Sunday, April 7, 2013

सुनिए कहानी राहुल की -

सुनिए कहानी राहुल की - 
प्रिय मित्र, महापण्डित राहुल सांकृत्यायन आज़मगढ़ के विश्व-विख्यात क्रान्तिकारी थे. वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रचारक, शोषण, अन्याय तथा पाखण्ड पर टिकी जनविरोधी व्यवस्था के प्रचण्ड शत्रु, दलित, पीड़ित, श्रमजीवी सर्वहारा वर्ग के ध्वजवाहक पुरोधा, सत्यनिष्ठ प्रखर वक्ता, बौद्ध भिक्षु, त्रिपिटिकाचार्य, पुरातत्ववेत्ता, इतिहासकार, दर्शन-शास्त्री, बहु भाषाविद, साहसी अन्वेषक, घुमक्कड़राज, साम्यवादी विचारक, सतत सक्रिय बलिदानी कार्यकर्ता, उत्कट संगठन क्षमता से लैस नेता तथा लेखनी की तीखी धार के धनी लेखक राहुल का विराट बहुआयामीय व्यक्तित्व हम सब के लिये प्रेरणा का श्रोत रहा है। विशेषतः क्रान्तिकारी विचारों के झण्डे तले दुनिया को बदलने के प्रयासों में लगे परिवर्तनकामी प्रयोगधर्मा युवकों को पिछली तीन पीढ़ियों से सतत धधकती मशाल की भाँति राहुल बाबा का आह्वान रास्ता दिखाता रहा है तथा आगे भी तब तक दिखाता रहेगा, जब तक धरती से, जोंक-राज हमेशा के लिये मिट नहीं जाता और समता एवं बन्धुत्व पर टिकी साम्यवादी व्यवस्था का सूत्रपात नहीं हो जाता।
उनके जीवन, लेखन और विचारों को जानने के लिये सुनिए कहानी राहुल की. यह कहानी 'व्यक्तित्व विकास परियोजना' के अन्तर्गत आजमगढ़ में चलाये जा रहे साप्ताहिक अध्ययन-चक्र में सुनायी गयी है. मेरा यह व्याख्यान इस श्रृंखला का दसवाँ व्याख्यान है. 
कृपया युवा-शक्ति की सेवा में विनम्रतापूर्वक समर्पित इस प्रयास की सार्थकता के बारे में अपनी टिप्पड़ी द्वारा मेरी सहायता करें. - गिरिजेश
http://youtu.be/TEpmD32oVyI 

कहानी राहुल की 
वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रचारक, शोषण, अन्याय तथा पाखण्ड पर टिकी जनविरोधी व्यवस्था के प्रचण्ड शत्रु, दलित, पीड़ित, श्रमजीवी सर्वहारा वर्ग के ध्वजवाहक पुरोधा, सत्यनिष्ठ प्रखर वक्ता, बौद्ध भिक्षु, त्रिपिटिकाचार्य, पुरातत्ववेत्ता, इतिहासकार, दर्शन-शास्त्री, बहुभाषाविद, साहसी अन्वेषक, घुमक्कड़राज, साम्यवादी विचारक, सतत सक्रिय बलिदानी कार्यकर्ता, उत्कट संगठन क्षमता से लैस नेता, लेखनी की तीखी धार के धनी लेखक तथा महान क्रान्तिकारी राहुल का विराट बहुआयामीय व्यक्तित्व हम सब के लिये प्रेरणा का श्रोत रहा है। विशेषतः क्रान्तिकारी विचारों के झण्डे तले दुनिया को बदलने के प्रयासों में लगे परिवर्तनकामी प्रयोगधर्मा युवकों को पिछली तीन पीढ़ियों से सतत धधकती मशाल की भाँति राहुल बाबा का आह्वान रास्ता दिखाता रहा है तथा आगे भी तब तक दिखाता रहेगा, जब तक धरती से ‘जोंक-राज’ हमेशा के लिये मिट नहीं जाता और समता एवं बन्धुत्व पर टिकी साम्यवादी व्यवस्था का सूत्रपात नहीं हो जाता। आइए देखें - दुनिया बदलने का नारा देने वाला योद्धा स्वयं हर कदम पर कैसे-कैसे बदलता गया और दुनिया बदलने के अपने अभियान में क्या-क्या करता चला गया।

जन्म - 9.4.1893 मृत्यु - 70 वर्ष की आयु में 14.4.1963, बचपन में नाम केदार नाथ, जन्म-स्थान - ननिहाल पन्दहा, रानी की सराय, आज़मगढ़। पिता - सांकृत्य गोत्रीय सरयूपारीण ब्राह्मण कनैला के गोवर्धन पाण्डेय, माँ - कुलवन्ती देवी। तीन छोटे भाई, एक बहन। आरम्भिक शिक्षा - रानी की सराय तथा निज़ामाबाद मिडिल स्कूल में। 11 वर्ष की आयु में 1904 में प्रथम विवाह के बारे में लिखा, ‘‘ग्यारह वर्ष की अवस्था में मेरे लिये यह तमाशा था। समाज के प्रति विद्रोह के प्रथम अंकुर पैदा करने में इसने ही पहला काम किया। ग्यारह वर्ष की अबोध अवस्था में मेरी ज़िन्दगी बेचने का घर वालों को अधिकार नहीं, यह उत्तर उस वक्त भी मैं अपने बुज़ुर्गों को दिया करता। मैंने कभी उसे ब्याह न समझा, न उसकी ज़िम्मेवारी अपने ऊपर मानी।’’ कक्षा 3 में उर्दू की किताब में पढ़ा - 
सैर कर दुनिया की ग़ाफ़िल, ज़िन्दगानी फिर कहाँ?
ज़िन्दगी ग़र कुछ रही तो नौजवानी फिर कहाँ?
और लिखा, ‘‘इस शेर ने मेरे मन और भविष्य के जीवन पर बहुत गहरा असर डाला।’’ 

1907 में आयु 14 वर्ष और प्रथम यात्रा कलकत्ता तक, 1910 में वैराग्य और बदरी-केदार तक भ्रमण। काशी में संस्कृत की पढ़ाई, मन्त्र-तन्त्र का अध्ययन, मन्त्र-सिद्धि का प्रयोग असफल और दुर्गा का दर्शन न पाने पर धतूरे के बीज खा कर आत्महत्या का प्रयास। एक बँधुआ लड़के की मुक्ति के लिये कुछ छात्रों के साथ प्रयास - ‘‘मेरे सार्वजनिक जीवन का आरम्भ इसी वक्त 1911 में हुआ।’’ आयु 18 वर्ष। सरस्वती मासिक पढ़ना शुरू। 1912 में बिहार के परसा मठ के महन्थ के उत्तराधिकारी, नया नाम - वैरागी साधु राम उदार दास। बाहु-मूलों पर शंख-चक्र की मुद्रा दागी गयी। 1913 में परसा के सुविधापूर्ण जीवन से पलायन तथा दक्षिण भारत के तिरुमिषी मठ का उत्तराधिकार। गाँजे और तम्बाकू की चिलम पीने लगे। भ्रमण में दोनों मठों से तार देकर पैसा पाते रहे। 

1914 में 21 वर्ष की आयु में अयोध्या में वेदान्त पाठशाला स्थापित करने का प्रयास तथा आर्य समाज से सम्पर्क। वापस कनैला। आगरा के आर्य मुसाफ़िर विद्यालय में भोजन व अध्ययन की व्यवस्था थी और व्याख्यान तथा शास्त्रार्थ सिखाया जाता था। वहीं संस्कृत-अरबी का अध्ययन। केदार नाथ विद्यार्थी के नाम से ‘मुसाफ़िर आगरा’ में लेखन शुरू। कुरान का हिन्दी अनुवाद किया। लाहौर में डी.ए.वी. कालेज के संस्कृत विभाग में विशारद में प्रवेश। उत्साह में कहा - ‘‘मैं दयानन्द के एक-एक वाक्य को वेद-वाक्य मानता हूँ।’’ लखनऊ के बौद्ध विहार में पालि-बौद्ध साहित्य का ज्ञान - 1916 में। बनारस स्टेशन पर पिता से अन्तिम भेंट, बोले, ‘‘मैं कनैला के अयोग्य हूँ। मैं आपके काम का नहीं रहा। अब ज़ोर देने का परिणाम भयंकर होगा, आपको मेरे जीवन से हाथ धोना होगा।’’ और प्रतिज्ञा की ‘‘पचास साल की उम्र पूरी होने तक आज़मगढ़ जिले की सीमा में कदम नहीं रखूँगा।’’ तब उम्र थी - 24 वर्ष। 

महेशपुरा में एक विद्यालय चलाया। ठीक से न चलने पर उसे कालपी ले गये। मगर चला नहीं। पुनः परसा। जबलपुर से वेद मध्यमा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की। 1920 में लाहौर से शास्त्री परीक्षा, काशी से न्याय मध्यमा और कलकत्ता से मीमांसा प्रथमा। बौद्ध तीर्थों की यात्रा। दक्षिण भारत में तमिल पढ़ी। पिता की मृत्यु। उन्हें अपनी पुस्तक ‘बुद्ध चर्या’ का समर्पण करते लिखा, ‘‘मेरे गृह-त्याग से जिनके अवार्धक्य जीवन के अन्तिम वर्ष दुःखमय बन गये।’’ 1921 में छपरा कांग्रेस के साथ असहयोग आन्दोलन में सक्रिय। एकमा को केन्द्र बनाया। बाढ़ में राहत कार्य। भोजपुरी में भाषणों का व्यापक प्रभाव। 6 माह की पहली जेल-यात्रा। जात-पाँत, छुआछूत का खुल कर विरोध। प्रान्तीय किसान सभा की स्थापना। 1923 में नेपाल-यात्रा। दो वर्ष बक्सर तथा हजारीबाग जेल में गणित, फ्रेन्च, अवेस्ता का अध्ययन तथा साम्यवादी समाज के काल्पनिक चित्र ‘बाइसवीं सदी’ का लेखन। यही प्रथम प्रकाशित पुस्तक थी। 

‘‘वैज्ञानिक दृष्टि और विकसित हुई। आर्य समाज की कट्टरता कम होने लगी। बौद्ध धर्म की ओर झुकाव बढ़ा। वेद की निभ्र्रान्तिता पर सन्देह होने लगा, किन्तु ईश्वर पर विश्वास अभी था।’’ हथुआ के दंगे में मुसलमानों की रक्षा की। लद्दाख यात्रा। श्रीलंका में 1927 में 34 वर्ष की आयु में विद्यालंकार विहार में संस्कृत के अध्यापक नियुक्त। वेतन नहीं लिया, मात्र भोजन, वस्त्र, अध्ययन की सुविधा माँगी। 18 महीने - प्रातः 5 बजे उठना, शाम को एक घण्टा सैर, रात 12 बजे तक अध्ययन। बौद्ध धर्म के ग्रन्थ ‘अभिधर्म कोष’ की टीका संस्कृत में लिखी। पालि त्रिपिटक का अध्ययन कर त्रिपिटिकाचार्य की उपाधि। तिब्बती भाषा सीखी। ‘‘ईश्वर और बुद्ध साथ नहीं रह सकते। मालूम होने लगा कि ईश्वर सिर्फ़ काल्पनिक चीज़ है। लंका ने मेरे लिये ईश्वर की बची-बचायी टाँग को ही नहीं तोड़ दिया, बल्कि खाने की भी आज़ादी दे दी थी और मनुष्यता के संकीर्ण दायरे को तोड़ दिया था। अब मुझको डार्विन के विकासवाद की सच्चाई मालूम होने लगी। अब मार्क्सवाद की सच्चाई हृदय और मस्तिष्क में पैठती जान पड़ने लगी।’’ 1929 में तिब्बत की पहली साहसिक यात्रा में पहाड़ चढ़ने की कठिनाई के बारे में लिखा - ‘‘लड़के को कभी सुकुमार नहीं बनाना चाहिए। उससे पूरा शारीरिक श्रम लेना चाहिए।’’ ज़िद ऐसी थी कि लिखा, ‘‘जीवन का मूल्य बहुत है। समय आने पर कुछ भी नहीं। कार्य पूरा करूँगा या मरूँगा।’’ 

भोट (तिब्बती)-संस्कृत कोष बनाया। आचार्य नरेन्द्र देव ने पैसे भेजे। 1930 में तिब्बत वास के समय काशी पडिण्त सभा ने ‘रामोदार सांकृत्यायन’ को अनुपस्थिति में ‘महापण्डित’ की उपाधि का मान-पत्र दिया। तिब्बत से 21 खच्चरों पर साहित्य लंका लाये। लंका पहुँच कर 1930 में 37 वर्ष की आयु में बौद्ध प्रव्रज्या ले कर ‘राहुल सांकृत्यायन’ भिक्षु बने। 68 दिनों में ‘बुद्ध चर्या’ में त्रिपिटक के आधार पर बुद्ध की जीवनी और उपदेश लिखा। वापस छपरा। अब मुसलमान के घर भी गोश्त रोटी खाने में संकोच नहीं था। गाँधीवाद से निराश हो 1931 में बिहार सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापक मन्त्री बने। कराची कांग्रेस से काशी होते लंका वापस। यूरोप-यात्रा - पेरिस, लन्दन। हाईगेट में मार्क्स की समाधि पर पुष्पांजलि। बर्लिन। 1933 में लेह में रह कर ‘मज्झिम निकाय’ का हिन्दी अनुवाद तथा ‘तिब्बत में बौद्ध धर्म’ का लेखन। भूकम्प पीड़ितों को पटना में सहायता। 1934 में पाँच सौ रुपयांे की बचत के सहारे दूसरी तिब्बत यात्रा। ‘विनय पिटक’ का हिन्दी अनुवाद तथा ‘साम्यवाद ही क्यों?’ का लेखन रात में दो बजे तक जाग कर किया। चार खच्चरों पर साहित्य लाये। 42 वर्ष की आयु में चश्मा लगा और पहली बोलती फिल्म ‘चण्डी दास’ देखी। एशिया भ्रमण में कलकत्ता से रंगून, मलाया, सिंगापुर, हांगकांग, शंघाई होकर जापान, कोरिया, मंचूरिया, साइबेरिया रेलमार्ग से मास्को, बाकू, कैस्पियन सागर के पार ईरान, बलूचिस्तान होते हुए देश वापस। यात्रा में ‘दीर्घ निकाय’ का अनुवाद और ‘जापान’ पुस्तक लिखी। 1936 में तिब्बत की तीसरी यात्रा। दो मास की दूसरी सोवियत यात्रा। इस बार लेनिनग्राद तक पहुँचे। 

सोवियत विज्ञान अकादमी के प्राच्य संस्थान में इण्डो-तिब्बती विभाग की सेक्रेटरी, फ्रेंच, अंग्रेज़ी, रूसी, मंगोल भाषाओं की विदुषी लोला (ऐलेना) कोजेरोवस्काया के साथ सम्बन्ध तथा 1938 में 45 वर्ष की उम्र में राहुल पुत्र ईगोर राहुलोविच का जन्म। 1948 में मेरठ में पूछा गया - ‘‘बाबा, सुना है शादी की है?’’ बोले - ‘‘कौन कहता है, झूठ है, बिल्कुल झूठ“ ‘‘नहीं बाबा, सुना है आप पिता भी बन गये हैं?“ ‘‘सो तो सच है, बिल्कुल सच।’’ इस तरह सच स्वीकारने का साहस था राहुल में। 

काबुल होते वापसी। सारनाथ में एक महीने में ‘सोवियत भूमि’ पुस्तक लिखी। तिब्बत की चैथी यात्रा के लिये बिहार सरकार से 6000 रु0 मिले। सामूहिक यात्रा के बारे में लिखते हैं - 1 सुकुमार आदमी, जो दुरूह स्थानों में भी अपने पहले के जीवन के सारे वातावरण को ले जाना चाहता है, जरूर असन्तुष्ट रहता है। साथी उसी पथ का फ़कीर हो और काम के महत्व को समझता हो। 2 जमात के अनुशासन को मानता हो, अन्यथा अनुशासन की अवहेलना का रोग दूसरों में भी फैल जाता है।“ 11 वर्ष बाद 45 वर्ष की आयु में 1938 में पुनः सक्रिय राजनीति। ‘‘मैं पहले भी राजनीति में अपने हृदय की पीड़ा दूर करने आया था। गरीबी और अपमान को मैं भारी अभिशाप समझता था। तब भी मैं जिस स्वराज्य की कल्पना करता था, वह काले सेठों और बाबुओं का राज नहीं था। वह राज था किसानों-मजदूरों का, क्योंकि तभी गरीबी और अपमान से जनता मुक्त हो सकती थी।’’ राजनीति का पहला दौर 21 से 27 तक चला। तब कांग्रेस के साथ सक्रिय थे। कम्युनिस्ट पार्टी गैरकानूनी थी। अतः कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के साथ कार्य किया। छपरा में संगठन बनाया। भोजपुरी में भाषण। 

अमवारी गाँव के किसानों के खेत छीन लिये गये थे, क्योंकि वे ज़मीदारों की ‘हरी बेगारी’ करने के लिये तैयार नहीं थे। बिहार में शासन कांग्रेसी मन्त्रिमण्डल का था और नेता और प्रशासन दोनों ही ज़मींदारों के पक्षधर थे। किसान-सत्याग्रह का आयोजन। दफ़ा 144, पचासों पुलिस, ज़मीदारों के दो मतवाले हाथी और सैकड़ों लठैत जमा थे। दस-दस की टोली में सत्याग्रही एक किसान के उस खेत से गन्ना काटने वाले थे, जिसे ज़मींदार ने छीन कर अपनी पत्नी के नाम लिखवा दिया था। राहुल जी का पहला दल बढ़ा। दो गन्ने राहुल ने काटे। ज़मींदार के हाथीवान ने लाठी मारी। बाबा के सिर से खून की धारा बह चली। जेल में ‘तुम्हारी क्षय’ और ‘जीने के लिये’ लिखा। ‘तुम्हारी क्षय’ में समाज, धर्म, ईश्वर, सदाचार, जातिवाद, षोषकों की व्यवस्था पर तीखा प्रहार किया है और साम्यवादी व्यवस्था स्वीकारने का आह्वान किया है। ‘‘अज्ञान का दूसरा नाम ईश्वर है। हम अपने अज्ञान को स्वीकारने में शर्माते हैं। अतः ईश्वर को ढूँढ निकाला गया है। ईश्वर की आस्था का दूसरा कारण आदमी की बेबसी है।“ ‘‘हमारा इतिहास तो राजाओं और पुरोहितों का इतिहास है, जो आज की तरह उस ज़माने में भी मौज उड़ाया करते थे।’’ चोरी के आरोप में 6 माह की सजा। भूख-हड़ताल से छूटे। कांग्रेसी नेता अब राहुल को अपना ‘शत्रु’ समझने लगे क्योंकि गाँव-गाँव में बड़ी बदनामी हो रही थी। उन्होंने लोला-ईगोर के चित्र छाप कर राहुल को पतित साबित किया। फिर छितौनी में सत्याग्रह। दो वर्ष की जेल। 17 दिन की भूख हड़ताल से छूटे। अमवारी के हाथीवान को छुड़वा दिया क्योंकि ‘‘उसका क्या कसूर? लाठी तो उसके मालिक ने चलवायी थी। फिर उसे जेल भिजवाने से क्या फायदा?“ 

46 वर्ष की आयु में 1939 मुंगेर में कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक सदस्य बने। लिखा, ‘‘अनुशासन रहित भीड़ का सेनापति होने से अनुशासन-बद्ध सेना का एक साधारण सैनिक होना ज़्यादा अच्छा है।“ 1940 में बिहार प्रान्त की किसान सभा के सभापति। फिर अखिल भारतीय किसान-सभा के भी सभापति। भाषण लिखते गिरफ़्तार। 2 वर्ष 4 माह जेल। सिगरेट शुरू। ‘मेरी जीवन यात्रा’ लिखा । 20 दिन में 20 पृष्ठ प्रतिदिन लिख कर ‘विश्व की रूप-रेखा’, 36 दिन में ‘मानव-समाज’, फिर ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ और 12 दिन में ‘वैज्ञानिक भौतिकवाद’। ये चारों पुस्तकें क्रान्तिकारी विचारधारा को समझने के लिये आवश्यक हैं। 19 दिन में ‘सिंह सेनापति’ तथा 20 दिन में ‘वोल्गा से गंगा’ की 20 कहानियों में मानव-समाज के विकास को सरल तथा रोचक ढंग से समझाया और बताया कि भारतीय संस्कृति कभी अचल नहीं रही, उसके हर अंग में घोर परिवर्तन जारी रहे हैं। 27 दिनों में 8 नाटक - जपनिया राछछ, देस-रच्छक, जरमनवाँ के हार निहिचय, ई हमार लड़ाई, ढुनमुन नेता, नइकी दुनियाँ, जोंक, मेहरारुन की दुरदसा। 1 अगस्त 1942 में कम्युनिस्ट पार्टी कानूनी घोषित हुई। कलकत्ता में विशाल सभा के सभापति। ‘अगस्त 1942 की आँधी’ में अमवारी के किसानों का उत्तर था, ‘‘राहुल बाबा का हुकुम ले आओ, तो हम लड़ाई में भाग लेंगे।’’ (निश्चय ही कम्युनिस्ट पार्टी का 1942 के आन्दोलन में भाग न लेना गलत था।) 

50 वर्ष की आयु पूरी होने पर शपथ पूरी करने 9 अप्रैल, 1943 का आजमगढ़ आये। पन्दहा, कनैला - दिन भर रहे। भोजन के बाद ‘कपड़ों से ढकी एक मूर्ति’ ने पैरों पर गिर कर रोना शुरू कर दिया। तुरन्त उठे, चल दिये। यह प्रथम पत्नी थीं। 1944 में ‘नये भारत के नये नेता’, ‘सरदार पृथ्वी सिंह’, ‘हिन्दी काव्य धारा’, ‘जय यौधेय’, ‘भागो नहीं, (दुनिया) बदलो’, ‘जीवन यात्रा’ का दूसरा भाग लिखा ‘भागो नहीं, दुनिया को बदलो’ क्रान्तिकारी कृति है, जिसमें कम पढ़े-लिखे लोगों को राजनीति के दाँव-पेंच जन-बोली में समझाये गये हैं।

1944 में रूस यात्रा 44 मास की। संकट के लिये अंगूठी और घड़ी की चेन का सोना साथ था। पहली विमान यात्रा। 1945 में तेहरान से मास्को तक। लेनिनग्राद विश्वविद्यालय में प्राच्य विभाग के इन्डो-तिब्बती उप विभाग में संस्कृत के प्रोफ़ेसर। सप्ताह में 12 घण्टे पढ़ाना - हिन्दी, संस्कृत, तिब्बती। वेतन 4500 रूबल प्रति माह। 52 वर्ष की उम्र में पहली गृहस्थी। लकड़ी चीरना लोला का काम था, बर्तन धोना, बिस्तर लगाना, राशन लाना राहुल का। ट्राम से विश्वविद्यालय जाने में 3 घण्टे खर्च होते थे। 3500 रूबल में रेडियो ले लिया। लोला को अध्ययन पसन्द नहीं था। राहुल नास्तिक थे, वह कैथोलिक ईसाई। राहुल ने आजीवन शराब नहीं पी, उसके लिये सुलभ सहज था सुरापान। दोनों के आचार-विचार भिन्न। ‘मध्य-एशिया का इतिहास’ 1192 पृष्ठ लिखे। राहुल भारत में रेडियो स्टेशन पर कभी नहीं गये। लिखा-‘‘जब तक रेडियो का अनुबन्ध-पत्र अंग्रेज़ी में होगा, मैं रेडियो के किसी कार्यक्रम में नहीं जाऊँगा।’’ शुद्ध उच्चारण पर बहुत ध्यान देते थे। ‘दाखुंदा, जो दास थे, अदीना, यतीम, सूदखोर की मौत,’ का अनुवाद, फ़िल्मों और रेडियो के कार्य। लिखा - ‘‘पैसे की बाढ़ सी आने वाली थी, हमारे सामने अब प्रश्न था - क्या यहाँ रहकर आराम का जीवन बितायें या भारत लौट कर अपने साहित्यिक काम को ज़ारी रखें? पहला रास्ता मुझे जीवित मृत्यु जैसा मालूम होता था। ऐसी आराम की ज़िन्दगी लेकर क्या करना था? जबकि वास्तविक काम यहाँ रह कर ठीक से नहीं कर सकता था। मुझे यह निश्चय करने में ज़रा भी कठिनाई नहीं हुई कि मैं जीवित मृत्यु को कभी पसन्द नहीं करता।’’ 1947 में वापसी।’’ 9 वर्ष का ईगोर खूब रोया, कहता था - तुम नहीं आओगे।’’ जीवन-कर्तव्य किसी माया-मोह के फन्दे को मानने के लिये तैयार नहीं था। द्रवित हृदय को कुछ कड़ा कर के उस से छुट्टी ली। 

आज़ादी के दो दिन बाद 17 अगस्त 1947 को भारत वापस। लाल झण्डे लिये कामगारों ने कामरेड राहुल के स्वागत में नारे लगाये। प्रगतिशील लेखक संघ के प्रयाग सम्मेलन के सभापति। हिन्दी साहित्य सम्मेलन के सभापति पद के लिए सेठ गोविन्द दास को 145 तथा राहुल को 180 मत मिले थे। राहुल जी के भाषण के ‘‘इस्लाम को भारतीय बनना चाहिए’’ उपशीर्षक में हिन्दी-उर्दू के सम्बन्ध में जो अंश थे, उनसे कम्युनिस्ट पार्टी के केन्द्रीय स्तर के नेता असहमत थे। वे उन अंशों को निकलवाना चाहते थे। छपे हुए भाषण में परिवर्तन राहुल जी के लिये सम्भव नहीं था। भाषण के पहले डॉ. अधिकारी ने पुनः लिखा कि राहुल यह स्पष्ट कर दें कि उनके उर्दू सम्बन्धी विचार कम्युनिस्ट पार्टी के नहीं हैं। राहुल ने लिख दिया, ‘‘पार्टी की नीति के साथ न होने के कारण मैं अपने को पार्टी में रहने लायक नहीं समझता।’’ और 54 वर्ष की आयु में पार्टी से सम्बन्ध टूट गया। भाषण के विवादास्पद अंश के दो नमूने ये हैं - ‘‘सारे संघ की राष्ट्रभाषा और राष्ट्रलिपि हिन्दी ही होनी चाहिए। उर्दू भाषा और लिपि के लिये वहाँ कोई स्थान नहीं है।’’ ‘‘इस्लाम को भारतीय बनना चाहिए। उनका भारतीयता के प्रति यह विद्वेष सदियों से चला आया है सही, किन्तु नवीन भारत में कोई भी धर्म भारतीयता को पूर्णतया स्वीकार किये बिना फल-फूल नहीं सकता। ईसाइयों, पारसियों और बौद्धों को भारतीयता से एतराज़ नहीं, फिर इस्लाम ही को क्यों? इस्लाम की आत्मरक्षा के लिये भी आवश्यक है कि वह उसी तरह हिन्दुस्तान की सभ्यता, साहित्य, इतिहास, वेष-भूषा, मनोभाव के साथ समझौता करे, जैसे उसने तुर्की, ईरान और सोवियत मध्य-एशिया के प्रजातन्त्रों में किया।’’ मधुमेह की व्याधि। लिखा, ‘‘आत्म-निरीक्षण से मुझे मालूम हुआ कि जरा-जरा सी बात में चित्त विकल हो जाता है। ‘काजी जी दुबले, शहर के अन्देशे’ के अनुसार विश्व में कहीं पर भी समान आदर्श या आदर्शवादियों के ऊपर प्रहार या ख़तरा पैदा होने पर मन चिन्तित हो उठता। किसी भी उपयुक्त कार्य या विचार को देख कर अन्तर उत्तेजित हो जाता - कार्य चाहे सामाजिक दबाव हो, रूढ़ि हो या कोई और बातें।’’ 

गाँधी जी की मृत्यु पर लिखा - ‘‘गाँधी जी अजातशत्रु थे। वह किसी का अनिष्ट नहीं चाहते थे। बुद्ध के बाद क्या भारत में कोई इतना महान व्यक्ति पैदा हुआ?’’ प्रयाग में गाँधी जी की अस्थि-विसर्जन यात्रा 12.2.48 के ‘पुण्य दिन’ सिगरेट छोड़ दी। सम्मेलन के सभापति के रूप में शासन शब्द-कोष के परिभाषा निर्माण का काम करते समय वेतन नहीं लिया। ‘किन्नर देश में’ लिखा। संविधान का हिन्दी अनुवाद किया। सारनाथ में 1949 में ‘बौद्ध संस्कृति’ लिखा। लिखते हैं - ‘‘पुराना ढाँचा जल कर ढह रहा है, यह बुरा नहीं, पर नये की नींव पड़ती नहीं दिखलाई देती, यह चिन्ता की बात है।’’ ‘‘शान्ति निकेतन में 8 बजे सवेरे से 12 बजे रात तक जुता रहता था, बीच के दो घण्टे छोड़ कर 16 घण्टे।’’ कोलिम्पाङ में परिभाषा निर्माण का कार्य। उम्र 56, मधुमेह रोग, रोज इन्सुलिन। ‘मधुर स्वप्न’ नामक उपन्यास की भूमिका में लिखा - ‘‘अन्त में मनुष्य अवश्य अपने ध्येय पर पहुँचेगा। वह ध्येय है - समस्त मानवों की समता, परस्पर प्रेम और सार्वत्रिक सुख-समृद्धि।’’ 

परिभाषा के काम के लिये कुछ स्थानीय लड़के-लड़कियों को रखा गया। कमला पेरियार उनमें से एक थीं। आखिरी चरण में काम समेटने के लिये जब केवल एक ही की आवश्यकता बची तो कमला जी चुनी गयीं। ‘घुमक्कड़-शास्त्र’ (14 जून से) तथा ‘आज की राजनीति’ 15 दिन में लिखायी। 18 अगस्त से कमला को साथ रहने को कहा। ‘‘अब कमला बहुत नजदीक आ गयी थीं।’’ हिन्दी साहित्य सम्मेलन से ‘साहित्य वाचस्पति’ की उपाधि। ‘दार्जीलिङ परिचय’ लिखा। उम्र 57 वर्ष। तीन माह नैनीताल के ‘ओक लाज’ में ‘कुमायूँ’ लिखी। ‘‘आर्थिक स्थिति का पता मालूम होने लगा था। ‘अजगर करै न चाकरी, पंछी करै न काम’ की वृत्ति पर गुज़ारा नहीं हो सकता था। घर बना कर रहना था। ख़र्च निश्चित था। हमारे पास चार सौ रुपये थे और बैंक में 2300। ‘आदि हिन्दी कहानियाँ और गीत’ का लेखन। मसूरी में ‘हैप्पी वैली’ का ‘हार्न क्लिफ़’ नामक बंगला ख़रीदा और नाम रखा - ‘मार्क्स भवन’। दाम - 16500 रु0। ‘‘कमला से परिचय और घनिष्टता दूसरे उद्देश्यों से हुई थी। कमला और मेरे साथ रहने को समाज किस अर्थ में ले रहा था, इसकी यदि मुझे परवाह नहीं थी, तो देखना यह था ही कि दूसरों की टीका-टिप्पणियों का कमला के ऊपर क्या असर होगा।’’ ‘गढ़वाल’ लिखा। 1950 के अन्तिम माह में कमला से विवाह 58 वर्ष की आयु में। ‘‘कमला को साथ रहते डेढ़ साल से ऊपर हो गया था। उन्हें मेरे साथ और मुझे उनके साथ रहना था। स्त्री-पुरुष के ऐसे घनिष्ट सम्बन्ध को अनिश्चित स्थिति में रखना ठीक नहीं था। पुरुषों के राज में स्त्रियों के लिये यह स्थिति और भी कष्टप्रद थी। हमने निश्चय किया कि दोनों पति-पत्नी बन जायें। 23 दिसम्बर को विवाह। यदि मैं यह न करता तो वह हद दर्ज़े की स्वार्थपरता होती और कमला के साथ भारी अन्याय।’’ 

राष्ट्र-भाषा प्रचार समिति की साहित्यिक योजना के अवैतनिक ‘निदेशक’। वेतनभोगी सहयोगियों के बारे में - ‘‘दिक्कतें सामने आने लगीं। कुछ लोग समझते थे कि हम वेतन के लिये काम कर रहे हैं, काम के लिये नहीं। अभी काम करते महीने भी नहीं हुए कि वेतन बढ़ाने का सवाल उठा।’’ एकाध ने तो राहुल जी को शोषक तक कह डाला। उनमें आपस में अक्सर कलह होता रहता था। ‘‘कुछ सहकारी गरियार बैल बने हुए थे। पैसे के पानी को सूखते देख चिन्ता होती है क्योंकि आत्मसम्मान को मैं अपना सबसे बड़ा धन समझता हूँ। बल्कि कहना चाहिए, उसे प्राणों से भी अधिक मूल्यवान मानता हूँ। महीने में 500 रु0 से कम ख़र्च की नौबत नहीं थी। अन्त में नौकर को छुट्टी देनी पड़ी।’’ रविवार का दिन मुलाकातियों के लिये सुरक्षित था। अब सीधे टाइप-राइटर पर लिखवाने लगे थे। 1952 में ‘रूस में 25 मास’ लिखा। निजी सुविधाओं के लिये पुराने राजनैतिक साथियों से सहायता के लिये सम्पर्क करना उनके उसूल के ख़िलाफ़ था। 1952 में उम्र थी 59 और दिनचर्या थी - सवा सात बजे उठ कर नित्य-कर्म, थोड़ा काम, चाय, 11 बजे तक कमला को पढ़ाना या स्वाध्याय, एक बजे भोजन, फिर डाक या पत्रिकाएँ देखना, 5 बजे चाय, फिर लेखन, 8.30 पर भोजन, पढ़ना, पढ़ाना या लिखाना, 9 बजे समाचार सुनना, घण्टा-दो घण्टा पढ़ कर 11 बजे सो जाना। 

1952 के चुनाव में वामपन्थ की विफलता के कारणों के बारे में - ‘‘कम्युनिस्टों की निष्क्रियता कैसे हटेगी? वस्तुतः उनमें एक तरह की पन्थाई संकीर्णता दिखाई पड़ती है। वे अपने विचारों और मित्र-मण्डली की एक खोल बना कर उसी के भीतर रहने में सन्तोष कर लेते हैं। उन्हें जन-साधारण और गाँवों में घुसना है... जिस तरह हड्डियाँ मांस के भीतर अपने को छिपा कर अभिन्न हो जाती हैं, उसी तरह। अभी जनता की अपनी भाषाओं के सहारे लोगों के भीतर घुसने का प्रयत्न नहीं किया गया। उन्होंने लोक-भाषाओं में अपना साहित्य नहीं तैयार किया।’’ पहली बार 60 वाँ जन्मदिन मनाया गया। ‘राजस्थानी रनिवास’ लिखा। ‘‘मकान के खूँटे से बँधने से दुर्भाव’’। मसूरी मज़दूर संघ के सभापति। राहुल-प्रकाशन की शुरुआत की। किन्तु विक्रय की व्यवस्था न हो पाने से असफल। ‘नेपाल’ लिखा। 5 मार्च 1953 को स्टालिन की मृत्यु सुनी, तो स्टालिन, फिर लेनिन, माक्र्स और माओ की जीवनियाँ लिखीं। 

60 वर्ष की अवस्था में मसूरी में बेटी जया का जन्म। लेनिनग्राद से पत्र-फोटो आने पर कमला को कष्ट और गृह-कलह। ‘‘कल से मैं अपनी नज़र में गिर गया, सारे जीवन के लिये। कमला का समझना बिलकुल ठीक है। मैंने उसकी असहाय अवस्था का फ़ायदा उठाया। हाँ, परोपकार, दया दिखाने और क्या-क्या बहाना कर के। वह क्यों मुझ पर विश्वास करने लगी?’’ यह ‘अपराध-स्वीकृति’ राहुल को और भी महान बना देती है। 39 दिन में ‘विस्मृत यात्री’ पूरा किया और दो दिन में ‘कम्युनिस्ट क्या चाहते हैं?’ 1954 में लिखा। एक बस दुर्घटना के बाद लिखा, ‘‘उस समय ही राम नाम सत्य हो जाता। मेरी कितनी ही पुस्तकें लिखने को रह जातीं। जीवन और मरण की चिन्ता में मरे जाना मेरे लिये घृणा की बात थी। मैं किस भगवान को धन्यवाद देता? जब जानता हूँ कि वह कभी न था और न है।’’ ‘‘62 वर्ष के अन्त में जरा भी चलने-फिरने में थकावट मालूम होती, छाती भीतर से दुखने लगती।’’ 31 जनवरी 1955 दिल्ली में बेटे जेता का जन्म। फ़रवरी, 55 में सेक्रेटरी अजय घोष से बात कर पुनः कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य। ‘‘मुझे उस दिन बड़ी प्रसन्नता हुई। मैं डरता था, पार्टी-मेम्बर न रहते कहीं महा-प्रयाण न करना पड़े। अपने पुराने साथियों से मैं दिल खोल कर मिलता था। लेकिन एक तरह का बिलगाव देखकर तबीयत असन्तुष्ट होती थी। मैंने कहा, ‘‘अब जीवन भर के लिये पार्टी-मेम्बर हुआ।’’ संस्कृत पाठ-माला की 5 पुस्तकें, भारत मंे अंग्रेज़ी राज के संस्थापक, संस्कृत काव्य धारा, पाली काव्यधारा, हिन्दी (अपभ्रंश) काव्यधारा, वीर चन्द्र सिंह गढ़वाली की जीवनी। जेता को दाहिनी बाँह में पोलियो। ट्रेड यूनियन के लिये डाँगे को 10000 रु0 में बंगला बेचा। ‘हिमांचल,’ ‘जौनसार-देहरादून’ लिखा। आर्थिक चिन्ता परेशान करने लगी थी। 

स्टालिन की आलोचना के समाचार सुन कर लिखा, ‘‘स्टालिन पूजा का विनाश सोवियत भूमि में बहुत बड़ा काम हुआ है। निर्बलता को हटा कर विश्व साम्यवाद और भी मजबूत होगा, और भी फैलेगा।’’ (यह मूल्यांकन भी सही नहीं था, क्योंकि क्रान्तिकारी स्टालिन का आलोचक ख्रुश्चेव स्वयं संशोधनवादी था।) सैयद बाबा, बड़ी रानी, कनैला की कथा, घुमक्कड़ स्वामी, असहयोग के मेरे साथी, जिनका मैं कृतज्ञ, ऋग्वैदिक आर्य, अकबर लिखा। राहुल जी को हिन्दी विश्वकोष का सम्पादन कार्य नहीं मिल सका। 

1957 में आज़मगढ़ - कनैला यात्रा। ‘‘प्रथम परिणीता चारपाई पकड़े थीं। देखकर करुणा उभर आना स्वाभाविक था। आखिर मैं ही कारण था, जो इस महिला का आधी शताब्दी का जीवन नीरस और दुर्भर हो गया। मैं प्रायश्चित कर के भी उसको क्या लाभ पहुँचा सकता था? एक बार देखा। वह अपने आँसुओं को रोक नहीं सकीं। फिर मैं घर से बाहर चला आया। ‘कनैला की कथा’ का समर्पण - ‘‘उस प्रथम परिणीता को, जिसका सारा जीवन मेरी महत्वाकांक्षाओं का शिकार हुआ।’’ हिन्दी साहित्य का वृहद इतिहास - भाग 16 लिखा। करपात्री जी की पुस्तक ‘मार्क्सवाद और रामराज्य’ का उत्तर ‘रामराज्य और मार्क्सवाद’ लिखा। ‘‘तिब्बत का अनुसन्धान और साम्यवाद की सेवा मेरे जीवन के सबसे बड़े आदर्श रहे हैं। मैंने इनके लिये प्राणों की बाज़ी लगाने में आनाकानी नहीं की, उनसे विमुख होने की तो आशा ही नहीं हो सकती।’’ 7000 रु0 में नया बँगला बेचा। 1958 में पुनः पन्दहा-कनैला यात्रा सपरिवार। साढ़े चार माह की चीन यात्रा। ‘चीन में क्या देखा?’ लिखा। 

आयु 66 वर्ष हार्ट-अटैक, इलाज, ‘‘बीमारी शरीर को निर्बल करती है और निर्बल शरीर मन को।’ ‘चीन के कम्यून’ लिखा। श्रीलंका के विद्यालंकार विश्वविद्यालय में दर्शन-शास्त्र के महाचार्य पद पर नियुक्ति 1959 में। उन दिनों बैठे-बैठे लिखते रहते। विश्वविद्यालय की घण्टी बजती, उठकर पढ़ाने चले जाते। लौट कर फिर कलम हाथ में लेते। रात 2 बजे के पहले सोते नहीं थे। ‘‘किडनी का ख़तरा डाक्टर बताते हैं, पर जीवन ही ख़तरे की बात ठहरा।’’ तिब्बती-हिन्दी कोष, पालि साहित्य का इतिहास, सिंघल के वीर पुरुष, घुमक्कड़ जयवर्धन, कप्तान लाल लिखा। पत्नी-बच्चे दार्जीलिङ में थे। ‘‘बच्चों के नाम लंका से पत्रों में ‘मानव की कहानी’ लिखा। 1961 में दार्जीलिङ वापस आये। स्मृति क्षीण होने पर पुनः अकेले श्रीलंका। फिर वापस। आर्थिक चिन्ता। ‘‘सीलोन से कम से कम जीवन भर बच्चों के लिये 750 रु0 मासिक तो भेजता रहूँगा। फिर चिन्ता नहीं रहेगी। कमला जी अपनी ज़िद पर रहें, लंका न जायें, पर मैं तो जीवन भर के लिये चला चलूँगा।’’ कलकत्ता में 11 दिसम्बर, 1961 को ‘स्मृतिलोप’ का आघात। वापस दार्जीलिङ। श्रीलंका के विद्यालंकार विश्वविद्यालय से साहित्य-चक्रवर्ती (डी.लिट.) की उपाधि, भारत सरकार से ‘पद्म-भूषण’। इलाज के लिये 7 मास मास्को। वापस दार्जीलिङ। 

14 अप्रैल 1963 को अन्तिम यात्रा पर महा-प्रयाण। बौद्ध पद्धति से दार्जीलिङ श्मशान में दाह-संस्कार। ‘‘मैं छलाँगों पर छलाँगें मारता रहा, और अब भी नयी छलाँगों के लिये उतना ही उत्साह है। मैं मरूँगा भी, तो छलाँगें मारता ही।’’ ‘‘मुझे जो कुछ करना है, इसी जन्म में।’’ ‘दर्शन-दिग्दर्शन’ को पुरस्कृत करने के सवाल पर जेल से 1942 में ‘‘रुपये के मूल्य को मैं भी समझता हूँ। किन्तु मेरी पाण्डुलिपि को कहीं पुरस्कृत होने के लिये न भेजना।’’ किन्तु जीवन के अन्तिम वर्ष आर्थिक दुष्चिन्ता में गुज़रे। बुद्ध का यह वचन उनका आदर्श था - ‘‘बेड़े की तरह पार उतरने के लिये मैंने विचारों को स्वीकार किया, न कि सिर पर उठाये-उठाये फिरने के लिये।’’ सतत यात्राएँ करते, छलाँगे लगाते, उनके नाम बदले, चोले बदले, धार्मिक मान्यताएँ बदलीं, विचार बदले। सतत परिवर्तन की यह गतिशीलता राहुल के विराट व्यक्तित्व के लिये सहज थी।

(गुणाकर मुले की कृति 'महापण्डित राहुल सांकृत्यायन' के आधार पर)

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