Monday, April 30, 2012

आत्मसंघर्ष और निर्णय की घोषणा का सवाल!


आत्मसंघर्ष और निर्णय की घोषणा का सवाल!

by Girijesh Tiwari on Monday, April 30, 2012 at 10:31pm ·
प्रिय मित्र, अभी तक जिन्दगी को जितना मैं समझ सका हूँ, उसके आधार पर कह सकता हूँ कि किशोरावस्था में हर आदमी अपने लिये एक आदर्श चुनता है, एक लक्ष्य निर्धारित करता है, एक सपना देखता है और उस सपने को पूरा करने के लिये अपनी पूरी ताकत लगाता है. जीवन के निर्धारित लक्ष्य के आधार पर मनुष्य की गतिविधियों और उसकी खुशी का आधार बनता और बदलता है. अधिकतर नौजवानों का लक्ष्य होता है नौकरी करना, कुछ का बिजनेस करना, मगर कुछ तो ऐसे होते ही हैं, जिनका लक्ष्य होता है मानवता की सेवा करना.

पढ़ने का अवसर वर्तमान व्यवस्था में केवल दस पन्द्रह प्रतिशत नौजवानों की किस्मत में ही है. बाकी तो पढाई से ही षड्यंत्रपूर्वक वंचित कर दिए जाते हैं. जो पढ पाते हैं, उनमें से नौकरी की कामना से पढ़ने वाले नौकरी पाने के बाद पढ़ना बन्द कर देते हैं. बिजनेस खड़ा करने के बाद तो कोई बिजनेसमैन पढता ही नहीं. मगर जिनका लक्ष्य मानवता की सेवा करना होता है, वे जीवन और जगत की गहराई और विविधता को जानने-समझने और आत्मसात करने की कामना से सतत सीखते रहना चाहते है और वे ही अनवरत पढते हैं. केवल वे ही हैं, जो आजीवन पढते रह सकते हैं. ज्ञान के समुद्र की गहराई में उतर कर उनको आनन्द मिलता है. सीखने के दौरान और भी अधिक सीखने की भूख उनमें बढती जाती है. जैसे-जैसे उनको अपनी सीमा का एहसास होता चला जाता है, वैसे-वैसे उनमे लगातार विनम्रता का विकास होता जाता है.

नौकर को तब खुशी मिलती है, जब उसकी तरक्की होती है या वेतन बढ़ता है. बिजनेसमैन को तब खुशी होती है, जब उसकी दूकान चमकती है या व्यापार फैलता है. इन दोनों को अपना लक्ष्य हासिल करने के लिये दूसरों के कन्धों पर पैर रख कर ऊपर चढ़ना पड़ता है. और इस प्रवृत्ति के चलते उनका अमानवीयकरण होता चला जाता है और धीरे-धीरे वे छुद्र और कुटिल मानसिकता के शिकार हो जाते हैं. जब दूसरे पीछे छूटेंगे, तभी एक कोई आगे बढ़ सकता है. जब कई लोगों के बिजनेस बर्बाद होंगे, तभी एक का साम्राज्य खड़ा हो सकता है. 'शिकार करो या शिकार हो जाओ' का तर्क उनकी गति को निर्धारित करता है. और अंततः वे अपने मूल मानवीय सद्गुणों से वंचित होते चले जाते है. और उनका व्यक्तित्व मानवताविरोधी मनोवृत्तियों वाला प्रतिनिधि चरित्र बन जाता है. 

वहीँ दूसरों की सेवा करने की कामना से परिचालित होने वाले इन्सान को कल्पना में भी किसी का नुकसान करने में दिलचस्पी नहीं हो सकती. उसकी दिलचस्पी तो दूसरों को सफल बनाने में रहेगी. दूसरों को सुख पहुँचाने में ही उसे सुख महसूस होगा. दूसरों को संतुष्ट करने में ही उसे संतोष मिलेगा. उसकी हर एक गतिविधि का आधार मानवता की भलाई ही होता है. वह पूरी तरह से सरल और सहज होता है. वह किसी का भी शत्रु नहीं होता. किसी भी तरह की कुण्ठा की कोई गुन्जाइश उसके मनो-मस्तिष्क के भीतर नहीं होती. वह अपने कामों से संतुष्ट रहता है. अपनी भूमिका पर गौरव करता है. अलग-अलग परिस्थितियों में अलग-अलग लोगों के लिये उसके द्वारा किये जाने वाले प्रयासों का स्तर और मात्रा अलग-अलग हो सकती है और होती भी है. उसकी उपलब्धियाँ कम या अधिक हो सकती हैं और होती भी हैं. मगर हर बार उसके लिये उसकी अपनी कोशिश में एक अदभुत तृप्तिदायक आनंद बना रहता है.

इस तरह से तीन कोटि के मनुष्य हो गये - सर्वेन्ट, बिजनेसमैन और जेंटिलमैन. जेंटिलमैन इन सबमे सबसे बेहतर होता है और चूँकि वह लोगों के लिये संघर्ष करता है, लोगों की सेवा करता है, इसलिए लोग हैं जो उसे ग्रेटमैन कहने लगते हैं. जेंटिलमैन किसी भी आदमी को खुद को बनाना होता है. ग्रेटमैन आदमी को दूसरे लोग बनाते हैं. किसी को भी खुद को ग्रेटमैन बनाने के लिये कुछ भी नहीं करना पड़ता.  अब चूँकि जेंटिलमैन संख्या में कम हो पाते हैं. इसलिए दूसरी दोनों कोटियों के व्यक्ति उनको अपने जैसा न  पाकर और अपने को उनके धरातल पर पहुँच पाने में अक्षम देख कर उनको अपने से भिन्न कोटि का मनुष्य मानते हैं. वे उनको ईर्ष्या और श्रद्धा की दृष्टि से देखते हैं. वे उनकी प्रशंसा तो करते ही हैं मगर वे उनकी आलोचना भी करते हैं. वे सचेत तौर पर उनको अलग-थलग करते रहते हैं. उनसे दूर रह कर ही वे अपने ताल-तिकडम में लग सकते हैं.

इस तरह जेंटिलमैन को अलगाव का शिकार होना पड़ता है. उसे मुक्तिबोध के शब्दों में "बबूल के असंगपन" से समझौता करना पड़ता है. अकेले होने की यंत्रणा झेलनी पड़ती है. यही अकेलापन उसके अवसाद का आधार बनता है. उसे अपने आप से लगातार लड़ते रहना पड़ता है. ऐसे में उसके अन्दर से भी प्रतिक्रिया उगती है. प्रतिवाद करने की आतुरता में वह अपने सम्बन्धों को झटक कर तोड़ देना चाहता है. और कई बार इस निष्कर्ष तक जा पहुँचता है कि उसे ऐसे लोगों के साथ सम्बन्धों में नहीं जीना है, जो उसकी सम्वेदना को समझ ही नहीं सकते या उसे अव्यावहारिक और मूर्ख मानते हैं. यह निष्कर्ष कई बार निर्णय का रूप ले लेता है. मगर इस निर्णय की घोषणा उसको कमज़ोर करती है. मुक्ति का प्रयास, शान्ति की चाहत में सम्बन्धों को तोड़ने के निर्णय तक जब जा पहुँचता है, तो ऐसा निर्णय सम्बन्धों के निर्वाह की अक्षमता का द्योतक होता है.

बहुत बाद में आगे चल कर, तब जब सबकुछ समाप्त हो चुका होता है, अपनी असहिष्णुता से केवल एक ही बात समझ में आती है कि अभी सामने वाले की सीमाओं की पूरी पहिचान हो नहीं पाई है. उसकी विकासयात्रा के प्रति मन में आक्रोश और क्षोभ है. यह क्षोभ आतुरता का द्योतक है. ऐसे निर्णय की घोषणा के बाद अलगाव और अवसाद घटता नहीं, बल्कि और अधिक बढ़ जाता है. सम्बन्धों के बन्धनों से मुक्ति मिलने के बजाय अपने खुद के व्यक्तित्व के बन्धन और भी तीखे हो कर गड़ने लगते हैं. दूसरों के आचरण के प्रति क्षोभ अंततः अपने खुद के और अधिक अकेले हो जाने की पीड़ा बन जाता है. और फिर अकेले-अकेले किसी का भी विकास असंभव है, किसी की भी मुक्ति असंभव है. विकास के लिये संघर्ष और मुक्ति के लिये सहभागिता की ज़रूरत है. और दोनों ही के लिये लोगों की ज़रूरत है. फिर वे लोग ही, जो सबसे नज़दीक हैं, झटक कर सबसे दूर क्यों फेंके जायें! इसलिए आतुरता में आत्म-संघर्ष के सार-संकलन की घोषणा करने के पहले खूब अच्छी तरह सोच-विचार करना बेहतर होता है. अन्यथा केवल घनीभूत पश्चाताप हाथ लगता है.  - गिरिजेश तिवारी,  अप्रैल का आखिरी दिन.
आत्मसंघर्ष और निर्णय की घोषणा का सवाल! - गिरिजेश तिवारी

FILM AUR SAMAJ KE VILAIN


QUOTE


tareef

और तो पता नहीं हम क्यों तबाह हुए 
मग़र यह साफ़ है कि इस तारीफ ने
बर्बाद किया हमको ए मेरे दोस्तों

Sunday, April 29, 2012

Paheli

APNE

गैरों से तो 
सावधान थे 
मग़र यहाँ 
तो अपने ही 
निकले भेड़िये
सीख लिया 
अपनों से भी 
सावधान रहना 
अब हमने  

रेगुलर नौकरी


रेगुलर नौकरी 

रेगुलर नौकरी पाना कोन्या कति आसान बताऊँ मैं ||
सी ऍम ऍम  पी सब धोरै पाँच साल तैं धक्के खाऊँ मैं ||  
पहलम कहवैं थे टेस्ट पास करे पाछै तूं बताईये 
पास करे पाछै बोले पहले चालीस गये बुलाईये 
एक विजिट चार सिफरिसी दो  हजार तले आऊँ मैं ||
सरकारी नौकरी रोज तड़कै ढूंढूं सूँ अख़बार मैं 
दुखी इतना हो लिया सूँ यकिन रहया ना सरकार मैं 
एजेंट हाँडें बोली लानते कहैं चाल  नौकरी दिवाऊं मैं  ||
एम् सी ए कर राखी कहैं डेटा आपरेटर लवा देवां 
कदे कहैं नायब तसीलदार ल्या तनै बना देवां 
तिरूँ डूबूं मेरा जी होरया सै पी दारू रात बिताऊँ मैं ||
घर आली पी एच डी करै उसकी फिकर न्यारी मने 
दोनूं बेरोजगार रहे तो के बनेगी या चिंता खारी मने  
रणबीर बरोने आले तनै सुनले दुखड़ा सुनाऊँ मैं ||

Wednesday, April 25, 2012

SON PREFERANCE

याह सोच सै औरत नै "देवी" मानण अल्यां की --पुत्र लालसा 
आज धार्मिक परमपरावां अर संस्कृतियाँ के नाम पै महिलावां के संवैधानिक अर कानूनी अधिकारों पै कसूता हमला बोल्या जावन लाग रया  सै |खासकर हिन्दू धर्म मैं जड़े अंध   आस्था अर कर्म कांडों  का डूंडा पाड़   राख्या सै |  हर पांचमें मील पै एक मंदिर  देख्या जा सकै सै | आज यो बहोत जरूरी होग्या सै अक हम संस्कृति नै झाड़ पूंछ कै उस पक्ष नै समझां अर देखां अक ये सब ढकोसले किस हद तक महिला विरोधी सें | पुत्री का कत्ल कर कर कै हर घर मैं पुत्र प्राप्ति हों लागरी सै | इसकी जड़ बहोत घनी डून्घी सें | माहरे समाज के पितृ सतात्मक ढांचे मैं धन दौलत के वारिस के रूप मैं पुत्र की कामना करी गयी सै | ऋग्वेद मैं पुत्रां की खातिर तीन शब्दों का प्रयोग पाया जा वै सै --- वीर , पुत्र अर सूनु | ऋषि कक्षीवत एक सुक्त मैं कह वै सै अक ' पति: स्यां सुगव: सुवीर : | पुत्रां  की  लालसा  आले दंपति प्रार्थना करैं सें ---' कामोराय: ---' यो कर्मकांड गर्भाधान संस्कार  एक हिस्सा हुया करदा | सप्तसदी के  बाद  वधू ताहीं आशीर्वाद दिया जाया करदा अक इन्दर उसनै  दस पुत्र प्रदान करै --"दशस्यां   धेही "  | आज भी हिन्दू धर्मानुसार ब्याह मैं सात फेरयां अर कन्यादान  के बाद ऋग्वेद का योहे मन्त्र दोहराया जा वै सै | मनु  के विधान मैं ज्येष्ठ पुत्र के जन्म की साथ साथ पुरुष पितृ ऋण तैं मुक्त हो कै अमृतत्व लाभ करै सै | पुत्र समस्त पापों तैं मुक्त करै सै अर प्रपोत्र सूर्यलोक मैं वास का कारण बनै सै | अर्थात पुरुष की बंस रक्षा परंपरा की खातिर बेटे तैं लेकै बेटे के बेटे अर उसके बी बेटे मतलब तीन पीढ़ी ताहीं पक्की शास्त्रीय व्यवस्था करी गयी सै | असल मैं पुत्र लालसा ताहीं बड़ी मनो वैज्ञानिक  चतुराई से शास्त्रकारों नै माणस के मन की गहराई मैं रोप्पन की चेष्टा मैं स्वर्ग अर नरक की कल्पना करी अर यो विधान का आतंक कायम कर दिया अक  पुत्रहीन की खातिर नरक अवश्यम्भावी सै | नयों  भी कहया गया अक  जै पिता जीवित पुत्र मुंह देख ले तो वो अपने सारे ऋणों तैं मुक्त हो ज्या सै अर अमृतत्व प्राप्त कर लेवै सै | एक श्लोक मैं नयों भी कहया बताया अक इस संसार मैं पैदा होवण आले जीवां की  खातिर जितने भी भोग अर सुख के साधन धरती अर अग्नि अर जल मैं सें उन तै भी फालतू पिता की खातिर पुत्र मैं सें | पिता सदा पुत्र द्वारा ही विपतियों को पार करता है | आत्मा आत्मा तैं पैदा होकै पुत्र कहला वै सै अर याहे संसार कै पार ले ज्या वन आली श्रेष्टतम नाव सै | स्त्री सखा है , पुत्री दुःख का कारण , पुत्र परलोक मैं भी ज्योति दिखावन का काम करै सै | इन सारे उधारणों पर गौर करेँ तो   बड़ी हैरानी हो वै सै | माँ के शरीर का एक अंश उससे  उत्पन पुत्र पिता तैं स्वर्ग, अमृतत्व , इहलोक, परलोक, सब कुछ दे वै सै फेर माता को देवन की खातिर कोए शास्त्रीय विधान क्यों नहीं सै ??? पितृ सत्ता नै शाश्वत बनाये राखन खातिर औरत के लिए एक मात्र आदर्श एक आदर्श   पुत्र की माता होना सै  | मनु नै और अनेकों नै उसे केवल खेत  मान्या , जिस मैं पुरुष बीज बोवन का काम करै सै | मनु ए नहीं कौटिल्य नै भी स्वीकृति दी " पुत्रार्थे क्र्यते  भार्या" अर्थात पुत्र की खातिर ही पत्नी की जरूरत है | ऐतरेय ब्राह्मन नै बार बार कहया सै अक पुरुष नै खुश अर संतुष्ट राखन का सर्वोतम उपाय सै पुत्र को जन्म देना | मनु नै कहया सै अक जै ब्याह के आठ साल पाछै बी स्त्री संतान नै जन्म ना दे अथवा दस बरस ताहीं जै कन्या नै जन्म दे अथवा मृत पुत्रों को जन्म दे तो पुत्र लाभार्थ पति दूसरा ब्याह करे | क्योंकि पुत्र जनन तै न्यारा स्त्री का कामै के था ??? गर्भा धान  पाछै पुंसवन संस्कार मैं गर्भ को पुत्र मैं बदलन की खातिर प्रार्थना का भी विधान सै |" अभागे का बैल मरै, सूभागे की बेटी |" या कहावत के दर्शावै सै ?? के या महिला विरोधी नहीं सै ?? जै लडकी का , औरत का अस्तित्व बचाना सै तो इस "पुत्र लालसा "  कै खिलाफ जंग का बिगुल बजाना ए पडेगा | किते किते फुसफुसाहट तो सै फेर और ठाडा  जंग  लड़ना होगा \ फेर नयों मतना कहियो  म्हारी पुरानी परम्पराओं  पै चोट  करै सै यो पागल डाक्टर . गेर रै गेर पत्ता गेर |
रणबीर 

Tuesday, April 24, 2012

pankaj kee kavita



शब्दों के दीप जले  , ज्ञान का प्रकाश छाए  .
 स्वप्न खुली आँखों का  , सत्य के धरातल पर ,
   सुंदर स्थापत्य पाए .            
 ज्ञान का प्रकाश छाए  
राह में अकेला तू , एक तेरी अभिलाषा ,
बोलते हैं जो भी हम , समझते हैं जिसको हम 
लिखे - पढ़े वह भाषा 
 एक तेरी अभिलाषा 
न उम्र बने बाधा , न जाति कोई बंधन
यह भेद - भाव छूटे , जंजीर सभी टूटे 
बस शब्द का हो बंधन 
न जाति कोई बंधन
आओ की पढ़ चुके जो , मिल कर सभी पढाये  
जो ज्ञान हने पाया , गुरुओं ने जो पढाया  
जग में उसे बढ़ाये 
 मिल कर सभी पढाये  
थक कर न बैठ साथी , आगे बहुत है जाना 
तूफ़ान कितने आये , हिम्मत  न तोड़ पाये
कश्ती को खेते जाना 
आगे बहुत है जाना 

खेल मीडिया का

खेल मीडिया   का  
मीडिया एक इसा बाजार तंत्र सै जिसकी दिशा निर्धारित करी जावै सै अर इसकी या दिशा लाभ मतलब मुनाफा ए  तय करै सै | मीडिया का मालिक मीडिया की विषय वस्तु मतलब इसकी सामग्री नै तय करै सै | लोगां कै  कोए  बात जंचावन की खातिर यो मीडिया खास ढंग तैं प्रोपगंडा कहो या प्रचार कहो करै सै | मीडिया की तासीर समझन की खातिर पाँच छालनीयाँ महँ कै छानना पडै  सै | 
पहली छालनी सै पीस्सा ------ मालिक का पीस्सा मीडिया मैं लागै सै | उसका मकसद सै लाभ कमाना | मीडिया के मालिक घने कोन्या  क्योंकी यूं बड़े धन्ना सेठों  का खेल सै   जो घने कोन्या | कम्पीटीसन माडा कम सै इस धंधे मैं | 
दूसरी छालनी सै विज्ञापन ------ आमदनी का तगड़ा साधन सै विज्ञापन | विज्ञापन पीस्सा तो कमा वै ए सै फेर और के के गुल खिलावै  सै या न्यारी बात सै | इसपे फेर कदे सही |
तीसरी छालणी सै जानकारी अर उस पै भरोसा ---- या जानकारी , सरकार व्यवसाय और  विशेषज्ञ  की तिकड़ी मिलके बनै सै | इन तीनूं  का आपस मैं कसूता गठजोड़ सै क्योंकि इनके सबके हित आपस मैं नालबध सें | इसमें इस विशेषज्ञ  की भूमिका घनी खतरनाक बताई | यो उसे २० प्रतिशत वाले वर्ग तैं आवै सै अर अपनी इस काबलियत का अर विशेषज्ञता का फ़ायदा खुद भी खूब ठावै सै अर उन्हें लोगां तक पहोंचावै सै | सरकार अर व्यवसाय इसका कसूता फायदा ठावैं सें |
चौथी छालणी सै आलोचना ---- इसका वास्ता मीडिया की या भरोसे या सच्चाई या यथातथ्यता नैं ले कै ठावन आले सवालों से है | जिसकी जितनी ताकत सै , वो उतने ऊंचे सुर मैं मीडिया की आलोचना करवा सकै सै |
मीडिया नै समझान की पांचवीं छालणी सै साम्यवाद विरोध------  सोवियत संघ के विघटन के पाछै साम्यवाद का विरोध करना अमेरिका की खातिर एक बड़ा पुण्य का काम होग्या | पीसा बनाने के बाद साम्यवाद का विरोद्ध  मीडिया का दूसरा मूल्य सै | बीच बीच मैं ओसामा , अर सद्दाम बी आ टपकें सें | 
             मीडिया मतलब किसे अख़बार या टी वी चैनल का के पक्ष सै इसका फैंसला वैज्ञानिक वस्तु परकता अर सहज बोध तैं ए करया जा सकै सै |म्हारे जीवन की बहोत सी चीज तय करै सै यो मीडिया मतलब म्हारे पै राज करण का कसूता हथियार सै जालिम के हाथां मैं जिस दिन आम आदमी या बात समझ ज्यागा उस दिन पासे पलट ज्यांगे | आई किमैं समझ मैं | गेर राय गेर पत्ता गेर | यूं डाक्टर १३ वार्ड मैं खुद बी जागा अर हमनै बी लेज्यगा |
ranbir

Monday, April 23, 2012

LOK KALA KE BAHANE SE


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HARYANA NO. ONE --A MYTH


आट्टण’



खरी खोटी
रणबीर
एक बात तो साफ सै अक माणस एक सामाजिक प्राणी सै। माणस अर पशु मैं योहे फर्क सै अक माणस अपने भले-बुरे की खातर अपने समाज पर बहोत निर्भर रहवै सै। असल मैं पषु जगत के घणे ठाड्डे-ठाड्डे बैरियां के रैहत्ते अर बख्त-बख्त पै आवण आले हिम युग जिसे भयंकर प्राकृतिक उपद्रवां ते बचण की खातर उसके दिमाग नै जो उसकी मदद करी सै उसमैं मनुष्य का समाज के रूप मैं संगठन बहोत घणा सहायक सिद्ध हुआ सै। इस समाज नै शुरू मैं कमजोर माणसां की ताकत को सैंकड़ों आदमियों की एकता के माघ्यम तै बहोत घणा बणा दिया। इसे एकता की ताकत के दम पर माणस अपने प्राकृतिक अर दूसरे बैरियां तै छुटकारा पा ग्या। पर आज इस समाज नै प्राकृतिक अर पशु जगत के दूसरे बैरियां तै रक्षा पावण मैं मदद देत्ते होएं बी अपने भीतर तै ईसे बेरी पैदा कर लिए जिननै इन प्राकृतिक अर पाशविक बैरियां तै भी फालतू माणस की जिन्दगी नरक बणावण का काम करया सै। समाज का अपने भीतर के माणसां के प्रति न्याय करना पहला फरज सै। न्याय का यो मायना होना चाहिये अक हरेक माणस अपने श्रम के फल का उपयोग कर सकै। लेकिन आज हम उल्टा देख रहे सां। धन वा चीज सै जो माणस के जीवन की खातर बहोत जरुरी सै। खाणा ,कपड़ा, मकान ये सारी चीजां सैं जिन ताहीं असली धन कहना चाहिये। असली धन के उत्पादक वेहे सेै जो इन चीजां का उत्पादन करैं सै। किसान असली धन का उत्पादक सै क्योंकि ओह माट्टी नै अपजी मेहनत के दम पर गिहूं, चावल, कपास के रूप मैं बदल दे सै। दो घन्टे रात रैहत्ते खेतां मैं पहोंचना। जेठ की तपती दोफारी हो, चाहे पोह का जाड्डा हो, हल जोतै कै ट्रैक्टर चलावै,पाणी लावै,जमीन नै कस्सी तै एकसार करै अर उसके हाथां मैं कई-कई आट्टण पड़ज्यावैं फेर बी मेहनत तै मुंह नहीं चुरात्ता क्योंकि उसनै इस बात का बेरा सै अक धरती मां के दरबार मैं रिश्वत कोन्या चालती अर चाल सकती। धरती स्तुति प्रार्थना तै अपने दिल ने खोल कौन्या सकदी। या निर्जीव माट्टी सोने के गिहूं, बासमति चावल अर अंगूरी मोतियां के रूप मैं देवे सै जिब धरती मां देख लेवै सै अक किसान नै उसकी खातर अपणे शरीर के कितने घणे पस्सीने बहा दिये,कितनी बर थकावट करकै उसका बदन चूर-चूर होग्या अर कस्सी चाणचणक उसके हाथ तै छूटगी। गिहूं का दाणा-दाणा कठ्ठा करना हो सै। एक जागां दस बीस मन धरया औड़ कोन्या मिलता। जिब एक बर तो फसल नै देख कै किसान का जी बी खिल उठै सै। महीन्यां की मेहनत के बोझ तलै दबे उसके बालक बड़ी चाह भरी नजरां तैं इस नाज नै देखैं सैं। वे समझैं सैं अक दुख की अन्धेरी रात कटने वाली सै अर सुख का सबेरा साहमी सै। उननै के बेरा अक उनका यो नाज उनके खावण खातर कोन्या। इसके खावण के अधिकारी सबते पहलम वे स्त्री-पुरुष सै जिनके हाथ मैं एक बी आट्टण कोन्या, जिनके हाथ गुलाब केसे लाल अर मक्खण बरगे मुलायम सैं, जिनकी जेठ की दोफारी एसी तलै कै शिमला मैं बीतै सै। जाड्डा जिनकी खातर सर्दी की तकलीफ नहीं ल्यात्ता बल्कि मुलायम कीमती गर्म कपडय़ां तै सारे बदन नै ढक कै आनन्द के सारे राह खोल दे सै। अर यू किसान आत्महत्या करण ताहिं फांसी खावण खातर जेवड़ी टोहत्ता हांडै सै कै सल्फास की गोली खाकै निबटारा पाले सै। ऊपर ऊपर तै सब मेर दिखावैं सैं किसान के नाम पै। फेर असल मैं सारे उसकी खाल तारु सैं। किसान कै पड़े ये आट्टण एक दिन जरूर रंग दिखावैंगे।

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Will fail Fighting and not surrendering

I will rather die standing up, than live life on my knees:

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