भ्रष्टाचार और अनाचार के इस नरक में जहाँ इंसानियत ,न्याय,विवेक और तमाम जनतांत्रिक मान मूल्यों को अर्थहीन बनाने की कोशिश बड़े पैमाने पर जारी हो, वहां समाज के बुद्धिजीवी वर्ग की --- शिक्षकों , छात्रों ,वकीलों,डाक्टरों ,कला कर्मियों --पत्रकारों और लेखकों की भूमिका बहुत बढ़ जाती है | कहना न होगा की इस महारोग के विषैले कीटाणु बुद्धिजीवियों मे ं भी खूब घर कर चुके हैं | खासकर हरयाणा प्रदेश के सन्दर्भ में ,चूंकि मध्यम वर्ग की यहाँ पैदाइश और परवरिश अनेक ऐतिहासिक कारणों से इसी बीमार माहौल में हुई इसलिए यहाँ स्वतंत्रता पूर्व के जनतांत्रिक और मानवीय आदर्शों का असर भी मध्यम वर्ग पर बहुत कमजोर रहा है | इसलिए एक गहरे नैतिक और विचारधारात्मक संघर्ष की यहाँ जरूरत और गूंजाइश की बात १९८३ में कुछ बुद्धिजीवियों ने सोची थी | सोचा था की यदि इन कीटाणुओं के विरुद्ध एक संग्राम नहीं छेड़ते तो हम न सिर्फ अपने व्यवसाय और कर्म के प्रति अन्याय करेंगे बल्कि वह दिन दूर नहीं जब हमारे अपने अपने कोठरों को भी यह आग अपनी चपेट में ले लेगी | सीमित प्रयासों के चलते भी एक प्रभाव हम छोड़ पाए हैं और "ज्ञान विज्ञानं आन्दोलन" ने हरयाणा में समाज सुधार आन्दोलन के रूप में एक नए नवजागरण की भूमिका को रेखांकित किया है | इस सबके बावजूद बर्बर तानाशाहियाँ भी इसी अराजकता का इंतजार किया करती हैं | फिर आज तो अनेक तरह से उसकी भूमिका बन रही है | ऐसे में जिन चीजों ने समाज को संगठित करने में ,,उसे अधिक से अधिक मानवीय बनाने में एक भूमिका निभायी है उनकी खोयी हुयी साख को कायम करना हमारा दायित्व और जरूरत है
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Will fail Fighting and not surrendering
I will rather die standing up, than live life on my knees:

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