Saturday, December 31, 2011

dost ki yaad mein


मैं पढ़ा अपने गांव थाने के स्कूल में
तख्ती पर लिखते खेलते वहीं धूल में
दसवीं पास की मैने अच्छे नम्बर पाये
आगे कहां क्या करें पढ़ाई पर हुई चर्चा
सभी के दिल में था कितना होगा खर्चा
हिन्दू कालेज सोनीपत बाहरवीं पास की
मिलेगा मेडीकल में प्रवेष मैंने आस की
दाखिला मिल गया घर में थी खुषी छाई
रोहतक पहुंचा कुछ माहौल बदला भाई
तरह तरह के सवाल रैगिंग हुई मेरी थी
सीनियर का डर बैठा देखी मेरा तेरी थी
चीर फाड़ की षरीर की ज्ञान बढ़ाया था
फिजियोलॉजी रटी तब पास हो पाया था
पैथो और फारमा दोनों मुझे भा गये थे
इम्तिहान में ये नम्बर अच्छे आ गये थे
एसपी एम फोरैंसिक बांए हाथ का खेल
इनकी पढ़ाई पाई छुक छुक करती रेल
फाइनल मुष्किल होगा यही तो बताया
मरीज देखने में पूरा समय मैने लगाया
पास हुआ ठीक नम्बर चिनता थी छाई
नौकरी या करुं मैं आगे की और पढ़ाई
आखिर आगे पढ़ने का मन मैंने बनाया
सर्जरी में फिर जैसे तैसे दाखिला पाया
रुरल और अरबन का एक नजारा था
दलित और स्वर्ण का देखा बंटवारा था
फेल पास का संकट खुला सामने पाया
सेवन्टी ऐट में यह सबके सामने आया
जाट और नोन जाट का घमासान हुआ
लड़ाई उपर की नीचे का नुकसान हुआ
इसी बीच अनुपमा मेरे जीवन में आई
धीरे धीरे दोस्ती रिस्ते का रुप ले पाई
सवाल यही था अब आगे किधर जाउं
सरकारी नौकरी या नर्सिंग होम बनाउं
खरखोदा में किराए पर काम षुरु किया
तन मन धन सब कुछ मैने झोंक दिया
प्रैक्टिस अच्छी चली पैसा खूब कमाया
कुछ साल में अपना नर्सिंग होम बनाया
नन्ही बच्ची षादी के दो साल बाद आई
फिर तीन साल बाद थी थाली गई बजाई
दो साल बाद छोटा बेटा दुनिया में आया
सब तो ठीक ठ्याक था कस्बा मुझे भाया
तभी अनुपमा चली गई हमको छोड़ करके
बीमार हुई चल बसी मुह वह मोड़ करके
बस जिन्दगी में खालीपन छाता चला गया
बच्चों पर ध्यान पूरा लगाता चला गया
कई बार मेहर सिंह समिति वाले आये
अपने विचार मुझसे सांझा थे कर पाये
तभी दारु ने जिन्दगी में दखल बढ़ाया
ज्यादा न पिया करो बच्चों ने समझाया
धीमे से मिकदार बढ़ी फिर आदत बनी
लगा ऐसा मानो षराब मेरी ताकत बनी
ताकत नहीं कमजोरी बाद में समझ पाया
फिर इस दारु ने था अपना रंग खिलाया
नर्सिंग होम फिर दारुमय हो गया मेरा
कर्मचारी भी पीते मरीज खो गया मेरा
बहुत जगह इलाज किया न छुटी भाई
जो षोहरत कमाई सारी तो लुटी भाई
दुख और अफसोस कि कहां आ पहुंचा
कभी सोचा न ये मुकाम वहां जा पहुंचा
अस्पताल में दाखिल मैं जीना चाहता हूं
वहां पर भी मंगवा कर पीना चाहता हूं
कैसी विडम्बना मेरी दिल दिमाग पछताते
आदत बलवान हुई पीछा नहीं छुड़ा पाते
बेटी बेटे बहुत दुखी नहीं है पार बसाती
देखी है बेटी बैठी सीट पे आंसूं बहाती
छोटा बेटा सातवीं तक मेरा पढ़ पाया है
क्या होगा इसका आगे मन भर आया है
एक बड़ा दुष्मन दारु हरियाणे में हो रही
कितने हैं परिवार जहां बोझा पत्नी
षायद अब ज्यादा दिन नहीं मैं चल पाउंगा
आदत जीती सतवीर हारा ये लिख जाउंगा
रणबीर सिंह दहिया......


Friday, December 23, 2011

LACHILI PARAMPARA

लचीली परम्परा



Posted On April - 11 - 2010


रणबीर


खरीखोटी


पहल्यां जमानै मं ब्याह तैं पल्हयां छोरा देखण अर सगाई करण खातर नाई जाया करदा। जै वो ब्याह की बात पक्की कर दिया करदा तो वाए पत्थर की लकीर होया करदी। वा म्हारी महान्ï परम्परा होया करदी कै तीन-तीन दिना तक बरात रूकया करदी। ब्याह आले कै अलावा दूसरे घरां के बरातियां खातर एक-एक दिन की रोटी करैया करदे अर उसमैं सौ-सौ बराती होया करदे। उस टेम घड़ी, साइकल अर ब्हौत-सा दहेज देण का रिवाज था। कई-कई साल बीत जाया करदे छोरा बहू का मुंह देखण खातर तरसा करदा। चढी रात आणा अर मुंह अंधेेेेेेेेेेरै चले जाणा यो ही रिवाज था। म्हारै पहल्यां या ऐ रिवाज होया करदा कै नानी का गोत टाल्या करदे अर गैलयां दादी का गोत भी। उस टैम की घणी ऐ परम्परा गिणवाई जा सकै सै। जाटयां कै तोयां ए रिवाज सै के एक खेड़े के गोत का छोरा उसी खेड़े के गोत की छोरी गैलयां ब्याह नहीं कर सकता। अर गाम के खेड़े के गोत का छोरा दूसरै गाम की अपणे गाम के दूसरे गोत तै सम्बंध राखण आली छोरी गैलयां ब्याह कर सकै सै। इसनै अंग्रेजी मै मजोर्टिज्म की ताकत कहेंया करै सै। उण दिनयां म्हारै खेड़े आलां का आछ्या बोलचाला होया करदा। पर समचाणा के खेड़े के गोत हाल्यां की परम्परा ब्होत पहल्यां ए धत्ता बता दिया था कदï? अर किसै नै बेरा कोनी 30-30 अर 40-40 बहुआं न ससुराल ले जाया करदे। एक पंचायत 1911 मै बरोना मै होई थी जिसका मुद्दा गाम्यां आल्यां की पढाई का था। इस पंचायत मै ओर भी कई मुद्दे थे जिसका मने घणा-सा बेरा कोनी। फेर एक पंचायत सिसाणा गाम मै सन् 60 के आले-दिवाले होई थी। इस पंचायत नै तो जमां ए परम्परा का तार-तार कर दिया था। बरात मै पांच ही जणे जाण लागे। अर एक रुपैया मैं सगाई तै लेके बिदाई तक सारे वाणे कर दिये। ब्होत ऐ भुंडा काम करैया इस पंचायत नै। मनै तो लागे सै के नानी का गोत भी इसै पंचायत मै टालण की बात होई थी। फेर गरीब जाटयां नै तो इस बात तैं ब्होत ए फायदा होया होगा। इस फैसले तं ब्होत-सी रिवाज धरी की धरी रहगी थी। आज फेर 40-50 सालां बाद एक संकट आया सै ब्याह कै मामला मैं ब्होत से सवाल उठे सै :


अंतरजातीय ब्याह के बारै मैं के फैसलां लेणा चाहिए? भाई-चारा हो उस गाम मै अर भाईचारे के गोत मै ब्याह होणा चाहिये कै कोनी होणा चाहिये? खेड़े कै गोत के स्वाभिमान नै भेट चढ़ण देणा चाहिये?, पड़ोस के गाम मैं ब्याह होणा चाइये?, गाम के गाम्य अर गोत की गोत मैं ब्याह होज्या तो मारण कै अलावा ओर के करणा चाइये?, इण सवालां पै आजके टेम की जरूरतां नै ध्यान मैं राखके अगर रिवाजां नै बदला जावै तो जात समुदाय का घणा ए हिस्सा राहत की सांस लेगा। किमे तो सोचो पंचायतियो!



KUDRAT

खरी-खोटी


Posted On March - 14 - 2010

रणबीर

जीवनदायिनी प्रकृति और उसके द्वारा प्रदत्त प्राकृतिक संसाधनों के बेहताशा उपयोग ‘अन्ध उपभोक्तावाद’ की तेज रफतार नै न केवल प्रदूषण बढ़ा दिया है बल्कि जलवायु में बदलाव आने से धरती तप रही सै। इसका सबसे बड़ा कारण धन के लालचियों का स्वार्थ सै जो प्रदूषण का जनक है। जिसने खुद उनको और पूरे विश्व को भयंकर विपत्तियों के जाल में फंसा दिया सै। उससे निकल पाना उन लालचियों के बूते से बाहर की बात सै। आज पूरी मानव जाति का अस्तित्व खतरे में सै। विकास के केन्द्र में आज पर्यावरण क्षरण और जलवायु परिवर्तन का सवाल होना चाहिए। क्योंकि जब तक विकास का ईको फ्रैंडली मॉडल नहीं अपनाया जायेगा इस संकट से छुटकारा पाना बहुत मुश्किल काम सै। पैच वर्क से बहुत ज्यादा फर्क पडऩे वाला नहीं सै। सोचने का विषय है कि समूची दुनिया पर संकट मंडरा रह्या सै। आखिर कौन हैं इसके ज्यादा जिम्मेदार? पढ़े-लिखे लोग ज्यादा जिम्मेदार सैं। पंजाब को ‘फूड बावल ‘ के नाम से जाना जाता है। वहां पर ग्रामीण सम्पन्नता के पीछे बढ़ती कर्जदारी की दास्तां छुपी हुई सै? कृषि वैज्ञानिक और नीति निर्धारक वर्तमान संकट को स्वीकार करते हुए घबराते लगते हैं क्योंकि शक की सुई आखिर में उनकी तरफ घुमैगी। पिछले सालों में पंजाब कृषि विश्वविद्यालय किसानों को पैदावार बढ़ाने के बारे में कहता रहा है। हमें बार-बार बताया गया कि जब ज्यादा पैदावार होगी तो आमदनी भी बढ़ैगी। मगर यह सच नहीं था। दुर्भाग्यवश किसी में इतना साहस नहीं था कि जो गल्त वायदे साल दर साल किये जा रहे थे उनके खिलाफ बोलें। जबकि पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों को तो छठे वेतन आयोग के बकाया पैसे भी दिए गये तथा उनकी महीने की तन्खा में भी इजाफा किया गया। वहीं पंजाब का कमेरा किसान बहुत बड़े कर्ज के बोझ के नीचे दबता चला गया। अब वक्त आ ग्या सै अक पंजाब कृषि विश्वविद्यालय को तथा सरकारों को इस किसानी संकट का जिम्मेदार ठहराया जाये और उनसे उनका सामाजिक दायित्व न निभाने का अहसास करवाया जाए। हमारे नीति निर्धारकों के तथा कृषि वैज्ञानिकों के हाथ बहुत से किसानों के खून से सने सैं। प्रोफैसर शेरगिल ‘इन्सटीच्यूट फॅार डवलैपमैंट एंड कम्यूनिकेशन इन चंडीगढ़’ की रिपोर्ट कई अखबारों में छपी थी। इस रिपोर्ट में बताया गया सै कि किसानी कर्ज पिछले दस साल में पांच गुणा बढ़ग्या सै। क्या यह साफ-साफ नहीं इशारा करता है कि हमारा पंजाब में अपनाया जा रहा ‘कृषि का फ्रेम’ डिफैक्टिव सै? हमारे वैज्ञानिक कृषि के एनपीके मॉडल से आगे क्यों नहीं देख रहे तथा जमीन के बांझपन को ठीक करते हुए वातावरण को ठीक क्यों नहीं कर रहे? हमारे कृषि वैज्ञानिक पंजाब के किसानों की मदद न करके खाद कम्पनियों की तथा कीटनाशक बनाने वाली दवा कम्पनियों को ही लाभ पहुंचा रहे सैंं। सदियों से भारत का किसान कर्जे के नीचे रहा है और अपनी अगली पीढ़ी को वह यह कर्ज ट्र्रांसफर करता आया सै। पहले सूदखोर होते थे जो जोंकों की तरह व्यवहार करते थे और किसानों का खून चूसते थे और किसानी को अपने जख्मों की मरहम पट्टी के लिए बिल्कुल अकेला छोड़ देते थे। किस्तों में राहत मिलती रही सै। सन् 40 के दौर में पंजाब में छोटूराम नै किसानी के कर्ज माफ करने का साहस किया।आजादी के बाद हरित क्रान्ति नै किसानी को कॉमरशियल खेती के तरीके में धकेल दिया। पिछले कर्ज के मुकाबले इस दौर के कर्ज के बढऩे की रफ्तार बहुत तेज रही है। कमाल की बात है कि एक और खेती में पैदावार बढ़ी वहीं दूसरी ओर किसानी कर्ज भी उतनी ही तेजी से बढ़ता गया। शायद यकीन नहीं होगा। यह बात तो पक्की सै कि इस कर्ज का बड़ा हिस्सा खेती के कारण ही सै। और कई बार किसान के पास कोई विकल्प नहीं रहता सिवाय खुदकशी करने के। पिछले एक दशक में एक लाख से अधिक किसानों ने हिन्दुस्तान में मजबूरी में आत्महत्याएं की सैंं। वो खेती का मॉडल कौनसा सै जिसमैं किसान पर कर्ज चढ़े ही नहीं? आपके सुझावों का इन्तजार सै।



KIMAI TO SOCHO

किमै तो सोचो!


Posted On March - 28 - 2010

खरी खोटी

रणबीर

पूरे गांव में यह चर्चा का विषय बन गया। कुछ पुरुष कह रहे हैं कि क्या इस गांव को अमरीका बनाओगे? पुरुषों का खासा हिस्सा यही चाहता था कि कमला रामफल भाई-बहन बन जाएं। मगर औरतों का बड़ा हिस्सा इसके खिलाफ था। कई औरतों ने कहा-अब यह कैैसे हो सकता है? वे आपस में बातें करती हैं और क्या कहती हैं भला- पेट मैं पलै साथ मैं क्यों तुम दो ज्यानां नै मार रहे। गया बदल जमाना क्यूं पाप की माला गल मैं डाल रहे? बालक का रिश्ता के होगा भाण-भाई बनावैं सैं। भाण-भाई के रिश्ते कै बी क्यों कालस लगावंै संै। गाम में जो बड़े पंचायती वे घणे दुष्कर्म करावंै सैं। छेड़खानी-बलात्कार पै ना कदे पंचायत बुलावै सैं। कंस रूपी ये पंचायती बिकलाने मैं पिना धार रहे। राठी और दहिया बीच ब्याह ये णुरतै होत्ते आये सै। चौटाला गाम मैं कई नै आपस मैं ब्याह रचाये सैं। हरेक गाम मैं गोत पन्दरा गये आज ये गिनाये सैं। किस किसनै बचावांगे ये सवाल गये ईब ठाये सैं। क्यों इन मासूमां ने बिना बात के फांसी तार रहे।। परम्परावादी सोतै बैल की खेती ल्यादी हटकै रै। जंग लागै चाकू तै ओरनाल काटो सब डटकै रै। पुराना घाघरा कड़ै गया गोत क्यों थोरे अटकै रै। इतने गोत क्यूंकर बचैंगे बात म्हारै योह खटकै रै। ना पुराना ठीक सारा इसपै नहीं कर विचार रहे। इतनी प्यारी छोरी लाग्गै क्यों पेट मैं इनै मार रहे? खरीद कै ल्याओ यू पी तै जिब ना गोत विचार रहे। ब्याह-शादी मुश्किल होरे ना नये नियम धार रहे। गोतां की सीमा ये टूटैंगी लोग खड़े-खड़े निहार रहे। रणबीर बरोनिया पै पंचायती पिना ये तलवार रहे। सरोज कमला की बचपन की दोस्त सै। वा कैनेडा मैं सै। वह एक वेबसाइट पर कमला के बारे में जानकारी हासिल करले सै। अंग्रेजी के अखबार ‘दि ट्रिब्यूनÓ में भी खबर पढ़ै है। वह कमला के बारे में बड़ी चिंतित हो जाती है। वह कमला को एक पत्र लिखती है। क्या लिखती है भला-रोज पढूं खबर कमला अंग्रेजी के अखबार मैं। महिला फांसी तोड़ी जावैं बिकलाने के दरबार मैं। संविधान की खुल कै नै पंचायत नै धज्ज्यिां उड़ाई हैं। राजनैतिक नेतावां नै चुप्पी मामले मैं खूब दिखाई है। जमा शरम नहीं आई है जहर मिलाया घरबार मैं। प्रशासन खडय़ा देखै क्यों मेरै समझ नहीं आया हे। संविधान का चौड़े मैं पंचायत नै मजाक उडाया है। ना कोए कदम ठाया है इस झझर की सरकार नै।

कोर्ट मैं ब्याह करया था पंचायत नै आज तोड़ दिया। भाण-भाई का उसनै इसमैं ब्यर्थ नाता जोड़ दिया। रामफल जमा मरोड़ दिया गोतां की तकरार नै। परम्परावादी रूढि़वादी रणबीर ये नाश करैंगे हे। आगली पीढ़़़ी के बालक घाटा किस ढाल भरैंगे हे। के बेरा कितने लोग मरैंगे हे पंचायतां की हुंकार मैं। दस गामां पंचायत के अध्यक्ष गांव बरवाना के प्रणान कर्मबीर को जब पता लगता है इस फैसले का तो उन्हें बहुत दुख होता है। वे इस तालिबानी फरमान से सहमत नहीं। के कहवैं सै भला- अठगामा पंचात राठी की बिकलाना फरमान गल्त बतावै। बरवाना का प्रणान कर्मबीर कोन्या सुर मैं सुर मिलावै। दसगामे नै कोए लेना-देना ना तालिबानी फरमान तै। राठी दहिया मैं ब्याह होवैं चाहूं बताया हिंदुस्तान तै। बण कसाई इंसान तै क्यूं बिकलाना घणी णौंस दिखावै। राठी दहिया के छोरा-छोरी आपस मैं खूब बयाह रचावैं। कोए बन्दिश कोन्या पंचायती हम खोल कै नै बात बतावैं। हम बिकलाने मैं समझावैं सडांण फैसले मैं तै घणी आवै। कमला-रामफल पति-पत्नी भाण-भाई बनाना ठीक नहीं। संविधान सै भारत का इसका मजाक उड़ाना ठीक नहीं। उत्पात मचाना ठीक नहीं इस ढाल की बात सुनावै। निजाम पुुर गाम दिल्ली मैं उड़ै जाकै खुद देख लियो। पिछड़ी समझदारी त्याग कै उड़ै जाकै माथा टेक लियो। चौबीस नै फैसले नेक कियो रणबीर बरोनिया समझावै।



KASMASAYA BHAICHARA

कसमसाया भाईचारा!


Posted On April - 18 - 2010

खरी खोटी

रणबीर

हरियाणा में खेती के आने के समय से पहले पशुपालन ही जीवन का आधार रहा बताते हैं। उस वक्त गांव के दबंग लोगों के पास 100 से भी अधिक पशु हुआ करते थे। और ऐसे लोगों की संख्या 10-15 या ज्यादा हुई तो 20 की होती थी। बाकी ज्यादातर लोगों के पास 2-4 पशु ही होते थे। कई के पास नहीं भी होते थे पशु। आहिस्ता आहिस्ता खेती का प्रचलन बढऩे लगा और इस पर निर्भरता बढऩे लगी। इसी दौर से चली आ रही है एक भाईचारे की अजब मिसाल। कसूता भाईचारा था म्हारा। गांव में उस समय में तालाब ‘जोहड़’ जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग होता था। इन तालाबों की देखरेख भी बहुत जरूरी होती थी। जब तालाब बरसाती मिट्टïी या दूसरे कारणों से अंट जाते थे तो पानी की कमी महसूस होने लगती थी। कई गांवों में आदमियों और पशुओं के अलग अलग तालाब होते थे। कम्यूनिटी लिविंग की परिधारणा उस वक्त के जीवन यापन की जरूरतों से निकली होगी। व्यक्ति के लिए जगह बहुत कम होती थी। सामुदायिक भागीदारी से प्रेरित भाईचारे का एक उदाहरण है उन दिनों की तालाब खुदाई का भाईचारे का ‘कन्सैप्ट’ जो उस वक्त के ‘दबंग’ बुजुर्गों ने निकाला होगा। इस भईचारे का कन्सैप्ट था कि हरेक घर से एक आदमी तालाब की खुदाई के लिए भेजा जाएगा। मतलब हरेक परिवार से एक आदमी जिसके पास 100 पशु हैं वह भी एक आदमी भेजेगा तथा जिसके पास 4 पशु हैं वह भी एक आदमी भेजेगा। जिसके पास कोई पशु नहीं है वह भी एक आादमी तालाब की खुदाई के लिए भेजेगा। भाईचारे को कोई चोट न पहुंचे इसलिए सभी लोग इसका पालन करते थे। इस भाईचारे की चर्चा बहुत दूर-दूर तक हमारे पूर्वज बुजुर्ग लोग करते थे और आज भी करते हैं। ‘पुराने वक्तों का गांव का भाईचारा अलग ही था और इस तालाब की खुदाई का उदाहरण बहुत दिया जाता रहा है। जो कोई मजबूरी में या दूसरे कारणों से इसे तोडऩे की कोशिश करता पंचायत उसे दंडित करती थी। इस भाईचारे के पीछे कहीं न कहीं भय भी काम करता था। मगर ज्यों-ज्यों लोगों में जागरूकता आई त्यों-त्यों उन्हें समझ आने लगी इसमें मौजूद अन्याय की बात पर फिर भी इस परम्परा के बोझ को ढोते रहे। अब सवाल यह उठता है कि इतने पुराने समय से चले आ रहे तथाकथित भाईचारे को चुनौती कौन दे? इसमें छिपे अन्याय को लागों के सामने कौन रखे? 100 पशुओं का मालिक भी एक आदमी भेजेगा और 4 पशुओं वाला भी एक आदमी भेजेगा।

यह कैसा भाईचारा था? कितना गड़बड़ घोटाला था इस भाईचारे की परिधारणा में, इसे समझ पाना आसान नहीं था उस दौर में। आखिर यह सबके सामने आया। इसी प्रकार का भाईचारा रहा है खेड़े के गोत को लेकर। इसमें खेड़े के गोत की दादागिरी ‘अन्याय’ हमें अपनी रूढि़वादी सोच के कारण दिखाई नहीं देता था। एक गांव जिलोई है जिसमें 1000 घर हैं—दहिया के 800, सिन्धु के 50, ओहल्याण के 30, श्योराण के 60, रूहिल के 80 घर हैं। दहिया गोत का जिलोई गांव का लड़का तो दूसरे गांव की सिंधु, ओहल्याण, श्योराण व रूहिल गोत की लड़की से शादी करके जिलोई गांव में ला सकता है। मगर जिलोई गांव के सिंधु, ओहल्याण, श्योराण व रूहिल गोत के लड़के दूसरे गांव की दहिया गोत की लड़की से शादी नहीं कर सकते। क्यों? क्योंकि जिलोई गांव का दहिया गोत खेड़े का गोत है और वह इन गोतों में दहिया की ब्याह कर जिलोइ में आई लड़कियों को क्या कहेगा? बहन या बहू? इन गोतों के साथ भी तो यही बात है मगर माइन्योरिटी की हरियाणा में पूछ कहां है। यहां तो देश आजाद होने के बाद भी खेड़े का मैजोरिटिज्म ही चलता है। भाईचारे को यही मैजोरिटिज्म तय करता है। कितना महान भाईचारा था अपना जिसे इस पश्चिमी संस्कृति ने धराशायी कर दिया! या बी सोच्चन की बात सै अक इसके अन्यायकारी स्वरूप नै इसका सत्यानाश करया सै अक पश्चिमी संस्कृति नै? कुरुक्षेत्र मैं बी यो भाईचारा कसमसाया सै। बचियो इसकी झलां तै!



jatrofa nai mar diye

रणबीर


खरी खोटी

पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम नै भी जट्रोफा को जैव ईंधन देवन आली फसल बताकै उसका गुणगान कर्या। योजना आयोग नै भविष्य के लिए खुशनुमा अनुमान लगाये थे , कई कृषि विश्वविद्यालय परति पड़े भूखंडों पर जट्रोफा की फसल उगाने के लिए आगे आये थे। कुछ राज्य सरकारों ने जट्रोफा को प्रोत्साहन देने के लिए अलग से जैव -ईंधन आयोग तक बना डाले थे। इसको किसानां के लिए एक सपने आली फसल और पेट्रोल का विकल्प बताया था, लेकिन वह सपना टूट कै चकनाचूर हो लिया सै। संयुक्त राष्ट्र खाद्य व कृषि संगठन ने अपनी एक विशेष रिपोर्ट मैं जट्रोफा के हो-हल्ले और उसके बहुप्रचारित आधे-अधूरे सच को उजागर कर दिया है। रिपोर्ट बताती है, इस फसल के लिए निवेश बढ़ रहा है, नीतियां तय हो रही हैं, लेकिन इसके आधार में सबूतों पर आधारित सूचनाएं कम हैं। इस सपने को बहुत बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया गया था। पर्याप्त अध्ययन के बिना योजना आयोग ने इसे बढ़ावा दिया। यह नहीं देखा गया कि इतने विशाल देशों में जट्रोफा से कितना ईंधन निकलेगा और आवश्यकता कितनी पूरी होगी? अप्रैल 2003 मैं योजना आयोग नै प्रस्ताव तैयार किया कि देश में जट्रोफा के जरिये 20 प्रतिशत डीजल की जरूरत को पूरा किया जायेगा। मार्च 2004 में राष्ट्रीय कार्यक्रम हेतु पहली किस्त के रूप में 800 करोड़ रुपये की राशि जारी हुई, इस राशि से 2 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में जट्रोफा की खेती होनी थी। इस कार्यक्रम के तहत आगे के पांच वर्षों के लिए कुल 1500 करोड़ रुपयों का व्यय निर्धारित किया गया था। वर्ष 2013 तक जट्रोफा की खेती वाले क्षेत्र को 130 लाख हेक्टेयर तक पहुंचाने का लक्ष्य रखा गया था

यूरोपियन कम्पनियों ने अफ्रीका, मध्य अमेरिका और एशिया में लाखों एकड़ कृषि योग्य भूमि को जट्रोफा उत्पादन के लिए कब्जे में ले लिया। एक्शन एड की एक रिपोर्ट के अनुसार, यूरोपीय कम्पनियों ने इतने अन्न उत्पादक भूखंडों को कब्जाया है कि करीब 20 करोड़ लोगों के लिए अन्न कम पड़ सकता है। अन्न उत्पादक भूखंडों के हाथ से जाने के बाद न केवल कृषि योग्य भूमि का अभाव हो सकता है बल्कि इससे कीमतें भी बढ़ सकती हैं। यूरोपियन देशों के 10 प्रतिशत ईंधन उत्पादन के लक्ष्य को पूरा करने के लिए जरूरी भूमि कब्जाने का आकार 175 लाख हेक्टेयर तक पहुंच सकता है। लंदन की डी वन आयल्स जैसी जैव ईंधन कंपनी ने खासकर भारत में करीब 257,000 हेक्टेयर भूमि पर जट्रोफा उगाया है। भारत में 3 से 5 टन जट्रोफा उत्पादन का अंदाज लगाया गया था लेकिन उत्पादन मात्र 1.8 से 2 टन तक ही हो पा रहा है। भाव भी उम्मीद वाले नहीं मिल रहे। हैदराबाद आयल सीड्स रिसर्च निदेशालय के वैज्ञानिक कहते हैं कि उन्होंने जट्रोफा पर शोध का काम बंद कर दिया था पांच साल पहले क्योंकि जट्रोफा का पौधा भारत के अनुकूल नहीं था। इसके बावजूद योजना आयोग नै आंख मींच कै जट्रोफा की खातिर राष्ट्रीय अभियान छेड़ दिया था, क्यों? सपना चकनाचूर होग्या, गलती किसकी? कब्जाई जमीन उलटी करी जावेगी अक नहीं?



IZAT GAON KI

इज्जत गाम की?


Posted On April - 4 - 2010

खरी खोटी

रणबीर

गाम की इज्जत की आजकल बहोत चर्चा सै। जिसनै देखै ओए इस गाम की इज्जत के बोझ तलै बैस्क्या सा दीखै सै। बेरा ना चाणचणक देसी गाम की इज्जत की इतनी चिन्ता क्यों होगी हम सबनै? करनाल के सैशन जज के फैंसले नै आग मैं और देसी घी का तड़का ला दिया। इसमैं कोए दो राय नहीं हो सकदी अक चाहे कितना ए बड्डा कसूर करदे कोए उस ताहिं कानूनी अदालत तै न्यारा दण्ड देवण का अधिकार और किसे नै म्हारा संविधान नहीं देत्ता। तो मनोज अर बबली नै चाहे कितना ए बड्डा अपराध करया हो उनका कत्ल करण का अधिकार किसे नै नहीं मिल जात्ता। इस हिसाब तै करनाल के सैशन जज का फैंसला ऐतिहासिक फैंसला सै इसमैं रति भर बी शक नहीं हो सकदा। रही बात गाम की इज्जत की, इसके मायने के सैं इन सारी बातां पर चरचा की जरुरत सै। इसतैं पहलम एक बात और साफ तौर पर समझण की जरुरत सै अक या दुनिया परिवर्तनशील सै। इसमैं बदलाव आते रहे सैं अर आगै बी आत्ते रहवैंगे। तो बात गामां की अर गामां की इज्जत की थी। आज के हाल होरया सै गामां का इसपै चरचा की जरुरत सै। बरोने अर सिसाने के बारे मैं तो मनै पक्का बेरा सै अक इन गामां की शामलात जमीन पर दबंग लोगां के कब्जे होरे सै अर इस समाज का, किसे गाम का ब्योंत नहीं रहर्या अक ये कब्जे हटवाले। म्हारे स्वयम्भू पंचायतां की ताकत का मनै अन्दाजा नहीं वे ये कब्जे हटवा सकैं सैं अक ना? घर तो कोए बच नहीं रह्या हां माणस कोए बेशक बचरया हो इस दारु की मार तै अर औरतां का जी ए जानै सै अक उननै के-के सहना पडऱया सै। गाम मैं छोरियां की गेलां मां कै स्कूल मैं जाना दिन दिन मुश्किल होत्ता आवै सै। एडस की बीमारी के मरीज गामां में बधण लागरे सैं। गाम मैं ओटड़े कूद कै बदमाशी करनिया अर औरतां की गेल्यां छेड़छाड़ करनियां का संगठित माफिया खडय़ा होग्या जिसका सामना करण का ब्योंत घटदा जाण लागरया सै। सैक्स के दल्ले गाम गाम मैं पैदा होगे अर मासूम युवतियां इस रैकेट की षिकार होवण लागरी सैं। महिलावां पर घरेलू हिंसा बढ़ती जाण लागरी सै। उन पर यौन अत्याचार बढे सैं। डाक्टरां तै बात करण पर बेरा लाग्या अक बिना ब्याही लड़कियां के गर्भपात की संख्या बढ़ी सै। अर इनमैं कसूरवार घरआले, रिस्तेदार अर पड़ौसी 50 प्रतिशत तैं ज्यादा बताये। इतना बुरा हाल क्यों हो लिया गामां का?

के कहना सै म्हारे बुजुर्गां का, म्हारे समाज के ठेकेदारां का? समाज सुधारकां का? म्हारे मन तो साफ सैं फेर क्यों इतनी गंदगी फैलगी? म्हारी नजर मैं तो कोए खोट नहीं फेर बलातकार करण आले लोगां की हिम्मायत मैं एसपी अर डीसी कै ट्राली भर-भर कै कूण लेज्यावै सै? दारु पीवणिया, लड़की गेल्यां छेड़खाणी करनिया अर पीस्से खावणिया नै सरपंच कौण बणावै सै? अर फेर ये म्हारे तथाकथित समाज सुधारक कित सोये रहवैं सैं? गाम मैं सुलफा,दारु अर स्मैक कूण बिकवावै सै? गाम की छोरियां अर बहुआं की गेल्यां भूंडे मजाक करकै टोंट कूण कसै सै? सुसरा बहू नै एकली देख कै बहु की इज्जत पर हाथ क्यों गेरै सै? खेत-क्यार मैं कमजोर तबक्यां की औरतां गेल्यां जोर-जबरदस्ती कूण करै सै?नामर्दी जवानां मैं क्यों बढदी जावै सै? और बी बहोत से मुद्दे सैं जिनपै समाज के ठेकेदार चुप सैं। बेरोजगारी रोज के पांच सात युवक-युवतियां नै मौत के मुंह मैं लेज्या सै। आपां उसनै आपस की तकरार का मामला समझां सैं। दहेज नै जीणा मुहाल कर दिया औरतां का। छांटकै महिला भ्रूण हत्या नै कई विकृतियां पैदा करदी समाज मैं। समाज सुधार इन नौजवानां नै मौत के फतवे सुणा-सुणा कै कोन्या होवै। इनकी ऊर्जा का समाज की खातर सकारात्मक रूप मैं इस्तेमाल करकै ऐ समाज सुधारक इसा समाज बणावें जित माणस का बैरी माणस ना रहवै सोच्या जा सकै सै। नये औजार होंगे इस नये समाज सुधार आन्दोलन के। हमनै मानवता वादी, समतावादी अर वैज्ञानिक नजर के दमपै आगै बढऩा होगा। पुराने राछ-बाछां तै काम कोन्या चालैगा।



CHINTA

चिंता समाज की


Posted On May - 30 - 2010

• रणबीर

खरी खोटी

आजकल लोगां नै समाज की बहोत चिन्ता होरी सै। रमलू, ठमलू, नफे, सते, फते, सरिता, सविता, बबीता अर ताई धमलो पाछै क्यों रहवैं थे। रमलू बोल्या—आजकल गिहूं की पैदावार किल्लेवार कम होगी। मजे की बात कोन्या रही खेती मैं। बस धिंगताना सा होरया सै। ठमलू बोल्या—सही कहवै सै रमलू। पैदावार कम होगी, खेती मैं इस्तेमाल होवण आली चीजां की कीमत दस गुणा बधगी। जीना मुश्किल होग्या। गाभरु छोरे अर बहू सल्फास की गोली खा-खा कै मरण लागरे सैं। सरिता बोली—या सल्फास की गोली तो बनावनी ए बन्द कर देनी चाहिए। नफे बोल्या—म्हारी कौण सुनै सै। सविता बोली—बिना बात की बातां पर काटकड़ उतरया रहवै सै। अर सल्फास की गोली की कान्ही किसे का ध्यानै कोन्या जात्ता। सते बीच मैं बोल पडय़ा—समाज का सत्यानाश होण मैं कसर तो किमै रही नहीं। सरिता बोली—समाज शब्द का इस्तेमाल बहोत होरया सै आजकल। समाज तै तेरा के मतलब सै? नफे बोल्या—समाज का मतलब म्हारा समाज। म्हारे का मतलब ईब तम लाल्यो। सते—के मतलब लावां? समाज का मतलब हरियाणे का समाज? नफे—हां न्यों बी कहया जा सकै सै। पर…। सविता बोली—पर के खोल कै बता के कहना चाहवै सै। सरिता बोली—मैं जानूं सूं इस नफे नै सारी हान घुमा फिरा कै बात करैगा। नफे बोल्या—अरै क्यूं मेरा मुंह खुलवाओ सो। हरियाणा मैं समाज का मतलब जाट समाज तै न्यारा और के हो सकै सै? सरिता बोली—फेर म्हारा बाहमनां का समाज कित जागा? फते बोल्या—म्हारे दलितां के समाज की तो पहलमैं जागां कोन्या गांव के समाज मैं रही सही कसर नफे नै पूरी करदी। बबीता बोली—म्हारे पंजाबियों के तो कई गांव हैं हरियाणा में, हमारे रीति-रिवाजों का क्या होगा? रमलू बी कहने लाग्या—भाई गोत की गोत मैं ब्याह तो कति बी गले तै तलै कोन्या उतरै।

गांव की गांव मैं ब्याह क्यूकर पुगैगा? सीम कै लागते भाईचारे का हिसाब बी देखना पडैग़ा। सरिता बोली—तूं बी रमलू इन खापियां की भाषा बोलता दीखै सै। मनै न्यूं बता कितने के ब्याह होलिए गोत की गोत मैं? रमलू—घणे तो हुए कोन्या एकाध हुआ सै। फेर ये तो लीख गेरण लागरे सैं। इनका इन्तजाम तो पहलमैं करना होगा। सरिता—आच्छा रमलू न्यूं बता इन खापां का असर कितने के जिल्यां मैं होगा? रमलू गिनावण लाग्या—रोहतक, जीन्द, कैथल, पानीपत, करनाल, कुरुक्षेत्र, सोनीपत अर झज्जर। फेर अटकग्या। सरिता—ये तो आठ हुए। बेरा सै कितने जिले सैं हरियाणा मैं? रमलू —16। सरिता बोली—कौन-सी दुनिया मैं रहवै सै। 20 जिले सैं हरियाणा मैं। बाकी जिले तो शामिल कोन्या थारे इस अभियान मैं। अर इन आठ जिल्यां मैं भी ना तो पंडितां की या समस्या, ना बनिया की या समस्या,ना पंजाबियां की या समस्या। ना दलितां की या समस्या। फेर तो नफे की बात सही लागै सै अक या जाट समुदाय की समस्या सै। पूरे हरियाणावासियां की समस्या तो सै कोन्या इनके रीति रिवाजां के हिसाब तैं। नफे बोल्या—हरियाणा इज नॉट इक्वल टू पंजाबी,बनिया और दलित—हरियाणा इज इक्वल टू जाट। नहीं मानै जो बात जाट की, बस तैयारी करल्यो बाईकाट की। जाट ईब कानून गेल्यां फाईट करै, साथ ना दे जो ढिबरी इसकी टाइट करैं। विरोधी का बहिष्कार डे नाइट करै, लैफ्ट के समझै सै इसनै बी राईट करै। चुन्नी उढ़ा बहु बनाल्यां चलै दस्तूर म्हारा, सात फेरे बी उकाल्यां के करले वेद थारा। सरिता बोली—नफे तूं तो इतना बावला ना था जितनी बावली बात तूं आज करण लागरया सै। मान लिया हरियाणा मैं जाट मैजोरिटी मैं सैं फेर इसका मतलब यो तो कोन्या एक सब पर अपना लंगोट घुमाओगे।

हरियाणा मैं बी इसे कई गांव सैं जित गांव की गांव मैं ब्याह हो सैं। हरियाणा मैं बी कई समुदाय सैं जित मामा-बुआ के बालकां मैं ब्याह होंसैं। बनिया अर बाहमनां के के गोत की गोत मैं ब्याह के अपवाद के नहीं होत्ते? होसैं फेर उनमैं बालकां नै मारण का रिवाज कोन्या। लचीलापन सै। बालकां का ब्याह करवादें सैं। नफे बोल्या—फेर तो उनकै तो गोत की गोत मैं शादियां की ग्लेट-सी लागती होंगी। सरिता बोली—तेरे गाम के बाहमनां मैं अर बनियां मैं के हाल सै? तनै बेरा सै। बात का बतंगड़ मत बनाओ इस गोत के गोत मैं ब्याह नै अर इसनै अपवाद मानकै दूसरी कौमां की ढालां लचीलापन ल्याओ। बख्त की मांग तो याहे सै नफे सिंह बाकी तूं जानै अर थारे नेता जानैं। जनता की आवाज तो याहे सै जो मैं कहरी सं। फेर थारी समझ मैं कोन्या आवै। नफे तेरी बुद्धि पर तरस आवै सै मनै।



BALI UMAR

बाली उमर!


Posted On August - 1 - 2010

खरी खोटी

रणबीर

किशोरावस्था यानी कि टीनएज जीवन मैं उम्र का वो बहोत अहम खास पड़ाव होसै जो आगे की राह तय करै सै। यो वोह नाज्जुक दौर होसै जिब संयमित जीवनशैली अर सही निर्णय तै भविष्य संवर सकै सै। फेर जै बालक गलत संगति मैं पड़कै माता-पिता तै दूर होज्या तो बालक के फ्यूचर पर ग्रहण लागना तय सा होज्या सै। किशोर उम्र मैं कदम धरतें की साथ कई बालकां में अभद्र अर बागी तेवर देखण मैं आवैं सैं। दरअसल बच्चों मैं असहज व्यवहार इस उम्र की एक सहज प्रवृति सै। इसका एक कारण माता-पिता का अधिक दुलार सै तो दूसरा कारण अधिक दूरी भी होसै। इस उम्र मैं बच्चे यह तय नहीं कर पाते कि क्या सही सै अर क्या गलत सै। यो बख्त उम्र का इसा पड़ाव सै जिब जरुरत इस बात की सै अक माता-पिता टीनएजर्स नै सही तरीके तैं ट्रीट करैं। यो उम्र का वो पड़ाव होसै जिब किशोर खुद समझ नहीं पाते कि वे बालक सैं अक बड्डे हो लिए। इस वक्त इनमैं काफी बदलाव आवै सै। विपरीत लिंग के प्रति आकर्षित होना,फोन से बातें करना, इंटरनैट प्रेम होना आम बात सै। इनके शरीर में इसे हारमोन बनने शुरु होज्यां सैं अक ये सारी बात होवण की जागां बणज्या सै। इनकी जिज्ञासा बढ़ती जावै सै। कोए तो हो इस जिज्ञासा नै रेस्पोंड करनिया। पेरैंट्स बच्चों मैं इस बदलती सोच ना तो समझ पाते अर ना इसनै स्वीकार करदे। करैं भी क्यूकर इनके बख्त और थे आज के बख्त और बदलगे। इसे माहौल मैं वे अपने दोस्तां पर भरोसा कर इनके धोरै अपनी जिज्ञासा शांत करने जीते है और ठीक गलत जो चीज म्हारे इस बन्द समाज मैं इन रिस्तयां के बारे में चालरी सैं वे सारी चीज सीखैं सें जिसमैं भटकाव की गुंजाइस ज्यादा होसै। हमनै दारु पीवण तै फुरसत कोन्या जो इन बालकां गेल्यां थोड़ी घणी काम की बात करल्यां। मां की सुणै कौण सै। या जागां सै जिब पेरैंटस का रोल बहोत अहम होज्या सै। उननै बालकां ताहिं टाइम देना चाहिये। उनकी मानिटरिंग करनी चाहिये। हर बात पर टोकने या डांटने या पीटने की बजाय प्यार तैं समझाना चाहिये। ऐसा ना करने पर किशोर आक्रामक अर चिड़चिड़े होज्यां सैं। बच्चों की फीलिंग्ज को समझते हुए इनके साथ दोस्ताना व्यवहार कायम करना होगा। यक बर कदम बहक गयें तो फेर माहौल चारों कान्हीं का इसा सै अक उल्टे आना बहोत मुश्किल सै। आजकाल टीनएजर्स के कदम बहुत जल्दी बहक जा रहें सैं। माता-पिता तैं संवादहीनता भी इसका एक कारण सै। बालक कम उम्र मैं सोची समझी चाल के तहत नशे के आदी बनाए जावण लागरे सैं अक वे अपने अधिकारां के बारे मैं सोचण जोगे ए कोन्या रहवैं। शराब सिगरेट तो इनके लिए आम है। इसतैं भी कहीं बढ़कै ड्रग्स भी इब इनतै अछूती नहीं सैं। चूंकि नझा करने की खातर पीस्से की जरूरत सै अर इस उम्र में पाकेट मनी के जो पीस्से मिलते हैं वे कम पड़ज्यां सैं इस करकै सहज सहज ये अपराध जगत मैं प्रवेश करते हैं। आए दिन कई इसे गिरोह पकड़े जावैं सैं जिनके सदस्य किशोर होसैं। कोए ब्रांडेड कपड़े पहनने की खातर अपराध की बात स्वीकार करता है तो कोए महिला मित्र के साथ घूमने फिरने के लिए। नशे नै सेहत का बुरा हाल करकै धर दिया। कई पेरैंट्स इसे होसैं जो बालकां की हर छोटी-छोटी बातां मैं दखलन्दाजी कर उन्हें टोकते रोकते रहवैं सैं जबकि कुछ बालकां पर कतिए ध्यान कोन्या देन्ते अर उनकी हर गल्ती नै नजरअन्दाज कर देवैं सैं। ये दोनों तरां की बात गलत सैं। इसलिए पेरैंटस का यो फर्ज बनै सै अक वे बालकां की इस उम्र मैं सही ढालां देखभाल करैं। इनकी आजादी अर अनुशासन के इसे मानक बनावैं जो इनके लिए नुकसानदेह ना हों बल्कि उन्हें एक जिम्मेदार अनुशासित अर चरित्रवान नागरिक बना सकैं।



ATTAN

आट्टण’


Posted On March - 7 - 2010

खरी खोटी

रणबीर

एक बात तो साफ सै अक माणस एक सामाजिक प्राणी सै। माणस अर पशु मैं योहे फर्क सै अक माणस अपने भले-बुरे की खातर अपने समाज पर बहोत निर्भर रहवै सै। असल मैं पषु जगत के घणे ठाड्डे-ठाड्डे बैरियां के रैहत्ते अर बख्त-बख्त पै आवण आले हिम युग जिसे भयंकर प्राकृतिक उपद्रवां ते बचण की खातर उसके दिमाग नै जो उसकी मदद करी सै उसमैं मनुष्य का समाज के रूप मैं संगठन बहोत घणा सहायक सिद्ध हुआ सै। इस समाज नै शुरू मैं कमजोर माणसां की ताकत को सैंकड़ों आदमियों की एकता के माघ्यम तै बहोत घणा बणा दिया। इसे एकता की ताकत के दम पर माणस अपने प्राकृतिक अर दूसरे बैरियां तै छुटकारा पा ग्या। पर आज इस समाज नै प्राकृतिक अर पशु जगत के दूसरे बैरियां तै रक्षा पावण मैं मदद देत्ते होएं बी अपने भीतर तै ईसे बेरी पैदा कर लिए जिननै इन प्राकृतिक अर पाशविक बैरियां तै भी फालतू माणस की जिन्दगी नरक बणावण का काम करया सै। समाज का अपने भीतर के माणसां के प्रति न्याय करना पहला फरज सै। न्याय का यो मायना होना चाहिये अक हरेक माणस अपने श्रम के फल का उपयोग कर सकै। लेकिन आज हम उल्टा देख रहे सां। धन वा चीज सै जो माणस के जीवन की खातर बहोत जरुरी सै। खाणा ,कपड़ा, मकान ये सारी चीजां सैं जिन ताहीं असली धन कहना चाहिये। असली धन के उत्पादक वेहे सेै जो इन चीजां का उत्पादन करैं सै। किसान असली धन का उत्पादक सै क्योंकि ओह माट्टी नै अपजी मेहनत के दम पर गिहूं, चावल, कपास के रूप मैं बदल दे सै। दो घन्टे रात रैहत्ते खेतां मैं पहोंचना। जेठ की तपती दोफारी हो, चाहे पोह का जाड्डा हो, ओ हल जोतै कै ट्रैक्टर चलावै,पाणी लावै,जमीन नै कस्सी तै एकसार करै अर उसके हाथां मैं कई-कई आट्टण पड़ज्यावैं फेर बी ओ मेहनत तै मुंह नहीं चुरात्ता क्योंकि उसनै इस बात का बेरा सै अक धरती मां के दरबार मैं रिश्वत कोन्या चालती अर न चाल सकती। धरती स्तुति प्रार्थना तै अपने दिल ने खोल कौन्या सकदी। या निर्जीव माट्टी सोने के गिहूं, बासमति चावल अर अंगूरी मोतियां के रूप मैं देवे सै जिब धरती मां देख लेवै सै अक किसान नै उसकी खातर अपणे शरीर के कितने घणे पस्सीने बहा दिये,कितनी बर थकावट करकै उसका बदन चूर-चूर होग्या अर कस्सी चाणचणक उसके हाथ तै छूटगी। गिहूं का दाणा-दाणा कठ्ठा करना हो सै। एक जागां दस बीस मन धरया औड़ कोन्या मिलता। जिब एक बर तो फसल नै देख कै किसान का जी बी खिल उठै सै। महीन्यां की मेहनत के बोझ तलै दबे उसके बालक बड़ी चाह भरी नजरां तैं इस नाज नै देखैं सैं। वे समझैं सैं अक दुख की अन्धेरी रात कटने वाली सै अर सुख का सबेरा साहमी सै। उननै के बेरा अक उनका यो नाज उनके खावण खातर कोन्या। इसके खावण के अधिकारी सबते पहलम वे स्त्री-पुरुष सै जिनके हाथ मैं एक बी आट्टण कोन्या, जिनके हाथ गुलाब केसे लाल अर मक्खण बरगे मुलायम सैं, जिनकी जेठ की दोफारी एसी तलै कै शिमला मैं बीतै सै। जाड्डा जिनकी खातर सर्दी की तकलीफ नहीं ल्यात्ता बल्कि मुलायम कीमती गर्म कपडय़ां तै सारे बदन नै ढक कै आनन्द के सारे राह खोल दे सै। अर यू किसान आत्महत्या करण ताहिं फांसी खावण खातर जेवड़ी टोहत्ता हांडै सै कै सल्फास की गोली खाकै निबटारा पाले सै। ऊपर ऊपर तै सब मेर दिखावैं सैं किसान के नाम पै। फेर असल मैं सारे उसकी खाल तारु सैं। किसान कै पड़े ये आट्टण एक दिन जरूर रंग दिखावैंगे।



ACHAMBHA

अचम्भा


Posted On March - 21 - 2010

खरी खोटी

रणबीर

पाछले हफते तीन बात दिमाग पर छाई रहीं। उठतें-बैठते, गामां की बैठकां मैं, कालेज मैं कैंटीन पर सारी जागां इन बातां का जिकरा था। एके बात तो महिला आरक्षण बिल के बारे मैं थी। इस बिल नै लेकै पूरे हिन्दुस्तान मैं तहलका सा माचग्या। इस बिल नै लेकै राज्य सभा मैं हंगामा हुआ कसूती ढाल की सर्कस हुई, बिल राज्य सभा मैं पाड़ कै बगा दिया फेर राज्य सभा मैं यो बिल पास होग्या। बिल पास हुए पाछै महिलावां नै खूब खुशी मनाई। सारी पार्टियां की महिलाएं जमकै नाच्ची। फेर इस बिल पास होवण आले दिन घणी छोटी छोटी छोरी कुपोषण के कारण मरगी। इसे दिन एक आदमी नै अपनी पत्नी, बेटी अर मां ताहिं इसलिए जला दिया अक उसकी बीमार पत्नी नै दूध पीवण की इच्छा जताई थी। सपा अर राजद के सांसदां नै सीन खडय़ा करण मैं कसर नहीं छोड्डी। बोले जो आरक्षण मैं आरक्षण बिना यो बिल पास होग्या तो म्हारी पारलियामैंट मैं अमरीका आला माहौल हो ज्यागा। घणीए परकटियां संसद मैं आज्यांगी। उंचे तबक्यां की ये महिला बिहार के गाम की महिला का दुख दरद क्यूकर जान सकै सै? उसका दुख तो राबड़ी देवी जान सकै सै। अनिल अम्बानी के कुन्बे की महिला नै के बेरा उनके दुख-दरद का। परकटि तो संसद मैं साड़ी की अर कै मेकअप की अर कै फेर किट्टी की बात करैंगी। संसद मैं आम जनता के मुद्दै जिब बेरा ए कोनी तो किततै ठावैंगी? असल मैं बात यासै अक आरक्षण मैं आरक्षण करवाकै ये लोग अपना वोट बैंक बचाकै राखना चाहवैं सैं अर राबड़ी देवी बरगी क्रिमी लेयर की महिलावां खातर राह बनाया चाहवैं सैं। एक तरफ तो क्रिमी लेयर तैं दुखी दीखैं सैं ये अर दूसरी तरफ अपनी जात्यां की क्रिमी लेयर की महिलावां की हिमायत मैं खड़े दीखै सैं। फेर ये पुरुषां मैं क्रिमी लेयर पर तो चरचा कोन्या करते? असल बात तो या सै अक महिला किसे बी जाति की क्यों ना हो वा मरदां तै फालतू संवेदनशील तो होवे ए सै। उसकी संवेदनाएं इन मोल्ड़ां कै समझ मैं कोन्या आ सकतीं। बेतुके बयान इब्बी दिये जावैं सैं अक करन्यो कितनी रिजरवेशन फेर बी चालै तो मरदां कीए गी। इब तो महिला की कतिए बूझ कोन्या फेर कम तै कम सलाह तो करैगा। एक कदम तो आगै सरकैगी बात। दूसरी बात या सै अक महिला को किसे जाति, धर्म, देश, प्रांत,जात, गोत के दायरे मैं बांध कै देखना किसे टूटे औड़ चश्में तै देखना तो मूर्खता ए कही जा सकै सै। महिला नै दुनिया के इस कोने तै लेकै उस कोने ताहिं किसे ना किसे बक्ष्त पै, किसे ना किसे बहाने, कदे ना कदे कुछ इसा झेल्या होसै जो इननै एकीकृत करै सै। इस करकै उननै बांट कै देखण की घणी सी जरुरत नहीं सै। असली सौ की बात या सै अक यो सारा विरोध महिला की खातिर आगे की जगहां बणण के डर का सै। मरदां की खातिर यो स्वीकार करना आसान कडै़ सै अक महिलाएं उनकी बराबरी मैं आकै बैठ ज्यावैं। कई नेता सै म्हारे देश मैं जो इन्दिरा गान्धी के प्रधानमंत्री बनने, फेर प्रतिभा पाटिल के राष्ट्रपति बनने अर मीरा कुमार के लोकसभा अघ्यक्ष बनने के सदमे तै इब्बै बाहर नहीं आ लिए सैं। इस पितृसत्ता समाज मैं इन लोगां की प्रतिक्रिया समझ मैं आ सकै सै। पंचायतां आले आरक्षण पर भी इसे सवाल उठे थे। पर एक बात तो साफ सै अक हरियाणा मैं जिन पंचायतां की सरपंच महिला थी खासकर दलित महिला या कमजोर तबके की महिला उनकी परफोरमैंस बेहतर रही, स्वास्थ्य, शिक्षा,जनता हित के मुद्दे साहमी ल्यावण मैं। पहलम तो घर मैं दबोचें रहो अर घूंघट मैं दबोच कै राखो अर फेर कहो अक हम तो पहलमैं कहवां थे अक इसके बसका पंचायत चलाना कित सै? एक बात साफ सै अक हरियाणा मैं महिला नै अपना वजूद असरट कर दिया सै यो किसे कै गलै उतरो अर चाहे मत उतरो। उसकी कीमत बी चुकाई सै अर आगै और बी चुकानी पड़ैगी। शाबाशी हरियाणे की महिलावां नै। जुल्मो-सितम नहीं सहेंगी महिला अब हरयाने की, आगे बढ़कर बात करेंगी महिला अब हरयाणा की, खेतों में खलिहानों में दिन-रात कमाई करती हैं, फिर भी दोयम दर्जा हम बिना दवाई मरती हैं, बैठी-बैठी नहीं सहेंगी महिला अब हरयाणे की। देवी का दर्जा देकर इस देवी को किसने लूटा, सदियों से हम गयी दबाई समता का दावा झूठा, दहेज की बलि नहीं चढ़ेंगी महिला अब हरयाणे की। इंसान बन गए हैवान आज होते हैं अत्याचार, यहां देखो नैया डूब रही अब हम थामेंगी पतवार, यहां अबला बनकर नहीं मरेंगी महिला अब हरयाणे की। आगे बढे ये कदम हमारे पीछे ना हटने पाएंगे, जो मन धर लिया हमने अब करके वही दिखायेंगे, रणबीर सारी बात लहेंगी महिला अब हरयाणे की।



Thursday, December 22, 2011

SOOT KASOOT


Posted On June - 27 - 2010
  • रणबीर
खरी खोटी
सते, फते, नफे, सविता, कविता, सरिता अर धापां ताइ्र्र शनिचर नै आये अर बैठ कै बतलाए। सते बोल्या- बहोत बुरा बख्त आग्या। म्हारै चाचा का छोरा सै रणदीप दारु पीकै रोज अपनी घरआली नै पीटै सै। आज तो चाले पाड़ दिये। घरआली के कानां के गहने ठालेग्या अर बेच कै दारु पीग्या। फते बोल्या- रै बूझै मतना। कोए घर तो बच नहीं रहया दारु तैं, माणस बचरया हो तै न्यारी बात सै। सरपंची के चुनाव नै तो दस दिन दारु पीवणियां के ठाठ कर दिये। सविता बोली- और के चुनाव तो दारु कौण छिककै पियावैगा  अर पंचायती जमीन के कब्जे कौण नहीं छुड़ावैगा पान्ने अर ठोले पर लड़े गये। दारु बन्द करवावण का किस्से का एजैंडा नहीं था। सरिता बोली- ये गाम मैं ग्यारा बजे रात नै बल्यू फिल्म दिखाई जावैं इनपै रोक की बात किसे नै नहीं करी। कविता बोली- गाम के सरकारी अस्पताल का कितना बुरा हाल सै, कोए लेडी डाक्टर ना अर कोए दवाई ना। नफे बोल्या-म्हारे स्कूल मैं कै मास्टर सैं कोए बता सकै सै? कितने स्कूल मैं आवैं सैं कद आवैं सैं कद जावैं सैं बेरा सै गाम मैं किसे नै? गाम में गाल तो पक्की करवा दी फेर गन्दे पाणी की निकासी का तो कोए इन्तजाम नहीं। पाणी कठ्ठा होकै सड़ै जा सै। सरिता बीच मैं बोल पड़ी- पीवण के पाणी का के इन्तजाम सै? न्यादर क्योंके टयूबवैल पर तैं खरीद कै पाणी पीणा पडऱया सै। यो पाणी बी पीवण जोगा सै अक नहीं कदे टैस्ट करवाकै नहीं देख लिया। जिसका खरीदण का ब्योंत नहीं वो जाओ पांच किलो मीटर पर तै नलके का पाणी लेकै आओ। चौखी सैर बी साथ की साथ होज्या माणस की। नफे बोल्या- कहली सबनै अपनी- अपनी। मेरी सुनोगे तो सुन्न रहज्याओगे। मैं शहर मैं गया था डाक्टर धौरै नहीं सै गिल अपना लंगोटिया यार। उड़ै समालपुर की छोरी आरी थी डाक्टर नै बताया अक तीन महीने का बालक सै। बिना ब्याही सै। इसके चाचा का छोरा सै, उसनै जोर-जबरदस्ती करी कई बर इस गेल्यां। सते बोल्या-म्हारे समाज का तो सते औड़ लिया। महिला घर मैं बी सुरक्षित ना अर बाहर बी असुरक्षित। कविता बोली- ईब तो पेट मैं बी सुरक्षित कोन्या। म्हारी कातिलां की मानसिकता होरी सै सबकी। नफे बोल्या- छोरियां नै बी घणा फैशन नहीं करना चाहिये। सविता बोली- पाछले एक हफते के अखबार ठा कै देखले। कै तो दस साल तैं कम उमर की बेटियां गेल्यां बलात्कार सैं अर कै उस महिला गेल्यां सैं खेत क्यार मैं जिसके लते कपडय़ां का फैशन तै कोए ताल्लुक नहीं सैं। यो तै समाज की रुग्ण मानसिकता का मामला लागै सै। पूरा समाज औरत नै एक भोग की चीज तै न्यारा कुछ नहीं समझदा। पूरा गाम परेशानियां तै भरया सै फेर किसे नै फुरसतै कोन्या इन पर बात करने की। नफे बोल्यामैं तो न्योंए समझया करदा अक ये जीन पहरण करकै बलात्कार फालतू होवैं सैं। कविता बोली- तूं नहीं बहोत से लोग या सोच राखैं सैं अर अपने भीतर झांक कै कोन्या देखते। हां मै कहरी थी अक चुनाव मैं बेरोजगारी पर कोए जिकरा नहीं था। ना बीमारी के ठीक इलाज की बात थी। चोरी, डकैती, कत्ल, अपहरण, बलात्कार अर पुलिस अर नेतावां के ये चेले- चांटे जिननै गाम का जीणा मुश्किल कर दिया उस पर कोए मुंह खोल कै राज्जी कोन्या। इनकी ना सुनो तो झूठे केसां मैं फंसवादेंगे। हांडे जाओ पुलिस थान्यां मैं। म्हारी इज्जत अर जान दोनों खतरे में गेर दी इन कबाडिय़ां नैं। फते बोल्या-इनके तार ऊपर ताहिं जुडऱे सैं। जिनकै सूत आरी सै वे तो चाहवैं सैं अक दारु का यो दौर न्यों बन्या रहवै। जिनकै कसूत आरी सै उननै ठोला पान्ना, जात-गोत  भूल कै एक जगहां आकै कठ्ठे होकै गाम के विकास के मुद्दे ठाने पड़ैंगे देखना पड़ैगा अक जो पीस्सा गाम के विकास खातर आया सै वो लाग्या बी सै अक नहीं। अक यो पीस्सा इन चेले-चांट्यां की गोजां मैं चल्या गया। आई किमै समझ मैं? गेर रे गेर पत्ता गेर

beer's shared items

Will fail Fighting and not surrendering

I will rather die standing up, than live life on my knees:

Blog Archive