Wednesday, July 24, 2013

विज्ञानं का विद्यार्थी होने के नाते , मैंने प्राय महसूस किया है कि हमारे यहाँ विज्ञानं की शिक्षा सामाजिकता से कटी हुई है , अपनी मूल प्रकृति से हटकर तथा ऐतिहासिक सन्दर्भों से अलग थलग बना कर परोशी जाती है \ इसका परिणाम (अच्छा नहीं ) यही निकलता है कि यह न तो वैज्ञानिक दृष्टिकोण पैदा करती है, न ही स्वस्थ सामाजिकता पैदा करती है \ यह अनेक प्रकार के मिथक पैदा करती है \आइन्सटाइन ने एक बार कहा था -- यदि मेरा भौतिकी पढना किसी भी तरह स्वस्थ नागरिकता (Sociality) पैदा नहीं करता है तो मेरा पढना बेकार है , यदि पैसा कमाने की ही बात है तो मैं वायलिन बजा कर ज्यादा पैसा कम सकता हूँ \ यदि विज्ञानं अपनी मूल प्रकृति या संकल्पनाओं  के तहत नहीं पढाया जा रहा है तो एक तरफ तो सैद्धान्तिक गलतफहमियां बंटी हैं , दूसरी तरफ हम विज्ञानवाद के शिकार होते हैं \  यह विज्ञानवाद , विज्ञानं की सीमा से बहार जाकर भटकावों में धकेल देता है \ इस भटकाव में हम यह भूल जाते हैं कि विज्ञानं का कार्य एक समाज नियंत्रित स्थिति है \ क्योंकि विज्ञानं केवल अपने संज्ञान मूल्यों में ही स्वतंत्र है , बाकी यह परिस्थिति जन्य है \------
सृजनात्मकता  और कल्पनाशीलता मानव की मूल प्रकृति है \ वस्तुनिष्ठता के नाम पर हम विज्ञानं को बहुत ही यांत्रिक व प्रक्रियाबद्ध बना देते हैं \ हम यह समझने की भूल करते हैं कि विज्ञानं के सिद्धांतों के खोजने  में भी कल्पनाशीलता और सृजनात्मकता  की भी कोई भूमिका होती है \ विज्ञानं में भी फैंटेसी का एक आनंद होता है \ ऐसी अनेक बातें हैं जहाँ हमारी विज्ञानं शिक्षा मौन नजर आती है \ यहाँ संकलित लेखों के माध्यम से हमारा प्रयास है ,विज्ञानं की प्रकृति  से परिचय करना \ इन  लेखों में जो चर्चाएँ उठाई गयी हैं , उनमें हर बिंदु पर विस्तृत लेख हैं \ आपकी फीड बैक अपेक्षित है \
वेदप्रिय

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