आज का दौर समझना जरूरी है
गहरे संकट के दौर हमारी धार्मिक आस्थाओं को साम्प्रदायिकता के उन्माद में बदलकर हमें जात गोत्र व धर्म के ऊपर लडवा कर हमारी इंसानियत के जज्बे को , हमारे मानवीय मूल्यों को विकृत किया जा रहा है | गऊ हत्या या गौ-रक्षा के नाम पर हमारी भावनाओं से खिलवाड़ किया जाता है | दुलिना हत्या कांड और अलेवा कांड गौ के नाम पर फैलाये जा रहे जहर का ही परिणाम हैं |इसी धार्मिक उन्माद और आर्थिक संकट के चलते हर तीसरे मील पर मंदिर दिखाई देने लगे हैं |राधास्वामी और दूसरे सैक्टों का उभार भी देखने को मिलता है |
सांस्कृतिक स्तर पर हरयाणा के चार पाँच क्षेत्र है और इनकी अपनी विशिष्टताएं हैं |हरेक गाँव में भी अलग अलग वर्गों व जातियों के लोग रहते हैं | जातीय भेदभाव एक ढंग से कम हुए हैं मगर अभी भी गहरी जड़ें जमाये हैं | आर्थिक असमानताएं बढ़ रही हैं | सभी सामाजिक व नैतिक बंधन तनावग्रस्त होकर टूटने के कगार पर हैं | बेरोजगारी बेहताशा बढ़ी है | मजदूरी के मौके भी कम से कमतर होते जा रहे हैं| मजदूरों का जातीय उत्पीडन भी बढ़ा है | दलितों पर अन्याय बढ़ा है वहीँ उनका असर्सन भी बढ़ा है |कुँए अभी भी अलग अलग हैं |परिवार के पितृसतात्मक ढांचे में परतंत्रता बहुत ही तीखी हों रही है | पारिवारिक रिश्ते नाते ढहते जा रहे हैं | मगर इनकी जगह जनतांत्रिक ढांचों का विकास नहीं हों रहा |तल्लाको के केसिज की संख्या कचहरियों में बढती जा रही है | इन सबके चलते महिलाओं और बच्चों पर काम का बोझ बढ़ता जा रहा है | मजदूर वर्ग सबसे ज्यादा आर्थिक संकट की गिरफ्त में है |खेत मजदूरों ,भठ्ठा मजदूरों ,दिहाड़ी मजदूरों व माईग्रेटिड मजदूरों का जीवन संकट गहराया है |लोगों का गाँव से शहर को पलायन बढ़ा है |
कृषि में मशीनीकरण बढ़ा है | तकनीकवाद का जनविरोधी स्वरूप ज्यादा उभार कर आया है | ज़मीन की ढाई एकड़ जोत पर ८० प्रतिशत के लगभग किसान पहुँच गया है | ट्रैक्टर ने बैल की खेती को पूरी तरह बेदखल कर दिया है| थ्रेशर और हार्वेस्टर कम्बाईन ने मजदूरी के संकट को बढाया है |समलत जमीनें खत्म सी हों रही हैं | कब्जे कर लिए गए या आपस में जमीन वालों ने बाँट ली | अन्न की फसलों का संकट है | पानी की समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया है | नए बीज ,नए उपकरण , रासायनिक खाद व कीट नाशक दवाओं के क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की दखलंदाजी ने इस सीमान्त किसान के संकट को बहुत बढ़ा दिया है |प्रति एकड़ फसलों की पैदावार घटी है जबकि इनपुट्स की कीमतें बहुत बढ़ी हैं | किसान का दर्ज भी बढ़ा है |स्थाई हालातों से अस्थायी हालातों पर जिन्दा रहने का दौर तेजी से बढ़ रहा है |अन्याय व अत्याचार बेइन्तहा बढ़ रहे हैं |किसान वर्ग के इस हिस्से में उदासीनता गहरे पैंथ गयी है और एक निष्क्रिय पजीवी जीवन , ताश खेल कर बिताने की प्रवर्ति बढ़ी है | हाथ से काम करके खाने की प्रवर्ति का पतन हुआ है | साथ ही साथ दारू व सुल्फे का चलन भी बढ़ा है और स्मैक जैसे नशीले पदार्थों की खपत बढ़ी है | मध्यम वर्ग के एक हिस्से के बच्चों ने अपनी मेहनत के दम पर सॉफ्ट वेयर आदि के क्षेत्र में काफी सफलताएँ भी हांसिल की हैं | मगर एक बड़े हिस्से में एक बेचैनी भी बखूबी देखी जा सकती है | कई जनतांत्रिक संगठन इस बेचैनी को सही दिशा देकर जनता के जनतंत्र की लडाई को आगे बढ़ाने में प्रयास रात दिखाई देते हैं |अब समर्थन का ताना बाना टूट गया है और हरयाणा में कृषि का ढांचा बैठता जा रहा है | इस ढांचे को बचाने के नाम पर जो नई कृषि नीति या निति परोसी जा रही है उसके पूरी तरह लागू होने के बाद आने वाले वक्त में ग्रामीण आमदनी ,रोजगार और खाद्य सुरक्षा की हालत बहुत भयानक रूप धारण करने जा रही है और साथ ही साथ बड़े हिस्से का उत्पीडन भी सीमायें लांघता जा रहा है, साथ ही इनकी दरिद्र्ता बढती जा रही है | नौजवान सल्फास की गोलियां खाकर या फांसी लगाकर आत्म हत्या को मजबूर हैं |
गाँव के स्तर पर एक खास बात और पिछले कुछ सालों में उभरी है वाह यह की कुछ लोगों के प्रिविलेज बढ़ रहे हैं | इस नव धनाड्य वर्ग का गाँव के सामाजिक सांस्कृतिक माहौल पर गलबा है |पिछले सालों के बदलाव के साथ आई छद्म सम्पन्नता , सुख भ्रान्ति और नए नायर सम्पन्न तबकों --परजीवियों ,मुफतखोरों और कमीशन खोरों -- में गुलछर्रे उड़ने की अय्यास कुसंस्कृति तेजी से उभरी है | नई नई कारें ,कैसिनो ,पोर्नोग्राफी ,नांगी फ़िल्में ,घटिया केसैटें , हरयाणवी पॉप ,साइबर सैक्स ,नशा व फुकरापंथी हैं,कथा वाचकों के प्रवचन ,झूठी हसियत का दिखावा इन तबकों की सांस्कृतिक दरिद्र्ता को दूर करने के लिए अपनी जगह बनाते जा रहे हैं| जातिवाद व साम्प्रदायिक विद्वेष ,युद्ध का उन्माद और स्त्री द्रोह के लतीफे चुटकलों से भरे हास्य कवी सम्मलेन बड़े उभार पर हैं | इन नव धनिकों की आध्यात्मिक कंगाली नए नए बाबाओं और रंग बिरंगे कथा वाचकों को खींच लाई है | विडम्बना है की तबाह हों रहे तबके भी कुसंस्कृति के इस अंध उपभोगतावाद से छद्म ताकत पा रहे हैं |
दूसर तरफ यदि गौर करेँ तो सेवा क्षेत्र में छंटनी और अशुरक्षा का आम माहौल बनता जा रहा है इसके बावजूद कि विकास दर ठीक बताई जा रही है |कई हजार कर्मचारियों के सिर पर छंटनी कि तलवार चल चुकी है और बाकी कई हजारों के सिर पर लटक रही है | सैंकड़ों फैक्टरियां बंद हों चुकी हैं | बहुत से कारखाने यहाँ से पलायन कर गए हैं | छोटे छोटे कारोबार चौपट हों रहे हैं | संगठित क्षत्र सिकुड़ता और पिछड़ता जा रहा है | असंगठित क्षेत्र का तेजी से विस्तार हों रहा है | फरीदाबाद उजड़ने कि राह पर है , सोनीपत सिसक रहा है , पानीपत का हथकरघा उद्योग गहरे संकट में है | यमुना नगर का बर्तन उद्योग चर्चा में नहीं है ,सिरसा ,हांसी व रोहतक की धागा मिलें बंद हों गयी | धारूहेड़ा में भी स्थिलता साफ दिखाई देती है |
स्वास्थ्य के क्षेत्र में और शिक्षा के क्षेत्र में बाजार व्यवस्था का लालची व दुष्ट्कारी खेल सबके सामने अब आना शुरू हों गया है | स्वार्थी राजनीति के निहित स्वार्थ ने समस्या को और ज्यादा गंभीर बना दिया है |सार्वजनिक क्षेत्र में ६० साल से खड़े किये ढांचे को या तो ध्वस्त किया जा रहा है या फिर कोडियों के दाम बेचा जा रहा है | शिक्षा आम आदमी की पहुँच से दूर खिसकती जा रही है | शिक्षा का स्तर दिन din गिरता जा रहा है | शिक्षा का निजीकरण और व्यापारीकरण बड़े पैमाने पर देखा जा सकता है |स्वस्थ्य के क्षेत्र में और भी बुरा हाल हुआ है | गजिब मरीज के लिए सभी तरफ से दरवाजे बंद होते जा रहे हैं | आरोग्य कोष या राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना जैसी योजनाएँ ऊँट के मूंह में जीरे के सामान हैं | इनको भी ठीक ढंग से लागू नहीं किया जा रहा | नेशनल फॅमिली हेल्थ सर्वे ३ में कई निराश करने वाले पहलू भी हैं|
आज के दिन व्यापार धोखाधड़ी में बदल चुका है | यही हल हमारे यहाँ की ज्यादातर राजनैतिक पार्टियों का हों चुका है | आज के दिन हर क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा ने दुश्मनी का रूप ले लिया है | हरयाणा में दरअसल सभ्य भाषा का विकास ही नहीं हों पाया है | लात की भाषा का प्रचलन बढ़ा है | भ्रम व अराजकता का माहौल बढ़ा है | लोग किसी भी तरह मुनाफा कमाकर रातों रात करोड़ पति से अरबपति बनने के सपने देखते हैं |मनुष्य की मूल्यव्यवस्था ही उसकी विचारधारा होती है | मनुष्य कितना ही अपने को गैर राजनैतिक मानने की कोशिश करे फिर भी वह अपनी जिन्दगी में मान मूल्यों का निर्वाह करके इस या उस वर्ग की राजनीति कर रहा होता है | विचारधारा का अर्थ है कोई समूह ,समाज या मनुष्य खुद को अपने चारों और की दुनिया को , अपनी वास्तविकता को कैसे देखता है | इस सांस्कृतिक क्षेत्र के भिन्न भिन्न पहलू हैं | धर्म ,परिवार ,शिक्षा ,प्रचार माध्यम ,सिनेमा,टी. वी. ,रेडियो ,ऑडियो , विडियो, अख़बार , पत्र पत्रिकाएँ ,अन्य लोकप्रिय रूप जिनमें लोक कलाएं ही नहीं जीवन शैलियों से लेकर तीज त्यौहार ,कर्मकांड ,विवाह , मृत्यु भोज आदि तो हैं ही; टोने-- टोटके , मेले ठेले भी शामिल हैं |इतिहास और विचारधारा की समाप्ति की घोसना करके एक सीमा तक भ्रम अवश्य फैलाया जा सकता है मगर वर्ग संघर्ष को मिटाया नहीं जा सकता | यही प्रकृति का नियम भी है और विज्ञानं सम्मत भी |इन्सान पर निर्भर करता है कि वह मुठ्ठी भर लोगों के विलास बहुल जीवन की झांकियों को अपना आदर्श मानते हुए स्वप्न लोक के नायक और नायिकाओं के मीठे मीठे प्रणय गल्पों में मजा ले, मानव मानवी की अनियंत्रित यौन आकाँक्षाओं को जीवन की सबसे बड़ी प्राथमिकता के रूप में देखें , औरत की देह को जीवन का सबसे सुरक्षित क्षेत्र बाना डाले या अपने और आम जनता के विशाल जीवन और उसके विविध संघर्षों को आदर्श मानकर वैचारिक ऊर्जा प्राप्त करे | समाज का बड़ा तबका बेचैन है अपनी गरिमा को फिर से अर्जित करने को | कुछ जनवादी संगठन इस बेचैनी को आवाज देने व वर्गीय अधरों पर लामबंद करने को प्रयासरत हैं
आने वाले समय में गरीब और कमजोर तबकों ,दलितों, युवाओं ,और खासकर महिलाओं का अशक्तिकरण तथा इन तबकों का और भी हासिये पर धकेले जाना साफ तौर पर उभरकर आने वाला है | इन तबकों का अपनी ज़मीन से उखड़ने, उजड़ने व तबाह होने का दौर शुरू हों चुका है और आने वाले समय में और तेज होने वाला है | हरयाणा में आज शिक्षित , अशिक्षित और अर्धशिक्षित युवा लड़के व लड़कियां मरे मरे घूम रहे हैं | एक तरफ बेरोजगारी की मार है और दूसरी तरफ अंध उपभोग की लंपट संस्कृति का अंधाधुंध प्रचार है | इनके बीच में घिरे ये युवक युवतियां लंपटीकरण का शिकार तेजी से होते जा रहे हैं | स्थगित रचनात्मक ऊर्जा से भरे युवाओं को हफ्ता वसूली ,नशा खोरी ,अपराध,और दलाली के फलते फूलते कारोबार अपनी और खींच रहे हैं | बहुत छोटा सा हिस्सा भगतसिंह की विचारधारा से प्रभावित होकर सकारात्मक एजेंडे पर इन्हें लामबंद करने लगा है | ज्ञान विज्ञानं आन्दोलन ने भी अपनी जगह बनाई है |
प्रजातंत्र में विकास का लक्ष्य सबको समान सुविधाएँ और अवसर उपलब्ध करवाना होता है | विकास के विभिन्न सोपानों को पर करता हुआ संसार यदि एक हद तक विकसित हों गया है तो निश्चय ही उसका लाभ बिना किसी भेदभाव के दुनिया की पूरी आबादी को मिलना चाहिए परन्तु आज का यथार्थ ही यह है की ऐसा नहीं हुआ | आज के दौर में तीन खिलाडी नए उभार कर आये हैं (पहला डब्ल्यू .टी.ओ.-विश्व व्यापार संगठन ,दूसरा -विश्व बैंक व तीसरा -अंतराष्ट्रीय मुद्रा कोष )| खुली बाजार व्यवस्था के ये हिम्मायती दुनिया के लिए समानता की बात कभी नहीं करते बल्कि संसार में उपलब्ध महान अवसरों को पहचानने और उनका लाभ उठाने बात करते हैं ,गड़बड़ यहीं से शुरू होने लगती है | बहुराष्ट्रीय संस्थाओं की 1,70 ,000 शाखाएँ विश्व के कोने कोने में फैली हुई हैं | ये संस्थाएं विभिन्न देशों की राजनितिक ,सामाजिक ,सांस्कृतिक गतिविधियों पर भी हस्तक्षेप करने लगी हैं | ध्यान देने योग्य बात है की इन सबके केन्द्रीय कार्यालय अमेरिका ;पश्चिम यूरोप या जापान में हैं | इनकी अपनी प्राथमिकताएँ हैं | बाजार व्यवस्था इंका मूलमंत्र है | हरयाणा को भी इन कम्पनियों ने अपने कर्मक्षेत्र के रूप में चुना है | गुडगाँव एक जीता जागता उदाहरण है |साइनिंग गुडगाँव तो सबको दिखाई देता है मगर सफरिंग गुडगाँव को देखने को हम तैयार नहीं हैं |
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