पहले ज़माने में शादी से पहले लड़का देखने के लिए और सगाई के लिए नाई जाता था | वह जो फिनाल कर देता था वाह पत्थर की लकीर थी | यह महान परंपरा थी हमारी | तीन तीन दिन की बारात होती थी | गाँव में बारात चार पाँच जगह रूकती थी | शादी वाले के घर के आलावा कई दूसरे परिवार एक एक रोटी बारात की करते थे | सो सवा सौ बाराती जाते थे |घडी सइकिल और बहुत सा दहेज़ देने का रिवाज था | कई कई साल बीत जाते थे पति को पत्नी का मुंह देखे हुए |चढ़ी रात आना और मुंह अंधेरे चले जाना यही रिवाज था हमारा, यही परंपरा थी हमारी |पहले नानी का गोत्र भी छोड़ते थे साथ ही दादी का गोत्र तो छोड़ते ही थे |और भी बहुत सारी परंपरा गिनवाई जा सकती हैं शादियों के सम्बन्ध में जो निभाई जाती रही हैं | गाँव फलां के खेड़े के गोत की दूसरे गाँव की उसी गोत की लड़की उस फलां गाँव के दूसरे गोत के लडके से शादी नहीं कर सकती जबकि फलां गाँव के खेड़े के गोत का लड़का दूसरे गाँव की अपने गाँव के दूसरे गोत से सम्बन्ध रखने वाली से शादी कर सकता है | इसे अंग्रेजी में मजोर्टीजम की ताकत कहते हैं |कितनी महान परंपरा थी हमारी | खेड़े के गोत का बोलबाला था |इसमें तो जीन का मामला भी नहीं था | | मगर समचाना ने खेड़े के गोत की परंपरा को बहुत पहले धत्ता बता दिया था |कब ? शायद किसी को मालूम नहीं | आगली और पाछालियाँ की तील ३०-३० या ४० -४० बहु को ससुराल वालों की ले जानी होती थी| एक पंचायत १९११ में बरोना में हुई जिसका मुद्दा था गामाँ आल्यां की शिक्षा का |और भी कई मुद्दे रहे होंगे जिनका मनै घना सा बेरा कोन्या | फेर एक पंचायत और सिसाना गाँव मैं सन ६० के आले दवाले हुई और इसने हमारी सारी परम्पराओं को तार तार कर दिया | तीन दिन का ब्याह डेढ़ दिन का कर दिया | बारातियों की संख्या पांच और एक रुपये की सगाई से लेकर विदाई तक के सारे वाने एक रुपये के कर दिए | बहोते भुंडा काम करया इस पंचायत नै | शायद नानी का गोत ना छोडन की बात भी इसे पंचायत मैं हुई हो!फेर गरीब लोगों को इससे बहोत राहत मिली थी हालाँकि बहुत सी परम्पराएँ धाराशाई हो गयी थी या कर दी गयी थी |आज फेर ५०-६० साल के बाद एक संकट आया सै शादी के मामलों पर | बहुत से सवाल उठे रहे हैं। देखो क्या होता है ?
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