Friday, December 23, 2011

ATTAN

आट्टण’


Posted On March - 7 - 2010

खरी खोटी

रणबीर

एक बात तो साफ सै अक माणस एक सामाजिक प्राणी सै। माणस अर पशु मैं योहे फर्क सै अक माणस अपने भले-बुरे की खातर अपने समाज पर बहोत निर्भर रहवै सै। असल मैं पषु जगत के घणे ठाड्डे-ठाड्डे बैरियां के रैहत्ते अर बख्त-बख्त पै आवण आले हिम युग जिसे भयंकर प्राकृतिक उपद्रवां ते बचण की खातर उसके दिमाग नै जो उसकी मदद करी सै उसमैं मनुष्य का समाज के रूप मैं संगठन बहोत घणा सहायक सिद्ध हुआ सै। इस समाज नै शुरू मैं कमजोर माणसां की ताकत को सैंकड़ों आदमियों की एकता के माघ्यम तै बहोत घणा बणा दिया। इसे एकता की ताकत के दम पर माणस अपने प्राकृतिक अर दूसरे बैरियां तै छुटकारा पा ग्या। पर आज इस समाज नै प्राकृतिक अर पशु जगत के दूसरे बैरियां तै रक्षा पावण मैं मदद देत्ते होएं बी अपने भीतर तै ईसे बेरी पैदा कर लिए जिननै इन प्राकृतिक अर पाशविक बैरियां तै भी फालतू माणस की जिन्दगी नरक बणावण का काम करया सै। समाज का अपने भीतर के माणसां के प्रति न्याय करना पहला फरज सै। न्याय का यो मायना होना चाहिये अक हरेक माणस अपने श्रम के फल का उपयोग कर सकै। लेकिन आज हम उल्टा देख रहे सां। धन वा चीज सै जो माणस के जीवन की खातर बहोत जरुरी सै। खाणा ,कपड़ा, मकान ये सारी चीजां सैं जिन ताहीं असली धन कहना चाहिये। असली धन के उत्पादक वेहे सेै जो इन चीजां का उत्पादन करैं सै। किसान असली धन का उत्पादक सै क्योंकि ओह माट्टी नै अपजी मेहनत के दम पर गिहूं, चावल, कपास के रूप मैं बदल दे सै। दो घन्टे रात रैहत्ते खेतां मैं पहोंचना। जेठ की तपती दोफारी हो, चाहे पोह का जाड्डा हो, ओ हल जोतै कै ट्रैक्टर चलावै,पाणी लावै,जमीन नै कस्सी तै एकसार करै अर उसके हाथां मैं कई-कई आट्टण पड़ज्यावैं फेर बी ओ मेहनत तै मुंह नहीं चुरात्ता क्योंकि उसनै इस बात का बेरा सै अक धरती मां के दरबार मैं रिश्वत कोन्या चालती अर न चाल सकती। धरती स्तुति प्रार्थना तै अपने दिल ने खोल कौन्या सकदी। या निर्जीव माट्टी सोने के गिहूं, बासमति चावल अर अंगूरी मोतियां के रूप मैं देवे सै जिब धरती मां देख लेवै सै अक किसान नै उसकी खातर अपणे शरीर के कितने घणे पस्सीने बहा दिये,कितनी बर थकावट करकै उसका बदन चूर-चूर होग्या अर कस्सी चाणचणक उसके हाथ तै छूटगी। गिहूं का दाणा-दाणा कठ्ठा करना हो सै। एक जागां दस बीस मन धरया औड़ कोन्या मिलता। जिब एक बर तो फसल नै देख कै किसान का जी बी खिल उठै सै। महीन्यां की मेहनत के बोझ तलै दबे उसके बालक बड़ी चाह भरी नजरां तैं इस नाज नै देखैं सैं। वे समझैं सैं अक दुख की अन्धेरी रात कटने वाली सै अर सुख का सबेरा साहमी सै। उननै के बेरा अक उनका यो नाज उनके खावण खातर कोन्या। इसके खावण के अधिकारी सबते पहलम वे स्त्री-पुरुष सै जिनके हाथ मैं एक बी आट्टण कोन्या, जिनके हाथ गुलाब केसे लाल अर मक्खण बरगे मुलायम सैं, जिनकी जेठ की दोफारी एसी तलै कै शिमला मैं बीतै सै। जाड्डा जिनकी खातर सर्दी की तकलीफ नहीं ल्यात्ता बल्कि मुलायम कीमती गर्म कपडय़ां तै सारे बदन नै ढक कै आनन्द के सारे राह खोल दे सै। अर यू किसान आत्महत्या करण ताहिं फांसी खावण खातर जेवड़ी टोहत्ता हांडै सै कै सल्फास की गोली खाकै निबटारा पाले सै। ऊपर ऊपर तै सब मेर दिखावैं सैं किसान के नाम पै। फेर असल मैं सारे उसकी खाल तारु सैं। किसान कै पड़े ये आट्टण एक दिन जरूर रंग दिखावैंगे।



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