लोगों को बहुत आवश्यक
राहत प्रदान करने और
घरेलू मांग को बढ़ावा देने
के लिए आर्थिक बदलाव
लाने के लिए बजट को
निम्नलिखित कार्य करने
चाहिए थे:
1. रोजगार सृजित करने वाली
परियोजनाओं में सार्वजनिक
निवेश में पर्याप्त वृद्धि करना।
2. अधिक मजदूरी के साथ मनरेगा
के लिए आवंटन में भारी वृद्धि करें।
3. 5 किलो मुफ्त अनाज के साथ
5 किलो सब्सिडी वाला अनाज बहाल करें।
4. संपत्ति और विरासत कर लगाएं।
5. खाने-पीने की चीजों और
दवाओं समेत जरूरी वस्तुओं
पर जीएसटी वापस लिया जाए।
2022-23 के लिए संशोधित अनुमानों की तुलना में 2023-24 के लिए कुल सरकारी व्यय में वृद्धि मात्र 7 प्रतिशत है, जबकि इसी अवधि में नाममात्र (मुद्रास्फीति के साथ) जीडीपी में वृद्धि 10.5 प्रतिशत होने का अनुमान लगाया गया है। इस प्रकार, सकल घरेलू उत्पाद के प्रतिशत के रूप में सरकारी व्यय में कमी आई है। अगर ब्याज भुगतान को हटा दिया जाए तो यह खर्च पिछले साल के मुकाबले महज 5.4 फीसदी ज्यादा है। एक बार जब 4 प्रतिशत की अंतर्निहित मुद्रास्फीति दर और लगभग 1 प्रतिशत की जनसंख्या में वृद्धि का हिसाब लगाया जाता है, तो यह तथाकथित "जन-केंद्रित" बजट हमारी आबादी के विशाल बहुमत की आजीविका पर और हमले करता है।
जब बेरोजगारी दर ऐतिहासिक उच्च स्तर पर है तो बजट मनरेगा आवंटन में 33 प्रतिशत की कमी करता है। खाद्य सब्सिडी में 90,000 करोड़ ,उर्वरक सब्सिडी में 50,000 करोड़ रुपये और पेट्रोलियम सब्सिडी में 900 करोड़ रुपये की कटौती की गई है। महामारी से हुई तबाही के बावजूद 9255 करोड़ रु. स्वास्थ्य के लिए पिछले वर्ष के आवंटन में से अव्ययित रहे। इसी तरह, शिक्षा बजट में 4297 करोड़ रूपये खर्च नहीं हो पाए।
आईसीडीएस योजना के कर्मचारियों के लिए पहले से ही मामूली पारिश्रमिक में कोई वृद्धि नहीं दिख रही है। जेंडर बजट कुल व्यय का केवल 5 प्रतिशत है। अनुसूचित जाति का बजट 16 प्रतिशत की आबादी के मुकाबले केवल 3.5 प्रतिशत है और एसटी का बजट 8.6 प्रतिशत की आबादी के मुकाबले केवल 2.7 प्रतिशत है। किसानों की आय दोगुनी करने के बड़बोले दावों का खोखलापन पीएम किसान फंड के आवंटन को 68,000 करोड़ रु. से घटाकर 60,000 करोड़ करने में देखा जा सकता है।
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