मैं सामाजिक न्याय की बात करण आले बहोत से लोग वर्ग की बात कोन्या करते बल्कि वर्ण की बात करैं सैं। ये वर्ण व्यवस्था नै सामाजिक अन्याय का मूल कारण समझैं सैं। ये ऊंची जातियों के खिलाफ नीची जातियों की राजनीति की बात करें सैं। यह तो विडम्बना ही है कि ऊंची जाति के लोग यह समझते हैं कि उन्हें दलित को नीचा समझने का हक सै। उनकी इस दुर्भावना को दूर करना बहुत जरूरी सै। क्यूकर? फेर मुश्किल जगह सै। मूल सवाल यो सै अक हमनै जातिवाद को दूर करना सै अक जारी रखना सै? जातिवादी राजनीति तै तो यो खत्म होवण तै रहया। इसनै खत्म करण की खातिर जाति के आधार पर नहीं हमनै वर्ग के आधार पर संगठित होना बहोत जरुरी सै। अनेक देशां का अनुभव बतावै सै अक जिब ताहिं गरीब किसान और खेत मजदूर मिलकर संघर्ष नहीं करते तब तक दोनूआं की दशाओं मैं मूलभूत परिवर्तन सम्भव नहीं सै। कुछ लोग न्यों भी कहवैं सैं अक सामाजिक न्याय का नारा सामाजिक अन्याय नै जारी राखण की खातर दिया गया सै। समाज के जै वे लोग जिन-जिन के खिलाफ अन्याय होरया सै वे मिलकै लड़ैं तो सामाजिक न्याय का नारा अन्याय को बनाए रखने का काम नहीं करैगा। हरियाण ज्ञान विज्ञान समिति द्वारा चलाया जा रहया समाज सुधार आन्दोलन नये नवजागरण के विचार से लैस होकर इस काम मैं जुटरया सै। समाज के सब तबकों खासकर आधारभूत तबकों को शामिल करके इस तरफ कदम बढ़ाये जा रहे हैं। आप भी साथ दें। ‘दूसरी दुनिया सम्भव सै’ का विचार आपके सहयोग तै आगै बढ़ सकै सै।
सामाजिक न्याय को परिभाषित करना मुश्किल काम सै। सामाजिक न्याय का मतलब सै अक समाज मैं सारे माणसां नै चाहे वे स्त्री हों या पुरुष हों, इस धर्म के हों या उस धर्म के हों,इस जाति के हों या उस जाति के हों—सबको समान रूप तैं जीने का अर अपना विकास करने का मौका मिलना चाहिये। ऐसा तभी हो सकै सै जब समाज मैं वर्ग-भेद समाप्त हो, मनुष्य द्वारा मनुष्य का शोषण समाप्त हो। शायद 1935 मैं इस शब्द का इस्तेमाल करया गया जब संयुक्त राष्ट्र्र मैं संयुक्त राष्ट्र्र सामाजिक सुरक्षा अधिनियम पास करया गया। बेरोजगारी, बीमारी, शिक्षा, लैंगिक समानता, वृद्धावस्था के लिए बीमा आदि मुद्दे शामिल करे गये थे। 1938 मैं न्यूजीलैंड मैं प्रयोग हुआ तथा वृहद सामाजिक सुरक्षा पद्धति का विकास करया गया। आर्थिक विकास के साथ-साथ मानव विकास अर राष्ट्र्र विकास को भी शामिल किया गया। इसकी अलग-अलग अवधारणाएं आज भी मौजूद सैं। दलितों, स्त्रियों, आदिवासियों, गरीब सवर्णों आदि को विभिन्न प्रकार के आरक्षण देकर उन्हें सामाजिक अन्याय से बचाया जा सकता है। लेकिन क्या या समझ सही सै? क्या वास्तव मैं सामाजिक न्याय की मांग पूरी नहीं हो सकदी जब तक वर्ग, वर्ण, जाति, लिंग, धर्म, सम्प्रदाय इत्यादि के आधार पर करे जाने वाले भेदभाव को समाप्त न किया जाए? सवाल यो भी सै अक के वर्तमान व्यवस्था को कायम रखते हुए लोगों को सामाजिक न्याय उपलब्ध करवाया जा सकै सै? क्या यो जरूरी नहीं अक वर्तमान समाज व्यवस्था को बदलकर बराबरी अर भाईचारे आली इसी न्यायपूर्ण समाज व्यवस्था कायम करी जावै जिसमैं किसी के द्वारा किसी का दमन और उत्पीडऩ न हो? फेर सवाल उठै सै अक के यो सम्भव सै? जै हां तो क्यूकर? अन्याय का विरोध और न्याय की मांग असल मैं वोहे कर सकै सै जो या बात जानै सै अक न्याय के सै? सामाजिक न्याय असल मैं के सै इस बात को सही परिप्रेक्ष्य मैं समझना बहुत जरूरी सै। एक कान्ही यो सवाल देश की सभ्यता और संस्कृति से जुड़ा हुआ है तो दूसरी तरफ किसी देश की अर्थव्यवस्था और संवैधानिक व्यवस्था से भी गहन रूप से जुड़ता है। क्या दलितों को सवर्णों के विरुद्ध, पिछड़ों को अगड़ों के विरुद्ध, स्त्रियों को पुरुषों के विरुद्ध, एक धर्म सम्प्रदाय को दूसरे धर्म सम्प्रदाय के विरुद्ध लोगों को लड़ाकर किसी न्यायपूर्ण समाज व्यवस्था की स्थापना की जा सकती है? नहीं तो वर्तमान को सही-सही विश्लेषित करना बहुत जरूरी हो जाता है। आज का दौर समझना बहुत जरुरी है। वर्तमान में भूमंडलीकरण, उदारीकरण तथा निजीकरण की पूंजीवादी प्रक्रियाओं के चलते हमारे देश पर एक तरफ माओवाद का खतरा मंडरावण लागरया सै तो दूसरी तरफ धर्म अर संस्कृति के नाम पर सामाजिक न्याय की पुरानी व्यवस्थाओं को मजबूत बनाने वाली फासीवादी शक्तियों का प्रभाव बढ़ रहा है। इसके विरुद्ध एक स्वस्थ, प्रगतिशील, धर्मनिरपेक्ष तथा जनतांत्रिक राष्ट्रवाद को अपनाना हमारे लिए जरूरी हो गया है क्योंकि नवसाम्राज्यवादी और नवफासीवादी शक्तियों की मार अंतत: उन्हीं लोगों पर पडऩी है जो सामाजिक अन्याय के शिकार हैं। मगर यही ताकतें धर्म, सम्प्रदाय, वर्ण, जाति, रंग, लिंग, नस्ल, भाषा अर क्षेत्र के आधार पर लोगां नैं बांटण अर जनता नै एकजुट न होवण देवण मैं कामयाब होरी सैं। इसी हालत मैं सामाजिक न्याय की खातर करे जाने आले संघर्ष का इसा कौन-सा रूप हो सकै सै जो देश नै बाहरी गुलामी तै अर जनता नै भीतरी अन्याय तै बचा सकै? बड़ा अर जटिल सवाल सै। भारत मैं सामाजिक न्याय की बात करण आले बहोत से लोग वर्ग की बात कोन्या करते बल्कि वर्ण की बात करैं सैं। ये वर्ण व्यवस्था नै सामाजिक अन्याय का मूल कारण समझैं सैं। ये ऊंची जातियों के खिलाफ नीची जातियों की राजनीति की बात करें सैं। यह तो विडम्बना ही है कि ऊंची जाति के लोग यह समझते हैं कि उन्हें दलित को नीचा समझने का हक सै। उनकी इस दुर्भावना को दूर करना बहुत जरूरी सै। क्यूकर? फेर मुश्किल जगह सै। मूल सवाल यो सै अक हमनै जातिवाद को दूर करना सै अक जारी रखना सै? जातिवादी राजनीति तै तो यो खत्म होवण तै रहया। इसनै खत्म करण की खातिर जाति के आधार पर नहीं हमनै वर्ग के आधार पर संगठित होना बहोत जरुरी सै। अनेक देशां का अनुभव बतावै सै अक जिब ताहिं गरीब किसान और खेत मजदूर मिलकर संघर्ष नहीं करते तब तक दोनूआं की दशाओं मैं मूलभूत परिवर्तन सम्भव नहीं सै। कुछ लोग न्यों भी कहवैं सैं अक सामाजिक न्याय का नारा सामाजिक अन्याय नै जारी राखण की खातर दिया गया सै। समाज के जै वे लोग जिन-जिन के खिलाफ अन्याय होरया सै वे मिलकै लड़ैं तो सामाजिक न्याय का नारा अन्याय को बनाए रखने का काम नहीं करैगा। हरियाण ज्ञान विज्ञान समिति द्वारा चलाया जा रहया समाज सुधार आन्दोलन नये नवजागरण के विचार से लैस होकर इस काम मैं जुटरया सै। समाज के सब तबकों खासकर आधारभूत तबकों को शामिल करके इस तरफ कदम बढ़ाये जा रहे हैं। आप भी साथ दें। ‘दूसरी दुनिया सम्भव सै’ का विचार आपके सहयोग तै आगै बढ़ सकै सै।
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