नियतिवाद
कार्य -कारण-निय्स्त में नियम -नियति - अवश्यंम भाविता - दुबक के बैठा हुआ है , जिससे नियतिवाद का प्रसव बिल्कुल आसानी से हो सकता है |
प्रकृति में कार्य - कारण- नियम हर जगह बराबर दिखाई पड़ता है | किन्तु इस तरह के कदे नियम को जब हम एक मनुष्य या अनेक मनुष्यों पर लागू करना चाहते हैं , तो भरी दिक्कत ही का सामना नहीं करना पड़ता ; बल्कि कितनी ही बार वह व्यक्ति या व्यक्ति -समूह उसे लागू होने नहीं देता ; यही वजह है, जो कि हम प्रकृति के बारे में जितने इत्मिनान के साथ भविष्य - कथन कर सकते हैं, मनुष्य के बारे में उतना नहीं कर सकते | आप इससे खुश न होईये -- अच्छा हुआ जो मनुष्य की ( इच्छा या कर्म में) स्वतंत्रता सुरक्षित राह गयी और वह नियति के पाश में बांधा "मदारी" का भालू नहीं बां गया | नियतिवाद और स्वतत्र्यवाद की समस्या काफी गहन है -- खासकर जबकि प्रकृति ( प्रयोग ) का सहारा छोड़ लोग इससे आकाश के सितारे तोड़ने लगते हैं |
हाँ तो प्रश्न है - जब प्रकृति में सर्वत्र करया - कारण -नियम व्यापा हुआ है ( इसे माने बिना कोई साइंस - संबंधी गवेषणा संभव नहीं ), तो मनुष्य को "स्वतंत्र कर्ता" कैसे कह सकते हैं ? कार्य - कारण - नियम एक जबरदस्त नियति ( भाग्य ) है , जिसके द्वारा विश्व की प्रत्येक वस्तु ( घटना प्रवाह )नियत है ; तभी तो हम प्रयोगशाला या वेधशाला में कार्य कारण तक पहुँचने का प्रयत्न करते हैं , अथवा कारण से कार्य के संभव होने का ख्याल करके उसके पाने के लिए परिश्रम करते हैं | फिर तो बेचारा मनुष्य हाथ- पैर से बांधा है , उसकी तो साँस भी इसी कार्य - कारण के अधीन है | इसका अर्थ दूसरे शब्दों में यह हुआ कि हमारी इच्छा , हमारे अंतस्तम विचार सभी नियति - भाग्य के हाथ में हैं | फिर तो यह मानना पड़ेगा कि विश्व के भीतर एक खास प्रयोजन छिपा मालूम देता है और उसका संचालक " ईश्वर" यह सब कुछ एक खास प्रयोजन से कर्ता है | किन्तु अभी इतनी दूर तक जाने की जरूरत नहीं , क्योंकि नियतिवाद दुधारी तलवार है, यदि वह मानव को हाथ पैर बांधकर छोड़ देगा तो "ईश्वर " की दशा भी उससे बेहतर न होगी वह भी नुयती के हाथ की कठपुतली मात्र रह जायेगा|
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