Tuesday, December 11, 2012

PRAGATEE SHEEL ANDOLAN---SUHEL HASHMI



प्रगतिशील आन्दोलन की विरासत और हमारा समय
  
दोस्तों में अपनी प्रस्तुति की शुरुआत करने से पहले यह साफ़ कर देना चाहता हूँ के साहित्य सर्जन से मेरा कोई दूर का भी वास्ता नहीं है में कवि, कहानीकार, नाटककार, नहीं हूँ, आलोचक भी नहीं, हाँ साहित्य से एक सरोकार मेरा है, में पाठक हूँ और अगर ग़ालिब की ज़बान का इस्तेमाल करू तो इस जहान-ऐ-रंग-ओ-बू  में ६० दहाइयां बिता चुकने  की  वजह से थोडा बुहत ऐसा पढ़ देख चूका हूँ जो प्रगति शील कहलाता है काफी ऐसा भी पढ़ा  है जो प्रगतिशील नहीं है. इस दौरान इन दोनों में अंतर करना और पहले को दुसरे पर तरजीह देना भी आ ही गया. तो आज जो बातें में आपके सामने रखने जा रहा हूँ वो एक पाठक, श्रोता, दर्शक की व्यक्तिगत दृष्टि और विश्लेषण है और उसमें वो सारी खामियां होंगी जो एक पक्षधर व्यक्ति के नज़रिए में होती हैं.
प्रगतिशील आन्दोलन की विरासत क्या है
मेरी नज़र में सामाजिक कुरीतियों के विरूद्ध, महिलाओं, अल्पसंख्यकों, दलितों, पददलितों  और मेहनत  मजदूरी कर के गुज़रा करने वालों के हक में जो भी वैचारिक,  सांगठनिक, सांस्कृतिक, साहित्यिक पहलक़दमी  हुई है वो सब प्रगतिशील आन्दोलन की विरासत है.
इस ब्यान के पीछे मेरी मंशा इस बात को रेखांकित करने की है के प्रगतिशीलता की विरासत और प्रगतिशील आन्दोलन की विरासत में गहरे आपसी रिश्ते हैं. प्रगतिशील आन्दोलन की विरासत उस व्यापक प्रगतिशील विरासत का एक हिस्सा है जो एक लम्बे समय से हमारे यहाँ विकसित हो रही है. प्रगतिशील आन्दोलन जिस की शुरूआत १९३६ में हुई उसे इस परिप्रेक्ष में देखना और इस बात को रेखांकित करना के प्रगतिशील आन्दोलन की जड़ें हिंदुस्तान की ज़मीन में बुहत  गहरी गड़ी हुई हैं इतना ही ज़रूरी है जितना इस बात को जताना के हमारी सेक्युलर परम्पराएँ भी कुछ कम पुरानी नहीं हैं .
इन दोनों बातों को रेखांकित करना इस लिए भी ज़रूरी है क्योंके सेकुलरिज्म और प्रगतिशीलता के दुश्मन यह कहते नहीं अघाते के यह विदेशी विचार हैं और  इसलिए यह भारतीय अस्मिता, भारतीय परम्परा का हिस्सा नहीं हैं.  वो  लोग जो यह  साबित करने में लगे हुए थे, और हैं, के प्रगतिशील आन्दोलन कोई वाम पंथी साज़िश थी दरअसल खुद एक साज़िश का हिस्सा हैं और यह बात उन दूसरे महानुभावों के बारे में भी कही जा सकती है  जिनका इसरार इस बात पर है के हमारी परंपरा में तो धर्म और राजनीती अलग हो ही नहीं सकते और हमारी परम्परा  तो राजा  द्वारा राजधर्म और दासों द्वारा दासों के धर्म का निर्वाह करने की संस्कृति पर ही आधारित थी.
मेरी नज़र में जब चार्वाक दार्शनिकों ने वेदों के श्लोकों को मनुष्यों की रचना कहा और उनके दैविक स्रोत्रों पर प्रशन चिन्ह लगाये, जब उन्होंने कहा के मृत्यु के बाद कुछ नहीं बचता और आत्मा नहीं होती, जब उन्होंने कहा के दुखों से बचो और सुखों का आनद लो और जब उन्होंने त्याग और शरीर को कष्ट देने वाली तपस्याओं का विरोध किया तो उन्होंने अपने समय की प्रगति शील परंपरा को बल दिया और उसे आगे बढाया
जब महावीर और बुध ने जातिप्रथा का विरोध किया, पाली और प्राकृत को संस्कृत पर तरजीह दी तो वो क्या कर रहे थे . बुध ने तो एक जातक के अनुसार अपने उपदेशों के संस्कृत अनुवाद किये जाने के प्रस्ताव का विरोध यह कह कर किया के अगर मेरी बातें संस्कृत  में अनुदित हो गएँ तो उन तक कैसे पौन्ह्चेंगी जिन के लिए वो कही जा रही हैं . अब यह उस समय की वर्ग व्यवस्था के खिलाफ आवाज़ उठाने और शासक वर्ग की भाषा और जन भाषा के बीज जन भाषा को चुनने का  प्रगतिशील क़दम नहीं था  तो क्या था.
मेरा मकसद इस बात को रेखांकित करना है  के प्रगतिशीलता कोई ऐसी चिड़िया नहीं है जो विदेश  से आयातित हुई हो, प्रगतिशीलता अंग्रेजी राज के उन फाएदों में से नहीं ही जिनकी चर्चा मुझ से पिछली पीढ़ी की  पाठ्य पुस्तकों में होती थी और अब वैश्वीकरण के दौर में  और ऑक्सफ़ोर्ड के पढ़े हुए प्रधान मंत्री के दौर में फिर होने लगी है,  वैसे हमारे एक प्रधान मंत्री और  भी थे जो केम्ब्रिज से  पढ़ कर आये थे मगर  अंग्रेजी हुकूमत की बरकतों  का इतना ज़िक्र नहीं करते थे. अंग्रेजों ने उन्हें १० साल जेल में रखा था. वो प्रगतिशील थे आज वाले नहीं हैं .
बहरहाल जिस बात की तरफ में लौट कर जाना चाहता  हूँ वो यह है के हर काल में प्रगतिशील शक्तियां और प्रवार्तियाँ होती हैं , दो सौ साल की गुलामी में हमें यह पढ़ा दिया गया था का भारतीय समाज एक जड़ समाज था और उसमें कोई प्रगति कोइ परिवर्तन न तो हजारों साल से हुआ था, न परिवर्तन के कोई आसार नज़र आते था और न कही भी किसी भी बदलाव की गुन्जाएश थी . हमें फिर यह भी बताया गया के अंग्रेजों के आने से नए विचार नए दृष्टिकोण विकसित हुए और भारतियों को एक आधुनिक नजरिया प्राप्त हुआ और उसी की मदद से हम ने एक आधुनिक राष्ट्र की समझ विकसित की वगेरा वगेरा.
यह समझ दरअसल भारत में होने वाले सभी ऐतिहासिक परिवर्तनों को सिरे से नकारती है .चार्वाक के समय से ले कर अंग्रेजों के आने के समय तक जो लम्बा वैचारिक आर्थिक सामाजिक सफ़र हम ने अंग्रेजों की मदद के बगैर  तै किया है क्या उस  में कोई प्रगतिशील परिवर्तन हुआ ही नहीं ? खगोल शास्त्र, गणित, नाटक, नृत्य, साहित्य, कला, कृषि, हस्तकला, शिल्प, वास्तुशिल्प, संगीत, मूर्तिकला कौन सी ऐसी विधा है  जिसमें इस दौर में नए तजरुबे न किये गए हों,  दरबारों की ज़बानों की जगह अवाम की बोल चाल की भाषा हिन्दवी जो बाद में हिंदी उर्दू बन कर उभरी इसी दौर की पैदावार है, इसी दौर में हम ने हिन्दुस्तानी होने की संस्कृतिक पहचान का निर्माण शुरू किया, इसी काल में एक निराकार भगवन की  कल्पना हुई, एक ऐसा भगवन जिस की उपासना के लिए पुजारी और पूजा के ताम झाम की ज़रुरत नहीं थी, क्या अपने आप में यह ब्राह्मणों के वर्चस्व और भगवन के विचार पर उनके एकाधिकार के खिलाफ एक प्रगतिवादी क़दम नहीं था. एक ऐसा काल जो हमें खुसरू, कबीर, रैदास और नानक जैसी प्रतिभाएं देता है उसे किस तरह जड़ की संज्ञा दी जा सकती है ?
सूफी और निर्गुण आन्दोलन के प्रभाव में हम ने धार्मिक मतभेदों की बिना पर इंसानों में मतभेद करने का विरोध किया और हर तरह के धार्मिक आडम्बर और खोखले रीती रिवाजों का मुकाबला किया, ब्राह्मणवाद को पुनर्स्थापित करने की प्रक्रिया के विरोध में निर्गुण भक्ति की एक लहर जो पूरे देश में फेल गयी क्या अपने आप में एक प्रगतिशील धारा  नहीं थी?
यह ज़रूरी नहीं के सारे प्रगतिशील परिवर्तनों की शुरूआत आम जनता, खेत मजदूर, किसान  फैक्ट्री के मजदूर करें, बुहत से परिवर्तनों की शुरूआत खुद शासक वर्ग से भी हो सकती है , गौतम बुध और महावीर जैन खुद क्या थे, सम्राट अशोक क्या था, खुसरू क्या था?  सती  प्रथा के खिलाफ पहला कानून राजा  राम मोहन राय के अभियान के दबाव में अंग्रेजों ने नहीं पास किया था सती पर पहली बार पाबन्दी लगाने वाला कानून अकबर ने लागू  किया था, खेती पर लगने वाले लगन की दर भूमि की उपजाऊ शक्ति की बिना पर तै होगी इस कानून को शेर शाह सूरी ने लागू किया था.
 दरअसल प्रगतिशील  परिवर्तन वो वर्ग लाते हैं  हैं जो विकसित हो रहे होते हैं आगे बढ़ रहे होते हैं , रूढ़ियों से संघर्ष कर रहे होते हैं. बाद में जब वोही वर्ग सत्तारूढ़ हो जाते हैं तो वो प्रगति के राह में रूकावट बन जाते हैं. सामंती एक समय में प्रगति का प्रतीक थे और इसी तरह पूँजी पति भी,  साम्राजवादी व्यवस्था और  मजदूर वर्ग के चरित्र में परिवर्तन नहीं होता. हमारे निकट अतीत में भी जो परिवर्तन आये हैं उनके कर्णधार हमारे युग के उभरते, विकसित होते हुए जुझारू वर्ग हैं. हमारे युग में यह वर्ग मजदूर वर्ग है मगर अतीत में हमेशा ऐसा नहीं था. प्रगतिवादी क्या है इस की परिभाषा अलग अलग काल में बदल  सकती है  जैसे गुलामी  के काल में ज़मींदारी प्रथा की स्थापना एक प्रगतिशील क़दम था मगर आज वो प्रतिक्रियावाद का स्रोत्र है , ठीक ऐसे ही जैसे समाजवादी समाज की स्थापना के बाद पूँजी वाद प्रतिक्रियावाद के खेमे का सरगना बन जाता है हालांके ज़मींदारी प्रथा के खात्मे के वक़्त उभरते हुए पूँजी वाद  और उसके साथ जनम लेने वाले मजदूर वर्ग ने फ़्रांस की क्रांति और जनतांत्रिक व्यवस्था का सूत्र पात किया था.
साम्राजी  गुलामी के दौर में जो विद्रोह साम्राज की प्रभुसत्ता के खिलाफ उभरे उनमें से सब से ज्यादा व्यापक और संगठित विद्रोह १८५७ का सैनिक विद्रोह था मगर ज़रा गौर से देखिये यह बागी कौन थे ईस्ट इंडीय कम्पनी की लाइट बंगाल इन्फेंट्री में १२५,००० सिपाही थे इनमें से ६५% से अधिक ब्राह्मण और क्षत्रिय थे और बाक़ी बचे हुए ३५% में दलित, आदिवासी, पिछडी जातियों के सदस्य मुसलमान सिख व अन्य लोग थे,  इन्होने बहादुर शाह ज़फर को अपना कमांडर इन चीफ बनाया और वो खुद बख्त खान के नेतृत्व में संगठित थे, खुद बख्त खान एक मामूली सा रिसालदार था.
इन लोगों ने देश को आज़ाद करने के बाद जिस भारत का सपना देखा था वो मुग़ल सामंती दौर में वापसी का सपना नहीं था, वो उस क़दीम, प्राचीन नवाबों बादशाहों और रजवाड़ों के झूठे वैभव कालीन दौर में लौटने का सपना नहीं देख रहे थे  वो आम लोगों की इच्छा से चुनी जाने वाली सरकार स्थापित करना चाहते थे. दिल्ली के लिए जो प्रशासनिक ढांचा उन्होंने तैयार किया था वो दिल्ली के नागरिकों, व्यापारियों और फौजियों द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों की एक समिति पर आधारित था. बहादुर शाह ज़फर या उनका प्रतिनिधि इस समिति का एक सदस्य था फैसले सर्व सम्मति से होने ज़रूरी थे, फैसला न हो पाने की स्थिति में ही बादशाह या उसके प्रतिनिधि का फैसला सर्व मान्य होता था मगर बादशाह या उसके प्रतिनिधि को वीटो का अधिकार नहीं था.
१८५७ में यह संविधान बना था, शायद उस समय बुहत कम देश ऐसे थे जो इस तरह की बात सोच भी सकते थे यह भारत् का पहला रिपब्लिकन संविधान था. इस से ज्यादा प्रगतिशील समझ की कल्पना उस काल में कहाँ मिलती है? अंग्रेजी अफसरों की ताना शाही और उनके निरंकुश अनुशासन की प्रतिक्रिया ने इस प्रगतिशील विचार को विकसित किया होगा, पर क्या इस विचार के विकसित होने का श्रय अँगरेज़ ले सकते हैं.
१८८६ में लाला देवराज ने जालंधर  में लड़कियों का स्कूल शुरू किया उनका सम्बन्ध आर्य समाज से था लाला लाजपत राय ने पंजाब केसरी में लेख लिख कर लड़कियों के स्कूलों पर आर्य समाज के सीमित साधनों को व्यर्थ गंवाने का विरोध किया, लालालाजपत राय के समर्थकों ने महीनो लाला देवराज के घर पर सुबह शाम पत्थर फेंके. पंडित अनंत शास्त्री डोंगरे  मंगलौर के मशहूर चित्पावन ब्राह्मण थे १९वी शताब्दी की मध्य में उन्होंने अपनी पत्नी और बाद में अपनी बेटी को संस्कृत पढ़नी शुरू की और इस पाप के लिए उन्हें बरसों दर दर  भटकना पड़ा, उनकी बेटी, रमा बाई  ने बड़े हो कर ब्राह्मण विधवाओं के हालात पर किताब लिखी और ब्राह्मण विधवाओं के लिए आश्रम खोला जहाँ उन्हें लिखना पढना और रोज़गार कमाने के लिए काम  सिखाया जाता था, लोक मान्य तिलक ने जन सभाएं कर के इस बहादुर महिला के खिलाफ अभियान किया और उसे रेवरेंडा के नाम से पुकारा. सर स्येद अहमद खान भी औरतों की तालीम के समर्थक नहीं थे और अलीगढ में लड़कियों के लिए स्कूल खोले जाने के कट्टर विरोधी, उनके सेक्रेटरी ने वहीँ अलीगढ  में उनके मरने के थोड़े समय बाद ही लड़कियों का स्कूल खोला.
यह तीनों मिसालें हमें क्या बता रही हैं सर स्येद सर थे, लाला लाजपत राय आर्य समाज के  स्कूल ग्रुप के नेता थे, स्कूल ग्रुप प्रगतिशील समझा जाता था और लाला देवराज पाठशाला ग्रुप का समर्थन करते थे और यह ग्रुप रूढ़ी वादी समझा जाता था, रमाबाई एक तथा-कथित रूढ़िवादी ब्राह्मण की बेटी थीं और तिलक तो लोकमान्य थे पर प्रगतिशील धारा के साथ कौन था और उसके खिलाफ कौन ? 
१७०३ में औरंगजेब के कमानदार गाजी उद् दिन हैदर ने दिल्ली में एक मदरसा खोला यहाँ गणित और दर्शन के अलावा इस्लामी धार्मिक शिक्षा दी जाती थी १९२५ में अंग्रेजों ने इसे दिल्ली कालेज का नाम दे दिया और यहाँ अंग्रेजी पढाई जाने लगी १८५८ में इस कालेज के दो टीचरों को बगावत  का साथ देने के जुर्म में मौत की सजा दी गयी, वो कालेज जो अंग्रेजों ने अपमे लिए बाबु पैदा करने के लिए खोला था आज़ादी के समर्थकों का अड्डा बन गया, ऐसा ही अलीगढ यूनिवर्सिटी के साथ भी हुआ. अलीगढ तो प्रगतिशील लेखकों का कारखाना ही बन गया था  मजाज़, जज़्बी, जान निसार अख्तर, सरदार जाफरी, आले अहमद सुरूर,  वामिक जौनपुरी, और बुहत से दूसरे
इन मिसालों की मदद से मैं आपकी खिदमत में अर्ज यह करना चाह रहा हूँ के प्रगतिशील विचारों के लिए हम अंग्रेजों के करजदार तो नहीं ही हैं, सभी सभ्य समाजों की तरह हिन्दुस्तानी समाज में भी प्रगतिशील तत्वों का वुजूद हमेशा रहा है, यह न होता तो हम इतने हज़ार साल जिंदा न रह पाते क्योंके अगर प्रगति नहीं होती तो अवनति होना लाज़मी है, समय आप को क़दम ताल का अवकाश नहीं देता. दूसरी तमाम सभ्यताओं की तरह हम ने भी दूसरी सभ्यताओं से सीखा है और बुहत कुछ उनसे लिया भी है और जितना लिया है शायद उतना ही दिया भी है. 
प्रगतिशीलता की एक लंबी विरासत हमारे पास है, आज़ादी के संघर्ष के दौरान साम्राज्यवाद की योजनाओं के विरूद्ध योजनाएं बनाने में हम ने बुहुत कुछ नया ईजाद किया और दुनिया भर के साम्राज विरोधियों से बुहत कुछ सीखा, ठीक वैसे ही जिस तरह नेल्सन मंडेला और मार्टिन लूथर  किंग जूनियर ने गाँधी जी से सीखा.
प्रोग्रेसिव राईटरज एसोसिएशन या प्रगतोशील लेखक संघ जो १९३६ में विधिवत शुरू हुआ दरअसल इस लंबे समय से चलने वाली प्रगतिशील लहर के प्रभाव में लेखकों का एक जुट हो जाना था और उस वक्त के सारे बड़े और संवेदन शील लेखक PWA के साथ खड़े हो गए थे ठीक उसी तरह जिस तरह १९४२ में इप्टा की स्थापना के बाद लगभग सब ही बड़े संगीतकार, गायक, अभिनेता, नृतक इप्टा के साथ आ गए थे. मगर ऐसा भी नहीं है के प्रगतिशील विचारों की विरासत की कुल अभिव्यक्ति ये दो संगठन ही हों, ललित कलाओं में विशेष कर चित्र कला में एक बड़ी पहल कदमी द प्रोग्रेस्सिवे आर्टिस्ट्सग्रुप के नाम से १९४७ में हुई आधुनिक भारत के सभी बड़े कलाकार या तो इस ग्रुप के साथ जुड़े रहे या इस ग्रे प्रभावित रहे, सूजा , बाकरे, रजा, हुसैन, तयेब मेहता, अकबर पदमसी, राम कुमार आदि
इसी तरह वास्तुकला में, फोटोग्राफी में, न्रत्य में, साहित्यक आलोचना में, इतिहास लेखन में, अपने अतीत के मूल्यांकन में, हमारी सभ्यता में क्या हीवित है और क्या मर रहा है किस की रक्षा ज़रूरी है और किस की बर्बादी की राहें हमवार करनी हैं इन सभी सवालों पर प्रगतिशीलता के पक्षधरों की एक साफ़ समाझ है. लोकोन्मुखी आर्थिक नीतियों की पक्षधरता में, स्वास्थ  और शिक्षा की प्रणाली को अवाम के लिए इस्तेमाल करने की वकालत करने वालों में, प्रगतिशील विचारों का योगदान रहा है और आज भी विद्यमान है. विज्ञान और प्रौद्योगिकी का विकास किस दिशा में हो, हमारे शहर कैसे बनें, स्कूलों में फर्नीचर कैसा हो वगेरा वगेरा यह सब वो क्षेत्र हैं जिन के बारे में प्रगतिशील विचारधारा ने अपना महत्व.पूर्ण योगदान दिया है
इन सभी क्षेत्रों में प्रगतिशील लोग अपना योग दान दे पाए हैं वो इस लिए है क्योंके जीवन में जो कुछ ज़िदा है, जिंदगी से भरपूर है, आगे बढ़ रहा है, विकसित हो रहा है, प्रगतिशील लोग उसके साथ हैं. जिंदगी, खुशहाल जिंदगी, सब को साथ ले कर चलने वाली जिंदगी ही दरअसल जिंदगी है और वो निरंतर प्रगति के बिना संभव नहीं, प्रगतिशील विचारों के लगातार विकसत हुए बगैर यह जिंदगी संभव नहीं ऐसे जीवन को हासिल करने का संघर्ष ही प्रगतिशील आंदोलन की विरासत है, हमारी और आपकी विरासत है.                          
   "सुहेल हाशमी "
  
                        

  

       

1 comment:

ranbir singh said...

THE WRITER OF THIS ARTICLE IS SUHEL HASHMI

beer's shared items

Will fail Fighting and not surrendering

I will rather die standing up, than live life on my knees:

Blog Archive