एमएसपी की क्रांतिकारी मांग
आज यह साफ है कि पूरे कृषि समाज का संकट कृषि पण्यों के बाजार की परिस्थितियों से पैदा हुआ संकट है। किसान को अपने उत्पाद पर लागत जितना भी दाम न मिल पाने से पैदा हुआ संकट है। अर्थात एक प्रकार से किसानों की फसल को बाजार में लूट लिए जाने से पैदा हुआ संकट है। और जो इजारेदार अब तक इस बाजार को परोक्षतः प्रभावित कर रहे थे, अब उनके खुलकर सामने आकर कृषि समाज पर अपना पूर्ण अधिपत्य की कोशिश का सीधा परिणाम है यह प्रतिरोध संघर्ष।कृषि क्षेत्र में भूमि सुधार ही हर समस्या की रामबाण दवा नहीं है। किसान को जीने के लिए जोतने की जमीन के साथ ही फसल का दाम भी समान रूप से जरूरी है। भारत के किसान आंदोलन को भी हमेशा इसका एहसास रहा है। इसलिए तो एमएसपी को सुनिश्चित करने की मांग किसान आंदोलन के केंद्र में आई है।
सन 2004 में स्वामीनाथन कमेटी के नाम से प्रसिद्ध किसानों के बारे में राष्ट्रीय आयोग का गठन भी इसी पृष्ठभूमि में हुआ था जिसने अक्टूबर 2006 में अपनी अंतिम रिपोर्ट में कृषि पण्य पर लागत के डेढ़ गुना के हिसाब से न्यूनतम समर्थन मूल्य को तय करने का फार्मूला दिया था । तभी से केंद्र सरकार पर उस कमेटी की सिफारिशों को लागू करने का लगातार दबाव है । यह तो साफ है कि यदि कृषि बचेगी तो उसके साथ जुड़े हुए ग्रामीण समाज के सभी तबकों के हितों की रक्षा भी संभव होगी।
सरकारें कुछ पण्यों पर एमएसपी तो हर साल घोषित करती रही, एपीएमसी की मंडियों वाले दो-तीन राज्यों के किसानों को थोड़ा लाभ भी हुआ। लेकिन लागत के डेढ़ गुना वाला फार्मूला सही रूप में आज तक कहीं भी और कभी भी लागू नहीं हुआ है और न ही एमएसपी से कम कीमत पर फसल को न खरीदने की कोई कानूनी व्यवस्था ही बन पाई है। जब किसान अपनी इन मांगों के लिए जूझ ही रहे थे कि तभी अंबानी-अडानी की ताकत से मदमस्त मोदी ने बिल्कुल उल्टी दिशा में ही चलना शुरू कर दिया। और इस प्रकार एक झटके में पूरी कृषि संपदा पर हाथ साफ करने के इजरेदारों के सारे इरादे खुलकर सामने आ गए।
आज इस किसान आंदोलन ने देश के हर कोने में पहले से बिछे हुए असंतोष के बारूद में जिस प्रकार एक पलीते की भूमिका अदा करनी शुरू कर दी है , उससे इस ज्वालामुखी के विस्फोट की शक्ति का एक संकेत मिलने पर भी कोई भी इसका पूरा अनुमान नहीं लगा सकता है।
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