Tuesday, April 23, 2013

किसान समाज की आर्थिक और सामाजिक धुरी

किसान हमारे समाज की आर्थिक और सामाजिक धुरी हैं नव्य आर्थिक उदारीकरण के दौर में उस पर सबसे ज्यादा हमलेऔर अत्याचार हुए हैं जो मीडिया में अमूमन नहीं आते। किसान की खबर तब ही आती है जब वहाँ हिंसा हो। यदिआंदोलन चल रहा है और कोई हिंसा नहीं घटती तो वह खबर नहीं बनती। किसान के सामान्य जीवन में जब कुछअघटित घटता है तो मीडिया और राजनैतिकदलों को उसकी सुध आती है। जब कहीं से किसानों की आत्महत्या की खबरेंआने लगती हैं तो प्रषासन हरकत में आता है और फिर सहायता कार्य की मीडिया बाइट्स आनी आरंभ हो जाती हैं।इससे एक तदर्थ कम्युनिकेशन बनता है। गहराई में जाकर देखें तो मीडिया उसके साथ समाज और राजनीति काकम्युनिकेशन नहीं बनाना चाहता।
किसान को कभी मीडिया से लेकर राजनैतिक दलों तक ने स्थाई एजेण्डा नहीं बनाया। एक जमाने में कुछ राज्यों में खासकर केरल और पष्चिम बंगाल में भूमि सुधार कार्यक्रम लागू करते समय यह देखा गया कि राजनीति से लेकर समाज के स्तर तक किसान प्रधान एजेण्डा था, लेकिन नव्य आर्थिक उदारीकरण के आने के बाद किसानों की आत्महत्या की खबरों के उद्घाटन के बाद सारा मामला नए सिरे से चर्चा के केन्द्र में आता है। केन्द्र सरकार ने 5 दषक बाद पहली बार किसानों की कर्जमाफी का राष्ट्रीय एलान किया। इससे करोड़ों किसानों के 80 हजार करोड़ के बैंक कर्ज माफ कर दिए गए। किसान समस्या के कई स्तर हैं जिन पर ध्यान देने की जरूरत है। पहला है नीति के स्तर पर, केन्द्र और राज्य सरकारों की नीतियाँ। दूसरा है किसान और कारपोरेट पूँजीवाद का अन्तरसंबंध। तीसरा है मीडिया, किसान और आम जनता का रुख।

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