खरी-खोटी
Posted On March - 14 - 2010
रणबीर
जीवनदायिनी प्रकृति और उसके द्वारा प्रदत्त प्राकृतिक संसाधनों के बेहताशा उपयोग ‘अन्ध उपभोक्तावाद’ की तेज रफतार नै न केवल प्रदूषण बढ़ा दिया है बल्कि जलवायु में बदलाव आने से धरती तप रही सै। इसका सबसे बड़ा कारण धन के लालचियों का स्वार्थ सै जो प्रदूषण का जनक है। जिसने खुद उनको और पूरे विश्व को भयंकर विपत्तियों के जाल में फंसा दिया सै। उससे निकल पाना उन लालचियों के बूते से बाहर की बात सै। आज पूरी मानव जाति का अस्तित्व खतरे में सै। विकास के केन्द्र में आज पर्यावरण क्षरण और जलवायु परिवर्तन का सवाल होना चाहिए। क्योंकि जब तक विकास का ईको फ्रैंडली मॉडल नहीं अपनाया जायेगा इस संकट से छुटकारा पाना बहुत मुश्किल काम सै। पैच वर्क से बहुत ज्यादा फर्क पडऩे वाला नहीं सै। सोचने का विषय है कि समूची दुनिया पर संकट मंडरा रह्या सै। आखिर कौन हैं इसके ज्यादा जिम्मेदार? पढ़े-लिखे लोग ज्यादा जिम्मेदार सैं। पंजाब को ‘फूड बावल ‘ के नाम से जाना जाता है। वहां पर ग्रामीण सम्पन्नता के पीछे बढ़ती कर्जदारी की दास्तां छुपी हुई सै? कृषि वैज्ञानिक और नीति निर्धारक वर्तमान संकट को स्वीकार करते हुए घबराते लगते हैं क्योंकि शक की सुई आखिर में उनकी तरफ घुमैगी। पिछले सालों में पंजाब कृषि विश्वविद्यालय किसानों को पैदावार बढ़ाने के बारे में कहता रहा है। हमें बार-बार बताया गया कि जब ज्यादा पैदावार होगी तो आमदनी भी बढ़ैगी। मगर यह सच नहीं था। दुर्भाग्यवश किसी में इतना साहस नहीं था कि जो गल्त वायदे साल दर साल किये जा रहे थे उनके खिलाफ बोलें। जबकि पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों को तो छठे वेतन आयोग के बकाया पैसे भी दिए गये तथा उनकी महीने की तन्खा में भी इजाफा किया गया। वहीं पंजाब का कमेरा किसान बहुत बड़े कर्ज के बोझ के नीचे दबता चला गया। अब वक्त आ ग्या सै अक पंजाब कृषि विश्वविद्यालय को तथा सरकारों को इस किसानी संकट का जिम्मेदार ठहराया जाये और उनसे उनका सामाजिक दायित्व न निभाने का अहसास करवाया जाए। हमारे नीति निर्धारकों के तथा कृषि वैज्ञानिकों के हाथ बहुत से किसानों के खून से सने सैं। प्रोफैसर शेरगिल ‘इन्सटीच्यूट फॅार डवलैपमैंट एंड कम्यूनिकेशन इन चंडीगढ़’ की रिपोर्ट कई अखबारों में छपी थी। इस रिपोर्ट में बताया गया सै कि किसानी कर्ज पिछले दस साल में पांच गुणा बढ़ग्या सै। क्या यह साफ-साफ नहीं इशारा करता है कि हमारा पंजाब में अपनाया जा रहा ‘कृषि का फ्रेम’ डिफैक्टिव सै? हमारे वैज्ञानिक कृषि के एनपीके मॉडल से आगे क्यों नहीं देख रहे तथा जमीन के बांझपन को ठीक करते हुए वातावरण को ठीक क्यों नहीं कर रहे? हमारे कृषि वैज्ञानिक पंजाब के किसानों की मदद न करके खाद कम्पनियों की तथा कीटनाशक बनाने वाली दवा कम्पनियों को ही लाभ पहुंचा रहे सैंं। सदियों से भारत का किसान कर्जे के नीचे रहा है और अपनी अगली पीढ़ी को वह यह कर्ज ट्र्रांसफर करता आया सै। पहले सूदखोर होते थे जो जोंकों की तरह व्यवहार करते थे और किसानों का खून चूसते थे और किसानी को अपने जख्मों की मरहम पट्टी के लिए बिल्कुल अकेला छोड़ देते थे। किस्तों में राहत मिलती रही सै। सन् 40 के दौर में पंजाब में छोटूराम नै किसानी के कर्ज माफ करने का साहस किया।आजादी के बाद हरित क्रान्ति नै किसानी को कॉमरशियल खेती के तरीके में धकेल दिया। पिछले कर्ज के मुकाबले इस दौर के कर्ज के बढऩे की रफ्तार बहुत तेज रही है। कमाल की बात है कि एक और खेती में पैदावार बढ़ी वहीं दूसरी ओर किसानी कर्ज भी उतनी ही तेजी से बढ़ता गया। शायद यकीन नहीं होगा। यह बात तो पक्की सै कि इस कर्ज का बड़ा हिस्सा खेती के कारण ही सै। और कई बार किसान के पास कोई विकल्प नहीं रहता सिवाय खुदकशी करने के। पिछले एक दशक में एक लाख से अधिक किसानों ने हिन्दुस्तान में मजबूरी में आत्महत्याएं की सैंं। वो खेती का मॉडल कौनसा सै जिसमैं किसान पर कर्ज चढ़े ही नहीं? आपके सुझावों का इन्तजार सै।
Posted On March - 14 - 2010
रणबीर
जीवनदायिनी प्रकृति और उसके द्वारा प्रदत्त प्राकृतिक संसाधनों के बेहताशा उपयोग ‘अन्ध उपभोक्तावाद’ की तेज रफतार नै न केवल प्रदूषण बढ़ा दिया है बल्कि जलवायु में बदलाव आने से धरती तप रही सै। इसका सबसे बड़ा कारण धन के लालचियों का स्वार्थ सै जो प्रदूषण का जनक है। जिसने खुद उनको और पूरे विश्व को भयंकर विपत्तियों के जाल में फंसा दिया सै। उससे निकल पाना उन लालचियों के बूते से बाहर की बात सै। आज पूरी मानव जाति का अस्तित्व खतरे में सै। विकास के केन्द्र में आज पर्यावरण क्षरण और जलवायु परिवर्तन का सवाल होना चाहिए। क्योंकि जब तक विकास का ईको फ्रैंडली मॉडल नहीं अपनाया जायेगा इस संकट से छुटकारा पाना बहुत मुश्किल काम सै। पैच वर्क से बहुत ज्यादा फर्क पडऩे वाला नहीं सै। सोचने का विषय है कि समूची दुनिया पर संकट मंडरा रह्या सै। आखिर कौन हैं इसके ज्यादा जिम्मेदार? पढ़े-लिखे लोग ज्यादा जिम्मेदार सैं। पंजाब को ‘फूड बावल ‘ के नाम से जाना जाता है। वहां पर ग्रामीण सम्पन्नता के पीछे बढ़ती कर्जदारी की दास्तां छुपी हुई सै? कृषि वैज्ञानिक और नीति निर्धारक वर्तमान संकट को स्वीकार करते हुए घबराते लगते हैं क्योंकि शक की सुई आखिर में उनकी तरफ घुमैगी। पिछले सालों में पंजाब कृषि विश्वविद्यालय किसानों को पैदावार बढ़ाने के बारे में कहता रहा है। हमें बार-बार बताया गया कि जब ज्यादा पैदावार होगी तो आमदनी भी बढ़ैगी। मगर यह सच नहीं था। दुर्भाग्यवश किसी में इतना साहस नहीं था कि जो गल्त वायदे साल दर साल किये जा रहे थे उनके खिलाफ बोलें। जबकि पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों को तो छठे वेतन आयोग के बकाया पैसे भी दिए गये तथा उनकी महीने की तन्खा में भी इजाफा किया गया। वहीं पंजाब का कमेरा किसान बहुत बड़े कर्ज के बोझ के नीचे दबता चला गया। अब वक्त आ ग्या सै अक पंजाब कृषि विश्वविद्यालय को तथा सरकारों को इस किसानी संकट का जिम्मेदार ठहराया जाये और उनसे उनका सामाजिक दायित्व न निभाने का अहसास करवाया जाए। हमारे नीति निर्धारकों के तथा कृषि वैज्ञानिकों के हाथ बहुत से किसानों के खून से सने सैं। प्रोफैसर शेरगिल ‘इन्सटीच्यूट फॅार डवलैपमैंट एंड कम्यूनिकेशन इन चंडीगढ़’ की रिपोर्ट कई अखबारों में छपी थी। इस रिपोर्ट में बताया गया सै कि किसानी कर्ज पिछले दस साल में पांच गुणा बढ़ग्या सै। क्या यह साफ-साफ नहीं इशारा करता है कि हमारा पंजाब में अपनाया जा रहा ‘कृषि का फ्रेम’ डिफैक्टिव सै? हमारे वैज्ञानिक कृषि के एनपीके मॉडल से आगे क्यों नहीं देख रहे तथा जमीन के बांझपन को ठीक करते हुए वातावरण को ठीक क्यों नहीं कर रहे? हमारे कृषि वैज्ञानिक पंजाब के किसानों की मदद न करके खाद कम्पनियों की तथा कीटनाशक बनाने वाली दवा कम्पनियों को ही लाभ पहुंचा रहे सैंं। सदियों से भारत का किसान कर्जे के नीचे रहा है और अपनी अगली पीढ़ी को वह यह कर्ज ट्र्रांसफर करता आया सै। पहले सूदखोर होते थे जो जोंकों की तरह व्यवहार करते थे और किसानों का खून चूसते थे और किसानी को अपने जख्मों की मरहम पट्टी के लिए बिल्कुल अकेला छोड़ देते थे। किस्तों में राहत मिलती रही सै। सन् 40 के दौर में पंजाब में छोटूराम नै किसानी के कर्ज माफ करने का साहस किया।आजादी के बाद हरित क्रान्ति नै किसानी को कॉमरशियल खेती के तरीके में धकेल दिया। पिछले कर्ज के मुकाबले इस दौर के कर्ज के बढऩे की रफ्तार बहुत तेज रही है। कमाल की बात है कि एक और खेती में पैदावार बढ़ी वहीं दूसरी ओर किसानी कर्ज भी उतनी ही तेजी से बढ़ता गया। शायद यकीन नहीं होगा। यह बात तो पक्की सै कि इस कर्ज का बड़ा हिस्सा खेती के कारण ही सै। और कई बार किसान के पास कोई विकल्प नहीं रहता सिवाय खुदकशी करने के। पिछले एक दशक में एक लाख से अधिक किसानों ने हिन्दुस्तान में मजबूरी में आत्महत्याएं की सैंं। वो खेती का मॉडल कौनसा सै जिसमैं किसान पर कर्ज चढ़े ही नहीं? आपके सुझावों का इन्तजार सै।
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