साम्राज्यवाद का सांस्कृतिक चक्रव्यूह
भारतीय राज्य के साथ मिलकर साम्राज्यवादी जमकर सांस्कृतिक हमला कर रहे हैं. भारत जैसे गरीब देश में अमरीका के बाद भारत के पास दूसरे नंबर पर टी. वी. चैनल्स हैं. इसका कोई ख़ास मतलब है. अच्छे-खासे लोग इसमें फंसते जा रहे हैं. दो तरह की चीजें परोसी जा रही हैं. एक तो रामायण जैसे ढेरों धारावाहिक रोज दिखाए जा रहे हैं (इसमें महाभारत थोडा भिन्न था, " भारत एक खोज भी",बाकी तो कूड़ा है). (नोट- हमारे यहाँ मिथोलोजी को मिथोलोजी के रूप में नहीं , अक्षरश: धार्मिक रूप में लिया जाता है. धारावाहिक के सामने पूजा होती है. विदेशों का आदमी शिक्षित है, सारी चीजों को जानता है, कहानी के रूप में लेता है.). वे अब भारी पैमाने पर सामान्य लोगों की चेतना कुंद करने के लिए दिखाए जा रहे हैं. यदि इससे लोग बच जाते हैं तो अलिफ़-लैला, चन्द्रकान्ता देखिये-अवास्तविक दुनिया में लोग पहुँच जाते हैं. इसके अलावा उच्छ्रंखल साम्राज्यवादी धारावाहिक दिखाए जा रहे हैं. नए टी.वी.चैनल्स में यह ज्यादा है.ज्यादातर नंगी तस्वीरें दिखाते हैं-वे हमारी मूलभूत सहज्वृति से खेल रहे हैं. (playing on basic instincts.) फिर माइकल जैक्सन, यान्नी भी टी.वी.पर आते हैं. इसमें फंसने वाले लोगों की संख्या भी बहुत है.
यह सब जो हो रहा है हमारे देश में इसके लिए जमीन सबसे अच्छी है. अंधविश्वास-भुखमरी सबसे ज्यादा है. लोग पस्तहिम्मती में जी रहें हैं. असली जिंदगी में कुछ नहीं मिलता तो वे उसे मास फंतासी (mass fantasy) में पाने की आशा करते हैं. क्योंकि खुद जी नहीं सकते तो दूसरों को देखकर जी सकते हैं. जैसे प्रेम करने के लिए कानी लड़की भी नहीं मिलती. लेकिन सिनेमा में बैठते हैं तो खूबसूरत, करोड़पति की लड़की से गरीब नौजवान को प्रेम करते हुए देखते हैं और खुद को उसकी जगह पर रखकर खुश हो लेते हैं. और जब बीभत्स व कुरूप असली दुनिया से उनका सामना होता है तो उनकी रूह तक काँप जाती है. इसी प्रकार, क्रिकेट, तैराकी - यह देखना एक नकली चीज है. लोगों की भारी संख्या इसमें जीने लगी है जबकि खुद खेल नहीं सकते. (जो खेल लेते हैं उनकी बात अलग है,खेलना अच्छी बात है.) इसके अलावा खेल में विज्ञापनों को देखकर बाजार तैयार करते हैं. सारी चीजों से वंचित होकर लोग टी. वी. से चिपके रहते हैं.
साम्राज्यवादी दानव नौजवानों में उन्माद और पागलपन भर रहे हैं. इसी का नतीजा है कि बिगडैल नौजवान द्वारा मासूम लड़कियों का आये दिन शिकार किया जाना अखबारों की मुख्य खबरों में है. हम बहुत गरीब हैं तो क्या हुआ एक सामान्य जिंदगी तो जी ही सकतें हैं, ढंग से. इसके बजाय दूसरों को जीते हुए देखना और उससे या तो संतोष कर लेना या उन्माद का शिकार हो जाना मानसिक बीमारी है.
इतिहास के रास्ते में धर्म जब शुरू हुआ था उस समय आदमी असहाय था, कोई न कोई पराभौतिक चीज (धर्म, ईश्वर) की जरूरत थी जिसके सहारे अपनी कमजोरी के बावजूद जीने कि कोशिश करता. आज भी कुछ वैसा है दूसरी परिस्थिति में. लाखों करोड़ों लोग फंतासी में जीते हैं. It is more or less a sign of sick mentality......ऐसा पुणे विश्वविद्यालय में श्याम बेनेगल ने अपने भाषण में कहा था. ठीक ही कहा था. जैक्सन, यान्नी जो तकनीक-लाईट अपने कार्यक्रम में इस्तेमाल करते है उसमें आदमी खो जाता है. पर्फोर्मेर की बात ख़त्म हो जाती है, लोग तकनीकी की चकाचौंध से प्रभावित हो जाते है. यान्नी तो तकनीक के बिना एक घटिया कम्पोजर से ज्यादा कुछ नहीं. लेकिन बेचने वाली कम्पनियाँ तकनीक (पब्लिसिटी आदि) के आधार पर उसे बेच रहीं है. और लोग स्वस्थ कला की विकल्पहीनता की स्थिति में उसकी तरफ दौड़ रहें.
आज बड़े अखबारों में अनाप-शनाप आ रहा है. उनमें कोई उपयोगी सामग्री नहीं आ रही है. छोटे अखबारों में कुछ स्थानीय समस्याएं तो आती हैं- कहाँ बलात्कार हुआ,कहाँ चीनी नहीं मिल रही है; इन खबरों का फिर भी कोई मतलब है बड़े अखबार आडवाणी-मोदी-अन्ना-मनमोहन के बारे में चटकारे लेकर लिखते हैं. इसी प्रकार, जितने भी टी. वी. चैनल्स आप लगाए दिखाया तो वही जाएगा-कूड़ा. वे ढंग की अच्छी चीजें लाइब्ररी से हटाकर लेखागार (archive) में डाल चुके है. अच्छे सिनेमा आज कभी-कभार ही फिल्म चैनल्स पर दिखाए जाते हैं. शहरों में १५-२० फिल्म हाल होते हैं लेकिन उनमें फिल्म एक भी देखने लायक नहीं होती, अच्छी फ़िल्में महानगरों में ही इक्का-दुक्का आती हैं और कम लोगों के बीच ही इस प्रकार पहुँच पाती हैं. यह सब करना आज साम्राज्यवादियों के लिए जरूरी हो गया है. यदि उन्हें आर्थिक बल पर राज करना है और उनकी शोषणकारी व्यवस्था टिकाऊ हो तो उन्हें इन क्षेत्रों को अहमियत देनी होगी. लोगों को मानसिक गुलाम बनाकर शासन करना लोगों को सीधे गुलाम बनाने के बजाय अच्छा है, यह बहुत दिनों तक चल सकता है. बन्दूक के दम पर शासन का अर्थ होता है कि अब उनके दिन लदने वाले हैं.
लोगों को एक ख़ास तरह से ढाला जा रहा है ताकि वे एक ख़ास तरह की चीजें ही देखें. एक ख़ास तरह का जानवर बनाकर लोगों को सेट किया जा रहा है. लोगों को एक ख़ास किस्म का उपभोक्ता बनाया जा रहा है. इस चक्रव्यूह को तोडना आज के क्रांतिकारी आन्दोलन के सामने एक महत्वपूर्ण चुनौती है.
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