Tuesday, November 2, 2021

गणतन्त्र की रक्षा में

 गणतंत्र की रक्षा में: बोस, नेहरू, अंबेडकर और गांधी की याद में

– आल इंडिया पीपुल्स साईंस नेटवर्क अभियान 23 से 30 जनवरी

 

भारत का संविधान 26 नवंबर को संविधान सभा में पारित किया गया, और 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ। इस संविधान ने भारत को एक धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में घोषित किया। इसका अर्थ यह है कि समाज के सभी वर्गों को, नस्ल, धर्म या जाति के बावजूद, राष्ट्र में पूर्ण अधिकार प्राप्त हैं।  इसी  संविधान में सम्माननीय जीवन स्तर का अधिकार भी शामिल है। यह वोही धर्मनिरपेक्ष भारत है जिसके लिए महात्मा गांधी ने अपना बलिदान दिया। आज दोनों ही सामाजिक और आर्थिक रूप से धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र और लोकतंत्र खतरे में हैं।p

अंबेडकर ने संविधान सभा को दिए गए अपने भाषण में स्पष्ट किया कि लोकतंत्र का अर्थ सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र दोनों से है; इनके बिना, लोकतंत्र सिर्फ एक नाम मात्र है। आर्थिक लोकतंत्र की इस दूरदर्शिता ने जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस को अंबेडकर के साथ एकजुट किया। उनके अनुसार, भारत को औद्योगिक और कृषि उत्थान के लिए न सिर्फ सार्वजनिक क्षेत्र की योजना और निर्माण की परम आवश्यकता है, बल्कि देश के सभी वर्गों के लिए विकास के लाभों को फिर से वितरित भी करना है। यह केवल अर्थव्यवस्था में राज्य के हस्तक्षेप से ही मुमकिन हो सकता है जिससे भारत को ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौर की गरीबी, अकाल, विषम जीवन प्रत्याशा और अशिक्षा से मुक्त कराया जा सके।

23 जनवरी (सुभाष बोस का जन्मदिन) से लेकर 30 जनवरी ( जब गोडसे द्वारा महात्मा गांधी की हत्या की गई थी) के इस सप्ताह को हमारे गणतंत्र के चार दिग्गजों – महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, बीआर अंबेडकर, और सुभाष चंद्र बोस को याद करें। इन चार नेताओं को एक लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष गणराज्य के प्रतिनिधित्व के रूप याद रखना बहुत महत्वपूर्ण है। आज हम सरकार के खुले समर्थन के साथ विशेष रूप से अल्पसंख्यकों और दलितों पर हिंसक हमलों को देखते हैं। आल इंडिया पीपुल्स साइंस नेटवर्क धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य के वचन के साथ एक राष्ट्रीय आन्दोलन के रूप में लोगों के साथ प्रचार करेगा, और इस लोकतंत्र को पटरी से उतारने के सभी प्रयासों का विरोध करेगा।
आज हम अम्बेडकर, बोस, पटेल और गांधी को नेहरू के खिलाफ मोर्चा खोलने की निरंतर कोशिशों को देखते हैं। ऐसा करने वाले लोगों का मानना है कि हमारी यादें कमजोर हैं, और हम अपने अतीत को भूल गए हैं। हां, निश्चित रूप से इन सभी नेताओं में आपसी मतभेद थे। वे मजबूत विचारों वाले नेता थे, उनके बीच असहमती भी होती थीं और कभी कभी बहुत कठोर मतभेद भी हो जाते थे, और यह सभी राष्ट्रहित कि दिशा में होते थे। लेकिन आरएसएस-हिंदू महासभा, भाजपा के वैचारिक संस्थापकों, और मुस्लिम लीग में नेताओं के विपरीत, वे सभी एक स्वतंत्र भारत के लिए अंग्रेजों के खिलाफ लड़े थे।

बोस ने तिरस्कारपूर्वक उल्लेख किया कि किस तरह हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग ब्रिटिश समर्थक थे, और कैसे उन्होंने खुद को राष्ट्रीय संघर्ष से बाहर रखा। उन्होंने और नेहरू ने भारत को गरीबी से बाहर निकालने के लिए योजना तैयार करने और विज्ञान में विश्वास किया। दोनों ने रूस में समाजवादी प्रयोग से प्रेरणा ली, जिसने दो दशकों में इसे अति पिछड़ेपन से बाहर निकालकर एक आधुनिक राष्ट्र में बदल दिया। उन दोनों का दृष्टिकोण धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी था। नेहरू, बोस के विपरीत, उस खतरे को भी समझते थे जिसमें फासीवादी ताकतों ने दुनिया का प्रतिनिधित्व किया था। बोस ने एक्सिस शक्तियों को दुश्मन का दुश्मन के रूप में देखा – ब्रिटिश उनका मुख्य दुश्मन था – और एक्सिस शक्तियों के साथ अस्थायी रूप से सहयोग देने के लिए तैयार थे। लेकिन, आरएसएस-हिंदू महासभा के विपरीत, वे स्वतंत्र भारत में अर्थव्यवस्था, आर्थिक लोकतंत्र और विज्ञान की योजना बनाने की अपनी इस सोच में एकजुट थे। ये वो मुंबो जंबो विज्ञान में नहीं था जिसका बखान हमारे पीएम के नेतृत्व वाले मंत्रियों का परिषद करता है।

बोस द्वारा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में 1938 में योजना आयोग स्थापित किया गया। इस आयोग ने नेहरू की अध्यक्षता में योजना समिति की सोच को आगे बढ़ाया। इसका समापन कर नीति अयोग नामक थिंक-टैंक से प्रतिस्थापन करना इस बात का संकेत हैं कि आर्थिक लोकतंत्र वर्तमान भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के एजेंडे में ही नहीं है। ऐसा न हो कि हम भूल जाएँ कि बोस और नेहरू को योजना बनाने में एक उत्साही विश्वास था, और वह एक स्वतंत्र भारत में सरकार का मार्गदर्शन करने के लिए योजना आयोग की आवश्यकता के बारे में बात करते थे।

भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन और लोकतंत्र के दो अन्य स्तंभ धार्मिक अल्पसंख्यकों और दलितों के प्रति सोच थी। अंबेडकर, बोस, नेहरू और गांधी, सभी का मनाना था कि भारत सभी लोगों के लिए एक धर्मनिरपेक्ष गणराज्य होना चाहिए। हम यह न भूलें कि भारतीय संविधान का आरएसएस द्वारा कटु विरोध किया गया और यह तर्क दिया गया कि भारत का संविधान मनुस्मृति, भारत के प्राचीन कानूनी पाठ, पर आधारित होना चाहिए। यह वही मनुस्मृति है जिसमें जाति विभाजित समाज का मूल पाठ है, और इसके मूल में पुरुषों और महिलाओं के बीच असमानता भी शामिल है। आरएसएस और जनसंघ ने मनु और मनुस्मृति की सरहाना करते हुए आंबेडकर का उपहास किया और उनको लिलिपुट कहा गया। आरएसएस के मुखपत्र द ऑर्गनाइज़र ने 30 नवंबर, 1949 के अंक में कहा गया:

भारत के नए संविधान के बारे में सबसे बदतरीन बात यह है कि इसमें कुछ भी भारतीय नहीं है। संविधान के प्रारूपकारों ने इसमें ब्रिटिश, अमेरिकी, कनाडाई, स्विस और विविध अन्य संविधान के तत्वों का समावेश किया है … लेकिन हमारे संविधान में, प्राचीन भारत में अद्वितीय संवैधानिक विकास का उल्लेख नहीं है। मनु का कानून स्पार्टा के लाइकुरस या फारस के सोलन से बहुत पहले लिखा गया था। आज भी मनुस्मृति में वर्णित उनके कानून की दुनिया प्रशंसा करती है और सहज आज्ञाकारिता और अनुरूपता का परिचय देती है। लेकिन हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए इसका कुछ भी मतलब नहीं है।

यह आश्चर्य की बात नहीं है कि भारतीय संविधान में विकास की अन्य सकारात्मक कार्यवाहियों अर्थात् शिक्षा और रोजगार में आरक्षण, का भी आरएसएस विरोध किया था। आज भी, आरएसएस के नेता आरक्षण के खिलाफ बोलते हैं  कि यह अलगाववाद को बढ़ावा देता है और इसे कैसे खत्म किया जाना चाहिए।

अल्पसंख्यकों और दलितों पर हालिया हमले, गाय के जीवन को मनुष्य के जीवन की तुलना में कहीं अधिक महत्वपूर्ण बनाने के लिए आंदोलन, हमारे धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमला है। यह वही ताकतें हैं जो अल्पसंख्यकों पर हमला करती हैं, जो आरक्षण पर हमला करती हैं, महिलाओं द्वारा प्रेम और स्वतंत्र रूप से शादी करने का अधिकार और उनके जीने के तरीकों पर हमला करती हैं। चाहे वो बोलने की आज़ादी हो या अपने धर्म और अपनी संस्कृति के अभ्यास करने का अधिकार, हमारी संस्कृति और लोकतंत्र के हर पहलू पर आज हमला हो रहा है।

यह सिर्फ देश के अल्पसंख्यकों पर हमला नहीं है। ये हमले तब से हो रहे हैं जब से भारत में उतनी ही असमानता हो गई है जितनी अंग्रेजों के अधीन रहते समय थी; जैसा कि फ्रांसीसी अर्थशास्त्री पिकेटी ने कहा था: ब्रिटिश राज से बिलियनेयर राज की ओर। आज क्रोनी कैपिटलिज्म देश पर शासन कर रहा है; जहां 1% लोगों के पास 73% भारतीयों के बराबर संपत्ति है। यह गणतंत्र के मूल संवैधानिक मूल्यों पर हमला है जो यह कहता है कि सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र, और जाति या पंथ के आधार पर समाज के किसी भी वर्ग के खिलाफ कोई भेदभाव नहीं। यह वही हैं जिसके खिलाफ हमें लड़ना है, यह एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य के लिए हमारी लड़ाई है जो हमारे पूर्वजों ने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान लड़ी थी।

Sunday, October 24, 2021

कोर्ट में पेंडिंग केसेज

 जनता के साथ हो रहे अन्याय के लिए केवल सरकार जिम्मेदार ******†***************""****************" ,,,, मुनेश त्यागी भारतवर्ष में इस समय 4 करोड़ 600000 मुकदमे पेंडिंग हैं। निचली अदालतों में इनकी संख्या चार करोड़ 25060 है। कोविड-19 शुरुआत पर यह संख्या 3 करोड़ 20 लाख थी। तीन स्तरीय न्यायिक व्यवस्था सुप्रीम कोर्ट, 25 हाई कोर्ट और जिला न्यायालय में एक साल पहले यह संख्या 3 करोड़ 70 लाख थी जो अब अब बढ़कर चार करोड़ 60 लाख हो गई है। 15 सितंबर 2021 के टाइम्स ऑफ इंडिया के अनुसार मार्च 2020 से केसों की संख्या एक करोड़ केस बढ़ गए हैं। सुप्रीम कोर्ट में मार्च 2020 को यह संख्या 60, 000 थी, जो अब बढ़कर 70,000 हो गई है। मार्च 2020 में हाईकोर्ट में मुकदमों की संख्या 46 लाख 4,000 थी जो अब बढ़कर 56,04,000 हो गई है। लोअर कोर्ट में यह संख्या मार्च 2020 में 3 करोड़ 20 लाख थी जो अब बढ़कर 4 करोड हो गई है। इस प्रकार देश में कुल 4 करोड़ 60 लाख मुकदमे पेंडिंग है। केस बढ़ने का एक मुख्य कारण न्याय व्यवस्था में ई-फाइलिंग का नहीं होना है यानी की न्याय व्यवस्था आधुनिक तकनीक का सही प्रयोग करने में नाकाम रही है।न्यायपालिका के तीनों स्तरों पर इन तकनीकों का फायदा नहीं उठा रही है जिसमें केस फाइलिंग करना, कोर्ट फीस दाखिल करना और पक्षकारों को समन भेजना शामिल हैं। इसका मुख्य कारण वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग, ब्रॉडबैंड, हाई स्पीड इंटरनेट और पूरा कंप्यूटरकरण न होना भी है। अधिकांश अदालतें इस आधुनिकतम तकनीक का उपयोग नहीं कर पा रही हैं और पुराने तौर-तरीकों से ही चिपकी हुई है। जिस कारण वादों की समय से सुनवाई नहीं होती और वादों का निपटारा लंबा होता चला जाता है। अदालतों में केस निस्तारण का समय से निस्तारण न होने का मुख्य कारण है न्यायालयों में मुकदमों के अनुपात में जजों का ना होना। हमारी 25 हाई कोर्ट में लगभग 40 परसेंट और लोअर ज्यूडिशरी में लगभग 30 परसेंट जजिज के पद खाली पड़े हुए हैं, उन्हें समय से भरने की सरकार कोई जरूरत नहीं समझती और लगातार मांग करने पर भी उन्हें नहीं भरा जा रहा है। अदालतों में पर्याप्त संख्या में स्टेनो और प्रक्षिशित स्टाफ नहीं है, जहां पर वर्षों से उनकी कमी मौजूद है जिस कारण न्यायिक अधिकारी गण मुकदमों का समय से निस्तारण नहीं कर पा रहे हैं। कई बार तो यह देखा गया है की जज वर्षों तक काम करते रहते हैं मगर उनके पास स्टेनो नहीं हैं और इस प्रकार वे मुकदमों का निस्तारण नहीं कर पाते और पक्ष कार न्याय की उम्मीद करते करते हार जाते हैं। भारत का संविधान सस्ते, सुलभ और शीघ्र न्याय का उद्घघोष करता है मगर सरकार की नीतियों के कारण यह नारा खोखला ही बना हुआ है। आज भी वादकारियों को जिला स्थान से हाई कोर्ट जाने में 600 मील से भी दूर जाना पड़ता है जो जनता द्वारा वहनीय नहीं है और सरकार वादकारिर्यों और वकीलों द्वारा आंदोलन करने पर भी इस और ध्यान नहीं देती, उसे अनसुना कर देती है। भारत का संविधान भी जनता को सस्ते और सुलभ न्याय की वकालत करता है मगर हमारी सरकारें जिन्होंने न्याय विरोधी रुख अपना रखा है वह संविधान के मैंडेट को भी सुनना और लागू करना नहीं चाहती और जनता को सस्ता सुलभ और शीघ्र न्याय नहीं देना चाहती इस मामले में अधिकांश सरकारों ने न्याय विरोधी और संविधान विरोधी रुख अपना रखा है। इस मामले में सभी सरकार दोषी हैं। चाहे सरकार बीजेपी की है, कांग्रेस की रही है, चाहे बीएसपी की रही है,या समाजवादी पार्टी की रही है। वे सब जनता को सस्ता सुलभ और शीघ्र न्याय देने के पक्ष में नहीं रही हैं। यह मुद्दा कभी उनके एजेंडे में ही नहीं रहा है। न्यायपालिका का बजट लगातार कम किया जा रहा है जो वर्तमान में .०२ परसेंट है जबकि वास्तव में यह कम से कम जीडीपी का 3 परसेंट होना चाहिए। हम लोग यूएसए, यूके, जापान, कनाडा, आस्ट्रेलिया आदि देशों की बात करते हैं मगर उनसे कुछ सीखना नहीं चाहते। यूएसए में और यूके में जीडीपी का 3 परसेंट न्यायपालिका पर खर्च किया जाता है। उपरोक्त विवरण से यह आसानी से कहा जा सकता है कि सरकार के एजेंडे में न्याय व्यवस्था नहीं है। वह जनता को समय से सस्ता, सरल और शीघ्र न्याय उपलब्ध नहीं कराना चाहती, वह मुकदमों के अनुपात में जज और स्टाफ की नियुक्ति नहीं करना चाहती, वह बजट का समुचित परसेंट जो लगभग 3 परसेंट हो सकता है, न्याय व्यवस्था पर खर्च नहीं करना चाहती और न्याय सरकार के एजेंडे में नहीं है। इसके लिए किसी दूसरे पक्ष को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। इसके लिए वकीलों या जनता को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। जनता को सस्ता, सुलभ और शीघ्र न्याय न देने के लिए केवल और केवल सरकारें जिम्मेदार हैं।

आशा मिश्रा जी

 भारत_में_शिक्षा ; #यूनेस्को_रिपोर्ट

🔴  ज्यों ज्यों दिन की बात की गयी, त्यों त्यों रात हुयी 
🔵 युनेस्को की 2021 की भारत में शिक्षा की स्थिति पर तीसरी रिपोर्ट अभी हाल में जारी हुयी। इसे 5 अक्टूबर विश्व शिक्षक दिवस पर जारी किया गया। रिपोर्ट में भारत में शिक्षा की स्थिति की हालत का इस रिपोर्ट के शीर्षक से ही पता चल जाता है। ‘‘शिक्षक नहीं - कक्षायें नहीं ’’ इसमें बिलकुल भी अतिरंजना नहीं है।  यह हमारे देश में शिक्षा की वास्तविक स्थिति है।  मुंबर्ह के टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के शोधकर्ताओं द्वारा यूनेस्को के दिशा निर्देश पर बनायी यह रिपोर्ट हमारे देश की शिक्षा की दयनीय स्थिति को उजागर करने वाली है। शिक्षा के अधिकार का कानून पारित करने के बावजूद इस स्थिति का होना खराब बात ही कहा जाएगा। 
🔵 इस रिपोर्ट के बाद यूनेस्को द्वारा दिये गये सुझाव गौरतलब हैं। यह रिपोर्ट बताती है कि आज भी इस देश में ग्रामीण और शहरी शिक्षा संस्थानों की गुणवत्ता में जमीन आसमान का अंतर है। मोदी सरकार की 2020 में पारित शिक्षा नीति की कड़ी आलोचना करते हुये यह रिपोर्ट कहती है कि आश्चर्य है कि जब सारे शिक्षा संस्थान कोरोना महामारी के चलते बंद थे तब यह नीति घोषित हुयी और स्कूलों-कॉलेजों के बंद रहते हुए ही इस साल उसका एक वर्ष मना भी लिया गया।
🔵 रिपोर्ट बताती है कि देश के 15 लाख 51 हजार स्कूलों में 96 लाख शिक्षक हैं। इनमें पचास प्रतिशत महिला शिक्षक हैं। मध्य प्रदेश में यही प्रतिशत 44 प्रतिशत है। 30 प्रतिशत से अधिक स्कूल शिक्षक उन निजी स्कूलों में हैं जिन्हे कोई सरकारी मदद नहीं मिलती है। केवल 50 प्रतिशत शिक्षक सरकारी स्कूलों में हैं।
🔵 मजेदार और सोचने वाली बात यह है कि शिक्षा जिसकी नींव पर पूरे समाज का ढांचा खडा होता है उसे निजी हाथों में देने की पैरवी करने वाली सरकार के आका अमरीका में भी सरकारी स्कूलों पर सबसे अधिक जोर दिया गया है और आज वहां पर सरकारी स्कूलों में पढ़ाने वाले शिक्षकों की संख्या 32 लाख और निजी स्कूलों के शिक्षकों की संख्या 4 लाख है।
🔵 रिपोर्ट के मुताबिक़ देश में एक लाख से अधिक स्कूल एक शिक्षक के भरोसे पर हैं। इसमें सबसे अधिक 21,077 स्कूल मध्य प्रदेश में हैं। यह कुल स्कूलों का 14 प्रतिशत का है। ये एक शिक्षक वाले 89 प्रतिशत स्कूल ग्रामीण इलाकों में हैं। और स्वाभाविक रूप से इन स्कूलों में किसी भी प्रकार की सुविधाओं के बारे में सोचा नहीं जा सकता है। यह इकलौते मास्साब भी स्कूल कितने दिन जा पाते होंगे क्योंकि उन्ही पर सरकारी योजनाओं के आंकड़े इकट्ठा करने से लेकर सारे कामकाज का बोझा भी लदा हुआ है। 
🔵 इस पूरी स्थिति वाले देश के मुकाबले केरल एकदम अलग दिखायी देता है जहां पर 88 प्रतिशत स्कूलों में जिसमें 80 प्रतिशत ग्रामीण स्कूल भी शामिल हैं इंटरनेट की सुविधा है, लाइब्रेरी है, 90 प्रतिशत से अधिक स्कूलों में मुफ्त किताबों का वितरण होता है। यहां पर 99 प्रतिशत में साफ पीने के पानी की सुविधा है, 98 प्रतिशत स्कूलों में लड़कियों के लिये अलग शौचालय है और 99 प्रतिशत स्कूलों में अबाध बिजली की सुविधा है। डिजिटल इंडिया का नारा देने वाली भाजपा के द्वारा शासित प्रदेशों के स्कूलों में इंटरनेट की स्थिति उनमें बिजली की उपलब्धता से देखी जा सकती है। मध्य प्रदेश के केवल 11 प्रतिशत स्कूलों में इंटरनेट की सुविधा है।
🔵 इस रिपोर्ट से देश की सरकार और शिक्षा मंत्रालय के कानों पर जूं भी नहीं रेेंगने वाली है क्योंकि एक अर्धशिक्षित और कुशिक्षित पीढ़ी तैयार करने का काम इस देश की भाजपा की सरकारें बड़ी तेजी से कर रही हैं। उनके लिए इसी तरह की जनता मुफीद है।  इनके विद्यालय व्हाट्स अप पर  हैं और भाजपा की आई टी सेल इनके शिक्षक हैं। इतिहास में झांकने से ऐसी पीढियां तैयार करने वाले दो देशों के भयानक उदाहरण देखे जा सकते हैं जर्मनी और जापान जिन्होने अपनी पूरी नौजवान पीढी को आज्ञाकारी, झूठ पर गर्व करने वाली नस्लवादी सोच की पीढ़ी के देशों में बदल कर रख दिया था और जो हुआ वह द्वितीय विश्वयुद्ध के रूप में हमारे सामने था।
🔵 शिक्षा की स्थिति पर युनेस्को की यह रिपोर्ट आंखें खोलने वाली है इसीलिये इतिहास की गलतियों से सबक लेकर इस दिशा में काम करना शुरू करना और स्थाई वैश्विक लक्ष्य 2030 हासिल करने की ओर बढना पूरे देश की जनता की जिम्मेदारी है।

Thursday, July 15, 2021

कृषि संकट 

 कृषि संकट 

हमारे देश का बड़ा सरमायेदार वर्ग आज एक निर्णायक संकट का सामना कर रहा है। वह अंतरराष्ट्रीय भी पूंजी के साथ गठजोड़ करते हुए दोनों उत्पादक वर्गों मतलब किसानों और मजदूरों के शोषण को तेज कर के संकट को दूर करने के भ्रम में हैं ।  न्यूनतम मजदूरी व कई अन्य लाभों को नकारने वाली चार श्रम संहिताओं और कृषि उपज के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य को नकारने वाले तीन कृषि अधि- नियमों का लाया जाना इस दिशा में उठाए गए कदम ही हैं । दूसरी ओर, किसान और मजदूर वर्ग को कॉरपोरेट के दबदबे का सामना करने के लिए मजबूर किया जाता है । यह हालत उनके गंभीर दरिद्रता पैदा करेंगे और उनकी क्रय शक्ति में गिरावट का कारण बनेंगे जो कि पूंजीवाद को और गहरे संकट की ओर ले जाएंगे ।
        भारत में सामाजिक प्रगति का प्रमुख पहलू किसी प्रश्न का समाधान है। आजादी के बाद भारतीय राज्य का नेतृत्व करने वाले बड़े सरमायेदार वर्ग ने व्यापक भूमि सुधारों को लागू करने के बजाय, जमीदार वर्ग के साथ गठबंधन किया। कृषि सुधारों के माध्यम से कृषि आधारित उद्योगों पर जोर देते हुए घरेलू औद्योगिकरण के आधार पर उत्पादक शक्तियों को आगे बढ़ाने के बजाय, उन्होंने अंतरराष्ट्रीय वित पूंजी के साथ सहयोग करके विकास के नव उदारवादी मॉडल के लिए आत्मसमर्पण कर दिया। भारत में पूंजीवादी संकट का प्रमुख कारण भूमि का केंद्रीय करण है। भाजपा की अगुवाई वाली केंद्र सरकार विशाल किसान वर्ग के हितों की रक्षा के लिए व्यापक भूमि सुधार करके और कृषि आधारित उद्योग विकसित करने की जगह कृषि संकट के समाधान के रूप इन कृषि के निगमीकरण के प्रस्ताव को आगे बढ़ा रही है । इस प्रकार की गलत नीति के कारण ही देश भर में जहां भी किसान संघर्षरत है, भाजपा का जनाधार  खिसकना शुरू हो गया है ।
       तीनों कृषि अधिनियम कार्पोरेट बलों के हितों का प्रतिनिधित्व करते हैं। जबकि किसानों के हितों की रक्षा के लिए कानून लाए जाने की जरूरत है। गरीब व मंझोले किसान परिवारों और खेत मजदूरों को कृषि क्षेत्र से बाहर करने से गंभीर सामाजिक राजनीतिक प्रभाव पड़ेगा और असल में मौजूदा किसान संघर्ष वास्तव में इसी खतरे का प्रतिरोध कर रहे हैं । अंतर्राष्ट्रीय वित्त पूंजी के साथ गठजोड़ कर काम करने वाले बड़े पूंजीपति वर्ग ने बड़े पैमाने पर किसानों के साथ वर्ग संघर्ष को तेज करने की संभावनाएं पैदा की हैं जिसमें अमीर किसानों तथा जमींदारों  के वर्ग भी शामिल हैं।  शासक वर्ग में सत्ता के साझेदारों के बीच इस संघर्ष ने मजदूर वर्ग , गरीब किसान व खेत मजदूरों के लिए कार्पोरेट -जमींदार प्रभुत्व के खिलाफ वर्ग संघर्ष को तेज करने की संभावनाएं पैदा की हैं। विनिवेश के जरिए हमारी राष्ट्रीय संपत्ति की लूट के साथ नव उदारवादी आर्थिक सुधारों को जबरदस्ती आगे बढ़ाने और अंधाधुंध निजीकरण ने बड़े पूंजीपतियों और गैर- पूंजी पतियों के बीच एक नए अंतर्द्वंदों को जन्म दिया है।  इन अंतर्द्वंदों ने भाजपा के खिलाफ व्यापक एकता बनाने के लिए संभावनाएं और क्षमताएं पैदा की हैं।

Monday, May 24, 2021

कॉपरनिकस

 कोपरनिकस की महान क्रांतिकारी रचना ने कैसे पादरियों और धर्मगुरूओं के बनाए संसार को उसकी धुरी से रपटा दिया था।


अशोक पाण्डे की वाल से


ब्लैक डैथ एक ऐसी महामारी थी जिसने यूरोप की आधी आबादी का सफाया कर दिया था. 14वीं शताब्दी के इस त्रासद दौर के बाद अगले तीन सौ बरस तक यूरोप ने अपना पुनर्निर्माण किया. ग्रीक और रोमन सभ्यताओं के ज्ञान को दोबारा से खोजा गया. कला और विज्ञान के प्रति लोगों में नई दिलचस्पी जागी और पढ़े-लिखे लोगों ने इस सिद्धांत का प्रचार-प्रसार किया कि आदमी के विचारों की क्षमता असीम है और एक जीवन में वह जितना चाहे उतना ज्ञान बटोर कर सभ्यता को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण योगदान कर सकता है. तीन सौ बरस का यह सुनहरा अंतराल रेनेसां यानी पुनर्जागरण कहलाया.


रेनेसां के मॉडल के तौर पर अक्सर पोलैंड के निकलॉस कॉपरनिकस का नाम लिया जाता है. गणितज्ञ और खगोलशास्त्री कॉपरनिकस चर्च के कानूनों के ज्ञाता, चिकित्सक, अनुवादक, चित्रकार, गवर्नर, कूटनीतिज्ञ और अर्थशास्त्री भी थे. उनके पास वकालत में डॉक्टरेट की डिग्री थी और वह पोलिश, जर्मन, लैटिन, ग्रीक और इटैलियन भाषाओं के विद्वान थे. 19 फरवरी 1473 को तांबे का व्यापार करने वाले परिवार में जन्मे कॉपरनिकस चार भाई-बहनों में सबसे छोटे थे. दस के थे जब माता-पिता दोनों का देहांत हो गया. आगे की परवरिश मामा ने की. 


मामा ने ही उन्हें क्राकाव यूनिवर्सिटी पढने भेजा जहां उन्होंने गणित, ग्रीक और इस्लामी खगोलशास्त्र का अध्ययन किया. वहां से लौटने के बाद मामा ने आगे की पढ़ाई के लिए अपने काबिल भांजे को इटली भेजने का मन बनाया. यातायात के साधन दुर्लभ थे और दो महीनों की लम्बी पैदल यात्रा के बाद कॉपरनिकस किसी तरह इटली पहुंचे जहाँ अगले छः साल तक यूरोप के सबसे प्राचीन और सर्वश्रेष्ठ दो अलग-अलग विश्वविद्यालयों – बोलोना और पाडुआ – में उनकी पढ़ाई हुई. यहीं उन्होंने उन सारी चीजों पर सवाल करना शुरू किया जो उनके अध्यापक कक्षाओं में पढ़ाया करते रहे थे. ब्रह्माण्ड की संरचना के बारे में अरस्तू और टॉल्मी के सिद्धान्तों में उन्हें घनघोर विसंगतियां नजर आईं. 


1503 में जब वे वापस घर लौटे उनकी उम्र तीस की हो चुकी थी. मामा प्रभावशाली आदमी थे और उनकी सिफारिश पर उन्हें स्थानीय चर्च में कैनन की नौकरी मिल गई. इस पेशे में उन्हें नक्शे बनाने के अलावा टैक्स इकठ्ठा करना और चर्च का बही-खातों को देखना होता था. आराम की नौकरी थी. 1510 में मामा सिधार गए. 


कॉपरनिकस ने अपना अलग घर बनाया और अपने खगोलीय अध्ययन के वास्ते एक टावर बनवाई. उस समय तक टेलीस्कोप का अविष्कार नहीं हुआ था. लकड़ियों और धातु के पाइपों की मदद से वे नक्षत्रों की गति का अध्ययन किया करते. 1514 में उन्होंने एक वैज्ञानिक रपट लिख कर अपने दोस्तों को बांटी. भौतिकविज्ञान के इतिहास में इस रपट को अब ‘द लिटल कमेंट्री’ के नाम से जाना जाता जाता है. कॉपरनिकस ने दावा किया कि धरती सूरज के चारों ओर घूमती है न कि सूरज धरती के, जैसा कि धर्मशास्त्रों में लिखा था. इस सिद्धांत से अरस्तू और टॉल्मी के सिद्धान्तों की दिक्कतें दूर हो जाती थीं. इस शुरुआती काम के बाद अगले दो दशक गहन अध्ययन के थे.  


1532 के आते-आते कॉपरनिकस अपने सिद्धांतों को एक पांडुलिपि का रूप दे चुके थे. इसका प्रकाशन उन्होंने जानबूझ कर रोके रखा क्योंकि उन्हें आशा थी वे कुछ और सामग्री जुटा सकेंगे. इसके अलावा उन्हें यह भय भी था कि पादरी लोग भगवान के नाम पर बड़ा बखेड़ा खड़ा करेंगे. कुछ सालों बाद जर्मनी से एक नामी गणितज्ञ जॉर्ज रेटीकस उनके साथ काम करने पोलैंड आए. कॉपरनिकस अड़सठ के हो चुके थे जब उनकी सहमति से संशोधित पांडुलिपि को लेकर जॉर्ज रेटीकस नूरेमबर्ग पहुंचे जहाँ योहान पेट्रीयस नाम के प्रिंटर ने उसे ‘ऑन द रेवोल्यूशंस ऑफ द हेवनली स्फीयर्स’ नामक क्रांतिकारी किताब की शक्ल दी. 


किताब की शुरुआत में कॉपरनिकस एक रेखाचित्र के माध्यम से ब्रह्माण्ड के आकार के बारे में बताया. इसमें सूर्य को केंद्र में रख उन्होंने उसके चारों तरफ अलग- अलग कक्षाओं में परिक्रमा करने वाले सभी ग्रहों को दिखाया गया था. जटिल गणनाओं के बाद उन्होंने यह भी बताया था कि इनमें से हर ग्रह को सूर्य का एक फेरा लगाने में कितना समय लगता है. आज के उन्नत खगोलविज्ञान और उसकी तकनीकों की मदद से जो ग्रहों की परिक्रमा का जो समय निकलता है, कॉपरनिकस की गणना आश्चर्यजनक रूप से उसके बहुत करीब है. 


किताब छपकर नहीं आई थी और लम्बे समय से बीमार कॉपरनिकस कोमा में जा चुके थे. बताते हैं कि जब पहली प्रति उनके पास पहुंचाई गई वे बेहोशी से उठ बैठे और लम्बे समय तक आंखें मूंदे किताब को थामे रहे. कुछ दिनों बाद उनकी मौत हो गई. वे यह देखने को जीवित नहीं बचे कि कैसे उनकी महान क्रांतिकारी रचना ने पादरियों और धर्मगुरुओं के बनाए संसार को उसकी धुरी से रपटा दिया था. 


जाहिर है कॉपरनिकस की किताब ने धर्म के कारोबारियों को बौखला दिया. चर्च का आधिकारिक बयान आया जिसमें किताब “झूठा और पवित्र धर्मशास्त्र की खिलाफत करने वाला” बताया गया. 


कोई 60 साल बाद इटली के ब्रूनो को सिर्फ इसलिए ज़िंदा जलाए जाने की सजा दी गयी कि उसने कॉपरनिकस के सिद्धांत का प्रचार-प्रसार किया. इसी अपराध के लिए गैलीलियो को भी ज़िंदा तो नहीं जलाया गया अलबत्ता उसके समूचे जीवन को अपमान और तिरस्कार से भर दिया गया. 


आज जब आदमी मंगल पर घर बनाने की कल्पना कर रहा है हमने कॉपरनिकस को याद रखना चाहिए, समूचे अन्तरिक्षविज्ञान की बुनियाद में जिसकी चालीस-पचास सालों की साधना चिनी हुई है. कॉपरनिकस का जीवन बताता है सच्चाई की खोज कभी निष्फल नहीं जाती और उसकी रोशनी सदियों बाद तक आदमी के रास्ते को आलोकित करती रहती है. 


1543 में आज ही के दिन कॉपरनिकस की देह की मृत्यु हुई. उनकी आत्मा दुनिया भर की प्रयोगशालाओं में जीवित है.

आज का हरियाणा.बहस के लिए:-

 आज का हरियाणा.बहस के लिए:-

1857 की आजादी की पहली जंग में हरियाणा वासियों की काफी महत्वपूर्ण हिस्सेदारी रही। मगर उसके बाद विभाजन कारी ताकतों का सहारा लेकर अंग्रेजो ने हरियाणा की एकता को काफी चोट पहुंचाई। बाद में हरियाणा में यह कहावत चली कि साहब की अगाड़ी और घोड़े की पिछाड़ी नहीं होना चाहिये . नवजागरण के दौर में हरियाणा में आर्य समाज भी काफी लेट आया। महिला शिक्षा पर बहुत जोर लगाया आर्य समाज ने मगर सहशिक्षा का डटकर विरोध किया। एक और कहावत का चलन भी हुआ
'म्हारे हरियाणा की बताई सै या विद्या की कमजोरी'
'बांडी बैल की के पार बसावै जब जुआ डालदे धोरी'।
आज का साम्राज्यवाद पहले के किसी भी समय के मुकाबले ज्यादा संगठित,ज्यादा हथियारबन्द और ज्यादा विध्वंसक है। नवस्वतंत्र या विकासशील देशों की खेतियों, देसी उद्योग धन्धों और सामाजिक संस्कृतियों को तबाह करने पर लगा है। दुनिया भर में साम्राज्यवादी वैश्वीवीकरण की यही विध्वंसलीला हम देख रहे हैं। नव सांमन्तवाद और नवउदारीकरण का दौर हरियाणा में पूरे यौवन पर नजर आता है। जहां एक तरफ हरियाणा ने आर्थिक तौर पर किसानों और कामगरों तथा मध्यमवर्ग के लोगों के अथक प्रयासों से पूरे भारत में दूसरा स्थान ग्रहण किया है वहीं दूसरी तरफ हरियाणा के ग्रामीण समाज का संकट शहरों के मुकाबले ज्यादा तेजी से गहराता जा रहा है। सामाजिक सूचकांक चिन्ताजनक स्थिति की तरफ इशारा करते नजर आते हैं।भूखी, नंगी, अपमानित और बदहाल आाबादी के बीच छदम सम्पन्नता के जगमग द्वीपों जैसे गुड़गांव पर जश्न मनाते इन नये दौलतमंदों का सफरिंग हरियाणा से कोई वासता नजर नहीं आता। कुछ भ्रष्ट राजनितिज्ञों, भ्रष्ट पुलिस अफसरों, भ्रष्ट नौकरशाहों तथा भ्रष्ट कानून के रखवालों , गुण्डों के टोलों के पचगड्डे ने काले धन और काली संस्कृति को हरियाणा के प्रत्येक स्तर पर बढ़ाया है। फिलहाल देश के और हरियाणा के दौलतमंदों का बड़ा हिस्सा साम्राज्यवादी वैश्वीकरण का पैरोकार बना हुआ नजर आता है। वह सुख भ्रान्ति का शिकार है या समर्पण कर चुका है। वह पूरे हरियाणा या पूरे देश के बारे में नहीं महज अपने बारे में सोचता है। फसलों की जमीन के बढ़ते बांझपन के कारण पैदावार कम से कमतर होती जा रही है। तालाबों पर नाजायज कब्जे कर लिये गये जिनके चलते उनकी संख्या कम हो गई और जो बचे उनके आकार छोटे होते गये। अन्धाधुन्ध कैमिकल खादों और कीट नाशकों और घास फूसी नाशिकों के इस्तेमाल के कारण जमीन के नीचे का पानी प्रदूशित होता जा रहा है। गांव की शामलात जमीनों पर दबंग लोगों ने कब्जे जमा लिए हैं। सरकारी पानी की डिगियों की बुरी हालत है। पीने के पानी का व्यवसायिकरण बहुत से गावों में टयूबवैलों के माध्यम से हो गया। ।पानी के नलकों की टूटियां गायब हैं | पानी की वेस्टेज बहुत ज्यादा है | इसीलिये गलियों का बुरा हाल है | यदि पक्की भी हो गई हैं तो भी पानी की निकासी का कोई भी उचित प्रबन्ध न होने के कारण जगह जगह पानी के चब्बचे बन गये हैं जो बहुत सी बीमारियों के जनक हैं। बिजली ज्यादातर समय गुल रहती है। बैल आमतौर से कहीं कहीं बचे हैं।भैंसो का पालन बढ़ा है | भैंसों के सुआ लगा कर दूध निकालने की कुरीति बढ़ती जा रही है। सब्जियों में भी सुआ लगाने का चलन बहुत बढ़ता जा रहा है। खेती की जोत का आकार कम से कमतर हुआ है और दो एकड़ या इससे कम जोत के किसानों की संख्या किसी भी गांव में कुल किसानों की संख्या में सबसे जयादा है।किसानों और खेती के तरीकों में कई बदलाव दिखाई देते हैं | गांव के सरकारी स्कूलों का माहौल काफी खराब हो रहा है। इन स्कूलों में खाते पीते व दबंग परिवारों के बच्चे नहीं जाते। इसलिए उनकी देखभाल भी नहीं बची है। दलित और बहुत गरीब किसान परिवार के बच्चे ही इन स्कूलों में जाते हैं। उपर से सैमैस्टर सिस्टम और बहुत दूसरी नीतिगत खामियों के चलते माहौल और खराब हो रहा है।इस सबके चलते प्राइवेट स्कूलों की बाढ़ सी आ गई है। उंची फीसें इन प्राइवेट स्कूलों का फैशन बन गया है। बीएड के कालेजों की एक बार बाढ़ आई, फिर नर्सिंग कालेजो की और फिर डैंटल कालेजों की। ज्यादातर प्राईवेट सैक्टर में हैं। बी एड कालेजों में से ज्यादातर बन्द होने के कगार पर हैं। प्राईवेट सैक्टर में दुकानदारी बढ़ी है और शिक्षा की गुणवता काफी कम हुई है। प्राइवेट विश्व विद्यालयों की सांख्य में भी काफी बढ़त दिखाई दे रही है | इन की समीक्षा अपने आप में एक लेख की मांग करती है। स्वास्थ्य के क्षे़त्र में 90 के बाद प्राईवेट सैक्टर 57 प्रतिशत हो गया है। गांव के सबसैंटर में,प्राईमरी स्वास्थ्य केन्द्र में या सामुदायिक स्वास्थय केन्द्र में क्या हो रहा है यह गांव के दबंगों की चिन्ता का मसला कतई नहीं है। बल्कि इनमें काम करने वाले कुछ भ्र्ष्ट कर्मचारियों के साथ सांठगांठ करके ठीक काम करने वाले डाक्टरों व दूसरे कर्मचारियों को परेशान किया जाता है। कहने को संस्थागत प्रसव का प्रतिशत बढ़ा है | गांव में सरकार द्वारा बनाई गई डिगियों का इस्तेमाल न के बराबर हो रहा है जिसके चलते प्राइवेट ट्यूबवैलों से पानी खरीदना पड़ रहा है । अब भी पीने के पानी के कुंए अलग अलग जातियों के अलग अलग हैं। बहुत कम गांव हैं जहां सर्वजातीय कुँए हैं। खेती में ट्रैक्टर का इस्तेमाल बहुत बढ़ गया है। आज ट्रैक्टर से एक एकड़ की बुआही के रेट 500 से 550 रुपये हो गये हैं। ट्यूबवैल से एक एकड़ की सिंचाई के रेट 80 रुपये घण्टा हो गये हैं। थ्रैशर से गिहूं निकालने के रेट1500रुपये प्रति एकड़ हो गये हैं। हारवैस्टर कारबाईन से गिहूं कटवाने के 1400 रुपये प्रति एकड़ और निकलवाने के रैपर के रेट 1200 प्रति एकड़ हो गये हैं। बड़ी बड़ी बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का सामान हरेक गांव की छोटी से छोटी दुकानों पर आम मिल जाता है। 8.10 दुकानों से लेकर 40.50 दुकानों का बाजार छोटे बड़े सभी गांव में मौजूद है। छोटी छोटी किरयाने की दुकानों पर दारु के प्लास्टिक के पाउच आसानी से उपलब्ध हैं। पहले का डंगवारा जिसमें एक एक बैल वाले दो किसान मिलकर खेती कर लेते थे बिल्कुल खत्म हो गया है। पहले दो एकड़ वाला 10 एकड़ वाले की जमीन बाधे पर लेकर बोता रहा है और काम चलाता रहा है। साथ एक दो भैंस भी रखता रहा है जिसका दूध बेचकर रोजाना के खर्चे पूरे करता है। पहले कहावत थी "दूध बेच दिया इसा पूत बेच दिया"। आज दूध भी बेचना पड़ता है और बेटा भी बेचना पड़ता है। मगर आज 10 किल्ले वाला भी दो किल्ले वाले की जमीन बाधे पर लेकर बोता है। खेती में मशीनीकरण तेजी से हुआ और हरित क्रांन्ति का दौर शुरु हुआ। हरित क्रान्ति ने बहुत नुकसान किये हैं जो अपने आप में एक बहस और रिसर्च का विषय है। मगर किसानी के एक हिस्से को लाभ भी बहुत हुआ है। एक नया नवधनाढ़य वर्ग पैदा हुआ है हरियाणा में जिसका हरियाणा के हरेक पक्ष पर पूरा कब्जा है। इन्ही के दायरों में अलग अलग जातों के नेताओं का उभरना समझ में आता हैं । मसलन चौधरी देवीलाल जाटों के नेता, चौधरी चान्द राम दलितों के नेता. उनमें भी एक हिस्से के.। पंडित भगवतदयाल शर्मा पंडितों के नेता , राव बिरेन्द्र सिंह अहीरों के नेता आदि। आज इन जाटों के नेताओं में भी एक ही जात में प्रतिष्पर्धा बढ़ी है। इस धनाढ़य वर्ग का एक हिस्सा आढ़तियों में शामिल हो गया है। सब आढ़तिये कम जमीन वाले किसान की कई तरह से खाल उतार रहे हैं । पुराने दौर के परिवारों में से डी एल एफ ग्रूप और जिन्दल ग्रूपों ने राष्ट्रीय स्तर पर पहचान बनाई है। इसी धनाढ़य वर्ग में से कुछ भठ्ठों के मालिक हो गये हैं | दारु के ठेकों के ठेकेदार हैं, प्राप्रटी डीलर बन गये हैं। नेताओं के बस्ता ठाउ भी इन्ही में से हैं। हरेक विभाग के दलाल भी इन्हीं लोगों में से पैदा हुए हैं। इन ज्यादातरों के और भी कई तरह के बिजिनैश हैं। इनका जीवन ए सी जीवन में बदल गया है चाहे शहर में रहते हों या गांव में। हर तरह के दांव पेच लगाने में यह तबका बहुत माहिर हो गया है। जिन लोगों की हाल में जमीने बिकी हैं उन्होंने पैसा इन्वैस्ट करने का मन बनाया मगर पैसा लगाने की उपयुक्त जगह न पाकर वापिस गांव में आकर मकान का चेहरा ठीक ठ्याक कर लिया और एक 8.10 लाख की गाड्डी कार ले ली। एक मंहगा सा मोबाइल ले लिया। जिनके पास कई एकड़ जमीन थी और संयुक्त परिवार था उन्होंने सिरसा की तरफ या कांशीपुर में या मध्यप्रदेश में खेती की जमीनों में यह पैसा लगा दिया। कुछ लोगों ने 200 से 300 गज का प्लॉट शहर में लेकर सारा पैसा वहां मकान बनाने पर खर्च कर दिया। आगे क्या होगा उनका कुछ नहीं कहा जा सकता। इन बिकी जमीनों पर जीवन यापन करने वाले खेत मजदूर और बाकी के तबकों का जीना मुहाल हो गया है।बड़ी मुश्किल में है इनका जीवन यापन। ऊपर से दारू का चलन भी इन तबकों में भी बढ़ा है। यह दबंगों और मौकापरस्तों के समूह हरेक कौम में पैदा हुए हैं। इनका वजूद जातीय , गोत्रों और ठोले पाने की राजनिति पर ही टिका है। ज्यादातर गांव में सड़कें पहुंच गई हैं बेशक खस्ता हालत में हों बहुत सी सड़कें। किसी भी गांव में चार पहियों के वाहनों की संख्या भी बढ़ी है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के प्रोडक्ट ज्यादातर गावों में मिलने लगे हैं। टी वी अखबार का चलन भी गांव के स्तर पर बढ़ा है। सीडी प्लेयर तो बहुत सें घरों में मिल जाएगा। मोबाइल फोन गरीब तबकों के भी खासा हिस्से के पास मिल जाएगा। संप्रेषन के साधन के रुप में प्रोग्रेसिव ताकतों को इसके बारे में सोचना होगा। माइग्रेटिड लेबर की संख्या ग्रामीण क्षेत्र में भी बढ़ रही है। किसानी के एक हिस्से में अहदीपन बढ़ रहा है।गाँव में कई परतें बन गई लगती हैं आर्थिक समानताओं के बढ़ते जाने क्र कारण। गांव की चौपालों की जर्जर हालत हमारे सामूहिक जीवन के पतन की तरफ इशारा करती है। नशा , दारु और बढ़ता संगठित सैक्स माफिया सब मिलकर गांव की संस्कृति को कुसंस्कृति के अन्धेरों में धकेलने में अहम भूमिका निभा रहे हैं।पुरुष प्रघान परिवार व्यवस्था में छांटकर महिला भ्रूण हत्या के चलते ज्यादातर गांव में लड़कियों की संख्या काफी कम हो रही है। बाहर से खरीद कर लाई गई बंहुओं की संख्या में लगातार बढ़ोतरी हो रही है। पुत्र लालसा बहुत प्रबल दिखाई देती है यहां के माईडं सैट में। हर 10 किलो मीटर पर शर्तिया छोरा के लिए गर्भवती महिला को दवाई देने वाले मिल जाएंगे। उंची से उंची पढ़ाई भी हमारे दकियानूसी विचारों में सेंध लगाने में असफल रही लगती है।बल्कि अंधविश्वासों को बढ़ावा भी दिया जा रहा लगता है। जैंडर बलाइन्ड और साइंटिफिक टेम्पपर रहित उच्च शिक्षा ने महिला विरोधी सामन्ती सोच को ही पाला पोसा लगता है। हमारे आपस के झगड़े बढ़े हैं। इस सबके चलते महिलाओं पर घरेलू हिंसा में बढ़ोतरी हुई है। महिलाओं पर बलात्कार के केस बढ़े हैं। महिलाओं के साथ छेड़छाड़ आदि के केस बढ़े हैं जिनमें से ज्यादातर केस दर्ज ही नहीं हो पाते। कचहरियों में तलाक के केसिज की संख्या बेतहासा बढ़ रही है। सल्फास की गोली खाकर हर रोज 1 या 2 नौजवान मैडीकल पंहुच जाते हैं। 30. से 40 ट्रक ड्राईवर ज्यादातर गांव में मिल जाएंगे । एडस की बीमारी के इनमें से ज्यादातर वाहक हैं। सुबह से लेकर शाम तक ताश खेलने वाली मंडलियों की संख्या बढ़ती जा रही है। युवा लड़कियों का यौन शोषण संगठित ढ़ंग से किया जा रहा है तथा सैक्स रैकेटियर बहुत से गांवों तक फैल गये लगते हैं। इसके अलावा युवा लड़कियों में शादी से पहले गर्भ की तादाद बढ़ रही है। मौखिक तौर पर कुछ डाक्टरों का कहना है कि इस प्रकार के केसिज में 50 प्रतिशत से ज्यादा परिवार के सदस्य, रिस्तेदार या पड़ौसी ही होते है जो यौन षोशण करते हैं । महिला न घर के अन्दर सुरक्षित रही है न घर से बाहर। युवा लड़कियों का गांव की गांव में यौण उत्पीड़न हरियाणवी ग्रामीण समाज की भयंकर तसवीर पेश करता है। गांव के युवाओं .लड़के लड़कियों . को अपनी स्थगित ऊर्जा का सकारात्मक इस्तेमाल करने का कोई अवसर हमारी दिनचर्या में नहीं है। इस सब के बावजूद बहुत सी लड़कियों व महिलाओं ने खेलों में हरियाणा का नाम रोशन किया है। केबल टीवी ज्यादातर बड़े गांव में पहुंच गया है। टी वी में आ रही बहुत सी अच्छी बातों के साथ साथ देर रात बहुत सी जगह बल्यू फिल्में दिखाई जाती हैं। युवाओं में आत्म हत्या के केसिज बढ़ रहे हैं। महिलाओं के दुख सुख की अभिव्यक्ति महिला लोक गीतों में साफ झलकती दिखाई देती है। हमारे सांगों में पितृसतात्मक मूल्यों का बोलबाला दिखाई देता है। इसके साथ साथ महिला विरोधी और दलित विरोधी रुझान भी साफ झलकते हैं। मूल्यों के संदर्भ में हमारा साहित्य दबंग के हित की संस्कृति का ही निर्वाह करता नजर आता है खासकर ज्यादातर सांगों के कथानक में। पूरे हरियाणवी चुटकलों के भण्डार में एक सेकुलर चुटकुला मिलना मुश्किल। झगड़ों में इन्होंने समझौते करवाये उनमें 100 में से 99 फैंसले दबंग के हक में और पीड़ित के खिलाफ किये गये। बहोत बार बलात्कारी के केस के समझौतों में बलात्कारी को ही राहत दिलवाई गई। कत्ल के केस में जेल में बन्द कुछ कातिलोन को ही राहत दिलवाई जाती है । तरीके अलग अलग हो सकते हैं मगर नतीजे हमेशा पीड़ित के खिलाफ ही हुए। कमजोर के हक में न्यायकारी फैंसला शायद ही कोई हों। इसी प्रकार ब्याह शादी के मामलों में गांव की गांव और गोत की गोत का केस एक मनोज बबली का ही केस है। बाकी सारे के सारे केस दो गौतों के बीच के हैं जिनमें ज्यादातर में बच्चों के माता पिताओं को बहन भाई बन कर रहने के फतवे जारी किए गये हैं और प्रेमियों के कत्ल किये गये हैं। या दूसरी तरह के उत्पीड़न किये गये हैं। राई का पहाड़ बनाया जा रहा है। असली मुद्दों से युवाओं का ध्यान बांटा जा रहा है। भावनात्मक स्तर पर लोगों की भावनाओं से खिलवाड़ किया जा रहा है। किसानी के संकट से किसानों को दिशा भ्रमित किया जा रहा है। गांव के युवा लड़के और लड़की जिन्दगी के चौराहे पर खड़े हैं। एक तरफ नवसामन्तवादी और नवउदारवादी अपसंस्कृति का बाजार उन्हें अपनी ओर खींच रहा है। दूसरी ओर बेरोजगारी युवाओं के सिर पर चढ़ कर इनके जीवन को नरक बनाए है। नशा , दारु, सैक्स व पोर्नोग्राफी उसको दिशा भ्रमित करने के कारगर औजारों के रुप में इस्तेमाल किए जा रहे हैं। साथ ही समाज में व्याप्त पिछड़े विचारों और रुढ़ियों को भी इस्तेमाल करके इनका भावनात्मक शोषण किया जा रहा है। हरियाणा में खाते पीते मध्यमवर्ग और अन्य साधन सम्पन्न तबकों का साम्राज्यवादी वैष्वीकरण को समर्थन किसी हद तक सरलता से समझ में आ सकता है जिनके हित इस बात में हैं कि स्त्रियां,दलित,अल्पसंख्यक और करोड़ों निर्धन जनता नागरिक समाज के निर्माण के संघर्ष से अलग रहें। लेकिन साधारण जनता अगर फासीवादी मुहिम में शरीक कर ली जाती है तो वह अपनी भयानक असहायता, अकेलेपन, हताषा, अवरुद्ध चेतना , पूर्व ग्रहों, उदभ्रांत कामनाओं के कारण शरीक होती है। फासीवाद के कीड़े जनवाद से वंचित ओर उसके व्यवहार से अपरिचित, रिक्त, लम्पट और घोर अमानुशिक जीवन स्थितियों में रहने वाले जनसमूहों के बीच आसानी से पनपते हैं। यह भूलना नहीं चाहिये कि हिन्दुस्तान की आधी से अधिक आबादी ने जितना जनतन्त्र को बरता है उससे कहीं ज्यादा फासीवादी परिस्थितियों में रहने का अभ्यास किया है। इसमें कोई शक नहीं कि हरियाणा में जहां आज अनैतिक ताकत की पूजा की संस्कृति का गलबा है वहीं अच्छी बात यह है कि शहीद भगत सिंह से प्रेरणा लेते हुए युवा लड़के लड़कियों का एक हिस्सा इस अपसंस्कृति के खिलाफ एक सुसंस्कृत सभ्य समाज बनाने के काम में सकारात्मक सोच के साथ जुटा हुआ है। साधुवाद इन युवा लड़के लड़कियों को। इतने बडे़ संकट को कोई भी अपनी अपनी जात के स्तर पर हल करने की सोचे तो मुझे संभव नहीं लगता । कैसे सामना किया जाए इसके लिए विभिन्न विचारकों के विचार आमन्त्रित हैं।
कुछ विचारणीय बिन्दू इस प्रकार हो सकते हैं.

1- भेड़ों कि तरह बेघर लोगों का शहरों के ख़राब से ख़राब घरों में बढ़ता जमावड़ा
2- सभी सामाजिक नैतिक बन्धनों का तनाव ग्रस्त होना तथा टूटते जाना
3- परिवार के पितृस्तात्मक ढांचे में अधीनतांए ;परतंत्रता , का तीखा होना
4- पारिवारिक रिश्ते नाते ढहते जाना ... युवाओं के सामने गंभीर चुनौतीयाँ ..बेरोजगारी
5- परिवारों में बुजुर्गों की असुरक्षा
6- महिलाओं और बच्चों पर काम का बोझ बढ़ते जाना, असंगठित क्षेत्र में सुविधाओं का भी काफी अभाव है
7- मजदूर वर्ग को पूर्ण रूपेण ठेकेदारी प्रथा में धकेला जाना
8- गरीब लोगों के जीने के आधार संकुचित होना
9- गाँव से शहर को पलायन बढ़ना तथा लम्पन तत्वों की बढ़ोतरी , शहरों के विकास में,अराजकता,ठेकेदारों और प्रापर्टी डीलरों का बोलबाला
10- जमीन की उत्पादकता में खड़ोत , पानी कि समस्या , सेम कि समस्या
11- कृषि से अधिक उद्योग कि तरफ व व्यापार की तरफ जयादा ध्यान
12- स्थाई हालत से अस्थायी हालातों पर जिन्दा रहने का दौर
13- अंध विश्वासों को बढ़ावा दिया जाना , हर दो किलोमीटर पर मंदिर का उपजाया जाना
14- अन्याय का बढ़ते जाना
15- कुछ लोगों के प्रिविलिज बढ़ रहे है
16- मारूति से सैंट्रो कार की तरफ रूझान, आसान काला धन काफी इकठ्ठा किया गया है
17- उत्पीडन अपनी सीमायें लांघता जा रहा है , रूचिका कांड ज्वलंत उदाहरण है ,
18- व्यापार धोखा धड़ी में बदल चुका है
19- शोषण उत्पीडन और भ्रष्टाचार की तिग्गी भयंकर रूप धार रही है
20- प्रतिस्पर्धा ने दुश्मनी का रूप धार लिया है
21- तलवार कि जगह सोने ने ले ली है
22- वेश्यावृति दिनोंदिन बढ़ती जा रही है
23- भ्रम व अराजकता का माहौल बढ़ रहा है , धिगामस्ती बढ़ रही है
24- संस्थानों की स्वायतता पर हमले बढ़ रहे हैं
25- लोग मुनाफा कमा कर रातों रात करोड़ पति से अरब पति बनने के सपने देख रहे हैं और किसी भी हद तक अपने को गिराने को तैयार हैं
26- खेती में मशीनीकरण तथा औद्योगिकीकरण मुठ्ठी भर लोगों को मालामाल कर गया तथा लोक जन को गुलामी व दरिद्रता में धकेलता जा रहा है
27- बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का शिकंजा कसता जा रहा है
28- वैश्वीकरण को जरूरी बताया जा रहा है जो असमानता पूर्ण विश्व व्यवस्था को मजबूत करता जा रहा है
29- पब्लिक सेक्टर की मुनाफा कमाने वाली कम्पनीयों को भी बेचा जा रहा है
30- हमारी आत्म निर्भरता खत्म करने की भरसक नापाक साजिश की जा रही हैं
31- साम्प्रदायिक ताकतें देश के अमन चैन के माहौल को धाराशाई करती जा रही हैं
32- गुट निरपेक्षता की विदेश निति से खिलवाड़ किया जा रहा है
33- युद्ध व सैनिक खर्चे में बेइंतहा बढ़ोतरी की जा रही है
34- परमाणू हथियारों की होड़ में शामिल होकर अपनी समस्याएँ और अधिक बढ़ा ली हैं
35- सभी संस्थाओं का जनतांत्रिक माहौल खत्म किया जा रहा है
36- बाहुबल, पैसे , जान पहचान , मुन्नाभाई , ऊपर कि पहुँच वालों के लिए ही नौकरी के थोड़े बहुत अवसर बचे हैं
मैं इस पक्ष पर अभी जान बूझ कर कुछ नहीं कह रहा ताकि हिड्डन अजैंडे की समस्या से बचा जा सके। संस्कृति को भी सांझी संस्कृति के रुप में ही बचाया जा सकता है न कि संकुचित दायरों में बांधकर।
और अब लॉक डाउन में बहुत से मुद्दों का प्रखर हो कर सामने आना ।
रणबीर सिह

हिसार ज्ञान विज्ञान समिति

 हरियाणा ज्ञान विज्ञान समिति, हिसार।

                 (परिप्रेक्ष्य और कार्य दिशा)

साथियों,

         आज हम एक भयानक विडंबनामय  दौर से गुजर रहे हैं। आम तौर पर विकसित दुनिया में और हमारे देश में भी विकास के जो तौर-तरीके अपनाए गए हैं उनकी विसंगतियां दुनिया की अधिकांश आबादी को बदहाली, भुखमरी ,असुरक्षा और अनिश्चय की ओर धकेल रही हैं ।खुद मानव जाति का बड़ा हिस्सा आज भी विकास के अवसरों से वंचित है। तथाकथित विकसित देश भी अनेक प्रकार से गरीब देशों का दोहन करने के बावजूद बेरोजगारी ,गरीबी, सामाजिक हिंसा, दिमागी बीमारियों और हत्या आत्महत्या की महामारी से बच नहीं पाए हैं। बल्कि यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि उनकी गहरी गिरफ्त में हैं । इन देशों की नजर फिर भी एक बार गरीब देशों की मंडी और संसाधनों पर है।

        नवजागरण के 400 साल के इतिहास में भी पिछले 200 वर्षों में विज्ञान ने साधारण लोगों के जीवन को बहुत अधिक प्रभावित किया है । वैज्ञानिक खोजों के साथ ज्ञान और विवेक की एक नई दुनिया खुली है। मानवतावाद दुनिया के केंद्रीय दर्शन के रूप में उभरा है। जनतंत्र ,समानता और धर्मनिरपेक्षता के आदर्श इसी मानवतावाद से निकले । विज्ञान ने नई उत्पादन शक्तियों को जन्म दिया। एक ऐसे मनुष्य को जन्म दिया जो धर्म, संप्रदाय, जात, गोत्र का प्रतीक मात्र नहीं था। जो नागरिक था ।यह नागरिक राष्ट्र ,राज्य और नागरिक समाज का केंद्र था। तर्क, विवेक ,आत्मनिर्भरता ,स्वतंत्रता और समानता जिसके मूल्य थे। हमारे यहां नवजागरण का दौर 19वीं शताब्दी में रेल, डाक ,तार और नई शिक्षा व्यवस्था के साथ-साथ आया। स्त्रियों और साधारण लोगों को शिक्षा के अवसर पहली बार मिले। लेकिन आज भी हमारे यहां एक बड़ा निर्क्षर समाज मौजूद है। पूरी दुनिया में समानता ,आत्मनिर्भरता  और धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत व्यवहार में बहुत पीछे रह गए हैं। 


इस संदर्भ में हरियाणा ज्ञान विज्ञान समिति ने राज्य परिपेक्ष के निम्नलिखित बिंदुओं पर विभिन्न क्षेत्रों में काम करते हुए अपनी पहल कदमी ली हैं।

1. वैज्ञानिक दृष्टि से संपन्न शिक्षित धर्मनिरपेक्ष और आत्मनिर्भर समाज विकसित करना

2. पूरी मानव जाति के हित में विज्ञान के इस्तेमाल के लिए लोगों को संगठित करना और विज्ञान के जनक द्रोही इस्तेमाल का सक्रिय विरोध करना।

3. जीवन के सभी क्षेत्रों पर वह उनसे जुड़ी तमाम समस्याओं पर ठोस वैज्ञानिक विश्लेषण प्रस्तुत करना और उसे साधारण लोगों की पहुंच में लाना।

4. अपने जीवन को बेहतर बनाने की दिशा में संगठित प्रयास करने और प्रतिरोध करते तबकों से और उनके संघर्षों से गहरा तालमेल बनाना और ज्ञान-विज्ञान आंदोलन के सूत्रों से उन्हें जोड़ना उनका अध्ययन।

5. रोजगार आवास स्वास्थ्य शिक्षा स्वस्थ पर्यावरण आदि नागरिक सुविधाओं व मूल मानव अधिकारों के संदर्भ में जन पक्षीय दृष्टि मंचों व संस्थाओं का विकास करना।

6. साक्षरता और शिक्षा के कार्यक्रम चलाना पुस्तकालय बनाना वह चलाना जनवा चंद व अध्ययन समूह और जनचेतना केंद्रों को चलाना किताबों को लोगों की पहुंच।

7. सार्वभौम सेकुलर शिक्षा के लिए वैकल्पिक कार्यक्रम चलाना अध्ययन सामग्री तैयार करना प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाने व संस्थाओं का निर्माण और संचालन करना।

8. प्राकृतिक आपदाओं के समय पीड़ित लोगों की मदद करना।

9. बच्चों के बीच ज्ञान विज्ञान को लोकप्रिय बनाना।

10.स्थानीय 10 कारों व लोगों के कौशल के सत्र को उठाना उन्हें संगठित करते हुए कृषि आधारित छोटे उद्योग के के क्षेत्र में कार्य करना।

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