Monday, February 6, 2023

Baba Ambedkar

 अब नोट छोड़ कर डॉ. भीमराव आंबेडकर जी को पढ़े और बुद्धिजीवी बनें -


पिछले सात वर्षों से मैं डॉ. भीमराव आंबेडकर जी के विचारों का प्रचार कर रहा हूँ। इसी कड़ी में मैंने पांच वर्षों पहले डॉ. आंबेडकर जी की पुस्तकें भी बेचनी प्रारम्भ की। हालाँकि मैं फिल्म और टीवी में कार्यरत था फिर भी मैंने अपने जीवन का एक बड़ा समय डॉ. आंबेडकर के विचारों को प्रचारित करने में लगाने का निश्चय किया। इसलिए मैंने उनके विचारों पर कई वीडियों का भी निर्माण किया जो आप यूटयूब के चैनल Ambedkartimes पर देख सकते हैं। पर यह अफ़सोस की बात है कि पांच वर्षों के इस कार्य में महज दो हजार लोग भी ऐसे नहीं होंगे जिन्होंने आगे बढ़ कर डॉ. आंबेडकर जी के साहित्य को पढ़ने के लिए खरीदा हो।

मेरे मन की व्यथा न केवल एक सच्चे आंबेडकरवादी की व्यथा है, बल्कि समाज और देश का भला सोचनेवाले एक सच्चे व्यक्ति की व्यथा है। अपना अच्छा कैरियर त्याग कर समाज के लिए भलाई सोचना अपने लिए गढ्ढे खोदने के समान है भले ही यह एक आदर्श कार्य है। इस दौरान मैंने देखा कि प्रत्येक वर्ष लाखों अनुसूचित जाती के छात्र-छात्राएं कालेजों में डॉ. भीमराव आंबेडकर जी के दिलाए आरक्षण के द्वारा दाखिले लेते हैं पर उनकी पुस्तकें नहीं पढ़ते ? लाखों युवक-युवतियां सरकारी नौकरियों के लिए दाखिले के लिए तो पढ़ते हैं और आरक्षण से दाखिला लेते हैं पर आरक्षण दिलानेवाले अपने पिता डॉ. आंबेडकर जी की पुस्तकें नहीं पढ़ते। राजनीती में आरक्षण से नेता बनने वाले, चुनावों में तो लाखो-करोड़ों रूपये खर्च कर देते हैं पर, आरक्षण दिलवानेवाले बाबा साहिब डॉ. आंबेडकर जी के साहित्य को नहीं पढ़ते। यहॉं तक कि जो लोग गैरसरकारी नौकरियों या व्यवसाय में लगे हैं वे यह नहीं सोचते कि यदि बाबा साहिब डॉ. आंबेडकर जी उन्हें कानूनी रूप से समता का अधिकार नहीं दिलवाते तो अपने परंपरागत धंधों (जिनमें तुच्छ कोटि के कार्य शामिल थे) को छोड़ कर वह दूसरे कार्य भी नहीं कर पाते। आज भारत में जो स्त्रियां प्रोपर्टी पा कर अच्छा जीवन व्यतीत कर रहीं हैं, वह भी नहीं सोचती कि उन्हें यह अधिकार बाबा साहिब डॉ. भीमराव आंबेडकर जी ने दिलवाया। उन्हें शायद यह भी नहीं पता कि महिलाओं को संपत्ति का अधिकार दिलवाने के लिए उन्होंने कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था। यह अधिकार न सिर्फ कुछ वर्गों की महिलाओं को ही प्राप्त हुआ बल्कि भारत में सभी वर्गों और जातियों की महिलाओं को प्राप्त हुआ। पर भारत की महिलाऐं भी डॉ. आंबेडकर जी को नहीं पढ़ती।

पिछले दिनों नोटबंदी हुई और पूरा देश हाहाकार मचाने लगा। गरीब और मध्यम वर्गीय इसलिए परेशान हैं कि उन्हें लाइनों में घंटों लगना पड़ रहा है और अमीर इसलिए परेशान हैं कि काले धन को सफ़ेद कैसे बनाया जाए। मैं भी बहुत से विचारों से इस स्थिति का मंथन करता रहा। हालांकि मेरी स्थिति बहुत से लोगों से अलग है। जब लगभग सभी लोग नोटों और धन की अंधी दौड़ में व्यवसायी वर्ग द्वारा दिखाए गए सपनों की तरफ भाग रहे थे तब मैंने समाज के लिए कार्य करने को चुना। मेरे मन में बहुत बार ऐसी बातें आईं कि मैं जो कर रहा हूँ क्या यह सही है। एक किस्सा आपको अपने जीवन का बताता हूँ।

एक बार मैं एक बड़े से बैग में डॉ. आंबेडकर जी की पुस्तकें एक ऐसे प्रकाशक से खरीद कर लेकर जा रहा था जो कि लगभग बंद हो चुका है। यह प्रकाशक डॉ. आंबेडकर जी की और जाति की समस्याओं पर पुस्तकों का प्रकाशन करता था। पर पाठक न मिलने के कारण इसे प्रकाशन बंद करना पड़ा। बैग भरी होने के कारण मुझे उसे उठाने में बहुत मेहनत करनी पड़ रही थी। जिस रस्ते से मैं जा रहा था वहाँ सोने और हीरे के बड़े सुनारों की दुकाने थीं। मेरे मन में बात आई कि मैं जो यह बोझा घसीट कर ले जा रहा हूँ और इसे लोगों को बेचने के लिए खूब परिश्रम करूँगा तब कहीं जा कर उतना भी नहीं कमा पाऊंगा जितना कि यह सुनार एक छोटे से हीरे या चंद ग्राम सोना बेच कर कमा लेंगे। लोग भी हीरे और सोने ही अधिक खरीदते हैं। मुझे समझ नहीं आया कि कौन सही है। समाज की भलाई का सोचनेवाला मैं या समाज से मात्र धन कमानेवाले यह सुनार। आप ही बताइए कि सोने और हीरे से समाज का भला हो सकता है या डॉ. भीमराव आंबेडकर जी के विचारों से। अफ़सोस तो यह है कि आज जो अनुसूचित जाती, जनजाति या पिछड़े वर्गों के लोग हैं,  वह भी ज़रा-सा धन आने के बाद इन्हीं सोने और हीरों के पीछे भागते हैं न कि डॉ. आंबेडकर जी की पुस्तकों के पीछे। उन्हें धन चाहिए विचार नहीं।  उन्हें  उत्पन्न किए गए आविष्कार चाहिए, पर वह अविष्कारक की अवहेलना करते हैं। उन्हें डॉ. आंबेडकर जी के समता वाले समाज में अवसर तो चाहिए ,पर उनसे प्राप्त हुए फल को वह स्वयं तक ही सीमित रखना चाहते हैं।

एक दूसरा किस्सा बताता हूँ। मेरे पास ऐसे कुछ लोगों के फोन आए जो कि डॉ. आंबेडकर जी को पंजाबी, उर्दू और सिंधी भाषाओं में पढ़ना चाहते थे। कुछ पुस्तकें मुझे पंजाबी में मिली जो कि एक मित्र पंजाब से नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर ले कर आए। वहाँ उन्होंने मुझसे पूछा कि यह पंजाबी पुस्तकें हम पंजाब में नहीं बेच पाते तो आप दिल्ली में कैसे बेचोगे ? मैंने उन्हें कोई जवाब नहीं दिया क्योंकि मैं बेचने की भावना से नहीं बल्कि इस भावना से ओतप्रोत था कि मुझे तो बस पंजाबी में पढ़नेवाले लोगों तक डॉ. आंबेडकर जी को पहुँचना है। उस दिन रात के तकरीबन दस से गयारह बजे के बीच में पुस्तकों का बहुत ही भारी बक्सा कन्धों पर उठा कर नई दिल्ली पर बने आखरी प्लेटफार्म से पहाड़ गंज के पहले प्लेटफार्म तक लाने में सर्दी में भी मेरे पसीने छूट गए। अफ़सोस यह है कि दो वर्षों से अधिक समय होने के बाद भी इक्का-दुक्का पंजाबी की पुस्तकें बिकी हैं। 

यही नहीं पंजाबी की और पुस्तकें और साथ में उर्दू की पुस्तकें भी मैंने डॉ. आंबेडकर फाउंडेशन से, बेचने के लिए खरीदी। उस समय फाउंडेशन के एक अधिकारी ने कहा कि आप पंजाबी और उर्दू में नहीं खरीदिए यह बिकेगी नहीं। पर मैंने तब भी इसलिए ही खरीदी क्योंकि मेरा मकसद पुस्तकें बेचना नहीं बल्कि डॉ. आंबेडकर जी को पंजाबी और उर्दू पढ़नेवाले लोगों तक पहुँचना था। पर आज तक एक उर्दू की पुस्तक भी नहीं बिकी है। और पंजाबी की पुस्तकों के भी इक्का-दुक्का सैट ही बीके हैं। यह तब है जब कि मैंने दिन-रात लगा कर डॉ. आंबेडकर जी की पुस्तकों का खूब प्रचार किया है। फेसबुक, ट्विटर, वाटसएप, हाईक, जीमेल, ब्लॉग, इंस्टाग्राम, यूट्यूब, क़्विकर अदि ऐसा शायद ही कोई माध्यम छूटा होगा जिससे मैंने डॉ. आंबेडकर जी की पुस्तकों की जानकारी दिन-रात लोगों तक न भेजी हो। पर अफ़सोस कि लोग उनमें रूचि ही नहीं दिखाते। पर आज मुझे इस नोटबंदी से एक आशा की किरण यह नज़र आ रही है कि लोगों का दिमाग पैसे से हट कर किसी दूसरी जगह लगेगा।

कल ही मैंने अपने एक मित्र से कहा कि अधिकांश्तर लोग शूद्र हैं। यह शूद्र हैं क्योंकि यह अपने को व्यवसाईयों, राजनेताओं और धार्मिक गुरुओं पर छोड़ देते हैं। इन शूद्रों में अधिक पढ़े-लिखे और कम पढ़े-लिखे और अनपढ़, सभी आते हैं। इनमें कम आय वाले और मध्यम आय वाले भी आते हैं। यह धन के ज़रा से स्रोतों को पा कर चैन से सो जाते हैं। नौकरीवाला रोज श्रम करने वाले की इसलिए परवाह नहीं करता, क्योंकि उसे लगता है कि उसकी नौकरी उसे प्रत्येक माह एक निश्चित आय जरूर दिलवा देगी। भले ही उसकी आय के लिए वह रोज मजदूरी करनेवाला श्रमिक जिम्मेदार हो। रोज मजदूरी करनेवाला धन का संचय कम करता है और यह नहीं सीख पाता कि कैसे वह मजदूरी छोड़ कर व्यवसायी बने। लोग सोचते हैं कि जीवन में एक बार आई. ए. एस. या कैसी भी सरकारी नौकरी की परीक्षा पास कर लें और उनकी जीवनभर की टेंशन समाप्त हो जाए। पर वह यह नहीं सोचते कि सरकार के लिए धन को अर्जित करने के लिए व्यवसायी और श्रमिक दिन-रात लगे रहते हैं।  नेताओं के लिए खुद को भगवान की स्थिति में रख कर, लोगों पर अत्याधिक टैक्स डालना आसान है, पर वह स्वयं कोई व्यवसाय नहीं कर सकते और मजदूरी तो छोड़ ही दो। जहाँ तक बैंक में कार्य करनेवालों की बात है तो यह और कोई नहीं बल्कि पुरानी सहुकारी व्यवस्था का ही एक रूप है और एक ऐसा व्यर्थ कार्य जिससे कि फिजूलखर्ची बढ़ती है। भविष्य में बैंकों की संख्या बहुत कम हो जाएगी। भारत के अधिकांश्तर लोग शूद्र हैं क्योंकि वह मानसिक गुलाम हैं।

भारत के लोगों को बहुत सी चीज़ों का मानसिक एडिक्शन हैं, या कहें कि ऐसी बहुत सी चीजों की लत (व्यसन) है जिनसे ये स्वयं की मानसिक स्वतंत्रता दूसरों को दे देते हैं। इससे इनमें बौद्धिक क्षमता का विकास नहीं हो पाता। बौद्धिक क्षमता का विकास न हो पाने की वजह से ये स्वयं, परिवार, समाज और देश एवं दुनिया के बारे में सोच नहीं पाते। इससे इनमें रचना शक्ति और नवीन विचारों की कमी रहती है। और यदि कोई नवीन विचार उत्पन्न भी होते हैं तो ये उनसे दूर भागते हैं। बौद्धिक विकास की कमी ने इनकी काल्पनिक शक्ति को भी कमजोर कर दिया है।  काल्पनिक शक्ति की कमजोरी के कारण न तो इनमें वैज्ञानिक सोच ही उत्पन्न हो पाती है और न ही ये समस्याओं के सही समाधान ही निकाल पाते हैं। इन बौद्धिक असक्षमताओं की वजह से ये सही निर्णय भी नहीं ले पाते। गलत निर्णय इनके जीवन को और बुरा बनाते हैं और इससे इनमें नकारात्मक (नेगेटिव) सोच अधिक उत्पन्न होती है।

अपनी इन मासिक लातों के शिकार हुए लोग अपनी बौद्धिक क्षमता खो देते हैं। यह लतें जो कि नशे, धर्म, व्यसनों, लालसाओं में लुप्त रहना जैसे स्वर्ण आभूषणों, और हीरों की लालसा, विलासपूर्ण जीवन की लालसा, महंगे कपड़े पहनना, महंगी करें खरीदना आदि, राजनीती, मनोरंजन (अत्यादिक फ़िल्में और टीवी देखना), खेलकूद, चाय, काफी या कोला जैसी नशीली खाद्य सामग्रियों का सेवन आदि से प्रेरित होती हैं, धीरे-धीरे लोगों के जीने का मकसद बन जाती हैं। उनके जीना का यही उद्देश्य रह जाता है कि केवल अपनी इन लातों को संतुष्ट करना। और आज यह लतें जिनके द्वारा लोगों द्वारा लगाई जाती है वह लोग सिर्फ और सिर्फ धन की लालसा से प्रेरित हो कर सब में कोई-न-कोई लतें लगवातें हैं। और वह चंद लोग जो लोगों में लतें लगवाते हैं वह लोगों के भले की नहीं सोचते।  उनका उद्देश्य समाज, देश या दुनिया का भला करने का नहीं होता। वह लोगों का बौद्धिक विकास नहीं करना चाहते। उनका उद्देश्य लोगों का बौद्धिक ह्रास (विघटन, नाश) करने का होता है। वह निरंतर लतों को प्रचार प्रसार करके आपको उनका आदि बना देते हैं।  और उन लालसाओं की पूर्ति के लिए आपको केवल और केवल धन ही नज़र आता है। और अंततः आपके जीवन का उद्देश्य बौद्धिक विकास न करके अत्याधिक धन का संचय करना ही रह जाता है जिससे आप अपनी उन लतों को संतुष्ट कर सकें। 

आपकी एक लत को आप पूरा करते हो और आपको लगता है कि आपको संतुष्टि मिल गई। परंतु ऐसा करके आप संतुष्ट नहीं होते बल्कि आपकी बौद्धिक क्षमता का जो ह्रास (नाश) होता है उससे आपकी लत और सुदृढ़ हो जाती है। या कहिए कि आपकी मानसिक गुलामी और बढ़ जाती है। व्यक्तिगत बौद्धिक क्षमता का ह्रास (नाश) एक परिवार का ह्रास (नाश) है। एक परिवार का ह्रास पूरे समाज का ह्रास है। और समाज के ह्रास से देश का ह्रास है। क्या आज हमारे देश का ह्रास नहीं है ? क्या हमारे समाज का आज ह्रास नहीं हो चुका है ? क्या हमारे परिवारों का ह्रास नहीं हो चुका है ? क्या आज हमारा व्यक्तिगत ह्रास नहीं हो चुका है ? और देखिए उन लोगों को जिन्हें हमने अपनी मानसकि स्वतंत्रता दी। देखे व्यवसाईयों को, नेताओं को, सरकारी कर्मचारियों को, खेल और मनोरंजन जगत के लोगों को, बैंकों के कर्मचारियों को, धार्मिक गुरुओं को, नशे के सौदागरों को, जिन पर हमने अपनी मानसिक गुलामी दी। देखिए कि हमने स्कूल और कालेजों को आदर्शवादी माना पर यह संस्थाएं भी धराशायी हो चुकी हैं क्योंकि शूद्र जनता और धूर्त लोग, दोनों ही इन्हीं संस्थाओं से निकलते हैं।  यह संस्थाएं न तो बौद्धिक क्षमताओं का ही विकास कर पाती हैं और न ही सही प्रकार नैतिकता दे पाती हैं।

अब क्या है आपके हाथों में ? चंद हजार रूपये ? क्या इनसे आप अपनी उन लतों और उन व्यसनों को दूर कर सकते हैं जो धूर्त लोगों ने आपको लगाई हैं।  इसलिए मैंने प्रारम्भ में कहा कि आज नोटबंदी में मुझे आशा की किरण नज़र आती है। मुझे उम्मीद है कि भले ही नोटबंदी का यह काल (समय) कितना ही छोटा हो, फिर भी यह काफी समय होगा कि लोग अपनी इन लतों को छोड़ कर कुछ और सोचें। लोग सोचेंगे तो उनमें बौद्धिक क्षमता बढ़ेगी। वह किसी अंधे की तरह धन के पीछे नहीं भागेंगे। उनमें उन साधुओं का विवेक उत्पन्न होगा जो सांसारिक वस्तुओं का मोह भांग कर लेते हैं। उनमें उन सिद्धार्थ गौतम की वे आध्यात्मिक लालसा उत्पन्न होगी जिससे वह संसार के प्रलोभनों को छोड़ कर बुद्ध बनने ने लिए निकल पड़े थे। इसलिए मैंने यह भी कहा कि डॉ. आंबेडकर जी को पढ़ना जरूरी है क्योंकि जो पिछड़ा तबका आजतक शूद्र ही है वह आखिर क्यों नहीं उठ पाया ? वह सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक रूप से पिछड़ा हुआ है।  क्योंकि वह डॉ. भीमराव आंबेडकर जी के दिलाए आरक्षण से स्कूलों में दाखिला और छात्रवृति तो चाहता है, वह कालेजों में आरक्षण से दाखिला तो चाहता है, वह आरक्षण से सरकारी नौकरी तो चाहता है, वह संविधान में समता के अधिकार से गैर-सरकारी नौकरियों और व्यसाय में लगना तो चाहता है, वह आरक्षण से नेता और मंत्री तो बनाना चाहता है, वह (महिलाएं) संपत्ति में अधिकार तो चाहती हैं, पर यह सब दिलवानेवाले बाबा साहिब डॉ. भीमराव आंबेडकर जी के विचारों को कोई पढ़ना नहीं चाहता।

जब तक डॉ. आंबेडकर जी को पढ़ेंगे नहीं तब तक अपना विकास नहीं कर सकते। आपकी इस देश में क्या स्थिति है, आपकी इस देश में यह स्थिति क्यों हैं, आप इतने पिछड़े क्यों हो, आपके अधिकार क्या हैं, आप आरक्षण होते हुए भी राजनैतिक रूप से पिछड़े हुए हो, आप बड़े व्यवसायी क्यों नहीं बन पाए, इन सब प्रश्नों का उत्तर डॉ. आंबेडकर जी देते हैं। डॉ. आंबेडकर जी ने आखिर पुस्तकें क्यों लिखी ? वह बड़े वकील थे। समाज के भविष्य के लिए पुस्तकें लिखने की जगह वकालत से धन कमा सकते थे। डॉ. आंबेडकर जी ने आपके लिए दुनिया का सबसे लंबा संविधान लिखा। वर्षों तक संविधान लिखने की जगह वह बड़े व्यापारियों के मुकद्दमें लड़ सकते थे और धन कमा सकते थे। कानून मंत्री रहते हुए उन्होंने महिलाओं के अधिकारों के लिए इस्तीफा दे दिया। वह चाहते तो इस्तीफा नहीं देते और मंत्रिपद से चिपके रहते। इतना सब बाबा साहिब डॉ. आंबेडकर जी कर गए पर जो उनकी मेहनत का आज फल भोग रहे हैं वह उन्हें पढ़ना भी नहीं चाहते ? बाबा साहेब तो कभी धन के पीछे नहीं भागे पर आज लोग आँख बंद करके धन के पीछे भाग रहे हैं।

तो भले ही यह नोटबंदी कुछ दिनों की हो। लोगों को अपनी-अपनी स्थिति के बारे में सोचना चाहिए। उन्हयें यह आंकलन लगना चाहिए कि उन्हें किन व्यसनों की लत (एडिक्शन) है। उन्हें यह सोचना चाहिए कि उनका बौद्धिक विकास कितना हुआ है। डॉक्टर या इंजिनियर या कोई अफसर बनने का अर्थ यह नहीं कि किसी में बौद्धिकता भी हो। कोई एम एन सी में मोटी आय पर लगा हो या किसी व्यवसाय से धन कमा रहा हो या नेता बन गया हो, बौद्धिकता की कमी सभी में है। जिनके भरोसे आप जी रहे थे उन्होंने एक पल में ही आपको लाइन में खड़ा कर दिया। क्योंकि आपने सोचना और समझना बंद कर दिया और अपने को चंद लोगों का गुलाम बना दिया।तो देखिए कि उन चंद लोगों ने आपको अपने ही धन के लिए लाइन में लगवा दिया।  आपको जिस धन में स्वतंत्रता नज़र आती थी उसी धन के लिए आप कितने गुलाम हैं, यह आपको एक पल में बता दिया गया। इसलिए आप भविष्य के लिए सतर्क रहें। अपनी लातें छोड़ें। अपनी बौद्धिकता का विकास करके बुद्धिजीवी बनना अपने जीवन का लक्ष्य बनाएं।

आप सरकारी नौकर हैं तो रोजाना श्रम करनेवालों के भविष्य की सोचें। आप गैरसरकारी नौकरी में हैं तो व्यवसाय करने की सोचें। आप व्यवसाय में हैं तो अपने यहाँ काम करनेवालों के परिवार की शिक्षा और उनकी उन्नति की सोचें। आप नेता या मंत्री हैं तो केवल-और-केवल समाज के भले की ही सोचें। याद रखिए कि किसी भी समाज में मनुष्य को वही प्राप्त होता है जिस समाज  का हिस्सा वह स्वयं होता है। आप समाज को मजबूत बनाइए तो समाज आपको कमजोर पड़ने ही नहीं देगा। आप समाज को धनी बनिए तो समाज में आपको धन की कमी महसूस ही नहीं होगी। आप समाज को ईमानदार बनाइए तो आपके साथ बेईमानी होगी ही नहीं। यदि हम देंगे तो हमें मिलेगा भी। यदि हम सिर्फ लेने की सोचेंगे तो हमसे छीना भी जा सकता है। आज यही स्थिति है कि जिन्होंने सिर्फ लेने की ही सोची उन्हें छिन जाने का डर है। यदि लेने वालों ने बांटना सीख लिया होता तो आज किसी को उनसे छीनने की जरुरत नहीं पड़ती।

डॉ. आंबेडकर जी ने सदा, देश और दुनिया को अपना दिया। उन्होंने जो कड़े परिश्रम से विद्या प्राप्त की उससे भारत के टूटे और भिखरे हुए समाज को मजबूत और एकजुट किया। अपनी शिक्षा और कार्यों के अनुभव पर उन्होंने संविधान की रचना की और देश ही नहीं बल्कि विश्व को एक श्रेष्ठ संविधान दिया। आज डॉ. आंबेडकर जी को इतना सम्मान दिया जाता है क्योंकि उन्होंने समाज को सिर्फ और सिर्फ दिया। अपनी शिक्षा को भी उन्होंने केवल निजी स्वार्थ के लिए ही सीमित नहीं रखा बल्कि उसमें अपने अन्य अनुभव जोड़ कर उन्होंने श्रेष्ट ग्रंथों की रचना की। वह केवल और केवल समाज को देना चाहते थे। समाज को अपना वह दान वह न केवल अपने जीवनकाल तक ही सीमित रखना चाहते थे बल्कि उसके बाद भी। इसलिए उन्होंने पुस्तकें लिखी, अपने लेखों को पुस्तकों के रूप में प्रकाशित करवाया और ऐसे विधान (कानून) बनाए जिनसे उन लोगों को शिक्षा प्राप्ति का मौक़ा मिल पाया जिनको पीढ़ियों से शिक्षा से वंचित रखा गया था।

परंतु आज जिन लोगों को डॉ. आंबेडकर जी की तपस्या से फल प्राप्त हो रहे हैं वह केवल अपने निजी स्वार्थों तक ही सिमित रहना चाहते हैं। वह अपने फलों को बांटना नहीं चाहते। वह फल देनेवाली व्यवस्था को उत्पन्न करनेवाले बाबा साहिब के उन विचारों को नहीं जानना चाहते जो कि उन्होंने उन पुस्तकों के रूप में अपने आनेवाली पीढ़ी के लिए रखे थे जो उनके जीवनकाल के बाद पैदा हुए। उनके जीवनकाल के बाद वाली पीढ़ी उनके बनाए आरक्षण और संवैधानिक समता से प्राप्त हुए अवसरों को तो चाहती है पर उनकी शिक्षा को ग्रहण करना नहीं चाहती। वह डॉ. आंबेडकर जी से ऋण तो ले रही है पर न ही तो समाज का भला कर रही जिससे की डॉ. आंबेडकर जी का ऋण चुका सके और न ही डॉ. आंबेडकर जी को पढ़ रही जिससे कि वह अपनी कृतज्ञता प्रदर्शित कर सके।


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