गणतंत्र की रक्षा में: बोस, नेहरू, अंबेडकर और गांधी की याद में
– आल इंडिया पीपुल्स साईंस नेटवर्क अभियान 23 से 30 जनवरीभारत का संविधान 26 नवंबर को संविधान सभा में पारित किया गया, और 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ। इस संविधान ने भारत को एक धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य के रूप में घोषित किया। इसका अर्थ यह है कि समाज के सभी वर्गों को, नस्ल, धर्म या जाति के बावजूद, राष्ट्र में पूर्ण अधिकार प्राप्त हैं। इसी संविधान में सम्माननीय जीवन स्तर का अधिकार भी शामिल है। यह वोही धर्मनिरपेक्ष भारत है जिसके लिए महात्मा गांधी ने अपना बलिदान दिया। आज दोनों ही सामाजिक और आर्थिक रूप से धर्मनिरपेक्ष गणतंत्र और लोकतंत्र खतरे में हैं।p
अंबेडकर ने संविधान सभा को दिए गए अपने भाषण में स्पष्ट किया कि लोकतंत्र का अर्थ सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र दोनों से है; इनके बिना, लोकतंत्र सिर्फ एक नाम मात्र है। आर्थिक लोकतंत्र की इस दूरदर्शिता ने जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस को अंबेडकर के साथ एकजुट किया। उनके अनुसार, भारत को औद्योगिक और कृषि उत्थान के लिए न सिर्फ सार्वजनिक क्षेत्र की योजना और निर्माण की परम आवश्यकता है, बल्कि देश के सभी वर्गों के लिए विकास के लाभों को फिर से वितरित भी करना है। यह केवल अर्थव्यवस्था में राज्य के हस्तक्षेप से ही मुमकिन हो सकता है जिससे भारत को ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के दौर की गरीबी, अकाल, विषम जीवन प्रत्याशा और अशिक्षा से मुक्त कराया जा सके।
23 जनवरी (सुभाष बोस का जन्मदिन) से लेकर 30 जनवरी ( जब गोडसे द्वारा महात्मा गांधी की हत्या की गई थी) के इस सप्ताह को हमारे गणतंत्र के चार दिग्गजों – महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, बीआर अंबेडकर, और सुभाष चंद्र बोस को याद करें। इन चार नेताओं को एक लोकतांत्रिक, धर्मनिरपेक्ष गणराज्य के प्रतिनिधित्व के रूप याद रखना बहुत महत्वपूर्ण है। आज हम सरकार के खुले समर्थन के साथ विशेष रूप से अल्पसंख्यकों और दलितों पर हिंसक हमलों को देखते हैं। आल इंडिया पीपुल्स साइंस नेटवर्क धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य के वचन के साथ एक राष्ट्रीय आन्दोलन के रूप में लोगों के साथ प्रचार करेगा, और इस लोकतंत्र को पटरी से उतारने के सभी प्रयासों का विरोध करेगा।
आज हम अम्बेडकर, बोस, पटेल और गांधी को नेहरू के खिलाफ मोर्चा खोलने की निरंतर कोशिशों को देखते हैं। ऐसा करने वाले लोगों का मानना है कि हमारी यादें कमजोर हैं, और हम अपने अतीत को भूल गए हैं। हां, निश्चित रूप से इन सभी नेताओं में आपसी मतभेद थे। वे मजबूत विचारों वाले नेता थे, उनके बीच असहमती भी होती थीं और कभी कभी बहुत कठोर मतभेद भी हो जाते थे, और यह सभी राष्ट्रहित कि दिशा में होते थे। लेकिन आरएसएस-हिंदू महासभा, भाजपा के वैचारिक संस्थापकों, और मुस्लिम लीग में नेताओं के विपरीत, वे सभी एक स्वतंत्र भारत के लिए अंग्रेजों के खिलाफ लड़े थे।
बोस ने तिरस्कारपूर्वक उल्लेख किया कि किस तरह हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग ब्रिटिश समर्थक थे, और कैसे उन्होंने खुद को राष्ट्रीय संघर्ष से बाहर रखा। उन्होंने और नेहरू ने भारत को गरीबी से बाहर निकालने के लिए योजना तैयार करने और विज्ञान में विश्वास किया। दोनों ने रूस में समाजवादी प्रयोग से प्रेरणा ली, जिसने दो दशकों में इसे अति पिछड़ेपन से बाहर निकालकर एक आधुनिक राष्ट्र में बदल दिया। उन दोनों का दृष्टिकोण धर्मनिरपेक्ष और समाजवादी था। नेहरू, बोस के विपरीत, उस खतरे को भी समझते थे जिसमें फासीवादी ताकतों ने दुनिया का प्रतिनिधित्व किया था। बोस ने एक्सिस शक्तियों को दुश्मन का दुश्मन के रूप में देखा – ब्रिटिश उनका मुख्य दुश्मन था – और एक्सिस शक्तियों के साथ अस्थायी रूप से सहयोग देने के लिए तैयार थे। लेकिन, आरएसएस-हिंदू महासभा के विपरीत, वे स्वतंत्र भारत में अर्थव्यवस्था, आर्थिक लोकतंत्र और विज्ञान की योजना बनाने की अपनी इस सोच में एकजुट थे। ये वो मुंबो जंबो विज्ञान में नहीं था जिसका बखान हमारे पीएम के नेतृत्व वाले मंत्रियों का परिषद करता है।
बोस द्वारा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष के रूप में 1938 में योजना आयोग स्थापित किया गया। इस आयोग ने नेहरू की अध्यक्षता में योजना समिति की सोच को आगे बढ़ाया। इसका समापन कर नीति अयोग नामक थिंक-टैंक से प्रतिस्थापन करना इस बात का संकेत हैं कि आर्थिक लोकतंत्र वर्तमान भाजपा के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार के एजेंडे में ही नहीं है। ऐसा न हो कि हम भूल जाएँ कि बोस और नेहरू को योजना बनाने में एक उत्साही विश्वास था, और वह एक स्वतंत्र भारत में सरकार का मार्गदर्शन करने के लिए योजना आयोग की आवश्यकता के बारे में बात करते थे।
भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन और लोकतंत्र के दो अन्य स्तंभ धार्मिक अल्पसंख्यकों और दलितों के प्रति सोच थी। अंबेडकर, बोस, नेहरू और गांधी, सभी का मनाना था कि भारत सभी लोगों के लिए एक धर्मनिरपेक्ष गणराज्य होना चाहिए। हम यह न भूलें कि भारतीय संविधान का आरएसएस द्वारा कटु विरोध किया गया और यह तर्क दिया गया कि भारत का संविधान मनुस्मृति, भारत के प्राचीन कानूनी पाठ, पर आधारित होना चाहिए। यह वही मनुस्मृति है जिसमें जाति विभाजित समाज का मूल पाठ है, और इसके मूल में पुरुषों और महिलाओं के बीच असमानता भी शामिल है। आरएसएस और जनसंघ ने मनु और मनुस्मृति की सरहाना करते हुए आंबेडकर का उपहास किया और उनको लिलिपुट कहा गया। आरएसएस के मुखपत्र द ऑर्गनाइज़र ने 30 नवंबर, 1949 के अंक में कहा गया:
भारत के नए संविधान के बारे में सबसे बदतरीन बात यह है कि इसमें कुछ भी भारतीय नहीं है। संविधान के प्रारूपकारों ने इसमें ब्रिटिश, अमेरिकी, कनाडाई, स्विस और विविध अन्य संविधान के तत्वों का समावेश किया है … लेकिन हमारे संविधान में, प्राचीन भारत में अद्वितीय संवैधानिक विकास का उल्लेख नहीं है। मनु का कानून स्पार्टा के लाइकुरस या फारस के सोलन से बहुत पहले लिखा गया था। आज भी मनुस्मृति में वर्णित उनके कानून की दुनिया प्रशंसा करती है और सहज आज्ञाकारिता और अनुरूपता का परिचय देती है। लेकिन हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए इसका कुछ भी मतलब नहीं है।
यह आश्चर्य की बात नहीं है कि भारतीय संविधान में विकास की अन्य सकारात्मक कार्यवाहियों अर्थात् शिक्षा और रोजगार में आरक्षण, का भी आरएसएस विरोध किया था। आज भी, आरएसएस के नेता आरक्षण के खिलाफ बोलते हैं कि यह अलगाववाद को बढ़ावा देता है और इसे कैसे खत्म किया जाना चाहिए।
अल्पसंख्यकों और दलितों पर हालिया हमले, गाय के जीवन को मनुष्य के जीवन की तुलना में कहीं अधिक महत्वपूर्ण बनाने के लिए आंदोलन, हमारे धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमला है। यह वही ताकतें हैं जो अल्पसंख्यकों पर हमला करती हैं, जो आरक्षण पर हमला करती हैं, महिलाओं द्वारा प्रेम और स्वतंत्र रूप से शादी करने का अधिकार और उनके जीने के तरीकों पर हमला करती हैं। चाहे वो बोलने की आज़ादी हो या अपने धर्म और अपनी संस्कृति के अभ्यास करने का अधिकार, हमारी संस्कृति और लोकतंत्र के हर पहलू पर आज हमला हो रहा है।
यह सिर्फ देश के अल्पसंख्यकों पर हमला नहीं है। ये हमले तब से हो रहे हैं जब से भारत में उतनी ही असमानता हो गई है जितनी अंग्रेजों के अधीन रहते समय थी; जैसा कि फ्रांसीसी अर्थशास्त्री पिकेटी ने कहा था: ब्रिटिश राज से बिलियनेयर राज की ओर। आज क्रोनी कैपिटलिज्म देश पर शासन कर रहा है; जहां 1% लोगों के पास 73% भारतीयों के बराबर संपत्ति है। यह गणतंत्र के मूल संवैधानिक मूल्यों पर हमला है जो यह कहता है कि सामाजिक और आर्थिक लोकतंत्र, और जाति या पंथ के आधार पर समाज के किसी भी वर्ग के खिलाफ कोई भेदभाव नहीं। यह वही हैं जिसके खिलाफ हमें लड़ना है, यह एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गणराज्य के लिए हमारी लड़ाई है जो हमारे पूर्वजों ने स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान लड़ी थी।
No comments:
Post a Comment