भ्रष्टाचार के प्रति भद्रलोक का भ्रामक नजरिया - दिगम्बर
वर्तमान समाज में प्रचलित और स्थापित धारणा यही है कि अपनी पद-प्रतिष्ठा और जिम्मेदारी का दुरुपयोग करके अपने और अपने खास लोगों के स्वार्थों कि पूर्ति करना तथा पूंजीवादी नैतिकता के मानदंडों और कानूनों का उल्लंघन करके नाजायज धन-संपत्ति जमा करना भ्रष्टाचार है. एक दूसरे प्रकार का भ्रष्टाचार भी है जिस पर यह पूरी समाज व्यवस्था टिकी हुई है, लेकिन वह हराम या गैर-कानूनी नहीं है- पूंजीवादी शोषण और लूट-खसोट. उदाहरण के लिए श्रम का निर्मम शोषण, प्राकृतिक संसाधनो का बेहिसाब दोहन, निजीकरण के नाम पर सार्वजनिक सम्पात्ति का मालिकाना निजी पूंजीपतियों को सौंपना, पूंजीपतियों को टैक्स में छूट और हर तरीके से उनकी तिजोरी भरना, जनता पर टैक्स लादकर मंत्रियों, सांसदों, विधायकों, नौकरशाहों और बुद्धिजीवियों के लिए मोटी तनख्वाहों, राजसी ठाट-बाट और विशेषाधिकारों का इंतजाम करना. पूंजीवादी नैतिकता के अनुसार ये भ्रष्टाचार की श्रेणी में नहीं आते, लेकिन बहुसंख्य मेहनतकश वर्गों और मानवता की दृष्टि से यह सब निकृष्ट और भ्रष्ट आचरण है. भ्रष्टाचार के खिलाफ धर्मयुद्ध छेडने वाले योद्धा इस दूसरे तरह के भ्रष्टाचार की कहीं कोई चर्चा नहीं करते, उनकी निगाह में ये सभी काली करतूतें नैतिक और जायज हैं, केवल स्थापित कानूनों का उल्लंघन करके काला धन बटोरना ही भ्रष्टाचार है जबकि भ्रष्टाचार का ये कानूनी प्रकार इस समूचे लूटतंत्र के आगे कुछ भी नहीं. लेकिन इसकी चर्चा बाद में. पहले प्रचलित अर्थों में भ्रष्टाचार को ही लें, जो लोगों को प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देता है, जिसे लेकर लोगों के मन में आक्रोश है और जिसकी रोक-थाम के लिए आज विश्व बैंक, सरकार और भद्रलोक एनजीओ अपने-अपने तरीके से जोर लगा रहे हैं.
भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन के भद्रलोक एनजीओ नेता भ्रष्टाचार के प्रति सतही और भ्रामक नजरिया अपनाते हैं. कैसे?
पहला-- वे रोग के लक्षण को ही रोग बताते हैं, महंगाई, बेरोजगारी, किसानों की तबाही और लाखों की संख्या में आत्महत्याएं, मजदूरों का निर्मम शोषण, अमीरी-गरीबी के बीच बढ़ती खाई, बहुसंख्य जनता की कंगाली, बदहाली और प्रवंचना, सांस्कृतिक पतनशीलता और अन्य तमाम लक्षणों की तरह भ्रष्टाचार भी वर्तमान रुग्ण पूंजीवादी व्यवस्था के लाइलाज रोग का एक लक्षण मात्र है. लेकिन भ्रष्टाचार विरोधी धर्मयोद्धा यह भ्रम फैला रहे हैं कि भ्रष्टाचार समाज कि सभी बुराइयों की जड़ है जिसे खत्म कर दिया जाय तो सारी समस्याओं का अंत हो जायेगा.
अपने रोजमर्रे की जिंदगी में आये दिन लोगों का भ्रष्टाचार से सामना होता रहता है. हर छोटे-बड़े काम के लिए उन्हें रिश्वत देनी पड़ती है. इसी का फायदा उठाकर भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के कर्ता-धर्ताओं ने इसे देश कि सारी समस्याओं की जड़ बनाकर पेश किया. कारपोरेट नियंत्रित मीडिया-- टीवी, रेडियो और अखबारों ने अपने धुआँधार प्रचार के द्वारा आम लोगों के मन में इसे कॉमन सेंस की तरह स्थापित कर दिया है. हर कॉमन सेंस की तरह यह भी सरासर गलत है. इसके लिए एक सूत्र अजमाया जाय. हर व्यक्ति अपने एक साल का लेखा-जोखा ले कि उसने कितनी जगह कितनी रिश्वत दी. उससे उसे खुद कितना फायदा हुआ? नहीं देने से कितना नुकसान होता? पता चलेगा की 20 रुपये रोज पर गुजर-बसर करने वाले 80 फीसदी लोगों की जिन्दगी में भ्रष्टाचार की कोई गुंजाइश ही नहीं है. यही कारण है कि इन 80 फीसदी लोगों को भद्रलोक इस लायक नहीं समझता कि वे उसके भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम में झण्डा, टोपी और टैटू के साथ शामिल हों. आम माध्यम वर्ग के लिए भी यह ढेर सारी समस्याओं में से एक है.
भ्रष्टाचार कि तरह ही पूंजीवादी रोग का एक लक्षण महंगाई है जिसके चलते हर आदमी को अतिरिक्त बोझ उठाना पड़ता है, चाहे 20 रूपये पर गुजारा करने वाले हों या हजारों रुपये मासिक कमाने वाले. तुलना करें कि एक साल में किसने हमारा कितना अधिक प्रत्यक्ष दोहन किया? बेरोजगार यह सोचें कि यदि सम्मानजनक रोजगार मिल जाये तो पिछले एक साल में भ्रष्टाचारियों को दी गयी रिश्वत की तुलना में उसका कितना फायदा होता? खेती तबाह न हो तो कोई किसान आत्माहत्या करने के बजाय क्या ब्याज चुकाना और घूस देना पसंद नहीं करेगा? इन बातों का मतलब भ्रष्टाचार का समर्थन करना नहीं बल्कि उनके ‘कॉमन सेंस’ का जवाब उन्हीं की भाषा में देना है. क्योंकि इसी पद्धति से भ्रष्टाचार विरोधी भ्रष्टाचार को सबसे बड़ी समस्या बना कर उसे लोगों के मष्तिस्क में रोप रहे हैं. भ्रष्टाचार को लक्षण की जगह रोग बताने वाले ये ध्वजाधारी वास्तव में लोगों का ध्यान जनता की मूल समस्याओं-- महंगाई, बेरोजगारी, किसानों की तबाही, आम जनता की बढती बदहाली और कानून के संरक्षण में हो रहे देशी-विदेशी पूंजीपतियों की बेलगाम लूट से हटा रहे हैं, जिनके मूल में नवउदारवादी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था है. इसके चलते लोगों को लगता है कि जन लोकपाल बनने और लोकपाल का पद सृजन होने से उनकी सारी समस्याएं हल हो जाएँगी. इस तरह जनता का गुस्सा कुछ समय के लिए शांत हो जायेगा. आंदोलनकारियों का यही मकसद है .
दूसरा— भ्रष्टाचार की जड़ तक पहुँचने, उसका कारण तलाशने या उसके असली स्रोतों को निशाना बनाने और उसे निर्मूल करने के बजाय भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलनकारी केवल ऊपरी तौर पर सुधार करने और कानून के जरिये इस पर रोक लगाने की बात करते हैं. इस कानून के अधीन देशी-विदेशी पूंजीपतियों को लाने से इन्कार करते हैं और केवल उनके निरंतर जारी भ्रष्टाचार में सहयोग करने वाले नेताओं और नौकरशाहों के खिलाफ कानून बनाने कि बात करते हैं. 2जी स्पेक्ट्रम का घोटालेबाज में ए. राजा तो पहले से मौजूद कानून के तहत ही जेल में है. लेकिन जिन मोबाइल कंपनियों को उसके जरिये 1,75,000 करोड़ का मुनाफा हुआ उन देशी-विदेशी पूंजीपतियों को इस नये कानून के अधीन लाने का कहीं कोई जिक्र नहीं है. इसी तरह वे व्यस्थापोषक मीडिया और एनजीओ को भी इस कानून की पकड़ से बाहर रखने के हिमायती हैं.
अन्ना टीम यह मानकर चलती है कि भ्रष्टाचार केवल सरकारी संस्थानों में ही है. इसीलिए वे निचले स्तर तक के सरकारी कर्मचारियों को लोकपाल के दायरे में लाने कि मांग करते हैं. सरकारी स्कूल, अस्पताल और सरकारी सेवाओं के भ्रष्टाचार के प्रति उनकी चिंता जायज है. लेकिन आज निजीकरण के चलते शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन, सड़क और पानी-बिजली का जिम्मा नाम मात्र ही सरकार के अधीन है. ये सारे कारोबार अब निजी पूंजीपति और एनजीओ सम्भाल रहे हैं जिन पर कोई सरकारी अंकुश नहीं है, सरकारी लोकपाल और जनलोकपाल दोनों में ही उन्हें शामिल नहीं किया गया. इसमें अचरज की कोई बात नहीं, क्योंकि दोनों ही पक्ष नवउदारवादी नीतियों के प्रबल समर्थक हैं और दोनों को पूंजीपतियों के भ्रष्टाचार से कोई शिकायत नहीं है.
1991 में नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद जितने भारी पैमाने पर भ्रष्टाचार की घटनाएं सामने आई हैं उसने माध्यम वर्गीय लोगों में तीव्र आक्रोश उत्पन्न किया है. अन्ना के आह्वान पर ऐसे लोग सडकों पर उतरे. अन्ना टीम ने उस जनाक्रोश को सही दिशा देने और भ्रष्टाचार की जड़ों पर प्रहार करने के बजाय उसे सतही और बेमानी सुधारों के ठन्डे पानी में डुबो दिया क्योंकि इस भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम का अंतिम लक्ष्य केवल एक अदद कानून बनाना था. निजीकरण-उदारीकरण के नाम पर देश की सार्वजनिक सम्पदा और प्राकृतिक संसाधनों को कौडियों के मोल पूंजीपतियों के हवाले करने वाली नीतियों को पलटे बगैर किसी भी कानून से इस भ्रष्टतंत्र पर कोई आंच नहीं आने वाली है. इस विषय पर अन्ना टीम मौन है. भ्रष्टाचार का स्रोत देशी-विदेशी पूंजीपति हैं. पूंजीवादी-साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था और उसके असली मालिक पक्ष–विपक्ष की पार्टियों के नेता और नौकरशाह दिन-रात उनकी सेवा में जुटे रहते हैं. अपनी अपार संपत्ति के दम पर पूंजीपति वर्ग अपने मनोनुकूल कानून बनवाने और लागू करवाने के लिए नेताओं, नौकरशाहों, मीडिया, पत्रकारों, विशेषज्ञों और लॉबिंग करने वालों को खरीदते हैं. वे करोड़ों की रिश्वत देकर अरबों-खरबों की लूट करते हैं. चाहे सरकारी लोकपाल हो या अन्ना का जन लोकपाल, दोनों में से किसी ने भी इनको निशाना नहीं बनाया. शायद यही कारण है कि अन्ना के आन्दोलन को इन्हीं पूंजीपतियों का प्रत्यक्ष-परोक्ष सहयोग और समर्थन हासिल हुआ.
विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी साम्राज्यवादी संस्थाएं और बहुराष्ट्रीय निगम दुनिया भर में भ्रष्टाचार के बहुत बड़े स्त्रोत हैं. इस पर अनेक शोध, अध्ययन और लेख प्रकाशित हो चुके हैं. तीसरी दुनिया के देशों के शासन-प्रशासन के ढाँचे को भ्रष्ट करके अपने मनोनुकूल नीतियां बनवाना, अपने गुप्त समझौतों और दुरभिसंधियों को लागू करवाना, अपने लिए बड़े-बड़े ठेके और परियोजनाएं हासिल करना, हथियार के सौदे करना, अपने निर्यात को सुलभ बनाना, प्राकृतिक संसाधनों को हथियाना इनके रोजमर्रे के काम हैं. भारत में बड़े पैमाने के भ्रष्टाचार की जमीन इन्हीं विदेशी ताकतों और देशी पूंजीपतियों की मिलीभगत से तैयार हुई है. जब भ्रष्टाचार का कोई ठोस मामला किसी तरह उजागर हो जाता है तो वह सबको दिख जाता है और लोगों को गुस्सा भी आता है. लेकिन कानूनी लबादे से ढका हुआ भ्रष्टाचार का विकट दानव हमें नहीं दिखाई देता. हम उसे स्वाभाविक मानते हैं क्योंकि विकास के नये मंत्र के रूप में सब हमारे मन-मष्तिस्क में रोप दिया जाता है. अन्ना टीम इसी स्थिति का लाभ उठाते हुए केवल सतही भ्रष्टाचार को निशाना बनाते हैं और इसके लिए भारी समर्थन भी हासिल कर लेते हैं.
तीसरा- भ्रष्टाचार को लेकर हाय-तौबा मचाने वाले नैतिकता के प्रचारक, धर्मोपदेशक, अर्थशास्त्री, समाज सुधारक, पत्रकार और बुद्धिजीवी, इसके वर्गीय आधारों पर पर्दा डालते हैं और इसे लोभ-लालच की सामान्य मानवीय प्रवृत्ति और नैतिक पतन का नतीजा मानते हैं. वे हीरा चुराने वालों और खीरा चुराने वालों को एक ही तराजू पर तौलते हैं. इस तरह यह आम धारणा बन गयी है कि हमारे समाज में सभी लोग भ्रष्ट हैं. यह सरासर झूठ है.
समाज के विभिन्न वर्गों और भ्रष्टाचार के साथ उनके संबंधों की जांच करें तो इस प्रचलित धारणा से एकदम अलग ही तस्वीर सामने आती है. कुछ वर्ष पहले प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो.अरुण कुमार ने भारत में भ्रष्टाचार पर अपना अध्ययन प्रस्तुत किया था जिसके अनुसार उस दौरान देश में 25,00,0000 करोड़ की काले धन की सामानांतर अर्थव्यवस्था मौजूद थी. इस अपार काली कमाई के लिए जिम्मेदार कौन है? इस पर किसका कब्ज़ा है?
हमारे देश में लगभग 30 करोड़ लोग शहरों में रहते हैं जिनमें से आधी आबादी छोटे-मोटे धंधो में लगे लोगों और मेहनतकशों की है. देश की कुल अर्थव्यवस्था में इनका हिस्सा बहुत कम है तथा भ्रष्टाचार और काले धन की अर्थव्यवस्था में इनकी भागीदारी नगण्य है. शहरी आबादी के बाकी आधा भाग का अधिकांश हिस्सा ही भ्रष्टाचार में लिप्त है जिनके शीर्ष पर पूंजीपति, उद्योगपति और उनका प्रबंध तंत्र, डीलर, डिस्ट्रीब्यूटर, कमीशन एजेंट, सट्टेबाज तथा निर्माण, रियल इस्टेट, शिक्षा,स्वास्थ्य, मनोरंजन, पेंशन और सेवा क्षेत्र के विभिन्न व्यवसायों के मालिक और सरकारी अधिकारी, कर्मचारी, छोटे-मझोले पूंजीपति, व्यापारी और अन्य परजीवी शामिल हैं. ये सब आपस में मौसेरे भाई हैं. ग्रामीण आबादी का एक बहुत छोटा और नगण्य हिस्सा ही काले धन कि अर्थव्यवस्था में शामिल है क्योंकि देश की अर्थव्यवस्था में ग्रामीण इलाके की भागीदारी बहुत कम, लगभग 20% है. प्रोफ़ेसर अरुण कुमार का अनुमान है कि आबादी का 3% उपरी हिस्सा ही काले धन की अर्थव्यवस्था में सबसे ज्यादा लिप्त है. यदि छोटे-बड़े सभी तरह के भ्रष्टाचार को ले लिया जाय तो यह दायरा 15% उपरी तबके तक जाता है. एक अध्ययन के मुताबिक देश की आधी आय ऊपरी 20% लोगों के हाथ में जाती है. यानि इतनी बड़ी आमदनी के साथ-साथ यही उपरी तबका 25,00,0000 लाख करोड़ के काले धन पर भी काबिज है. इसी काले धन कि बदौलत इस वर्ग का इस देश की सत्ता पर भी नियंत्रण है जिसके जरिये यह धनाढ्य वर्ग कानूनी तौर पर अपने लिए मोटी तनख्वाह और सुविधाएं (वेतन आयोग बनाकर या संसद में प्रस्ताव पास करके) जुटाने के अलावा, टैक्स में छूट, सरकारी धन का बंदरबाँट, अरबों का फायदा पहुँचाने के बदले करोड़ों की रिश्वत और हर तरह के जुगाड़ से सार्वजनिक संपत्ति की कानूनी-गैरकानूनी लूट में दिन रात शामिल रहता है. यही तबका वैश्वीकरण, उदारीकरण, निजीकरण का सबसे बड़ा पैरोकार और नवउदारवादी लूटतंत्र का सामाजिक आधार है. इसे अपने अलावा सभी भ्रष्ट नजर आते हैं और सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार पर प्रवचन भी यही लोग देते हैं. अन्ना के आन्दोलन में भी इसी तबके के लोग सबसे आगे थे. अपनी सुविधानुसार भ्रष्टाचार को लेकर इनके अलग-अलग बोध हैं. इनका मानना है कि इनकी परिभाषा के मुताबिक़ जो भ्रष्टाचार है, उसे खत्म कर दिया जाये तो यह व्यवस्था सुचारू रूप से चलने लगेगी. सरकार और सिविल सोसाइटी के बीच टकराव का कारण यही अलग-अलग बोध है. अगर देश में पहले से ही मौजूद कानूनों को कड़ाई से लागू कर दिया जाय तो शायद इस तबके के कुछ लोगों को छोड़कर बाकी सभी जेल की सलाखों के पीछे होंगे. लेकिन व्यवस्था को चलाने वाले लोग भी चूँकि इसी तबके से हैं, इसीलिए हमारे यहाँ छोटे चोरों को सजा होती है और बड़े चोरों को पुरस्कृत किया जाता हैI जब तक चोरी पकड़ी नहीं जाती, तब तक हर चोर प्रतिष्ठित नागरिक होता है, चाहे कलमाड़ी हों, ए.राजा, हसन अली, रेड्डी बंधु, यदुरप्पा या अलां-फलां... सूची अंतहीन है. सत्ता के शीर्ष पर विराजमान लोगों तथा सफेदपोश और संगठित अपराधियों के बीच गहरे रिश्ते हैं. लोकपाल की जगह साक्षात ब्रह्मा-विष्णु-महेश भी आ जायें तो वे भी इस व्यवस्था के रहते कुछ नहीं कर पाएंगे.
दरसल भ्रष्टाचार इस व्यवस्था का अलिखित विधि-विधान और समान्तर कार्य-प्रणाली है. यह इस व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने में ग्रीस और मोबिल ऑयल का काम करता है. भ्रष्टाचार से एकत्रित काले धन का एक हिस्सा स्विस बैंक या लिचेंस्टीन बैंक में जमा होता है फिर विश्व अर्थव्यवस्था में सफ़ेद बनकर दौड़ता है. (भारत में विदेशी निवेश और कर्ज के रूप में वापस आकर प्रतिष्ठित होता है.) दूसरा भाग अपने ही देश में सफ़ेद होकर पूँजी में बदल दिया जाता है और पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का वैधानिक हिस्सा बन जाता है. इस कार्य के लिए एक पूरी कार्य प्रणाली विकसित हुई है- दान-पुण्य से लेकर खेती की आय, मनोरंजन उद्योग, भवन निर्माण उद्योग और यहाँ तक की मनी लैंडरिंग (काले धन की स्वैछिक घोषणा ) कानून तक. ताजा समाचार यह है कि भारत के पूंजीपतियों ने सरकार से विदेशों में जमा कला धन आसानी से वापस लाने के लिए क़ानून बनाने की अपील कि है ताकि पूंजी निवेश कि समस्या हल हो. इस तरह वर्तमान दौर में भ्रष्टाचार की बेलगाम बढ़ती प्रवृत्ति दरअसल आदिम पूँजी संचय का ही एक रूप है. यह आदम-हव्वा के द्वारा वर्जित फल खाने की तरह ही पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का आदिम पाप है. पूँजी शिष्टाचार से पैदा नहीं होती, जन्म से ही वह खून और कीचड़ से लथपथ होती है.
वैश्वीकरण के इस दौर में अर्थतंत्र और राजनीति के बीच, सार्वजनिक और निजी स्वार्थों के बीच तथा व्यवसाय और जनसेवा के बीच के सारे फर्क मिटाए जा रहे हैंI इसी के साथ सत्ता की राजनीति खुद ही एक नग्न रूप ले चुकी हैI एक जमाना था जब इसे ठीक नहीं माना जाता था हालाँकि तब भी सत्ता की राजनीति पूंजीवादी व्यवसाय को संरक्षण देने और बदले में अपने लिए उनसे चंदा लेने का काम करती थी जो स्वीकृत और जायज था. अक्सर यह भ्रम फैलाया जाता है कि लोकतंत्र में सरकार का काम बाजारवाद और पूँजीवादी अर्थतंत्र पर अंकुश रखना है, ताकि वे जनता का निर्मम शोषण न करें. सच्चाई यह है कि सरकार का काम पूँजीवाद की हिफाजत करना है. नेहरूवाद के दौर में इस पर समाजवाद-संरक्षणवाद का पर्दा पड़ा हुआ था जिसे अब हटा दिया गया है. अब पूंजीपति और उनके नुमाइंदों के बीच का अंतर काफी हद तक मिट गया है. यही कारण है कि पूँजीवाद द्वारा श्रम की वैधानिक लूट और शोषण, जो वास्तव में भ्रष्टाचार ही है, उसे काफी पीछे छोड़ते हुए हर कीमत पर मानव श्रम, प्राकृतिक संसाधन और सार्वजनिक संपत्ति की लूट-खसोट में ज्यादा तेजी आयी है. इसके साथ ही भ्रष्टाचार का नंगा नाच भी पहले से कई गुना अधिक बढ़ा है. इंदिरा गाँधी के ज़माने में जो 10 लाख रुपये का नागरवाला कांड हुआ था, वह आज के हर्षद मेहता, हसन अली, कलमाड़ी और ए. राजा कांड के आगे भला क्या था? ‘भद्रलोक’ को पूंजीवादी अर्थव्यवस्था और पूंजीवादी शोषण के बेलगाम होने से कोई शिकायत नहीं है. वे सतह पर दिखने वाले भष्टाचार के इस घिनौने चेहरे से लज्जित हैं और इसे खत्म करके पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की छवि सुधारने का अपना कर्त्तव्य निभा रहे हैं. इससे आगे वे देखना नहीं चाहते.
अमेरिका के कहने पर मणि शंकर अय्यर को हटा कर मुरली देवड़ा को पेट्रोलियम मंत्री बनाना, क्योंकि अमेरिका इरान-पकिस्तान-भारत गैस पाइप लाइन के विरुद्ध था, यह कहाँ का शिष्टाचार है? पूंजीपतियों का एक समूह एक लौबिस्ट को भरपूर पैसा देकर अपने मनमाफिक आदमी ए.राजा को संचार मंत्री बनवाता है, अतीतग्रस्तता के कारण गुटनिरपेक्षतापूर्ण बयानबाजी कि जुर्रत करने वाले विदेश मंत्री नटवर सिंह को निकाल बाहर करना और वे तमाम बातें जिनका खुलासा विकिलिक्स ने किया, भला किस कोटि का आचार हैं? बिना लेन-देन के ही सही, सार्वजनिक संपत्तियों की कोड़ियों के मोल नीलामी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हित में असमान व्यापार समझौते, नाभिकीय समझौते पर संसद की मोहर लगवाने के लिए खरीद-फरोख्त (जिसके बारे में सर्वोच्च न्यायालय ने पूंछा है कि इतना पैसा कहाँ से आया?) यह सब नैतिकता की किस कोटि में आते है? ऐसे मामलों में ‘भद्रलोक’ गाँधी जी के तीन बंदरों कि तरह आचरण क्यों करता है?
सबसे बड़ी बात यह कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में कोई भी भ्रष्टाचार शिष्टाचार बन जाता है, जब व्यवस्था के संचालक किसी भ्रष्ट आचरण-व्यवहार या पेशे को कानूनी जामा पहना देते हैं, जैसे- वित्तमंत्री के मुख्या सलाहकार कौशिक बासु ने कुछ विशेष प्रकार की रिश्वतखोरी को वैधानिक बना देने का सुझाव दिया और शीर्षस्थ पूंजीपति नारायणमूर्ति सहित अनेक लोगों ने इसका समर्थन भी किया. लॉबिंग को परामर्श सेवा का दर्जा देने कि चर्चा चल रही है, पैसा लेकर सवाल पूछने और अमेरिका की तरह यहाँ भी सांसदों को लॉबी बनाने की इजाजत देने की सिफारिश कुछ साल पहले भाजपा ने की थी. काले धन को सफ़ेद करने के लिए कानून बनाया जाना, सोने के आयात की छूट देना, सीमा शुल्क 350% से घटाकर 10% कर देना, श्रम कानूनों में ढील देकर मजदूरों के निर्मम शोषण को कानूनी रूप देना, उदारीकरण-निजीकरण के जरिये पूँजी को बेलगाम छूट देना, 1991 से पहले गैर कानूनी समझे जाने वाले काले धंधों (काला बाजारी, सट्टेबाजी, जमाखोरी, कर चोरी) को कानून बनाकर वैधानिक करार देना भी उसके अन्य उदाहरण हैं. विदेशों से सोना लाने वाले तश्करों पर अब फिल्में नहीं बनती. नेपाल से विदेशी उपभोक्ता वस्तुओं की तश्करी अब पुराने ज़माने की बात हो गयी है. ऐसे ढेर सारे धंधे जो 1991 से पहले भ्रष्टाचार की श्रेणी में आते थे आज वे शिष्टाचार हैं. अभी ढेर सारे ऐसे भ्रष्टाचार है जो शिष्टाचार की श्रेणी में बदले जाने की प्रतीक्षा में है. सम्भव है कि लोकपाल के पदभार सँभालने तक भ्रष्टाचार के ढेर सारे मामले उनके दायरे से बाहर हो जायें. संसद में अस्सी से अधिक कानून पास होने कि बात जोह रहे हैं.
भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन के ध्वजवाहक लोगों में लोकरंजक शैली में कहते हैं कि ‘सरकार नौकर है और हम सब उसके मालिक हैं’. वे यह नहीं बताते कि आखिर क्यों यह नौकर अपने मालिक की छाती पर मूंग दल रहा है? लोकतंत्र बहुमत की इच्छा न होकर कुलीनतंत्र क्यों है? राज्य के संचालकों के पास जितने अधिकार केंद्रित होते हैं उसके कारण उनका नौकर से मालिक बन जाना, भ्रष्टाचार रोकने के बजाय उसका स्रोत बन जाना लाजिमी है. साथ ही, यह प्रक्रिया उतनी ही तेज होती जाती है जितनी तेजी से गरीबी-अमीरी की खाई चौड़ी होती जाती है, बहुसंख्य जनता कंगाली के गर्त में धकेली जाती है, उसे राज-समाज के काम-काज में भागीदार होने के लायक नहीं समझा जाता (क्योंकि सरकारी नीतियों के चलते भद्रलोक की तुलना में राष्ट्रीय आय में उनका हिस्सा लगातार कम से कमतर होता जाता है) और सरकार के विभिन्न अंग जितना अधिक खुद को जनता से दूर करते जाते हैं. भ्रष्टाचार की आपराधिक कार्यवाहियों के अलावा शासक वर्ग अपने विशेष अधिकारों के दम पर अपने और अपने सहयोगियों के वेतन-भत्ते और सुविधाएं, जनता की बहुमत की औसत आय (जहाँ 77% लोग 20 रूपया रोज पर गुजर करते हैं) से कई कई गुना अधिक बढ़ाते चले जाते हैं. आर्थिक हैसियत के साथ-साथ उनकी सामाजिक हैसियत भी बढ़ती है और वे जनता के ऊपर सवारी गांठने वाले नये राजा-महाराजा बनते जाते हैं. आज की पीढ़ी के लिए कल्पना करना शायद कठिन हो कि पहले अधिकांश नेता (भले ही उनके विचार पूंजीवादी हों और वे मूलतः पूंजीपतियों के ही नुमाइंदे रहे हों) आज से बहुत कम सुविधा संपन्न थे. बसों में आज भी ‘सांसद और विधायक सीट’ लिखा दिख जाता है जो बताता है कि पहले वे लोग भी बसों में सफर करते रहे होंगें. जनता की बढ़ती कंगाली की कीमत पर अपने लिए वैभव-विलास जुटाने कि यह कार्यवाही खुली तानाशाही के अधीन तो होती ही है, लेकिन उन लोकतान्त्रिक देशों में भी निर्बाध रूप से होती है जहाँ राज्य के केवल एक अंग (विधायिका) का मतदान के द्वारा चुनाव करने की औपचारिकता के अलावा ऊपर से नीचे तक किसी भी ‘लोकतान्त्रिक’ संस्था में या उसकी कार्यवाहियों में जनता की कोई प्रत्यक्ष भूमिका नहीं होती. राज्य के प्रमुख कार्यकारी अंग नौकरशाही और न्यायतंत्र का चुनाव लोकतांत्रिक तरीके से नहीं होता, बल्कि इन विशेषाधिकार प्राप्त और सुविधा संपन्न लोगों को जनता पर ऊपर से थोप दिया जाता है. निगम नियंत्रित मीडिया भी जिसे लोकतंत्र का पहरेदार कहा जाता है, बाजार और मुनाफे से प्रेरित है और मुनाफाखोरी के परम हितैषी है. पिछले दिनों मीडिया-नेताओं-पूँजीपतियों की दुरभिसंधियों के एक से बढ़कर एक मामले सामने आये. कुल मिलाकर इनमें से कोई भी संस्था जनता के प्रति जवाबदेह नहीं है. इन सबका हित जनता के विपरीत है. इनको जनता का नौकर बताना जनभावनाओं को सहलाना और लोगों को भरमाना है. भ्रष्टाचार की जननी, इस पूरी व्यवस्था की असलियत बताने और पर्दाफाश करने के बजाय उसी पर निर्भर रहते हुए भ्रष्टाचार मिटाने की बात करना, उसे और अधिक मजबूत बनाने के लिए कठोर कानून की हिमायत करना और उसके प्रति अन्धश्रद्धा को बढ़ावा देना दरसल भ्रष्टाचार को चिरस्थायी बनाना है. भ्रष्टाचार की जड़ पर प्रहार करने के बजाय उस पर अंकुश लगाने के लिए प्रशासनिक और कानूनी सुधारों की मांग करना जनता में व्याप्त व्यवस्था विरोधी असंतोष और आक्रोश को शांत करना और उसके मन में व्यवस्था के प्रति विश्वास पैदा करने का प्रयास मात्र है. जब तक राज्य के सभी अंगों का जनता से अलगाव दूर नहीं होता, राज्य चलाने के कार्यों में जनता की प्रत्यक्ष भागीदारी सुनिश्चित नही होती, राज्य के सभी अंग जनता के प्रति पूरी तरह से जवाबदेह नहीं होते, चुने जाने, चुनने और वापस बुलाने का अधिकार सही मायने में बहुमत के हांथों में नहीं आता, तब तक ‘नौकर के मालिक बन बैठने’ और उसे भ्रष्ट होने से दुनिया की कोई ताकत रोक नहीं सकती. यह सतही सुधारों या कानूनी फेर-बदल से नहीं होगा. लूट पर टिकी पूंजीवादी अर्थव्यस्था के रहते इनमें से कुछ भी सम्भव नहीं है.
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