जनता के साथ हो रहे अन्याय के लिए केवल सरकार जिम्मेदार ******†***************""****************" ,,,, मुनेश त्यागी भारतवर्ष में इस समय 4 करोड़ 600000 मुकदमे पेंडिंग हैं। निचली अदालतों में इनकी संख्या चार करोड़ 25060 है। कोविड-19 शुरुआत पर यह संख्या 3 करोड़ 20 लाख थी। तीन स्तरीय न्यायिक व्यवस्था सुप्रीम कोर्ट, 25 हाई कोर्ट और जिला न्यायालय में एक साल पहले यह संख्या 3 करोड़ 70 लाख थी जो अब अब बढ़कर चार करोड़ 60 लाख हो गई है। 15 सितंबर 2021 के टाइम्स ऑफ इंडिया के अनुसार मार्च 2020 से केसों की संख्या एक करोड़ केस बढ़ गए हैं। सुप्रीम कोर्ट में मार्च 2020 को यह संख्या 60, 000 थी, जो अब बढ़कर 70,000 हो गई है। मार्च 2020 में हाईकोर्ट में मुकदमों की संख्या 46 लाख 4,000 थी जो अब बढ़कर 56,04,000 हो गई है। लोअर कोर्ट में यह संख्या मार्च 2020 में 3 करोड़ 20 लाख थी जो अब बढ़कर 4 करोड हो गई है। इस प्रकार देश में कुल 4 करोड़ 60 लाख मुकदमे पेंडिंग है। केस बढ़ने का एक मुख्य कारण न्याय व्यवस्था में ई-फाइलिंग का नहीं होना है यानी की न्याय व्यवस्था आधुनिक तकनीक का सही प्रयोग करने में नाकाम रही है।न्यायपालिका के तीनों स्तरों पर इन तकनीकों का फायदा नहीं उठा रही है जिसमें केस फाइलिंग करना, कोर्ट फीस दाखिल करना और पक्षकारों को समन भेजना शामिल हैं। इसका मुख्य कारण वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग, ब्रॉडबैंड, हाई स्पीड इंटरनेट और पूरा कंप्यूटरकरण न होना भी है। अधिकांश अदालतें इस आधुनिकतम तकनीक का उपयोग नहीं कर पा रही हैं और पुराने तौर-तरीकों से ही चिपकी हुई है। जिस कारण वादों की समय से सुनवाई नहीं होती और वादों का निपटारा लंबा होता चला जाता है। अदालतों में केस निस्तारण का समय से निस्तारण न होने का मुख्य कारण है न्यायालयों में मुकदमों के अनुपात में जजों का ना होना। हमारी 25 हाई कोर्ट में लगभग 40 परसेंट और लोअर ज्यूडिशरी में लगभग 30 परसेंट जजिज के पद खाली पड़े हुए हैं, उन्हें समय से भरने की सरकार कोई जरूरत नहीं समझती और लगातार मांग करने पर भी उन्हें नहीं भरा जा रहा है। अदालतों में पर्याप्त संख्या में स्टेनो और प्रक्षिशित स्टाफ नहीं है, जहां पर वर्षों से उनकी कमी मौजूद है जिस कारण न्यायिक अधिकारी गण मुकदमों का समय से निस्तारण नहीं कर पा रहे हैं। कई बार तो यह देखा गया है की जज वर्षों तक काम करते रहते हैं मगर उनके पास स्टेनो नहीं हैं और इस प्रकार वे मुकदमों का निस्तारण नहीं कर पाते और पक्ष कार न्याय की उम्मीद करते करते हार जाते हैं। भारत का संविधान सस्ते, सुलभ और शीघ्र न्याय का उद्घघोष करता है मगर सरकार की नीतियों के कारण यह नारा खोखला ही बना हुआ है। आज भी वादकारियों को जिला स्थान से हाई कोर्ट जाने में 600 मील से भी दूर जाना पड़ता है जो जनता द्वारा वहनीय नहीं है और सरकार वादकारिर्यों और वकीलों द्वारा आंदोलन करने पर भी इस और ध्यान नहीं देती, उसे अनसुना कर देती है। भारत का संविधान भी जनता को सस्ते और सुलभ न्याय की वकालत करता है मगर हमारी सरकारें जिन्होंने न्याय विरोधी रुख अपना रखा है वह संविधान के मैंडेट को भी सुनना और लागू करना नहीं चाहती और जनता को सस्ता सुलभ और शीघ्र न्याय नहीं देना चाहती इस मामले में अधिकांश सरकारों ने न्याय विरोधी और संविधान विरोधी रुख अपना रखा है। इस मामले में सभी सरकार दोषी हैं। चाहे सरकार बीजेपी की है, कांग्रेस की रही है, चाहे बीएसपी की रही है,या समाजवादी पार्टी की रही है। वे सब जनता को सस्ता सुलभ और शीघ्र न्याय देने के पक्ष में नहीं रही हैं। यह मुद्दा कभी उनके एजेंडे में ही नहीं रहा है। न्यायपालिका का बजट लगातार कम किया जा रहा है जो वर्तमान में .०२ परसेंट है जबकि वास्तव में यह कम से कम जीडीपी का 3 परसेंट होना चाहिए। हम लोग यूएसए, यूके, जापान, कनाडा, आस्ट्रेलिया आदि देशों की बात करते हैं मगर उनसे कुछ सीखना नहीं चाहते। यूएसए में और यूके में जीडीपी का 3 परसेंट न्यायपालिका पर खर्च किया जाता है। उपरोक्त विवरण से यह आसानी से कहा जा सकता है कि सरकार के एजेंडे में न्याय व्यवस्था नहीं है। वह जनता को समय से सस्ता, सरल और शीघ्र न्याय उपलब्ध नहीं कराना चाहती, वह मुकदमों के अनुपात में जज और स्टाफ की नियुक्ति नहीं करना चाहती, वह बजट का समुचित परसेंट जो लगभग 3 परसेंट हो सकता है, न्याय व्यवस्था पर खर्च नहीं करना चाहती और न्याय सरकार के एजेंडे में नहीं है। इसके लिए किसी दूसरे पक्ष को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। इसके लिए वकीलों या जनता को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। जनता को सस्ता, सुलभ और शीघ्र न्याय न देने के लिए केवल और केवल सरकारें जिम्मेदार हैं।
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