Tuesday, December 25, 2012

गंडासे तै बेटी काटी

गंडासे तै बेटी काटी 
गाम खोरांव मैं काटी बेटी  इज्जत खातिर बताई 
प्रेमी गेल्याँ  देखी बाबू नै लाठी उस पर बरसाई 
पीट पीट लाठियां तैं बेहोश करी अपनी बेटी रै 
बेहोश का गला काट दिया न्यों झेंप ऊनै मेटी रै 
प्यार की कीमत छोरी नै उडै  मरकै नैए चुकाई ।।
कौशाम्बी उत्तर प्रदेश मैं कोखराज थाना बताया 
खोरंव गाम इसमें बसै  बाप नै यो जुल्म कमाया 
बाबू बोल्या क्यों इसने आडे प्रेम की पींग बढ़ाई ।।
प्रेमी मौका देख कै उड़े तें एकदम फरार होग्या 
किशोरी घरां पहोंची तो बाबू क्यों आपा खोग्या 
गया यो बदल जमाना क्यूं पुरानी बीन बजाई  ।।
एक प्रेमी जोड़ा और भेंट चढ्या कसाई समाज की 
न्योएँ मारे  ज्यावें प्रेमी चढ़ भेंट पुराने रिवाज की 
कहै रणबीर समाज यो कद समझेगा अन्याई ।।


Monday, December 24, 2012

ULTEE SOCH

सोचेगा कति उल्टी सोचैगा
काम करैगा तो उलटे करैगा 

Depth of Gang Rape

गैंग रेप की समस्या की गहराई और जटिलता को समझना बहुत जरूरी है । आब मूल भूत सामाजिक परिवर्तन की मांग साफ उभर कर आ रही है जो नए नव जागरण आन्दोलन को मजबूत करके ही लड़ी जा सकती है ।

rashtreey trasdee

दुष्कर्म की राष्ट्रीय त्रासदी के बाद उसके विरोध का स्वर तेज हो  रहा  है । इस फिल्म में इस मुद्दे को उठाया गया है सामाजिक रिश्तों का द्वन्द  है 

नया साल

नया साल 
नए साल की मुबारक खास रिवाज बन गया 
अमीर गरीब सबकी एक आवाज बन गया 
एक कदम आगे मगर दो कदम पीछे गए 
पुराने दोस्त भुलाकर ढूंढें है कई दोस्त नए 
वातावरण और ख़राब इस साल किया गया 
महिलाओं को अपमान बढ़ा चढ़ा दिया गया 
विज्ञानं और तकनीक से मजदूरों को चूस 
काला धन खूब कमाया दे दे के नेता को घूस
मानवता का मुखौटा लगा ये अमीर घूम रहे 
मेहनत हमारी लूटकर पीके स्कॉच झूम रहे 
गए साल की बेचैनी और बढ़ती जायेगी अब 
जनता और जाग रही आवाज उठायेगी अब 
हम सब गैंग रेपिया माहौल में जी रहे देखो 
कभी दहाड़ने लगते कभी होठ सी रहे देखो 
अराजकता तक हालत को पहोंचवाते हैं जो   
टीयर गैस छोड़ कर भीड़ को भगवाते हैं वो 
संगठित विरोध की आज बड़ी जरूरत देखो 
फासिज्म की वर्ना तो निकल रही मुरत देखो 
लोकतंत्र टाटा अम्बानी का जनता समझ रही 
जनता का लोकतंत्र हो बात कुछ सुलझ रही 
अभी बहुत सी कुर्बानी अगला साल मांगेगा 
कहा नहीं जा सकता अँधेरा बढेगा कि भागेगा 
समाज का पतन रोकना इतना आसान नहीं 
इस पतन में उत्थान के बीजों की पहचान नहीं 
पिछले साल का हिसाब आना है बाकी दोस्तों 
गैंग रेप बढे बलात्कार बहुत धूल फांकी दोस्तों 
पूंजीवादी व्यवस्था का नियम यही बताते देखो 
अमीर और अमीर होते गरीब नीचे ही जाते देखो 
जनता का राज जनता द्वारा जनता के वास्ते 
जनता को चूसने के बनाये गए हैं खास रास्ते 
टी वी पर नए साल का ये जश्न मनाया जायेगा 
कैटरीना का महंगा ठुमका खूब दिल बहलायेगा 
साइनिंग इण्डिया का अलग होगा नया साल 
सफरिंग इण्डिया का होगा ठण्ड में बुरा हाल 
साइनिंग को सफरिंग क्यों ये नजर नहीं आता 
समझा समझा कर रणबीर मैं तो थक जाता 
नए की उम्मीद फिर भी मुबारक नया साल हो 
बदहाली में भी सीखो तो कोई कैसे खुश हांल हो 



 


Monday, December 17, 2012

MERA BHARAT

जनता की जनवादी सरकार का सपना 
1. राज्य की संरचना के क्षेत्र में :-
देश में बसने वाली  विभिन्न जातीयताओं की स्वायतता और वास्तविक समानता के आधर पर ]भारतीय संघ की एकता की हिफाजत करने तथा उसे आगे बढाने के लिए और राज्य की ऐसी संघात्मक जनवादी संरचना के लिए काम करना जरूरी पक्ष बनता है । इस काम की रूपरेखा इस प्रकार होनी चाहिए मगर आप भी अपने सुझाव दे सकते हैं :-
a . जनता प्रभु सत्ता संपन्न है । राजसत्ता के सभी अंग ,जनता के प्रति उत्तरदायी होंगे । राज्य की सर्वोतम सत्ता जन -पेतिनिधियों के हाथ में होगी, जो व्यस्क मताधिकार और आनुपातिक प्रतिनिधत्व के सिद्धांत के आधार पर चुने जायेंगे और जिन्हें निर्वाचकों द्वारा वापस बुलाया जा सकेगा । अखिल भारतीय केंद्र के स्तर पर दो सदन होंगे --लोकसभा और राज्य सभा । महिलों का समुचित प्रतिनिधित्व सुनिश्चित किया जायेगा ।
b. भारतीय संघ में सभी प्रदेशों को वास्तविक स्वयातता तथा समान अधिकार प्राप्त होंगे । जनजातीय क्षेत्रों को अथवा उन अंचलों को , जिनकी आबादी का एक विशिष्ट उपजातीय संयोजन है और जिनकी अपनी विशिष्ट सामाजिक तथा सांस्कृतिक परिस्थितियाँ हैं , संबंधित प्रदेश के अंतर्गत स्वायतता दी जायेगी तथा विकास के लिए पूरी मदद मुहैया कराई जायेगी ।  
c .प्रदेशों के स्तर पर उच्च सदन नहीं होंगे । न ही प्रदेशों में ऊपर से राज्यपाल नियुक्त किये जायेंगे । सभी प्रशासनिक सेवाएँ संबंधित प्रदेशों अथवा स्थानीय सत्ताओं के सीधे नियंत्रण में होंगी । प्रदेश ,सभी भारतीय नागरिकों के साथ समान   व्यवहार करेंगे तथा जाति]  लिंग] क्षेत्र ] सम्प्रदाय तथा जातीयता के आधर पर कोई भेद भाव नहीं किया जायेगा ।
d . संसद और केन्द्रीय प्रशासन में,सभी राष्ट्रीय भाषाओँ की समानता को मान्यता दी जायेगी । संसद सदस्यों को अपनी जातीय भाषा में बोलने का अधिकार होगा तथा अन्य भाषाओँ में साथ साथ अनुवाद की व्यवस्था होगी ।सभी कानून, सरकारी आदेश और प्रस्ताव , सभी भाषाओँ में उपलब्ध कराये जायेंगे । दूसरी सभी भाषाओँ को छोड़कर , एकमात्र सरकारी भाषा के रूप में हिन्दी का उपयोग अनिवार्य नहीं बनाया जायेगा । सभी भाषाओँ को समानता प्रदान करके ही, इसे पूरे देश में संपर्क  की भाषा के रूप में स्वीकार्य बनाया जा सकता है । तब तक , हिन्दी और अंगरेजी के इस्तेमाल की मौजूदा व्यवस्था जारी रहेगी । शिक्षण संस्थाओं में, उच्चतम स्तर तक मातृ भाषा में शिक्षा प्राप्त करने का जनता का अधिकार सुनिश्चित किया जायेगा । हरेक भाषायी प्रदेश की अपनी भाषा का , तमाम सार्वजनिक  व् राजकीय संस्थाओं में उपयोग भी सुनिश्चित किया जायेगा । अल्पसंख्यक समूह या अल्पसंख्यक समूहों की या जहाँ जरूरी हो किसी क्षेत्र विशेष की भाषा को , प्रदेश में अतिरिक्त भाषा का दर्जा देने की व्यवस्था होगी । उर्दू भाषा और इसकी लिपि को संरक्षण दिया जायेगा ।
e. जनता की जनवादी सरकार आर्थिक ,राजनैतिक तथा सांस्कृतिक क्षेत्रों में ,संघटक प्रदेशों के बीच तथा विभिन्न प्रदेशों की जनता के बीच , पारस्परिक सहयोग को पोषित कर और बढ़ावा देकर , भारत की एकता को मजबूत बनाने के के लिए कदम उठाये जाने होंगे । जातीयताओं , भाषाओँ और संस्कृतियों की विविधताओं का आदर किया जायेगा और विविधता में एकता की नीतियां लागू की जायेंगी । वह आर्थिक दृष्टि से पिछड़े व् कमजोर प्रदेशों ,अंचलों और क्षेत्रों पर विशेष ध्यान देना होगा तथा उन्हें वितीय व् अन्य सहायता देनी होगी ताकि पिछड़ापन तेजी से दूर करने में, उन्हें मदद मिल सके । 
f . जनता का जनवादी राज्य स्थानीय प्रशास न   के क्षेत्र में, सबसे नीचे गाँव से लेकर ऊपर तक ऐसे स्थानीय निकायों का व्यापक नेटवर्क खड़ा करेगा , जिनका सीधे जनता द्वारा चुनाव होगा और जिनके हाथ में पर्याप्त सत्ता व् जिम्मेदारियां होंगी और जिन्हें पर्याप्त वितीय संसाधन दिए जायेंगे । स्थानीय निकायों के सक्रिय कामकाज में जनता की भागीदारी सुनिश्चित करने के सभी प्रयास किये जाएँ ।
 
भाग --1--जारी है    

Saturday, December 15, 2012

EK ANUMAN


21वीं सदी  की शुरुआत में विश्व वितीय सौदों का लेन  देन 4,000 ख़रब डालर यानि मालों व् सेवाओं के करीब 70 खरब डालर के सालाना कारोबार से करीब 60 गुना ज्यादा हो जाने का अनुमान है ।

पूंजी की तासीर

पूंजी की तासीर 
" पर्याप्त मुनाफा मिले तो पूंजी बहुत हिम्मती हो जाती है । 10 प्रतिशत का पक्का मुनाफा , उसका कहीं भी लगाया जाना सुनिश्चित कर देगा ;20 फीसद पक्का हो तो वह बहुत उत्सक हो जायेगी ; पचास फीसद पर वह ढीठ हो जायेगी ;100 फीसद पर वह तमाम इंसानी कानूनों को रोंदने के लिए तैयार होगी ; और 300 फीसद मिलता हो तो कोई अपराध नहीं है जिसे करने में उसे हिचक होगी और कोई जोखिम नहीं है जो वह नहीं उठायेगी , यहाँ तक कि मालिक को फांसी चढ़ने का जोखिम भी ।"
मार्क्स --दास कैपीटल 

Tuesday, December 11, 2012

PRAGATEE SHEEL ANDOLAN---SUHEL HASHMI



प्रगतिशील आन्दोलन की विरासत और हमारा समय
  
दोस्तों में अपनी प्रस्तुति की शुरुआत करने से पहले यह साफ़ कर देना चाहता हूँ के साहित्य सर्जन से मेरा कोई दूर का भी वास्ता नहीं है में कवि, कहानीकार, नाटककार, नहीं हूँ, आलोचक भी नहीं, हाँ साहित्य से एक सरोकार मेरा है, में पाठक हूँ और अगर ग़ालिब की ज़बान का इस्तेमाल करू तो इस जहान-ऐ-रंग-ओ-बू  में ६० दहाइयां बिता चुकने  की  वजह से थोडा बुहत ऐसा पढ़ देख चूका हूँ जो प्रगति शील कहलाता है काफी ऐसा भी पढ़ा  है जो प्रगतिशील नहीं है. इस दौरान इन दोनों में अंतर करना और पहले को दुसरे पर तरजीह देना भी आ ही गया. तो आज जो बातें में आपके सामने रखने जा रहा हूँ वो एक पाठक, श्रोता, दर्शक की व्यक्तिगत दृष्टि और विश्लेषण है और उसमें वो सारी खामियां होंगी जो एक पक्षधर व्यक्ति के नज़रिए में होती हैं.
प्रगतिशील आन्दोलन की विरासत क्या है
मेरी नज़र में सामाजिक कुरीतियों के विरूद्ध, महिलाओं, अल्पसंख्यकों, दलितों, पददलितों  और मेहनत  मजदूरी कर के गुज़रा करने वालों के हक में जो भी वैचारिक,  सांगठनिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक पहलक़दमी  हुई है वो सब प्रगतिशील आन्दोलन की विरासत है.
इस ब्यान के पीछे मेरी मंशा इस बात को रेखांकित करने की है के प्रगतिशीलता की विरासत और प्रगतिशील आन्दोलन की विरासत में गहरे आपसी रिश्ते हैं. प्रगतिशील आन्दोलन की विरासत उस व्यापक प्रगतिशील विरासत का एक हिस्सा है जो एक लम्बे समय से हमारे यहाँ विकसित हो रही है. प्रगतिशील आन्दोलन जिस की शुरूआत १९३६ में हुई उसे इस परिप्रेक्ष में देखना और इस बात को रेखांकित करना के प्रगतिशील आन्दोलन की जड़ें हिंदुस्तान की ज़मीन में बुहत  गहरी गड़ी हुई हैं इतना ही ज़रूरी है जितना इस बात को जताना के हमारी सेक्युलर परम्पराएँ भी कुछ कम पुरानी नहीं हैं .
इन दोनों बातों को रेखांकित करना इस लिए भी ज़रूरी है क्योंके सेकुलरिज्म और प्रगतिशीलता के दुश्मन यह कहते नहीं अघाते के यह विदेशी विचार हैं और  इसलिए यह भारतीय अस्मिता, भारतीय परम्परा का हिस्सा नहीं हैं.  वो  लोग जो यह  साबित करने में लगे हुए थे, और हैं, के प्रगतिशील आन्दोलन कोई वाम पंथी साज़िश थी दरअसल खुद एक साज़िश का हिस्सा हैं और यह बात उन दूसरे महानुभावों के बारे में भी कही जा सकती है  जिनका इसरार इस बात पर है के हमारी परंपरा में तो धर्म और राजनीती अलग हो ही नहीं सकते और हमारी परम्परा  तो राजा  द्वारा राजधर्म और दासों द्वारा दासों के धर्म का निर्वाह करने की संस्कृति पर ही आधारित थी.
मेरी नज़र में जब चार्वाक दार्शनिकों ने वेदों के श्लोकों को मनुष्यों की रचना कहा और उनके दैविक स्रोत्रों पर प्रशन चिन्ह लगाये, जब उन्होंने कहा के मृत्यु के बाद कुछ नहीं बचता और आत्मा नहीं होती, जब उन्होंने कहा के दुखों से बचो और सुखों का आनद लो और जब उन्होंने त्याग और शरीर को कष्ट देने वाली तपस्याओं का विरोध किया तो उन्होंने अपने समय की प्रगति शील परंपरा को बल दिया और उसे आगे बढाया
जब महावीर और बुध ने जातिप्रथा का विरोध किया, पाली और प्राकृत को संस्कृत पर तरजीह दी तो वो क्या कर रहे थे . बुध ने तो एक जातक के अनुसार अपने उपदेशों के संस्कृत अनुवाद किये जाने के प्रस्ताव का विरोध यह कह कर किया के अगर मेरी बातें संस्कृत  में अनुदित हो गएँ तो उन तक कैसे पौन्ह्चेंगी जिन के लिए वो कही जा रही हैं . अब यह उस समय की वर्ग व्यवस्था के खिलाफ आवाज़ उठाने और शासक वर्ग की भाषा और जन भाषा के बीज जन भाषा को चुनने का  प्रगतिशील क़दम नहीं था  तो क्या था.
मेरा मकसद इस बात को रेखांकित करना है  के प्रगतिशीलता कोई ऐसी चिड़िया नहीं है जो विदेश  से आयातित हुई हो, प्रगतिशीलता अंग्रेजी राज के उन फाएदों में से नहीं ही जिनकी चर्चा मुझ से पिछली पीढ़ी की  पाठ्य पुस्तकों में होती थी और अब वैश्वीकरण के दौर में  और ऑक्सफ़ोर्ड के पढ़े हुए प्रधान मंत्री के दौर में फिर होने लगी है,  वैसे हमारे एक प्रधान मंत्री और  भी थे जो केम्ब्रिज से  पढ़ कर आये थे मगर  अंग्रेजी हुकूमत की बरकतों  का इतना ज़िक्र नहीं करते थे. अंग्रेजों ने उन्हें १० साल जेल में रखा था. वो प्रगतिशील थे आज वाले नहीं हैं .
बहरहाल जिस बात की तरफ में लौट कर जाना चाहता  हूँ वो यह है के हर काल में प्रगतिशील शक्तियां और प्रवार्तियाँ होती हैं , दो सौ साल की गुलामी में हमें यह पढ़ा दिया गया था का भारतीय समाज एक जड़ समाज था और उसमें कोई प्रगति कोइ परिवर्तन न तो हजारों साल से हुआ था, न परिवर्तन के कोई आसार नज़र आते था और न कही भी किसी भी बदलाव की गुन्जाएश थी . हमें फिर यह भी बताया गया के अंग्रेजों के आने से नए विचार नए दृष्टिकोण विकसित हुए और भारतियों को एक आधुनिक नजरिया प्राप्त हुआ और उसी की मदद से हम ने एक आधुनिक राष्ट्र की समझ विकसित की वगेरा वगेरा.
यह समझ दरअसल भारत में होने वाले सभी ऐतिहासिक परिवर्तनों को सिरे से नकारती है .चार्वाक के समय से ले कर अंग्रेजों के आने के समय तक जो लम्बा वैचारिक आर्थिक सामाजिक सफ़र हम ने अंग्रेजों की मदद के बगैर  तै किया है क्या उस  में कोई प्रगतिशील परिवर्तन हुआ ही नहीं ? खगोल शास्त्र, गणित, नाटक, नृत्य, साहित्य, कला, कृषि, हस्तकला, शिल्प, वास्तुशिल्प, संगीत, मूर्तिकला कौन सी ऐसी विधा है  जिसमें इस दौर में नए तजरुबे न किये गए हों,  दरबारों की ज़बानों की जगह अवाम की बोल चाल की भाषा हिन्दवी जो बाद में हिंदी उर्दू बन कर उभरी इसी दौर की पैदावार है, इसी दौर में हम ने हिन्दुस्तानी होने की संस्कृतिक पहचान का निर्माण शुरू किया, इसी काल में एक निराकार भगवन की  कल्पना हुई, एक ऐसा भगवन जिस की उपासना के लिए पुजारी और पूजा के ताम झाम की ज़रुरत नहीं थी, क्या अपने आप में यह ब्राह्मणों के वर्चस्व और भगवन के विचार पर उनके एकाधिकार के खिलाफ एक प्रगतिवादी क़दम नहीं था. एक ऐसा काल जो हमें खुसरू, कबीर, रैदास और नानक जैसी प्रतिभाएं देता है उसे किस तरह जड़ की संज्ञा दी जा सकती है ?
सूफी और निर्गुण आन्दोलन के प्रभाव में हम ने धार्मिक मतभेदों की बिना पर इंसानों में मतभेद करने का विरोध किया और हर तरह के धार्मिक आडम्बर और खोखले रीती रिवाजों का मुकाबला किया, ब्राह्मणवाद को पुनर्स्थापित करने की प्रक्रिया के विरोध में निर्गुण भक्ति की एक लहर जो पूरे देश में फेल गयी क्या अपने आप में एक प्रगतिशील धारा  नहीं थी?
यह ज़रूरी नहीं के सारे प्रगतिशील परिवर्तनों की शुरूआत आम जनता, खेत मजदूर, किसान  फैक्ट्री के मजदूर करें, बुहत से परिवर्तनों की शुरूआत खुद शासक वर्ग से भी हो सकती है , गौतम बुध और महावीर जैन खुद क्या थे, सम्राट अशोक क्या था, खुसरू क्या था?  सती  प्रथा के खिलाफ पहला कानून राजा  राम मोहन राय के अभियान के दबाव में अंग्रेजों ने नहीं पास किया था सती पर पहली बार पाबन्दी लगाने वाला कानून अकबर ने लागू  किया था, खेती पर लगने वाले लगन की दर भूमि की उपजाऊ शक्ति की बिना पर तै होगी इस कानून को शेर शाह सूरी ने लागू किया था.
 दरअसल प्रगतिशील  परिवर्तन वो वर्ग लाते हैं  हैं जो विकसित हो रहे होते हैं आगे बढ़ रहे होते हैं , रूढ़ियों से संघर्ष कर रहे होते हैं. बाद में जब वोही वर्ग सत्तारूढ़ हो जाते हैं तो वो प्रगति के राह में रूकावट बन जाते हैं. सामंती एक समय में प्रगति का प्रतीक थे और इसी तरह पूँजी पति भी,  साम्राजवादी व्यवस्था और  मजदूर वर्ग के चरित्र में परिवर्तन नहीं होता. हमारे निकट अतीत में भी जो परिवर्तन आये हैं उनके कर्णधार हमारे युग के उभरते, विकसित होते हुए जुझारू वर्ग हैं. हमारे युग में यह वर्ग मजदूर वर्ग है मगर अतीत में हमेशा ऐसा नहीं था. प्रगतिवादी क्या है इस की परिभाषा अलग अलग काल में बदल  सकती है  जैसे गुलामी  के काल में ज़मींदारी प्रथा की स्थापना एक प्रगतिशील क़दम था मगर आज वो प्रतिक्रियावाद का स्रोत्र है , ठीक ऐसे ही जैसे समाजवादी समाज की स्थापना के बाद पूँजी वाद प्रतिक्रियावाद के खेमे का सरगना बन जाता है हालांके ज़मींदारी प्रथा के खात्मे के वक़्त उभरते हुए पूँजी वाद  और उसके साथ जनम लेने वाले मजदूर वर्ग ने फ़्रांस की क्रांति और जनतांत्रिक व्यवस्था का सूत्र पात किया था.
साम्राजी  गुलामी के दौर में जो विद्रोह साम्राज की प्रभुसत्ता के खिलाफ उभरे उनमें से सब से ज्यादा व्यापक और संगठित विद्रोह १८५७ का सैनिक विद्रोह था मगर ज़रा गौर से देखिये यह बागी कौन थे ईस्ट इंडीय कम्पनी की लाइट बंगाल इन्फेंट्री में १२५,००० सिपाही थे इनमें से ६५% से अधिक ब्राह्मण और क्षत्रिय थे और बाक़ी बचे हुए ३५% में दलित, आदिवासी, पिछडी जातियों के सदस्य मुसलमान सिख व अन्य लोग थे,  इन्होने बहादुर शाह ज़फर को अपना कमांडर इन चीफ बनाया और वो खुद बख्त खान के नेतृत्व में संगठित थे, खुद बख्त खान एक मामूली सा रिसालदार था.
इन लोगों ने देश को आज़ाद करने के बाद जिस भारत का सपना देखा था वो मुग़ल सामंती दौर में वापसी का सपना नहीं था, वो उस क़दीम, प्राचीन नवाबों बादशाहों और रजवाड़ों के झूठे वैभव कालीन दौर में लौटने का सपना नहीं देख रहे थे  वो आम लोगों की इच्छा से चुनी जाने वाली सरकार स्थापित करना चाहते थे. दिल्ली के लिए जो प्रशासनिक ढांचा उन्होंने तैयार किया था वो दिल्ली के नागरिकों, व्यापारियों और फौजियों द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों की एक समिति पर आधारित था. बहादुर शाह ज़फर या उनका प्रतिनिधि इस समिति का एक सदस्य था फैसले सर्व सम्मति से होने ज़रूरी थे, फैसला न हो पाने की स्थिति में ही बादशाह या उसके प्रतिनिधि का फैसला सर्व मान्य होता था मगर बादशाह या उसके प्रतिनिधि को वीटो का अधिकार नहीं था.
१८५७ में यह संविधान बना था, शायद उस समय बुहत कम देश ऐसे थे जो इस तरह की बात सोच भी सकते थे यह भारत् का पहला रिपब्लिकन संविधान था. इस से ज्यादा प्रगतिशील समझ की कल्पना उस काल में कहाँ मिलती है? अंग्रेजी अफसरों की ताना शाही और उनके निरंकुश अनुशासन की प्रतिक्रिया ने इस प्रगतिशील विचार को विकसित किया होगा, पर क्या इस विचार के विकसित होने का श्रय अँगरेज़ ले सकते हैं.
१८८६ में लाला देवराज ने जालंधर  में लड़कियों का स्कूल शुरू किया उनका सम्बन्ध आर्य समाज से था लाला लाजपत राय ने पंजाब केसरी में लेख लिख कर लड़कियों के स्कूलों पर आर्य समाज के सीमित साधनों को व्यर्थ गंवाने का विरोध किया, लालालाजपत राय के समर्थकों ने महीनो लाला देवराज के घर पर सुबह शाम पत्थर फेंके. पंडित अनंत शास्त्री डोंगरे  मंगलौर के मशहूर चित्पावन ब्राह्मण थे १९वी शताब्दी की मध्य में उन्होंने अपनी पत्नी और बाद में अपनी बेटी को संस्कृत पढ़नी शुरू की और इस पाप के लिए उन्हें बरसों दर दर  भटकना पड़ा, उनकी बेटी, रमा बाई  ने बड़े हो कर ब्राह्मण विधवाओं के हालात पर किताब लिखी और ब्राह्मण विधवाओं के लिए आश्रम खोला जहाँ उन्हें लिखना पढना और रोज़गार कमाने के लिए काम  सिखाया जाता था, लोक मान्य तिलक ने जन सभाएं कर के इस बहादुर महिला के खिलाफ अभियान किया और उसे रेवरेंडा के नाम से पुकारा. सर स्येद अहमद खान भी औरतों की तालीम के समर्थक नहीं थे और अलीगढ में लड़कियों के लिए स्कूल खोले जाने के कट्टर विरोधी, उनके सेक्रेटरी ने वहीँ अलीगढ  में उनके मरने के थोड़े समय बाद ही लड़कियों का स्कूल खोला.
यह तीनों मिसालें हमें क्या बता रही हैं सर स्येद सर थे, लाला लाजपत राय आर्य समाज के  स्कूल ग्रुप के नेता थे, स्कूल ग्रुप प्रगतिशील समझा जाता था और लाला देवराज पाठशाला ग्रुप का समर्थन करते थे और यह ग्रुप रूढ़ी वादी समझा जाता था, रमाबाई एक तथा-कथित रूढ़िवादी ब्राह्मण की बेटी थीं और तिलक तो लोकमान्य थे पर प्रगतिशील धारा के साथ कौन था और उसके खिलाफ कौन ? 
१७०३ में औरंगजेब के कमानदार गाजी उद् दिन हैदर ने दिल्ली में एक मदरसा खोला यहाँ गणित और दर्शन के अलावा इस्लामी धार्मिक शिक्षा दी जाती थी १९२५ में अंग्रेजों ने इसे दिल्ली कालेज का नाम दे दिया और यहाँ अंग्रेजी पढाई जाने लगी १८५८ में इस कालेज के दो टीचरों को बगावत  का साथ देने के जुर्म में मौत की सजा दी गयी, वो कालेज जो अंग्रेजों ने अपमे लिए बाबु पैदा करने के लिए खोला था आज़ादी के समर्थकों का अड्डा बन गया, ऐसा ही अलीगढ यूनिवर्सिटी के साथ भी हुआ. अलीगढ तो प्रगतिशील लेखकों का कारखाना ही बन गया था  मजाज़, जज़्बी, जान निसार अख्तर, सरदार जाफरी, आले अहमद सुरूर,  वामिक जौनपुरी, और बुहत से दूसरे
इन मिसालों की मदद से मैं आपकी खिदमत में अर्ज यह करना चाह रहा हूँ के प्रगतिशील विचारों के लिए हम अंग्रेजों के करजदार तो नहीं ही हैं, सभी सभ्य समाजों की तरह हिन्दुस्तानी समाज में भी प्रगतिशील तत्वों का वुजूद हमेशा रहा है, यह न होता तो हम इतने हज़ार साल जिंदा न रह पाते क्योंके अगर प्रगति नहीं होती तो अवनति होना लाज़मी है, समय आप को क़दम ताल का अवकाश नहीं देता. दूसरी तमाम सभ्यताओं की तरह हम ने भी दूसरी सभ्यताओं से सीखा है और बुहत कुछ उनसे लिया भी है और जितना लिया है शायद उतना ही दिया भी है. 
प्रगतिशीलता की एक लंबी विरासत हमारे पास है, आज़ादी के संघर्ष के दौरान साम्राज्यवाद की योजनाओं के विरूद्ध योजनाएं बनाने में हम ने बुहुत कुछ नया ईजाद किया और दुनिया भर के साम्राज विरोधियों से बुहत कुछ सीखा, ठीक वैसे ही जिस तरह नेल्सन मंडेला और मार्टिन लूथर  किंग जूनियर ने गाँधी जी से सीखा.
प्रोग्रेसिव राईटरज एसोसिएशन या प्रगतोशील लेखक संघ जो १९३६ में विधिवत शुरू हुआ दरअसल इस लंबे समय से चलने वाली प्रगतिशील लहर के प्रभाव में लेखकों का एक जुट हो जाना था और उस वक्त के सारे बड़े और संवेदन शील लेखक PWA के साथ खड़े हो गए थे ठीक उसी तरह जिस तरह १९४२ में इप्टा की स्थापना के बाद लगभग सब ही बड़े संगीतकार, गायक, अभिनेता, नृतक इप्टा के साथ आ गए थे. मगर ऐसा भी नहीं है के प्रगतिशील विचारों की विरासत की कुल अभिव्यक्ति ये दो संगठन ही हों, ललित कलाओं में विशेष कर चित्र कला में एक बड़ी पहल कदमी द प्रोग्रेस्सिवे आर्टिस्ट्सग्रुप के नाम से १९४७ में हुई आधुनिक भारत के सभी बड़े कलाकार या तो इस ग्रुप के साथ जुड़े रहे या इस ग्रे प्रभावित रहे, सूजा , बाकरे, रजा, हुसैन, तयेब मेहता, अकबर पदमसी, राम कुमार आदि
इसी तरह वास्तुकला में, फोटोग्राफी में, न्रत्य में, साहित्यक आलोचना में, इतिहास लेखन में, अपने अतीत के मूल्यांकन में, हमारी सभ्यता में क्या हीवित है और क्या मर रहा है किस की रक्षा ज़रूरी है और किस की बर्बादी की राहें हमवार करनी हैं इन सभी सवालों पर प्रगतिशीलता के पक्षधरों की एक साफ़ समाझ है. लोकोन्मुखी आर्थिक नीतियों की पक्षधरता में, स्वास्थ  और शिक्षा की प्रणाली को अवाम के लिए इस्तेमाल करने की वकालत करने वालों में, प्रगतिशील विचारों का योगदान रहा है और आज भी विद्यमान है. विज्ञान और प्रौद्योगिकी का विकास किस दिशा में हो, हमारे शहर कैसे बनें, स्कूलों में फर्नीचर कैसा हो वगेरा वगेरा यह सब वो क्षेत्र हैं जिन के बारे में प्रगतिशील विचारधारा ने अपना महत्व.पूर्ण योगदान दिया है
इन सभी क्षेत्रों में प्रगतिशील लोग अपना योग दान दे पाए हैं वो इस लिए है क्योंके जीवन में जो कुछ ज़िदा है, जिंदगी से भरपूर है, आगे बढ़ रहा है, विकसित हो रहा है, प्रगतिशील लोग उसके साथ हैं. जिंदगी, खुशहाल जिंदगी, सब को साथ ले कर चलने वाली जिंदगी ही दरअसल जिंदगी है और वो निरंतर प्रगति के बिना संभव नहीं, प्रगतिशील विचारों के लगातार विकसत हुए बगैर यह जिंदगी संभव नहीं ऐसे जीवन को हासिल करने का संघर्ष ही प्रगतिशील आंदोलन की विरासत है, हमारी और आपकी विरासत है.                          
   "सुहेल हाशमी "
  
                        

  

       

RICH INDIA INHABITED BY POOR PEOPLE

देश के चौतरफा विकास के लिए जरूरी विराट  संसाधनों -- भरपूर कृषि योग्य भूमि , सिंचाई क्षमताओं , तमाम किस्मों की फसलों के लिए विभिन्न इलाकों की अनुकूल स्थितियां , विपुल खनिज संसाधन और साथ ही बिजली उत्पादन की वृद्ध क्षमताओं से , भारत मालामाल है । भारत की विशाल जनशक्ति , भारतीय जनता की वैज्ञानिक , तकनीकी ,प्रबंधकीय व् बौद्धिक  योग्यताएं , जबरदस्त क्षमताओं के भंडार हैं । इन क्षमताओं के विकास के बजाय , राजसत्ता हासिल करने वाले बड़े पूंजीवादी वर्ग ने , ऐसे  पूंजीवादी विकास का रास्ता अपनाया जो उसके अपने संकीर्ण हितों को पूरा करता था ।

Monday, December 10, 2012

चन्द्र सिंह गढ़वाली

आज हम आजाद देश के नागरिक हैं । आजादी के बाद हमने बहुत कुछ् हासिल किया है । लेकिन वे लोग जिनकी वजह से हमने आजादी पाई , उनके विषय में हम ज्यादा नहीं जानते, न ही उनके त्याग और संघर्षों को जानते हैं । किसी प्राप्ति का मूल्य तभी आँका  जा सकता है जब हम उसके पीछे के बलिदान को समझें । देश के अनेकानेक लोग कई प्रकार से स्वतन्त्रता के लिए संघर्ष रत रहे । कुछ देशभग्ति  की पराकाष्ठा तक पहुँच गए और अमर हो गए पर अधिकांश देशभक्त कहीं किसानों को, कहीं फ़ौज के सिपाहियों को , कहीं हिन्दू मुस्लिम अवाम को संगठित करते हुए नींव के पत्थर बन गए । चन्द्र सिंह गढ़ वाली भी ऐसे सामान्य फ़ौजी थे जिन्होंने गढ़वाल रायफल्ज  का नेतृत्व करते हुए अंग्रेजों का हुकम मानने से इंकार कर दिया और अंग्रेजों की  हिन्दू मुस्लिम बंटवारे की निति को विफल करके लोगों को देशप्रेम का सन्देश दिया । अंग्रेज सरकार ने उनके साथ बहुत सख्ती बरती लेकिन वे देश के लिए लड़ते रहे ।आज के दौर में ऐसे जन नायकों की विरासत को समझना और उससे सबक लेना हमारी जरूरत है । उम्मीद है चन्द्र सिंह गढ़वाली का यह किस्सा सबको प्रेरित करेगा ।
रागनी --1
आजाद देश के वासी सोचो आजादी क्यूकर पाई देखो
जिन करकै आजाद हुए उनकी याद भुलाई देखो ।।
उन शहीदों के बारे हमने रति भर भी ज्ञान नहीं
उनका त्याग और क़ुरबानी इन सबकी पहचान नहीं
उनका संघर्ष याद कराँ घनी तकलीफ ठाई  देखो।।
अनेकानेक लोग देश के जिनने अपना बलिदान दिया
भगत सिंह राजगुरु सुखदेव जीवन पूरा कुर्बान किया
हँसते हँसते देश की खातिर फांसी इन नै खाई देखो ।।
कितै संघर्ष की खातिर संतान किसानों का बनाया
कितै फ़ौज के सिपाहियों नै अपना देश प्रेम दिखाया
हिन्दू मुस्लिम एकता की नींव मजबूत बनाई देखो ।।
हिन्दू मुस्लिम एकता म्हारी अंग्रेजों नै तोड़ बगाई या
देश का बंटवारा करकै अपनी तुर्पी चाल चलायी या
इस बंटवारे के दुखों की नहीं होगी या भरपाई देखो ।।
इन अमर शहीदों मैं एक हुआ चन्द्र सिंह गढ़वाली
फ़ौज मैं बगावत की नींव सबकी साहमी थी डाली
रणबीर सिंह नै दिल लाके करी सै कविताई देखो ।।
रागनी -2
अंग्रेजों नै घने जुलम कमाए अपना राज जमावान मैं
फूट गेरो तरज करो वर लाई न निति अपनावन  मैं
किसानों पर घने कसूते अंग्रेजों नै जुलम कमाए थे
कोहलू मैं पीड़ पीड़ मारे लगान उनके बढ़ाए थे
जगलों  की शरण लिया करते अपने पिंड छटवावन मैं
मजदूरों का बेहाल करया ढाका जमा उजाड़  दिया
मानचैस्टर आगै बढाया जलूस म्हारा लिकाड़ दिया
ढाका की आबादी घटगी माहिर मलमल बनावन मैं
युवा घने सताए गोरयां नै ये सारी सीम लाँघ गए
बंदर बाँट मचा देश मैं फेर रच घने ये सांग गए
पहली आजादी आली जंग लड़ी गयी थी सतावन मैं
ठारा सौ सतावन की जंग मैं देशी सेना बागी होगी
अंग्रेजों के हुए कान खड़े चचोत कालजै लगी होगी
रणबीर सिंह की कविताई हो सै  जनता जगावन मैं






Sunday, December 9, 2012

दो दिवसीय सम्मेलन -- जनतंत्र और मानवाधिकार

                                       दो दिवसीय  सम्मेलन -- जनतंत्र और मानवाधिकार 
                                          महिला केंद्र  की अध्यक्ष --प्रोफेसर डा अमृता यादव --
      महिला और मानवाधिकार --  आज  भले ही महिलाओं के लिए बहुत से अधिकार हैं ,
लेकिन हकीकत कुछ और ही है । वह इस बात के लिए संघर्ष कर रही हैं कि उनको  भी इंसान माना  जाये ।

इस  सत्र की अधयक्षता  महिला आन्दोलन की नेत्री जगमाती सांगवान ने की । कहा की महिलाओं की आवाज बुलंद करने में महिला आन्दोलन और जागरूक संस्थाओं का अहम रोल रहा है ।
                                    जनवादी  महिला  की राष्ट्रीय उपाध्यक्ष जगमाती सांगवान 

Thursday, December 6, 2012

DEFINITION


चुनौती

चुनौती
"मैं अब्राहम टी  कोबूर ,तिरुविल्ला , पामानकाडालेन  , कोलम्बो -6 का निवासी , यह घोषणा करता हूँ  कि  मैं श्री  लंका के एक लाख रुपये का इनाम संसार भर के किसी भी ऐसे व्यक्ति  को देने को त्यार  हूँ जो ऐसी स्थिति में , जहाँ धोखा न हो , कोई चमत्कार या अलौकिक  शक्ति का प्रदर्शन कर सकता हो । यह पेशकश मेरी मृत्यु तक या इससे  पहले  इनाम जीतने वाला मिलने तक खुली रहेगी ।" देव पुरुष , संत,योगी , सिद्ध , गुरु , स्वामी एवं अन्य दुसरे जिन्होंने आत्मिक क्रिया क्लापों  से या परमात्मा की शक्ति से शक्ति प्राप्त की है , इस इनाम को निम्नलिखित चमत्कारों में से किसी एक का प्रदर्शन करके जीत सकते हैं -------------
1. जो सीलबंद करेंसी नोट का क्रमांक पढ़ सकता हो ।
2. जो किसी करेंसी नोट की ठीक नक़ल पैदा कर सकता हो ।
3. जो जलती हुयी आग पर , अपने देवता की सहायता से , आधे मिनट तक नंगे पैरों पर खड़ा हो सकता हो ।
4. ऐसी वस्तु , जिसकी  मैं मांग करूं , हवा में से पेश कर सकता हो ।
5. मनोवैज्ञानिक शक्ति से किसी वस्तु को हिला या मोड़ सकता हो ।
6. टेली पैथी के माध्यम से , किसी दूसरे व्यक्ति के विचार पढ़ सकता हो ।
7. प्रार्थना , आत्मिक शक्ति , गंगा जल या पवित्र राख  से अपने शरीर के अंग को एक इंच बधा सकता हो ।
8. जो योग शक्ति से हवा में उड़ सकता हो ।
9. योग शक्ति से पञ्च मिनट के लिए अपनी नब्ज रोक सकता हो ।
10. पानी के ऊपर पैदल चल सकता हो ।\
11. अपना शरीर एक स्थान पर छोड़कर दुसरे स्थान पर प्रकट हो सकता हो ।
12. योग शक्ति से 30 मिनट तक अपनी साँस क्रिया रोक सकता हो ।
13.रचनात्मक बुद्धी का विकास करे।भक्ति या अज्ञात शक्ति से एटीएम ज्ञान प्राप्त करे।
14. पुनर्जन्म  के  कारण कोई अद्भुत भाषा बोल सकता हो ।
15, ऐसी आत्मा या प्रेत को पेश कर सके , जिसकी फोटो ली जा सकती हो ।
16. फोटो लेने के उपरांत फोटो में से गायब हो सकता हो ।
17. टला लगे कमरे में से अलौकिक शक्ति से बाहर आ सकता हो ।
18. किसी वस्तु का भर बाधा सकता हो ।
19.छुपी हुई वस्तु को खोज सके ।
20. पानी को शराब या पैट्रोल  में परिवर्तित कर सकता हो ।
21. शराब को खून में परवर्तित कर सकता हो ।
22. ऐसे ज्योतिषी एवं पाण्डे ,जो यह कह कर लोगों को गुमराह करते हैं कि ज्योतिष और हस्त रेखा एक विज्ञानं है , मेरे इनाम को जीत सकते हैं ,यदि वे दस हस्त चित्रों या दस ज्योतिष पत्रिकाओं को देखकर आदमी और औरत की अलग अलग संख्या मृत और जीवित लोगों की संख्या या जन्म ठीक समय व् स्थान , अक्षांस रेखांश के साथ बता दें । इसमें 5 प्रतिशत गलती मुआफ होगी ।
यह चुनौती निम्नलिखित शर्तों के साथ क्रियान्वित होगी :
1. जो व्यक्ति मेरी इस चुनौती को स्वीकार करता है , हालांकि वह इनाम जीतना चाहता है या नहीं , उसे मेरे पास या मेरे नामजद किये हुए आदमी के पास एक हजार रुपये जमानत के रूप में जमा करने होंगे । यह पैसे ऐसे लोगों को  दूर भागने के लिए हैं जो सस्ती सोहरत की खोज में हैं नहीं तो ऐसे लोग मेरा धन , शक्ति और कीमती समय को बेकार में ही नष्ट कर देंगे ।यह रकम जीतने की हालत में वापस कर दी जायेगी ।
2. किसी व्यक्ति की चुनौती उस समय स्वीकार की जायेगी , जब वह जमानत के पैसे जमा करा देगा । जो ऐसा नहीं करता उसके साथ किसी तरह का पत्र व्यवहार नहीं किया जायेगा ।
3. जमानत जमा कराने के बाद , किसी व्यक्ति के चमत्कार का सर्वप्रथम मेरे द्वारा नामजद किये हुए व्यक्ति के द्वारा लोगों की उपस्थिति में किसी निश्चित दिनांक को परीक्षण किया जायेगा ।
4. यदि वह व्यक्ति परीक्षण का सामना नहीं कर सकता या आरंभिक परीक्षण में असफल हो जाता है तो उसकी जमानत जब्त कर ली जायेगी ।
5. यदि वह इस आरंभिक जाँच पड़ताल में सफल हो जाता है तो अंतिम जाँच मेरे द्वारा लोगों की उपस्थिति में की जायेगी ।
6. यदि कोई व्यक्ति इस अंतिम जाँच पड़ताल में जीत जाता है तो उसको एक लाख रुपये का इनाम जमानत की राशि  के साथ दे दिया जायेगा ।
7. सभी परीक्षण , धोखा न होने वाली स्थिति में और मेरी या मेरे द्वारा नामजद किये हुए व्यक्ति की पूर्ण तसल्ली तक किये जायेंगे ।
अब्राहम टी कोवूर 
 

Wednesday, November 28, 2012

गुद्दी पाछै मत हो सै INTELLECTUAL INFERIORITY

गुद्दी पाछै मत हो सै

INTELLECTUAL INFERIORITY--an undisciplined mind and a slightly wooly brain

This assessment of women kind is incidentally, attributed to Indra( Rg Veda VIII.33.17). The implications of this are worked out much later in the Manusmrti, which discusses the possibility of interrogating women witness during legal disputes.
In the ultimate analysis ,we are told that the evidence proferred by even a number of pure women should not be accepted, owing to the instability of their intellect(stribiddhi asthiravat, Manusmriti VIII.77).
Small wonder then,that kings are cautioned against confiding in women , those eternal betrayers of secrets( Manusmriti VII.150).

"कछुआ संस्कृति

  1.  जब समाज की चादर में ही संकीर्णता के धागे मौजूद हैं तो इसकी सफाई सबकी जिम्मेदारी है ।
  2. जहाँ खाप पंचायतें नहीं हैं ऑनर किलिंग तो वहां भी है अर्थात तरह तरह की खाप सभी जगह सक्रीय हैं ।
  3. विडम्बना यही है की आम जनता की मानसिकता भी \उनके साथ इसी संकीर्ण सोच के साथ खड़ी  नजर आती है ।
  4. खाप पंचायतों के प्रमुख छाती ठोककर यह कहते हैं की भारतीय संविधान को वे नहीं मानते .उनके लिए खाप का अलिखित संविधान ही सर्वोपरि  है ।
  5. "कूप मंडूकता और हिंसक तौर तरीके " यह  हमारे समाज की प्रवर्ति है ।
  6. "कछुआ संस्कृति" का क्षेत्र माना  जाता है यह एरिया ।
  7. जब कोई समाज इस तरह की मानसिकता से संचालित हो रहा हो तो पुलिस की या प्रशासन के अधिकारियों  की मानसिकता समझी जा सकती है ।
  8. इस संकीर्ण सोच का जाति  की शुद्धता के प्रति घोर आग्रह है । जबकि वैज्ञानिक दृष्टि से "गोत की प्यूरिटी का कंनसेप्ट "बिलकुल गलत है ।
  9. गोत की गोत में शादी करने से जन्म जात बीमारियों के बढ़ने का खतरा ज्यादा है" इसे गोत की गोत में शादी न करने का वैज्ञानिक अधर बताया जाता है। मगर वास्तविकता कुछ और है । यदि खाप वाले मेरे महानुभाव वास्तव में जन्म जात बीमारियों के प्रति चिंता रखते हैं तो जन्म जात बीमारियों का खतरा कम करने के लिए अंतरजातीय  विवाहों को बढ़ावा दिया जाना चाहिए ।
  10. जात गोत धर्म की आड़ लेकर संकीर्ण सोच अपना प्रेम विरोध छिपा रही है । प्रेम से यह संकीर्ण सोच वास्तव में बहुत डरती है । इसका कारन साफ़ है कि प्रेम इंसान को एक स्वतंत्र सोच देता है और प्रेम की खातिर जोखिम उठाने का साहस और ताकत देता है ।
  11. इस स्वतंत्र विचार की भावना से संकीर्ण सोच मतलब एक तरह की सोच की जिद्द धराशाही होती दिखाई देती है ।
  12. इस संकीर्ण सोच की रुचि हम सब इंसानों को भेड़ के रूप में बने रहने या भेड़ समूह में बदलने की है ताकि पूरी जनता एक झुण्ड में रहे और इसे आसानी से जिधर चाहें उधर हांका जा सके ।{हर्ड कम्यूनिटी कंनसेप्ट]
  13. इसी संकीर्ण सोच की परछाई हमारी जयादातर संस्थाओं पर भी देखने को मिलती है   --- कत्ल का आरोपी राजनीयिक दल में बना रह सकता है मगर स्वतंत्र सोच वाला निर्भीक व्यक्ति दल से निकाल बाहर कर दिया जाता है ।
  14. विडम्बना है कि हमारे समाज की मूल बुनावट में ही संकीर्णता के धागों की अधिकता है और अगर इनको अकेले अकेले करके अलग करने की कोशिश की जाती है तो समाज की पूरी चादर ही झीनी हो जायेगी ।
  15. इसके लिए एक बड़े नए नवजागरण आन्दोलन की आवश्यकता है जिसमें वंचित तबके . दलित , महिला और नौजवान सब मिल कर एक बहुत बड़ा समाज सुधीर आन्दोलन चलाकर इस संकीर्ण सोच से मुक्ति पा   सकते हैं ।

Wednesday, October 10, 2012

RAPE MANIA

रेप मैनिया 
यो रेप मैनिया क्यों म्हारे हरयाणा के मैं छाग्या रै ।।
पढ़ पढ़ कै हादसे रोजाना जी घणा दुःख पाग्या रै ।।
जिस कै  लागै वोहे जानै दूजा के जानै पीर पराई 
म्हारै भी दुःख नहीं होंता जब तक ना झेलै माँ जाई 
सर पर कै पानी गया समाज पूरा घबराग्या रै ।।
कुछ अत्याचार बढ़ाये परम्परावादी रिवाज नै रै 
बाकी कसर पूरी करदी  इस बाजारी समाज नै रै 
महिला बनाई भोग की वस्तु बुरा जमाना आग्या रै ।।
बदमाशों की देखी जा सफेदपोश बदमाश होग्या 
माहौल पूरे समाज का यो अपराधों के बीज बोग्या 
बाड़ खेत नै खाण लगी रूखाला मुंह काला कराग्या रै।।
रेपिस्ट उनकी जिन्दगी मैं ये जहर कसूता घोलें 
हिम्मत उन महिलाओं की जो इसके खिलाफ बोलें 
कहै रणबीर बारोने आला छोह मैं छंद बनाग्या रै ।।



हरयाणा का माहौल

हरयाणा का माहौल 
एक बै  आदत  पड्ज्या तो छूटै  ना  कितने ए ताण  तुडाले ।।
मुश्किल  होज्या ऐब छुडाना चाहे कितनी ए कसम दुआले ।।
तम्बाकू की लत  होज्या तो कैंसर रोग की खुल ज्य़ा राही 
दमा  बढे और साँस रोग भी मचावै  बुढापे  के मैं तबाही  
खांसी बलगम तडकें ए तड़क  मानस नै खूबे ए रूआले ।।
दारू की लत का काम बुरा पूरे हरयाणा मैं छागी देखो 
माणस  की इस लत के कारण महिला दुःख पागी देखो 
गैंग रेप बढ़े हरयाणा मैं या गिरती साख कौन बचाले ।।
पर नारी की लत कसूती या घर परिवार बर्बाद करै   
महिला पुरुष के मीठे रिश्त्याँ मैं या कसूता खटास भरै 
नहीं छुटती लत माणस की कोए कितना ए समझाले ।।
ताश खेलन की लत बढ़ी हरयाने के गामाँ की गालाँ मैं 
जुए की लत कारण द्रोपदी का चीरहरण हुया दरबारां  मैं 
परम्परावादी रूढ़ीवादी नेता पुलिश अफसर रख वाले ।।
हरयाणा के लड़के लडकी कई लतां के शिकार हुए 
समाज सुधार की जरूरत घनी रणबीर के विचार हुए 
सते फरमाना दिल तैं तूं या रागनी ऊंचे सुर मैं गाले ।।



Saturday, October 6, 2012

PREM CHAUDHRY





Land Grab

Land Grab By The Rich Pushing Out People, Create Hunger In Poor Countries
 By Countercurrents.org

http://www.countercurrents.org/cc051012A.htm

“In the past decade an area of land eight times the size of the UK has been sold off globally as land sales rapidly accelerate. This land could feed a billion people, equivalent to the number of people who go to bed hungry each night”, said Our Land Our Lives, Time out on the global and rush , an Oxfam briefing note issued recently. “In poor countries,” said the note, “foreign investors have been buying an area of land the size of London every six days.” The trend was found in the period 2006-2010

dabang

ताकतवर लोग जानते हैं कि साधारण आदमी 
स्वभाव से क्रूर और स्वार्थी नहीं होता | उसकी 
अन्तश्चेतना मूल्य और फायदे को तोलते समय
 पासंग का काम करती है | इसलिए साधारण 
आदमी को सच्चाई तक मत पहुँचने दो | उसे 
नियंत्रित वायुमंडल में पालो , ब्रायलर वाली 
मुर्गीयों की तरह और बाड़े के सूअरों की तरह | 
और फिर उन्ही को जिम्मेवार ठहराव 
समस्याओं के लिए |

Monday, September 3, 2012

TEACHERS DAY


Tomorrow is Teachers’ Day and we can't wait to express our gratitude towards those who have inspired our lives in so many ways. Wondering how you can make Teachers' Day special? From buying your favourite teacher an exciting gift to impressing her with your charm, here’s how you can make this year’s Teachers’ Day memorable.  

1. Impress your teacher: A sure shot way of getting your teacher to notice you is by talking smart. But if you just aren’t cut out to be the teacher’s pet, just go cute on 'em. Work your charm we say!

2.  Think out of the box:  From pen sets to bookmarks, pick a gift for them from this list.  We are sure your teacher will think of you every time she uses them.

3. Surprise her with a personalised giftThank your teacher by documenting pictures and memories that you shared in school by creating a scrapbook. It’s quite simple :)

4. Buy her sweets: This Teachers’ Day, how about gifting your best teacher something sweet? Try delicious cakes, chocolates, puddings or fudge to make the memories sweeter.

5. Catch a movie together: Rent a DVD from our favourite student-teacher movie collection and watch it with your favourite Miss in school. Any teacher would love this :)

Saturday, September 1, 2012

Women Writers in Hindi Literature

Women Writers in Hindi Literature

युग-विमर्श (YUG -VIMARSH) یگ ومرش: प्रगतिशील लेखक आन्दोलन : जड़ों की पहचान / प्रो. शैलेश ज़ैदी

युग-विमर्श (YUG -VIMARSH) یگ ومرش: प्रगतिशील लेखक आन्दोलन : जड़ों की पहचान / प्रो. शैलेश ज़ैदी

Hindi Magazine - मीरा के पद - Meera Ke Pad

Hindi Magazine - मीरा के पद - Meera Ke Pad

Vibrant Gujarat- Unheard Voices #Narendramodi #Mustwatch « kracktivist

Vibrant Gujarat- Unheard Voices #Narendramodi #Mustwatch « kracktivist

Hindi Magazine - रहीम के दोहे - Raheem Ke Dohe

Hindi Magazine - रहीम के दोहे - Raheem Ke Dohe

Hindi Magazine - कबीर के दोहे | Kabir Ke Dohe | Hindi Dohe

Hindi Magazine - कबीर के दोहे | Kabir Ke Dohe | Hindi Dohe

Wednesday, August 29, 2012

ACCIDENTS

बलबीर सिंह राठी -गजल


बलबीर सिंह राठी -गजल 
हमने पूरी मेहनत करके गुलशन खूब संवारा था
छल से फल तुम को मिलने थे छलना खेल तुम्हारा था 
जब से तुम ने बाज़ी जीती बौने होते जाते हो 
उसका कद बढ़ता जाता है जो ये बाज़ी हारा था ||
जिसको सारी उमर मरोड़ा होना था बेडौल उसे 
फिर भी क्यों कहते फिरते हो वो क़िस्मत का मारा था ||
तूफानों का शौक रहा क्यों जाने सारी उमर हमें 
तब भी तूफानों से उलझे जब कुछ दूर किनारा था ||
तुम जो जहर लिए फिरते थे वो लोगों में बाँट गये 
अमृत लाकर घर घर बांटें ये सिरदर्द हमारा था ||
मुझ को इतने हंगामों से पहले कब दिलचस्पी थी 
मेरी जानिब उन आँखों का बेहद शोख इशारा था ||
यूं तो उस पर औरों ने भी हलके फुल्के वार किये 
सब से तीखा वार था उसका जो " राठी " का प्यारा था ||

Monday, August 27, 2012

नागर-चंदीला व अधाना गोत्र में अब होंगे रिश्ते


नागर-चंदीला व अधाना गोत्र में अब होंगे रिश्ते

Posted On August - 26 - 2012
राजेश शर्मा/राजेश नागर
फरीदाबाद के गांव भतौला में चंदीला और नागर गोत्र का पहला रिश्ता करवाने के बाद गूर्जर नेता रूप सिंह नागर व रणवीर चंदीला ताली बजाकर स्वागत करते हुए। -शिव
फरीदाबाद/तिगांव, 26 अगस्त।  समाज में मंडराते ऑनर किलिंग के मामलों में कमी लाने के लिए गुर्जर समुदाय ने रविवार को ऐतिहासिक पहल करते हुए 11 सौ साल से प्रतिबंधित गोत्रों में शादी संबंध के रिश्ते जोडऩे की अनूठी पहल की है। गुर्जर समुदाय के नागर, चंदीला व अधाना गोत्र आपस में शादी संबंध के रिश्ते नहीं जोड़ते थे। इन गोत्रों के बीच आपस में रिश्ते जोडऩे के लिए 12 अगस्त को जिले के सबसे बड़े गुर्जर बाहुल्य गांव तिगांव में महापंचायत में सहमति जताई गई थी।
इसी कड़ी में आज गांव भतौला में जिला परिषद के पूर्व सदस्य बिशन सिंह जौड़ला की अध्यक्षता में गुर्जर नेता रूप सिंह नागर के आवास पर रिश्ते संबंधों को जोडऩे की पहल करने के लिए पंचायत हुई। पंचायत में गुर्जर समुदाय के विशिष्ट लोग उपस्थित रहे, जिनकी मौजूदगी में बुढैना गांव निवासी चंदीला गोत्र के बाबू सिंह ने अपनी बेटी ज्योति का रिश्ता नवादा तिगांव निवासी नागर गोत्र के लेखराज पहलवान के बेटे जनकराज के संग जोड़ा। पंचायत ने दोनों गोत्रों के बीच जुड़े इस रिश्ते का ताली बजाकर स्वागत किया।  गुर्जर आरक्षण संघर्ष समिति के एनसीआर अध्यक्ष रणवीर सिंह चंदीला ने कहा कि इस मामले में चंदीला गोत्र ने पहल कर सहमति जताई थी। इसका निर्णय नागर और अधाना गोत्र पर छोड़ दिया गया था। गांव तिगांव में 12 अगस्त को रूप सिंह नागर की अध्यक्षता में हुई समाज की महापंचायत में इस पर सहमति जाहिर कर मुहर लगा दी गई। गुर्जर समुदाय की यह पहल समाज में मील का पत्थर साबित होगी।  गूर्जर नेता रूप सिंह नागर ने कहा कि नागर, अधाना और चंदीला गोत्र के गांव आसपास ही स्थित हैं। इसलिए इस प्रकार के प्रतिबंध वर्तमान परिवेश में कई सामाजिक दोषों को जन्म दे सकते हैं। उन्होंने कहा कि यह बहुत ही ऐतिहासिक निर्णय है।
इस निर्णय से गुर्जर समुदाय के गोत्रों के बीच सामाजिक समरसता और अधिक सृदृढ होगी। पंचायत में मौजूद लोगों ने दहेज की बढ़ती रफ्तार पर भी चिंता जाहिर करते हुए इसे कम करने की पहल करने पर जोर दिया।
इस अवसर पर पूर्व सरपंच बीर सिंह जौड़ला, राजेश नागर, अशोक नागर, तिगांव के पूर्व सरपंच प्रताप नागर, मा.रतिराम अधाना, मा.भरत सिंह नागर, उमेद सिंह अधाना, बेगराज, भीष्म पूर्व सरपंच फरीदपुर, कुलदीप सरपंच जसाना, मा. सत्यदेव नागर, इकराम पूर्व सरपंच जसाना, प्रवीण चंदीला, बीरपाल चेयरमैन, रविंद्र ब्लॉक मैम्बर, मान सिंह पूर्व सरपंच भैंसरावली, सुशील नागर जिला पार्षद, बेगराज नागर पूर्व सरपंच कबूलपुर, खड़क सिंह, जगबीर नीमका सरपंच, करतार नागर, जगत आर्य, फिरे अधाना, बीडीओ इन्द्रपाल नागर, झबरा भुआपुर, कर्नल जे.आर. अधाना, कन्हैयालाल अधाना, गूर्जर सभा के कार्यकारी अध्यक्ष ज्ञानचंद भड़ाना, डा. एम.पी.सिंह, रणवीर बिधूड़ी, जयपाल चंदीला, जिले सिंह नम्बरदार, रोहताश नागर नवादा, योगेन्द्र नागर तिगांव, अमृत नागर, बेगराज सरपंच नवादा, हसला जिलाध्यक्ष मा.सतबीर नागर, पप्पू चेयरमैन, राजेन्द्र नागर आदि मौजूद थे

PGIMS IN FINANCIAL CRISIS


Monday, August 20, 2012

Health Care Mortgaged to Corporate Sector


Health Care Mortgaged to Corporate Sector

Amit Sengupta

A FEW months back the Planning Commission of India had put its foot squarely in its mouth by claiming that the poverty line in India can be pegged at a consumption expenditure of Rs 28.65 per day. It was just one more example of how today’s ruling classes are content in distancing themselves from the harsh reality of people’s lives in most parts of the country. The Planning Commission is now back in the news with a bold new plan to refurbish health care in India. The prescription is simple --- gradually wind up the public healthcare system and hand it over to corporate hospitals! Ridiculous as this may sound, it is the essence of the Planning Commission’s Health chapter in its Twelfth Five Year Plan document.

PLANNING COMMISSION:
TRAIL OF BROKEN PROMISES
It may be argued that the Twelfth Five Year Plan document is of little consequence, as seldom do plan documents translate into any actual action by the government. One has only to look at past plan documents to understand this. The Eleventh Plan document, for example, had said: “In the last two years of the Plan, total Plan expenditure will need to rise at about 48 per cent annually. This will result in a total health expenditure of 0.87 per cent of GDP by the centre and 1.13 per cent by States in 2011---12.” Nothing but empty promises; the total public expenditure on health has stagnated at around 1.1 per cent of GDP (0.32 per cent by the centre and 0.7 per cent by states). It is significant to note that the major source of shortfall has been the meagre allocation by the central government --- just 37 per cent of what had been promised in the Eleventh Five Year Plan.

The plan document had also projected that all sub-centres (about 1,75,000) and primary health centres (PHCs --- about 30,000) would be functional by 2010, and all Community Health Centres (CHCs --- about 6,500) would be functional by 2012. Yet statistics for 2011 show a shortfall in the targets set of 17 per cent, 18 per cent and 34 per cent respectively, for sub-centres, PHCs and CHCs. It was also projected that Infant Mortality Rate (number of infant deaths per 1,000 live births) would come down to 28 by 2012. The infant mortality rate in 2011 stood at 48! One can continue enumerating the huge differences between targets set by the plan document and actual realisation, but suffice it to say that there is almost no correspondence between promise and delivery on the ground.

The consequences of poor commitment to public health are clearly visible. Two decades after neo-liberal reforms were initiated, India now lags behind Bangladesh andNepal in many health indicators --- in South Asia we only outperform Pakistan! (See Table below.)

Under 5 Mortality Rates in South Asia
Country
Under Five Mortality Rate
(Child who die before the age of 5/1,000 live births)

1990
1995
2000
2005
2010
India
115
100
86
73
63
Pakistan
124
115
101
94
87
Sri Lanka
32
27
23
19
17
Bangladesh
143
114
86
64
48
Nepal
141
110
84
65
50
Source: World Bank Database
(http://data.worldbank.org/)

It then raises the legitimate question --- why should one be concerned about the contents of the Twelfth Five Year Plan document? The reason for grave concern is ideological --- for the prescriptions in the new plan document are ideologically motivated. For the first time, a public document to be released by the government ofIndia, proposes a road map for handing over health care to the corporate sector. In proposing such a trajectory the plan document is following in the footsteps of what neo-liberal governments have done --- often with disastrous consequences --- in other developing countries (Mexico and Colombia are prominent examples).

HEALTH SECTOR REFORMS
IN NEO-LIBERAL FRAMEWORK
Health sector reforms that are located in the neo-liberal framework follow a familiar pattern today --- be it MexicoColombia or India. Three decades back, the World Bank and IMF imposed several conditionalities on developing countries. The prominent among these that impacted on the health sector, was a demand that public expenditure be curtailed and user fees be imposed on public services. The decades of the eighties and nineties witnessed savage cuts on public expenditure, leading to an exponential rise in private expenses. It led to the dismantling or weakening of public health services and to the consolidation of an organised private sector that stepped in to fill the demand for health services. By the end of the nineties it had become clear that public financing of health care needed to be restored and the World Bank started advocating such restoration.

But this did not mean that the neo-liberal agenda was abandoned --- it was brought back in a different avatar. It was acknowledged that government expenditure must increase. It was also acknowledged that something had to be done fast, if large populations were to be rescued from the distress caused by a collapse of the public health system. Capital never gives up on its attempts to find a way to maximise returns. So the solution that was found was not located in a restoration of public health services. Instead, by a sleight of hand, a new opportunity emerged for capital. Government (public) expenditure must be increased, but this expansion will not be used to develop and strengthen public facilities. Instead, public money will now be pumped into the organised private sector, to whom will be handed over the responsibility of providing health care. Governments will finance but not provide care, they will become ‘managers’ of care. This is the managed care model of care that is now being promoted by neo-liberal theorists.

REFORMS
IN INDIA
The roll out of such a plan in India had its own twists and turns. The UPA-1 government, under some influence of the Left, was forced to respond to the looming crisis of health care (brought on substantially by huge cuts in health budgets in the 1990s when Sri Manmohan Singh presided over the initiation of neo-liberal reforms as finance minister) by launching the National Rural Health Mission (NRHM). The NRHM was designed explicitly to strengthen and expand public health facilities. The NRHM was flawed on two counts, however. It was grossly under-funded --- we have seen earlier how promised central allocation was cut by over 60 per cent. As a consequence it proved to be inadequate in fulfilling the demand for health care --- especially in the tertiary hospital sector, thereby paving the way for the emergence of an organised corporate led growth of the private sector.

The public health system stands at a critical juncture. For all its deficiencies, the NHRM has resulted in some expansion and strengthening of the public health care system. The logical step forward would have been to invest in further expansion and strengthening of this system. But for the present government, the neo-liberal logic was too difficult to resist. The first challenge that was mounted against the public system came in the form of the Rajiv Gandhi Swasthya Bima Yojana (RSBY) and similar insurance schemes in many states. Almost entirely publicly funded, these schemes provided an insurance cover for Rs 30,000 for BPL families. The catch was that institutions accredited as part of these schemes were largely private hospitals. So instead of using this substantial public investment to strengthen the public system and create long term national assets, public money was pumped into the private sector. Horror stories have now started emerging about how private hospitals have bled the RSBY and similar schemes to make money and to make a mockery of public health. In Chhattisgarh the state health department has initiated action against 22 nursing homes against which it found prima facie evidence of surgeries being done without legitimate medical reasons. It is estimated that over the last eight months, hospitals and nursing homes have claimed Rs two crore under RSBY scheme for removing the wombs of 1,800 women (Hindustan Times, August 14, 2012). Many such stories are just waiting to be uncovered in different parts of the country.

However, in spite of such challenges, the NRHM and the public health system still survives and continues to be an eyesore for the votaries of private enterprise. Lest we miss the point, the private medical sector in India is extremely powerful and has friends in high places. Today some of them have transformed into mega corporations, combining hospital care, private insurance, clinical trials industry, and pharmaceutical services. Prominent CEOs of such corporations confidently stride through the corridors of power, populate ‘task forces’ and ‘expert’ committees and have a profound influence on public policy. It is this lobby, representing the private hospital sector --- unregulated and often promoted through government subsidies --- whose not so hidden hand is clearly visible in the draft health chapter of the Planning Commission.

GROSSLY INADEQUATE
ALLOCATION FOR HEALTH
Let us now turn to some of the specific proposals in the Planning Commission’s draft (these points have been highlighted in a press statement by the Jan Swasthya Abhiyan on August 8). It may be recalled that in the led up to the formulation of the report the Planning Commission had set up a “High Level Expert Group” to give its recommendations on how the present system could be reformed. The Ministry of Health and Family Welfare had also constituted different expert groups to provide inputs. Over the last year several reports from these committees had indicated various proposals which were essentially designed to strengthen the public health system. There has been uniform speculation, based on various pronouncements by the government, that public expenditure would be significantly enhanced in the Twelfth Five Year Plan period.

Yet, the Plan document now recommends increase in public expenditure on health from the present 1.02 per cent to 1.58 per cent of GDP. This is even less than the modest projections made in the Eleventh Five Year Plan, which had proposed that two per cent of GDP be spent on health. The target is not only lower than previous commitments made by the government, but much lower than a minimum of five per cent of GDP that is recommended by agencies such as the World Health Organisation. The gross inadequacy of the increase proposed has to be seen in the context that India has one of the most privatised health systems in the world. Public expenditure accounts for just 29.2 per cent of health spending in India. Of about 200 countries listed by the World Bank (2010), only 13 countries --- Guinea-Bissau, Guinea, Sierra Leone, Afghanistan, Myanmar, Azerbaijan, Haiti, Cote d'Ivoire, Uganda, Georgia, Yemen, Chad and Tajikistan --- perform worse than India! The following table compares India’s performance in public health care spending with global averages:

Percent Public Health Expenditure
Country/Region
Public Expenditure on Health as Percent of Total Health Expenditure
India
29.20
Average of High Income Countries
65.10
Average of Low Income Countries
38.78
Average of Middle Income Countries
52.04
World
62.76
Source: World Bank Database
(http://data.worldbank.org/)

GOVERNMENT TO
ABANDON ROLE OF
HEALTH CARE PROVIDER
What is of even greater concern is the strategy proposed for restructuring of the health system. The plan document proposes a transition from: “…..the present system which is a mixture of public sector service provision plus insurance, to a system of health care delivered by a managed network.” A clear road map for thegovernment to abandon its central role of providing health care and remain a mere ‘manager’ of health services.

The document’s vision of ‘universal provision of public health care’ includes two components. “…..preventive interventions which the government would be both funding and universally providing,” and  “clinical services at different levels, defined in an Essential Health Package, which the government would finance but not necessarily directly provide.” Thus the government would confine itself to providing a small package of services while virtually all clinical services would be opened up for the corporate private sector. The government would play the role of a ‘purchaser’ of care, and will thus finance (with public money), strengthen and bolster an already resurgent corporate sector --- a diabolical ploy to hand over the profit-making clinical services sector to corporate hospital chains, and progressively wind up the public health system.

The public health system will now be asked to compete with the private sector to attract patients. A system is envisaged where: “each citizen family would be entitled to an Essential Health package in the network of their choice. Besides public facility networks organised..… private and NGO providers would also be empanelled to give a choice to the families.” Even this truncated role of the public system is qualified by the proviso that “…..public facilities will have to be strengthened, networked, and their managers provided sufficient autonomy to purchase goods and services to fill gaps as per need.” In other words, public only in name, but incorporating larger and larger components outsourced to the private sector.

Further, the document repeatedly talks about expansion of the RSBY scheme and its vision of universal healthcare is nothing but a more expanded version of the RSBY scheme. Even the Planning Commission’s own expert group had recommended against the continuance of these insurance schemes.

IDEOLOGICAL BIAS OF
PLANNING COMMISSION
The document announces another bonanza to the corporate medical sector in the form of grants to set up hospitals and private medical colleges. It says: “Health has now been included with other infrastructure sectors which are eligible for Viability Gap Funding up to a ceiling of 20 per cent of total project costs under a PPP scheme. As a result, private sector would be able to propose and commission projects in the health sector, such as hospitals and medical colleges outside metropolitan areas, which are not remunerative per-se, and claim up to 20 per cent of the project cost as grant from the Government.” It may be noted that the only eligibility requirement is the location, and not any contribution to public health goals.

Also of concern are recommendations that public health facilities will have “flexibility” to raise their own finances. The Plan document says: “Tertiary care facilities would have an incentive to generate revenues if they are provided an autonomous governance structure, which allows them flexibility in the utilization of self-generated resources within broad policy parameters laid down by the Government”. There are several ways in which such flexibilities can be misused, including in the form of levying of user charges and arrangements with private entities that seek to extract benefits that conflict with the public health goals of public institutions.

The ideological bias of the Planning Commission’s report is clear when it says: “A pure public sector delivery system involves funding a large public sector health system, with little incentive for the service providers to deliver a quality product. Such an assertion flies in the face of global evidence that the best performing health systems are those that are publicly financed and where health care is provided by the public sector. Neighbouring Sri Lanka has been long held as an example of such a system, where over 90 per cent of in-patient care and over 50 per cent of out-patient care is provided by the public sector. Mortality and morbidity rates in Sri Lanka are far better than in India, in spite of the country having a lower per-capita GNP. In contrast, the United States, provides ‘choice’ between public and private providers but is by far the worst performing health system among all developed countries, in spite of spending over eight per cent of GDP on health care.

As we have noted earlier, the Planning Commission’s draft chapter on health for the Twelfth Five Year Plan is a clear ideological assault on the very notion of public health. The dangerous formulation in the Planning Commission’s draft must not be allowed to go through. It is understood that the Ministry of Health has expressed serious reservations regarding the Planning Commission’s document. How these differing positions within the government play out will also indicate whether policy is formulated by the parliament and executed by ministries, or whether the Planning Commission enjoys powers to veto the will of the people.



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