Saturday, December 31, 2011

dost ki yaad mein


मैं पढ़ा अपने गांव थाने के स्कूल में
तख्ती पर लिखते खेलते वहीं धूल में
दसवीं पास की मैने अच्छे नम्बर पाये
आगे कहां क्या करें पढ़ाई पर हुई चर्चा
सभी के दिल में था कितना होगा खर्चा
हिन्दू कालेज सोनीपत बाहरवीं पास की
मिलेगा मेडीकल में प्रवेष मैंने आस की
दाखिला मिल गया घर में थी खुषी छाई
रोहतक पहुंचा कुछ माहौल बदला भाई
तरह तरह के सवाल रैगिंग हुई मेरी थी
सीनियर का डर बैठा देखी मेरा तेरी थी
चीर फाड़ की षरीर की ज्ञान बढ़ाया था
फिजियोलॉजी रटी तब पास हो पाया था
पैथो और फारमा दोनों मुझे भा गये थे
इम्तिहान में ये नम्बर अच्छे आ गये थे
एसपी एम फोरैंसिक बांए हाथ का खेल
इनकी पढ़ाई पाई छुक छुक करती रेल
फाइनल मुष्किल होगा यही तो बताया
मरीज देखने में पूरा समय मैने लगाया
पास हुआ ठीक नम्बर चिनता थी छाई
नौकरी या करुं मैं आगे की और पढ़ाई
आखिर आगे पढ़ने का मन मैंने बनाया
सर्जरी में फिर जैसे तैसे दाखिला पाया
रुरल और अरबन का एक नजारा था
दलित और स्वर्ण का देखा बंटवारा था
फेल पास का संकट खुला सामने पाया
सेवन्टी ऐट में यह सबके सामने आया
जाट और नोन जाट का घमासान हुआ
लड़ाई उपर की नीचे का नुकसान हुआ
इसी बीच अनुपमा मेरे जीवन में आई
धीरे धीरे दोस्ती रिस्ते का रुप ले पाई
सवाल यही था अब आगे किधर जाउं
सरकारी नौकरी या नर्सिंग होम बनाउं
खरखोदा में किराए पर काम षुरु किया
तन मन धन सब कुछ मैने झोंक दिया
प्रैक्टिस अच्छी चली पैसा खूब कमाया
कुछ साल में अपना नर्सिंग होम बनाया
नन्ही बच्ची षादी के दो साल बाद आई
फिर तीन साल बाद थी थाली गई बजाई
दो साल बाद छोटा बेटा दुनिया में आया
सब तो ठीक ठ्याक था कस्बा मुझे भाया
तभी अनुपमा चली गई हमको छोड़ करके
बीमार हुई चल बसी मुह वह मोड़ करके
बस जिन्दगी में खालीपन छाता चला गया
बच्चों पर ध्यान पूरा लगाता चला गया
कई बार मेहर सिंह समिति वाले आये
अपने विचार मुझसे सांझा थे कर पाये
तभी दारु ने जिन्दगी में दखल बढ़ाया
ज्यादा न पिया करो बच्चों ने समझाया
धीमे से मिकदार बढ़ी फिर आदत बनी
लगा ऐसा मानो षराब मेरी ताकत बनी
ताकत नहीं कमजोरी बाद में समझ पाया
फिर इस दारु ने था अपना रंग खिलाया
नर्सिंग होम फिर दारुमय हो गया मेरा
कर्मचारी भी पीते मरीज खो गया मेरा
बहुत जगह इलाज किया न छुटी भाई
जो षोहरत कमाई सारी तो लुटी भाई
दुख और अफसोस कि कहां आ पहुंचा
कभी सोचा न ये मुकाम वहां जा पहुंचा
अस्पताल में दाखिल मैं जीना चाहता हूं
वहां पर भी मंगवा कर पीना चाहता हूं
कैसी विडम्बना मेरी दिल दिमाग पछताते
आदत बलवान हुई पीछा नहीं छुड़ा पाते
बेटी बेटे बहुत दुखी नहीं है पार बसाती
देखी है बेटी बैठी सीट पे आंसूं बहाती
छोटा बेटा सातवीं तक मेरा पढ़ पाया है
क्या होगा इसका आगे मन भर आया है
एक बड़ा दुष्मन दारु हरियाणे में हो रही
कितने हैं परिवार जहां बोझा पत्नी
षायद अब ज्यादा दिन नहीं मैं चल पाउंगा
आदत जीती सतवीर हारा ये लिख जाउंगा
रणबीर सिंह दहिया......


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