Saturday, January 28, 2012

सरकारी पैसे पर फ्री थिएटर नहीं चल सकताः बादल सरकार से एक बातचीत


बादल सरकार के निधन के बाद शम्सुल इसलाम ने मेल के जरिए सरकार से की गयी अपनी एक बातचीत की कटिंग भेजी है, जो द संडे टाइम्स ऑफ इंडिया के 11 अक्तूबर, 1992 संस्करण में छपी थी. हम यहां इसका अनुवाद पेश कर रहे हैं. इसे हम यहां बादल सरकार के रंगमंच पर जारी बहस के सिलसिले के रूप में पोस्ट कर रहे हैं. इसके पहले हाशिया ने अपने नजरिये के रूप में ब्रह्म प्रकाश द्वारा बादल सरकार का एक आलोचनात्मक आकलन पेश किया था.
आपने तीसरा रंगमंच के सिद्धांत की शुरुआत की और आप अपनी राय बदलते रहे हैं. अब आप फ्री थिएटर को कैसे देखते हैं?

यह सही है, एक बार मैंने तीसरा रंगमंच को शहरी और ग्रामीण रंगमंच के मेल (संश्लेषण) से बने रंगमंच के रूप में सोचा था. लेकिन इस पर काम करते हुए मैंने अपने विचारों को सुधारा. मुझे लगा कि अगर तीसरा रंगमंच को एक वैकल्पिक रंगमंच होना था तो यह किसी का भी संश्लेषण नहीं हो सकता था. पहले मैं यांत्रिक नजरिये का शिकार हो गया था. मैं इस नतीजे पर पहुंचा कि तीसरा रंगमंच को फ्री थिएटर होने के लिए उसे महंगा, स्थिर और व्यवसायिकरण का शिकार होने से बचना चाहिए. इसे दर्शकों से संवाद बनाने की कोशिश करनी चाहिए.
एक बार जब आप पारंपरिक मंच नाटक (प्रोसीनियम थिएटर) की चीजों से पार पा लेते हैं तो आपको मुख्यतः मानव देह पर निर्भर रहना पड़ता है. इसकी क्षमताओं को गहरे प्रशिक्षण के जरिये विकसित किया जाना चाहिए. फ्री थिएटर को बीते हुए समय की तरह नहीं लिया जा सकता. हमारे लिए किसी कहानी को कहने के बजाय रंग अनुभव अधिक प्रासंगिक होता है. किसी भी हालत में भाषा पर पूरी तरह निर्भर रहने के बजाय शारीरिक अनुभव कहीं अधिक असरदार होता है.
आलोचक महसूस करते हैं कि आपका रंगमंच भाषा या बोले गये शब्दों की कीमत पर महज एक शारीरिक रंगमंच है. वे यह भी कहते हैं कि शारीरिक प्रदर्शन पर अधिक निर्भरता आपके रंगमंच को एक करतब देखने के अनुभव में बदल देती है, जो सिर्फ मध्यवर्ग के दर्शकों को ही संप्रेषणीय होता है. आपका इन टिप्पणियों पर क्या जवाब है?

ऐसी बातें केवल वहीं लोग कहेंगे जिन्होंने कभी हमारे प्रदर्शन नहीं देखे, और जो रंगमंच के बारे में कुछ भी जानना नहीं चाहते. वे हमारी तारीफ भी करते हैं तो गलत वजहों से. लेकिन इस देश में ऐसे ही होता हैः बिना कुछ भी जाने लोग फैसले देते हैं.
 
असल में हम उसका उल्टा करते हैं, जिसका आरोप हम पर लगाया जाता है. हम थीम के नाट्यालेख से शुरू करते हैं और फिर फॉर्म को विकसित (एक्सप्लोर) करते हैं. हमारे लिए कथ्य रंगमंच का सबसे महत्वपूर्ण पहलू है. अनेक लोग फॉर्म से शुरू करते हैं और फिर एक विषय या नाट्यालेख को काट-छांट कर उसमें फिट कर देते हैं. हम ऐसा कभी नहीं करते.
 
इन आलोचकों के साथ एक और समस्या है. वे यह मानना पसंद करते हैं कि आम आदमी किसी प्रस्तुति की बारीकियों पर अपनी राय नहीं रख सकता, कि यह कुलीनों-अभिजातों का विशेषाधिकार है. हमारा अनुभव है कि आम आदमी नाटक के प्रतीकों, भंगिमाओं और आत्मा को उन तथाकथित शहरी बुद्धिजीवियों से अधिक समझता है.
आप अपनी रंगमंचीय कार्यशालाओं की लोकप्रियता के बारे में क्या कहेंगे?

मेरी कार्यशालाओं में कभी भी नाट्यालेख या नाटक पर काम नहीं होता. यह पूरी तरह बेकार होगा. खुल कर कहूं तो मेरी कार्यशालाओं का ऐसा कोई नतीजा नहीं निकलता. उनका कोई अंतिम नतीजा होता ही नहीं. क्योंकि मैं मानता हूं कि एक रंगमंचीय कार्यशाला को भागीदारों को रचनात्मक होने में मददगार होना चाहिए. भागीदारों को रंगमंच को जीना चाहिए और उनकी जिम्मेदारी कही गयी बातों की नकल करना या उसे मान लेना भर नहीं होना चाहिए. रंगमंच पर अकेले निर्देशक का अधिकार नहीं होना चाहिए.
 
इस प्रक्रिया में क्या बातें निकल कर आती हैं?

उत्तर भारत में तो अधिक नहीं. दिल्ली में मैंने एनएसडी, संभव, एसआरसी रंगमंडल के लिए कार्यशालाएं की हैं. लेकिन इनमें से कोई फ्री थिएटर नहीं करता. आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु और पश्चिम बंगाल में इसका उल्टा है. इन राज्यों में फ्री थिएटर एक आंदोलन की शक्ल ले रहा है. इन कार्यशालाओं ने पाकिस्तान के रंगकर्मियों तक की एक फ्री थिएटर आंदोलन शुरू करने में मदद की है.
संस्कृति को राजकीय संरक्षण दिए जाने के मुद्दे पर आपका क्या विचार है?

हम इसके पूरी तरह खिलाफ हैं. हमने कभी भी राज्य या इसकी एजेंसियों से अनुदान या किसी मदद के लिए आवेदन नहीं किया है. अगर हम संरक्षण की मांग करना शुरू करेंगे तो फिर फ्री थिएटर बेमानी हो जाएगा. 20 सालों का हमारा अनुभव रहा है कि आप राज्य के अनुदान के बिना भी जनता के स्वैच्छिक योगदान के जरिए नाटक कर सकते हैं.
 
वे लोग कितने सही हैं जो यह मानते हैं कि आप मंच नाटकों (प्रोसीनियम) को खत्म करना चाहते हैं?

अगर मैंने कोशिश भी की होती तो तय है कि मैं सफल नहीं हुआ होता. यह तो एक मिथक है जिसका प्रचार किया गया है. सही बात यह है कि मैं मंच नाटकों में भरोसा नहीं करता और न इस पर काम करता हूं. मैं ऐसा क्यों करूंगा जब मैं इसे प्रासंगिक ही नहीं मानता? लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि जो लोग मंच नाटक करते हैं वे मेरे दुश्मन हैं.
आपके नाटकों में बार बार खुदकुशी क्यों एक थीम के रूप में आती है?

ऐसा मेरे 50 नाटकों में से केवल तीन नाटकों में हुआ है- पगला घोड़ा, एवम इंद्रजीत और बाकी इतिहास में. यह एक गलत सामान्यीकरण है. और कृपया ध्यान दीजिए कि इन नाटकों में खुदकुशी होने के बावजूद वे निराशावादी नाटक नहीं हैं. वे जीवन से भरे हुए हैं. उनमें खुदकुशी का प्रचार नहीं है. ऐसा इसलिए है क्योंकि यह नाटक के ढांचे में फिट बैठता है.

साम्राज्यवाद का सांस्कृतिक चक्रव्यूह


साम्राज्यवाद का सांस्कृतिक चक्रव्यूह




भारतीय राज्य के साथ मिलकर साम्राज्यवादी जमकर सांस्कृतिक हमला कर रहे हैं. भारत जैसे गरीब देश में अमरीका के बाद  भारत के पास दूसरे नंबर पर टी. वी. चैनल्स हैं. इसका कोई ख़ास मतलब है. अच्छे-खासे लोग इसमें फंसते जा रहे हैं. दो तरह की चीजें परोसी जा रही हैं. एक तो रामायण जैसे ढेरों धारावाहिक रोज दिखाए जा रहे हैं (इसमें महाभारत थोडा भिन्न था, " भारत एक खोज भी",बाकी तो कूड़ा है). (नोट- हमारे यहाँ मिथोलोजी को मिथोलोजी के रूप में नहीं अक्षरश: धार्मिक रूप में लिया जाता है.  धारावाहिक के सामने पूजा होती है. विदेशों का आदमी शिक्षित हैसारी चीजों को जानता हैकहानी के रूप में लेता है.). वे अब भारी पैमाने पर सामान्य लोगों की चेतना कुंद करने के लिए दिखाए जा रहे हैं. यदि इससे लोग बच जाते हैं तो अलिफ़-लैलाचन्द्रकान्ता देखिये-अवास्तविक दुनिया में लोग पहुँच जाते हैं. इसके अलावा उच्छ्रंखल साम्राज्यवादी धारावाहिक दिखाए जा रहे हैं. नए टी.वी.चैनल्स में यह ज्यादा है.ज्यादातर नंगी तस्वीरें दिखाते हैं-वे हमारी मूलभूत सहज्वृति से खेल रहे हैं. (playing on basic instincts.) फिर माइकल जैक्सनयान्नी भी टी.वी.पर आते हैं. इसमें फंसने वाले लोगों की संख्या भी बहुत है.



यह सब जो हो रहा है हमारे देश में इसके लिए जमीन सबसे अच्छी है. अंधविश्वास-भुखमरी सबसे ज्यादा है. लोग पस्तहिम्मती में जी रहें हैं. असली जिंदगी में कुछ नहीं मिलता तो वे उसे मास फंतासी  (mass fantasy) में पाने की आशा करते हैं. क्योंकि खुद जी नहीं सकते तो दूसरों को देखकर जी सकते हैं. जैसे प्रेम करने के लिए कानी लड़की भी नहीं मिलती. लेकिन सिनेमा में बैठते हैं तो खूबसूरत, करोड़पति की लड़की से गरीब नौजवान को प्रेम करते हुए देखते हैं और खुद को उसकी जगह पर रखकर खुश हो लेते हैं. और जब बीभत्स व कुरूप असली दुनिया से उनका सामना होता है तो उनकी रूह तक काँप जाती है. इसी प्रकार, क्रिकेट, तैराकी - यह देखना एक नकली चीज है. लोगों की भारी संख्या इसमें जीने लगी है जबकि खुद खेल नहीं सकते. (जो खेल लेते हैं उनकी बात अलग है,खेलना अच्छी बात है.) इसके अलावा खेल में विज्ञापनों को देखकर बाजार तैयार करते हैं. सारी चीजों से वंचित होकर लोग टी. वी. से चिपके रहते हैं.

साम्राज्यवादी दानव नौजवानों में उन्माद और पागलपन भर रहे हैं. इसी का नतीजा है कि बिगडैल नौजवान द्वारा मासूम लड़कियों का आये दिन शिकार किया जाना अखबारों की मुख्य खबरों में है. हम बहुत गरीब हैं तो क्या हुआ एक सामान्य जिंदगी तो जी ही सकतें  हैं, ढंग से. इसके बजाय दूसरों को जीते हुए देखना और उससे या तो संतोष कर लेना या उन्माद का शिकार हो जाना मानसिक बीमारी है. 

इतिहास के रास्ते में धर्म जब शुरू हुआ था उस समय आदमी असहाय था, कोई न कोई पराभौतिक चीज (धर्म, ईश्वर) की जरूरत थी जिसके सहारे अपनी कमजोरी के बावजूद जीने कि कोशिश करता. आज भी कुछ वैसा है दूसरी परिस्थिति में. लाखों करोड़ों लोग फंतासी में जीते हैं. It is more or less a sign of sick mentality......ऐसा पुणे विश्वविद्यालय में श्याम बेनेगल ने अपने भाषण में कहा था. ठीक ही कहा था. जैक्सन, यान्नी जो तकनीक-लाईट अपने कार्यक्रम में इस्तेमाल करते है उसमें आदमी खो जाता है. पर्फोर्मेर की बात ख़त्म हो जाती है,  लोग तकनीकी की चकाचौंध से प्रभावित हो जाते है. यान्नी तो तकनीक के बिना एक घटिया कम्पोजर से ज्यादा कुछ नहीं. लेकिन बेचने वाली कम्पनियाँ तकनीक (पब्लिसिटी आदि) के आधार पर उसे बेच रहीं है. और लोग स्वस्थ कला की विकल्पहीनता की स्थिति में उसकी तरफ दौड़ रहें.

आज बड़े अखबारों में अनाप-शनाप आ रहा है. उनमें कोई उपयोगी सामग्री नहीं आ रही है. छोटे अखबारों में कुछ स्थानीय समस्याएं तो आती हैं- कहाँ बलात्कार हुआ,कहाँ चीनी नहीं मिल रही है; इन खबरों का फिर भी कोई मतलब है बड़े अखबार आडवाणी-मोदी-अन्ना-मनमोहन के बारे में चटकारे लेकर लिखते हैं. इसी प्रकार, जितने भी टी. वी. चैनल्स आप लगाए दिखाया तो वही जाएगा-कूड़ा. वे ढंग की अच्छी चीजें लाइब्ररी से हटाकर लेखागार (archive)  में डाल चुके है. अच्छे सिनेमा आज कभी-कभार ही फिल्म चैनल्स पर दिखाए जाते हैं. शहरों में १५-२० फिल्म हाल होते हैं लेकिन उनमें फिल्म एक भी देखने लायक नहीं होती, अच्छी फ़िल्में महानगरों में ही इक्का-दुक्का आती हैं और कम लोगों के बीच ही इस प्रकार पहुँच पाती हैं. यह सब करना आज साम्राज्यवादियों के लिए जरूरी हो गया है. यदि उन्हें आर्थिक बल पर राज करना है और उनकी शोषणकारी व्यवस्था टिकाऊ हो तो उन्हें इन क्षेत्रों को अहमियत देनी होगी. लोगों को मानसिक गुलाम बनाकर शासन करना लोगों को सीधे गुलाम बनाने के बजाय अच्छा है, यह बहुत दिनों तक चल सकता है. बन्दूक के दम पर शासन का अर्थ होता है कि अब उनके दिन लदने वाले हैं. 

लोगों को एक ख़ास तरह से ढाला जा रहा है ताकि वे एक ख़ास तरह की चीजें ही देखें. एक ख़ास तरह का जानवर बनाकर लोगों को सेट किया जा रहा है. लोगों को एक ख़ास किस्म का उपभोक्ता बनाया जा रहा है. इस चक्रव्यूह को तोडना आज के क्रांतिकारी आन्दोलन के सामने एक महत्वपूर्ण चुनौती है.

भ्रष्टाचार के प्रति भद्रलोक का भ्रामक नजरिया - दिगम्बर


भ्रष्टाचार के प्रति भद्रलोक का भ्रामक नजरिया - दिगम्बर


र्तमान समाज में प्रचलित और स्थापित धारणा यही है कि अपनी पद-प्रतिष्ठा और जिम्मेदारी का दुरुपयोग करके अपने और अपने खास लोगों के स्वार्थों कि पूर्ति करना तथा पूंजीवादी नैतिकता के मानदंडों और कानूनों का उल्लंघन करके नाजायज धन-संपत्ति जमा करना भ्रष्टाचार है. एक दूसरे प्रकार का भ्रष्टाचार भी है जिस पर यह पूरी समाज व्यवस्था टिकी हुई है, लेकिन वह हराम या गैर-कानूनी नहीं है- पूंजीवादी शोषण और लूट-खसोट. उदाहरण के लिए श्रम का निर्मम शोषण, प्राकृतिक संसाधनो का बेहिसाब दोहन, निजीकरण के नाम पर सार्वजनिक सम्पात्ति का मालिकाना निजी पूंजीपतियों को सौंपना, पूंजीपतियों को टैक्स में छूट और हर तरीके से उनकी तिजोरी भरना, जनता पर टैक्स लादकर मंत्रियों, सांसदों, विधायकों, नौकरशाहों और बुद्धिजीवियों के लिए मोटी तनख्वाहों, राजसी ठाट-बाट और विशेषाधिकारों का इंतजाम करना. पूंजीवादी नैतिकता के अनुसार ये भ्रष्टाचार की श्रेणी में नहीं आते, लेकिन बहुसंख्य मेहनतकश वर्गों और मानवता की दृष्टि से यह सब निकृष्ट और भ्रष्ट आचरण है. भ्रष्टाचार के खिलाफ धर्मयुद्ध छेडने वाले योद्धा इस दूसरे तरह के भ्रष्टाचार की कहीं कोई चर्चा नहीं करते, उनकी निगाह में ये सभी काली करतूतें नैतिक और जायज हैं, केवल स्थापित कानूनों का उल्लंघन करके काला धन बटोरना ही भ्रष्टाचार है जबकि भ्रष्टाचार का ये कानूनी प्रकार इस समूचे लूटतंत्र के आगे कुछ भी नहीं. लेकिन इसकी चर्चा बाद में. पहले प्रचलित अर्थों में भ्रष्टाचार को ही लें, जो लोगों को प्रत्यक्ष रूप से दिखाई देता है, जिसे लेकर लोगों के मन में आक्रोश है और जिसकी रोक-थाम के लिए आज विश्व बैंक, सरकार और भद्रलोक एनजीओ अपने-अपने तरीके से जोर लगा रहे हैं.
भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन के भद्रलोक एनजीओ नेता भ्रष्टाचार के प्रति सतही और भ्रामक नजरिया अपनाते हैं. कैसे?
पहला-- वे रोग के लक्षण को ही रोग बताते हैं, महंगाई, बेरोजगारी, किसानों की तबाही और लाखों की संख्या में आत्महत्याएं, मजदूरों का निर्मम शोषण, अमीरी-गरीबी के बीच बढ़ती खाई, बहुसंख्य जनता की कंगाली, बदहाली और प्रवंचना, सांस्कृतिक पतनशीलता और अन्य तमाम लक्षणों की तरह भ्रष्टाचार भी वर्तमान रुग्ण पूंजीवादी व्यवस्था के लाइलाज रोग का एक लक्षण मात्र है. लेकिन भ्रष्टाचार विरोधी धर्मयोद्धा यह भ्रम फैला रहे हैं कि भ्रष्टाचार समाज कि सभी बुराइयों की जड़ है जिसे खत्म कर दिया जाय तो सारी समस्याओं का अंत हो जायेगा.
अपने रोजमर्रे की जिंदगी में आये दिन लोगों का भ्रष्टाचार से सामना होता रहता है. हर छोटे-बड़े काम के लिए उन्हें रिश्वत देनी पड़ती है. इसी का फायदा उठाकर भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम के कर्ता-धर्ताओं ने इसे देश कि सारी समस्याओं की जड़ बनाकर पेश किया. कारपोरेट नियंत्रित मीडिया-- टीवी, रेडियो और अखबारों ने अपने धुआँधार प्रचार के द्वारा आम लोगों के मन में इसे कॉमन सेंस की तरह स्थापित कर दिया है. हर कॉमन सेंस की तरह यह भी सरासर गलत है. इसके लिए एक सूत्र अजमाया जाय. हर व्यक्ति अपने एक साल का लेखा-जोखा ले कि उसने कितनी जगह कितनी रिश्वत दी. उससे उसे खुद कितना फायदा हुआ? नहीं देने से कितना नुकसान होता? पता चलेगा की 20 रुपये रोज पर गुजर-बसर करने वाले 80 फीसदी लोगों की जिन्दगी में भ्रष्टाचार की कोई गुंजाइश ही नहीं है. यही कारण है कि इन 80 फीसदी लोगों को भद्रलोक इस लायक नहीं समझता कि वे उसके भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम में झण्डा, टोपी और टैटू के साथ शामिल हों. आम माध्यम वर्ग के लिए भी यह ढेर सारी समस्याओं में से एक है.
भ्रष्टाचार कि तरह ही पूंजीवादी रोग का एक लक्षण महंगाई है जिसके चलते हर आदमी को अतिरिक्त बोझ उठाना पड़ता है, चाहे 20 रूपये पर गुजारा करने वाले हों या हजारों रुपये मासिक कमाने वाले. तुलना करें कि एक साल में किसने हमारा कितना अधिक प्रत्यक्ष दोहन किया? बेरोजगार यह सोचें कि यदि सम्मानजनक रोजगार मिल जाये तो पिछले एक साल में भ्रष्टाचारियों को दी गयी रिश्वत की तुलना में उसका कितना फायदा होता? खेती तबाह न हो तो कोई किसान आत्माहत्या करने के बजाय क्या ब्याज चुकाना और घूस देना पसंद नहीं करेगा? इन बातों का मतलब भ्रष्टाचार का समर्थन करना नहीं बल्कि उनके ‘कॉमन सेंस’ का जवाब उन्हीं की भाषा में देना है. क्योंकि इसी पद्धति से भ्रष्टाचार विरोधी भ्रष्टाचार को सबसे बड़ी समस्या बना कर उसे लोगों के मष्तिस्क में रोप रहे हैं. भ्रष्टाचार को लक्षण की जगह रोग बताने वाले ये ध्वजाधारी वास्तव में लोगों का ध्यान जनता की मूल समस्याओं-- महंगाई, बेरोजगारी, किसानों की तबाही, आम जनता की बढती बदहाली और कानून के संरक्षण में हो रहे देशी-विदेशी पूंजीपतियों की बेलगाम लूट से हटा रहे हैं, जिनके मूल में नवउदारवादी पूंजीवादी अर्थव्यवस्था है. इसके चलते लोगों को लगता है कि जन लोकपाल बनने और लोकपाल का पद सृजन होने से उनकी सारी समस्याएं हल हो जाएँगी. इस तरह जनता का गुस्सा कुछ समय के लिए शांत हो जायेगा. आंदोलनकारियों का यही मकसद है .
दूसरा— भ्रष्टाचार की जड़ तक पहुँचने, उसका कारण तलाशने या उसके असली स्रोतों को निशाना बनाने और उसे निर्मूल करने के बजाय भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलनकारी केवल ऊपरी तौर पर सुधार करने और कानून के जरिये इस पर रोक लगाने की बात करते हैं. इस कानून के अधीन देशी-विदेशी पूंजीपतियों को लाने से इन्कार करते हैं और केवल उनके निरंतर जारी भ्रष्टाचार में सहयोग करने वाले नेताओं और नौकरशाहों के खिलाफ कानून बनाने कि बात करते हैं. 2जी स्पेक्ट्रम का घोटालेबाज में ए. राजा तो पहले से मौजूद कानून के तहत ही जेल में है. लेकिन जिन मोबाइल कंपनियों को उसके जरिये 1,75,000 करोड़ का मुनाफा हुआ उन देशी-विदेशी पूंजीपतियों को इस नये कानून के अधीन लाने का कहीं कोई जिक्र नहीं है. इसी तरह वे व्यस्थापोषक मीडिया और एनजीओ को भी इस कानून की पकड़ से बाहर रखने के हिमायती हैं.
अन्ना टीम यह मानकर चलती है कि भ्रष्टाचार केवल सरकारी संस्थानों में ही है. इसीलिए वे निचले स्तर तक के सरकारी कर्मचारियों को लोकपाल के दायरे में लाने कि मांग करते हैं. सरकारी स्कूल, अस्पताल और सरकारी सेवाओं के भ्रष्टाचार के प्रति उनकी चिंता जायज है. लेकिन आज निजीकरण के चलते शिक्षा, स्वास्थ्य, परिवहन, सड़क और पानी-बिजली का जिम्मा नाम मात्र ही सरकार के अधीन है. ये सारे कारोबार अब निजी पूंजीपति और एनजीओ सम्भाल रहे हैं जिन पर कोई सरकारी अंकुश नहीं है, सरकारी लोकपाल और जनलोकपाल दोनों में ही उन्हें शामिल नहीं किया गया. इसमें अचरज की कोई बात नहीं, क्योंकि दोनों ही पक्ष नवउदारवादी नीतियों के प्रबल समर्थक हैं और दोनों को पूंजीपतियों के भ्रष्टाचार से कोई शिकायत नहीं है.
1991 में नव-उदारवादी आर्थिक नीतियों के लागू होने के बाद जितने भारी पैमाने पर भ्रष्टाचार की घटनाएं सामने आई हैं उसने माध्यम वर्गीय लोगों में तीव्र आक्रोश उत्पन्न किया है. अन्ना के आह्वान पर ऐसे लोग सडकों पर उतरे. अन्ना टीम ने उस जनाक्रोश को सही दिशा देने और भ्रष्टाचार की जड़ों पर प्रहार करने के बजाय उसे सतही और बेमानी सुधारों के ठन्डे पानी में डुबो दिया क्योंकि इस भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम का अंतिम लक्ष्य केवल एक अदद कानून बनाना था. निजीकरण-उदारीकरण के नाम पर देश की सार्वजनिक सम्पदा और प्राकृतिक संसाधनों को कौडियों के मोल पूंजीपतियों के हवाले करने वाली नीतियों को पलटे बगैर किसी भी कानून से इस भ्रष्टतंत्र पर कोई आंच नहीं आने वाली है. इस विषय पर अन्ना टीम मौन है. भ्रष्टाचार का स्रोत देशी-विदेशी पूंजीपति हैं. पूंजीवादी-साम्राज्यवादी अर्थव्यवस्था और उसके असली मालिक पक्ष–विपक्ष की पार्टियों के नेता और नौकरशाह दिन-रात उनकी सेवा में जुटे रहते हैं. अपनी अपार संपत्ति के दम पर पूंजीपति वर्ग अपने मनोनुकूल कानून बनवाने और लागू करवाने के लिए नेताओं, नौकरशाहों, मीडिया, पत्रकारों, विशेषज्ञों और लॉबिंग करने वालों को खरीदते हैं. वे करोड़ों की रिश्वत देकर अरबों-खरबों की लूट करते हैं. चाहे सरकारी लोकपाल हो या अन्ना का जन लोकपाल, दोनों में से किसी ने भी इनको निशाना नहीं बनाया. शायद यही कारण है कि अन्ना के आन्दोलन को इन्हीं पूंजीपतियों का प्रत्यक्ष-परोक्ष सहयोग और समर्थन हासिल हुआ.
विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष जैसी साम्राज्यवादी संस्थाएं और बहुराष्ट्रीय निगम दुनिया भर में भ्रष्टाचार के बहुत बड़े स्त्रोत हैं. इस पर अनेक शोध, अध्ययन और लेख प्रकाशित हो चुके हैं. तीसरी दुनिया के देशों के शासन-प्रशासन के ढाँचे को भ्रष्ट करके अपने मनोनुकूल नीतियां बनवाना, अपने गुप्त समझौतों और दुरभिसंधियों को लागू करवाना, अपने लिए बड़े-बड़े ठेके और परियोजनाएं हासिल करना, हथियार के सौदे करना, अपने निर्यात को सुलभ बनाना, प्राकृतिक संसाधनों को हथियाना इनके रोजमर्रे के काम हैं. भारत में बड़े पैमाने के भ्रष्टाचार की जमीन इन्हीं विदेशी ताकतों और देशी पूंजीपतियों की मिलीभगत से तैयार हुई है. जब भ्रष्टाचार का कोई ठोस मामला किसी तरह उजागर हो जाता है तो वह सबको दिख जाता है और लोगों को गुस्सा भी आता है. लेकिन कानूनी लबादे से ढका हुआ भ्रष्टाचार का विकट दानव हमें नहीं दिखाई देता. हम उसे स्वाभाविक मानते हैं क्योंकि विकास के नये मंत्र के रूप में सब हमारे मन-मष्तिस्क में रोप दिया जाता है. अन्ना टीम इसी स्थिति का लाभ उठाते हुए केवल सतही भ्रष्टाचार को निशाना बनाते हैं और इसके लिए भारी समर्थन भी हासिल कर लेते हैं.
तीसरा- भ्रष्टाचार को लेकर हाय-तौबा मचाने वाले नैतिकता के प्रचारक, धर्मोपदेशक, अर्थशास्त्री, समाज सुधारक, पत्रकार और बुद्धिजीवी, इसके वर्गीय आधारों पर पर्दा डालते हैं और इसे लोभ-लालच की सामान्य मानवीय प्रवृत्ति और नैतिक पतन का नतीजा मानते हैं. वे हीरा चुराने वालों और खीरा चुराने वालों को एक ही तराजू पर तौलते हैं. इस तरह यह आम धारणा बन गयी है कि हमारे समाज में सभी लोग भ्रष्ट हैं. यह सरासर झूठ है.
समाज के विभिन्न वर्गों और भ्रष्टाचार के साथ उनके संबंधों की जांच करें तो इस प्रचलित धारणा से एकदम अलग ही तस्वीर सामने आती है. कुछ वर्ष पहले प्रसिद्ध अर्थशास्त्री प्रो.अरुण कुमार ने भारत में भ्रष्टाचार पर अपना अध्ययन प्रस्तुत किया था जिसके अनुसार उस दौरान देश में 25,00,0000 करोड़ की काले धन की सामानांतर अर्थव्यवस्था मौजूद थी. इस अपार काली कमाई के लिए जिम्मेदार कौन है? इस पर किसका कब्ज़ा है?
हमारे देश में लगभग 30 करोड़ लोग शहरों में रहते हैं जिनमें से आधी आबादी छोटे-मोटे धंधो में लगे लोगों और मेहनतकशों की है. देश की कुल अर्थव्यवस्था में इनका हिस्सा बहुत कम है तथा भ्रष्टाचार और काले धन की अर्थव्यवस्था में इनकी भागीदारी नगण्य है. शहरी आबादी के बाकी आधा भाग का अधिकांश हिस्सा ही भ्रष्टाचार में लिप्त है जिनके शीर्ष पर पूंजीपति, उद्योगपति और उनका प्रबंध तंत्र, डीलर, डिस्ट्रीब्यूटर, कमीशन एजेंट, सट्टेबाज तथा निर्माण, रियल इस्टेट, शिक्षा,स्वास्थ्य, मनोरंजन, पेंशन और सेवा क्षेत्र के विभिन्न व्यवसायों के मालिक और सरकारी अधिकारी, कर्मचारी, छोटे-मझोले पूंजीपति, व्यापारी और अन्य परजीवी शामिल हैं. ये सब आपस में मौसेरे भाई हैं. ग्रामीण आबादी का एक बहुत छोटा और नगण्य हिस्सा ही काले धन कि अर्थव्यवस्था में शामिल है क्योंकि देश की अर्थव्यवस्था में ग्रामीण इलाके की भागीदारी बहुत कम, लगभग 20% है. प्रोफ़ेसर अरुण कुमार का अनुमान है कि आबादी का 3% उपरी हिस्सा ही काले धन की अर्थव्यवस्था में सबसे ज्यादा लिप्त है. यदि छोटे-बड़े सभी तरह के भ्रष्टाचार को ले लिया जाय तो यह दायरा 15% उपरी तबके तक जाता है. एक अध्ययन के मुताबिक देश की आधी आय ऊपरी 20% लोगों के हाथ में जाती है. यानि इतनी बड़ी आमदनी के साथ-साथ यही उपरी तबका 25,00,0000 लाख करोड़ के काले धन पर भी काबिज है. इसी काले धन कि बदौलत इस वर्ग का इस देश की सत्ता पर भी नियंत्रण है जिसके जरिये यह धनाढ्य वर्ग कानूनी तौर पर अपने लिए मोटी तनख्वाह और सुविधाएं (वेतन आयोग बनाकर या संसद में प्रस्ताव पास करके) जुटाने के अलावा, टैक्स में छूट, सरकारी धन का बंदरबाँट, अरबों का फायदा पहुँचाने के बदले करोड़ों की रिश्वत और हर तरह के जुगाड़ से सार्वजनिक संपत्ति की कानूनी-गैरकानूनी लूट में दिन रात शामिल रहता है. यही तबका वैश्वीकरण, उदारीकरण, निजीकरण का सबसे बड़ा पैरोकार और नवउदारवादी लूटतंत्र का सामाजिक आधार है. इसे अपने अलावा सभी भ्रष्ट नजर आते हैं और सबसे ज्यादा भ्रष्टाचार पर प्रवचन भी यही लोग देते हैं. अन्ना के आन्दोलन में भी इसी तबके के लोग सबसे आगे थे. अपनी सुविधानुसार भ्रष्टाचार को लेकर इनके अलग-अलग बोध हैं. इनका मानना है कि इनकी परिभाषा के मुताबिक़ जो भ्रष्टाचार है, उसे खत्म कर दिया जाये तो यह व्यवस्था सुचारू रूप से चलने लगेगी. सरकार और सिविल सोसाइटी के बीच टकराव का कारण यही अलग-अलग बोध है. अगर देश में पहले से ही मौजूद कानूनों को कड़ाई से लागू कर दिया जाय तो शायद इस तबके के कुछ लोगों को छोड़कर बाकी सभी जेल की सलाखों के पीछे होंगे. लेकिन व्यवस्था को चलाने वाले लोग भी चूँकि इसी तबके से हैं, इसीलिए हमारे यहाँ छोटे चोरों को सजा होती है और बड़े चोरों को पुरस्कृत किया जाता हैI जब तक चोरी पकड़ी नहीं जाती, तब तक हर चोर प्रतिष्ठित नागरिक होता है, चाहे कलमाड़ी हों, ए.राजा, हसन अली, रेड्डी बंधु, यदुरप्पा या अलां-फलां... सूची अंतहीन है. सत्ता के शीर्ष पर विराजमान लोगों तथा सफेदपोश और संगठित अपराधियों के बीच गहरे रिश्ते हैं. लोकपाल की जगह साक्षात ब्रह्मा-विष्णु-महेश भी आ जायें तो वे भी इस व्यवस्था के रहते कुछ नहीं कर पाएंगे.
दरसल भ्रष्टाचार इस व्यवस्था का अलिखित विधि-विधान और समान्तर कार्य-प्रणाली है. यह इस व्यवस्था को सुचारू रूप से चलाने में ग्रीस और मोबिल ऑयल का काम करता है. भ्रष्टाचार से एकत्रित काले धन का एक हिस्सा स्विस बैंक या लिचेंस्टीन बैंक में जमा होता है फिर विश्व अर्थव्यवस्था में सफ़ेद बनकर दौड़ता है. (भारत में विदेशी निवेश और कर्ज के रूप में वापस आकर प्रतिष्ठित होता है.) दूसरा भाग अपने ही देश में सफ़ेद होकर पूँजी में बदल दिया जाता है और पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का वैधानिक हिस्सा बन जाता है. इस कार्य के लिए एक पूरी कार्य प्रणाली विकसित हुई है- दान-पुण्य से लेकर खेती की आय, मनोरंजन उद्योग, भवन निर्माण उद्योग और यहाँ तक की मनी लैंडरिंग (काले धन की स्वैछिक घोषणा ) कानून तक. ताजा समाचार यह है कि भारत के पूंजीपतियों ने सरकार से विदेशों में जमा कला धन आसानी से वापस लाने के लिए क़ानून बनाने की अपील कि है ताकि पूंजी निवेश कि समस्या हल हो. इस तरह वर्तमान दौर में भ्रष्टाचार की बेलगाम बढ़ती प्रवृत्ति दरअसल आदिम पूँजी संचय का ही एक रूप है. यह आदम-हव्वा के द्वारा वर्जित फल खाने की तरह ही पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का आदिम पाप है. पूँजी शिष्टाचार से पैदा नहीं होती, जन्म से ही वह खून और कीचड़ से लथपथ होती है.
वैश्वीकरण के इस दौर में अर्थतंत्र और राजनीति के बीच, सार्वजनिक और निजी स्वार्थों के बीच तथा व्यवसाय और जनसेवा के बीच के सारे फर्क मिटाए जा रहे हैंI इसी के साथ सत्ता की राजनीति खुद ही एक नग्न रूप ले चुकी हैI एक जमाना था जब इसे ठीक नहीं माना जाता था हालाँकि तब भी सत्ता की राजनीति पूंजीवादी व्यवसाय को संरक्षण देने और बदले में अपने लिए उनसे चंदा लेने का काम करती थी जो स्वीकृत और जायज था. अक्सर यह भ्रम फैलाया जाता है कि लोकतंत्र में सरकार का काम बाजारवाद और पूँजीवादी अर्थतंत्र पर अंकुश रखना है, ताकि वे जनता का निर्मम शोषण न करें. सच्चाई यह है कि सरकार का काम पूँजीवाद की हिफाजत करना है. नेहरूवाद के दौर में इस पर समाजवाद-संरक्षणवाद का पर्दा पड़ा हुआ था जिसे अब हटा दिया गया है. अब पूंजीपति और उनके नुमाइंदों के बीच का अंतर काफी हद तक मिट गया है. यही कारण है कि पूँजीवाद द्वारा श्रम की वैधानिक लूट और शोषण, जो वास्तव में भ्रष्टाचार ही है, उसे काफी पीछे छोड़ते हुए हर कीमत पर मानव श्रम, प्राकृतिक संसाधन और सार्वजनिक संपत्ति की लूट-खसोट में ज्यादा तेजी आयी है. इसके साथ ही भ्रष्टाचार का नंगा नाच भी पहले से कई गुना अधिक बढ़ा है. इंदिरा गाँधी के ज़माने में जो 10 लाख रुपये का नागरवाला कांड हुआ था, वह आज के हर्षद मेहता, हसन अली, कलमाड़ी और ए. राजा कांड के आगे भला क्या था? ‘भद्रलोक’ को पूंजीवादी अर्थव्यवस्था और पूंजीवादी शोषण के बेलगाम होने से कोई शिकायत नहीं है. वे सतह पर दिखने वाले भष्टाचार के इस घिनौने चेहरे से लज्जित हैं और इसे खत्म करके पूंजीवादी अर्थव्यवस्था की छवि सुधारने का अपना कर्त्तव्य निभा रहे हैं. इससे आगे वे देखना नहीं चाहते.
अमेरिका के कहने पर मणि शंकर अय्यर को हटा कर मुरली देवड़ा को पेट्रोलियम मंत्री बनाना, क्योंकि अमेरिका इरान-पकिस्तान-भारत गैस पाइप लाइन के विरुद्ध था, यह कहाँ का शिष्टाचार है? पूंजीपतियों का एक समूह एक लौबिस्ट को भरपूर पैसा देकर अपने मनमाफिक आदमी ए.राजा को संचार मंत्री बनवाता है, अतीतग्रस्तता के कारण गुटनिरपेक्षतापूर्ण बयानबाजी कि जुर्रत करने वाले विदेश मंत्री नटवर सिंह को निकाल बाहर करना और वे तमाम बातें जिनका खुलासा विकिलिक्स ने किया, भला किस कोटि का आचार हैं? बिना लेन-देन के ही सही, सार्वजनिक संपत्तियों की कोड़ियों के मोल नीलामी और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हित में असमान व्यापार समझौते, नाभिकीय समझौते पर संसद की मोहर लगवाने के लिए खरीद-फरोख्त (जिसके बारे में सर्वोच्च न्यायालय ने पूंछा है कि इतना पैसा कहाँ से आया?) यह सब नैतिकता की किस कोटि में आते है? ऐसे मामलों में ‘भद्रलोक’ गाँधी जी के तीन बंदरों कि तरह आचरण क्यों करता है?
सबसे बड़ी बात यह कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में कोई भी भ्रष्टाचार शिष्टाचार बन जाता है, जब व्यवस्था के संचालक किसी भ्रष्ट आचरण-व्यवहार या पेशे को कानूनी जामा पहना देते हैं, जैसे- वित्तमंत्री के मुख्या सलाहकार कौशिक बासु ने कुछ विशेष प्रकार की रिश्वतखोरी को वैधानिक बना देने का सुझाव दिया और शीर्षस्थ पूंजीपति नारायणमूर्ति सहित अनेक लोगों ने इसका समर्थन भी किया. लॉबिंग को परामर्श सेवा का दर्जा देने कि चर्चा चल रही है, पैसा लेकर सवाल पूछने और अमेरिका की तरह यहाँ भी सांसदों को लॉबी बनाने की इजाजत देने की सिफारिश कुछ साल पहले भाजपा ने की थी. काले धन को सफ़ेद करने के लिए कानून बनाया जाना, सोने के आयात की छूट देना, सीमा शुल्क 350% से घटाकर 10% कर देना, श्रम कानूनों में ढील देकर मजदूरों के निर्मम शोषण को कानूनी रूप देना, उदारीकरण-निजीकरण के जरिये पूँजी को बेलगाम छूट देना, 1991 से पहले गैर कानूनी समझे जाने वाले काले धंधों (काला बाजारी, सट्टेबाजी, जमाखोरी, कर चोरी) को कानून बनाकर वैधानिक करार देना भी उसके अन्य उदाहरण हैं. विदेशों से सोना लाने वाले तश्करों पर अब फिल्में नहीं बनती. नेपाल से विदेशी उपभोक्ता वस्तुओं की तश्करी अब पुराने ज़माने की बात हो गयी है. ऐसे ढेर सारे धंधे जो 1991 से पहले भ्रष्टाचार की श्रेणी में आते थे आज वे शिष्टाचार हैं. अभी ढेर सारे ऐसे भ्रष्टाचार है जो शिष्टाचार की श्रेणी में बदले जाने की प्रतीक्षा में है. सम्भव है कि लोकपाल के पदभार सँभालने तक भ्रष्टाचार के ढेर सारे मामले उनके दायरे से बाहर हो जायें. संसद में अस्सी से अधिक कानून पास होने कि बात जोह रहे हैं.
भ्रष्टाचार विरोधी आन्दोलन के ध्वजवाहक लोगों में लोकरंजक शैली में कहते हैं कि ‘सरकार नौकर है और हम सब उसके मालिक हैं’. वे यह नहीं बताते कि आखिर क्यों यह नौकर अपने मालिक की छाती पर मूंग दल रहा है? लोकतंत्र बहुमत की इच्छा न होकर कुलीनतंत्र क्यों है? राज्य के संचालकों के पास जितने अधिकार केंद्रित होते हैं उसके कारण उनका नौकर से मालिक बन जाना, भ्रष्टाचार रोकने के बजाय उसका स्रोत बन जाना लाजिमी है. साथ ही, यह प्रक्रिया उतनी ही तेज होती जाती है जितनी तेजी से गरीबी-अमीरी की खाई चौड़ी होती जाती है, बहुसंख्य जनता कंगाली के गर्त में धकेली जाती है, उसे राज-समाज के काम-काज में भागीदार होने के लायक नहीं समझा जाता (क्योंकि सरकारी नीतियों के चलते भद्रलोक की तुलना में राष्ट्रीय आय में उनका हिस्सा लगातार कम से कमतर होता जाता है) और सरकार के विभिन्न अंग जितना अधिक खुद को जनता से दूर करते जाते हैं. भ्रष्टाचार की आपराधिक कार्यवाहियों के अलावा शासक वर्ग अपने विशेष अधिकारों के दम पर अपने और अपने सहयोगियों के वेतन-भत्ते और सुविधाएं, जनता की बहुमत की औसत आय (जहाँ 77% लोग 20 रूपया रोज पर गुजर करते हैं) से कई कई गुना अधिक बढ़ाते चले जाते हैं. आर्थिक हैसियत के साथ-साथ उनकी सामाजिक हैसियत भी बढ़ती है और वे जनता के ऊपर सवारी गांठने वाले नये राजा-महाराजा बनते जाते हैं. आज की पीढ़ी के लिए कल्पना करना शायद कठिन हो कि पहले अधिकांश नेता (भले ही उनके विचार पूंजीवादी हों और वे मूलतः पूंजीपतियों के ही नुमाइंदे रहे हों) आज से बहुत कम सुविधा संपन्न थे. बसों में आज भी ‘सांसद और विधायक सीट’ लिखा दिख जाता है जो बताता है कि पहले वे लोग भी बसों में सफर करते रहे होंगें. जनता की बढ़ती कंगाली की कीमत पर अपने लिए वैभव-विलास जुटाने कि यह कार्यवाही खुली तानाशाही के अधीन तो होती ही है, लेकिन उन लोकतान्त्रिक देशों में भी निर्बाध रूप से होती है जहाँ राज्य के केवल एक अंग (विधायिका) का मतदान के द्वारा चुनाव करने की औपचारिकता के अलावा ऊपर से नीचे तक किसी भी ‘लोकतान्त्रिक’ संस्था में या उसकी कार्यवाहियों में जनता की कोई प्रत्यक्ष भूमिका नहीं होती. राज्य के प्रमुख कार्यकारी अंग नौकरशाही और न्यायतंत्र का चुनाव लोकतांत्रिक तरीके से नहीं होता, बल्कि इन विशेषाधिकार प्राप्त और सुविधा संपन्न लोगों को जनता पर ऊपर से थोप दिया जाता है. निगम नियंत्रित मीडिया भी जिसे लोकतंत्र का पहरेदार कहा जाता है, बाजार और मुनाफे से प्रेरित है और मुनाफाखोरी के परम हितैषी है. पिछले दिनों मीडिया-नेताओं-पूँजीपतियों की दुरभिसंधियों के एक से बढ़कर एक मामले सामने आये. कुल मिलाकर इनमें से कोई भी संस्था जनता के प्रति जवाबदेह नहीं है. इन सबका हित जनता के विपरीत है. इनको जनता का नौकर बताना जनभावनाओं को सहलाना और लोगों को भरमाना है. भ्रष्टाचार की जननी, इस पूरी व्यवस्था की असलियत बताने और पर्दाफाश करने के बजाय उसी पर निर्भर रहते हुए भ्रष्टाचार मिटाने की बात करना, उसे और अधिक मजबूत बनाने के लिए कठोर कानून की हिमायत करना और उसके प्रति अन्धश्रद्धा को बढ़ावा देना दरसल भ्रष्टाचार को चिरस्थायी बनाना है. भ्रष्टाचार की जड़ पर प्रहार करने के बजाय उस पर अंकुश लगाने के लिए प्रशासनिक और कानूनी सुधारों की मांग करना जनता में व्याप्त व्यवस्था विरोधी असंतोष और आक्रोश को शांत करना और उसके मन में व्यवस्था के प्रति विश्वास पैदा करने का प्रयास मात्र है. जब तक राज्य के सभी अंगों का जनता से अलगाव दूर नहीं होता, राज्य चलाने के कार्यों में जनता की प्रत्यक्ष भागीदारी सुनिश्चित नही होती, राज्य के सभी अंग जनता के प्रति पूरी तरह से जवाबदेह नहीं होते, चुने जाने, चुनने और वापस बुलाने का अधिकार सही मायने में बहुमत के हांथों में नहीं आता, तब तक ‘नौकर के मालिक बन बैठने’ और उसे भ्रष्ट होने से दुनिया की कोई ताकत रोक नहीं सकती. यह सतही सुधारों या कानूनी फेर-बदल से नहीं होगा. लूट पर टिकी पूंजीवादी अर्थव्यस्था के रहते इनमें से कुछ भी सम्भव नहीं है.

हरिशंकर परशाई


दस दिन का अनशन - हरीशंकर परसाई



- हरीशंकर परसाई

आज मैंने बन्नू से कहा, " देख बन्नूदौर ऐसा आ गया है की संसदक़ानूनसंविधानन्यायालय सब बेकार हो गए हैं. बड़ी-बड़ी मांगें अनशन और आत्मदाह की धमकी से पूरी हो रही हैं. २० साल का प्रजातंत्र ऐसा पक गया है कि एक आदमी के मर जाने या भूखा रह जाने की धमकी से ५० करोड़ आदमियों के भाग्य का फैसला हो रहा है. इस वक़्त तू भी उस औरत के लिए अनशन कर डाल."
बन्नू सोचने लगा. वह राधिका बाबू की बीवी सावित्री के पीछे सालों से पड़ा है. भगाने की कोशिश में एक बार पिट भी चुका है. तलाक दिलवाकर उसे घर में डाल नहीं सकताक्योंकि सावित्री बन्नू से नफरत करती है.
सोचकर बोला, " मगर इसके लिए अनशन हो भी सकता है? "
मैंने कहा, " इस वक़्त हर बात के लिए हो सकता है. अभी बाबा सनकीदास ने अनशन करके क़ानून बनवा दिया है कि हर आदमी जटा रखेगा और उसे कभी धोएगा नहीं. तमाम सिरों से दुर्गन्ध निकल रही है. तेरी मांग तो बहुत छोटी है- सिर्फ एक औरत के लिए."
सुरेन्द्र वहां बैठा था. बोला, " यार कैसी बात करते हो! किसी की बीवी को हड़पने के लिए अनशन होगाहमें कुछ शर्म तो आनी चाहिए. लोग हँसेंगे."
मैंने कहा, " अरे यारशर्म तो बड़े-बड़े अनशनिया साधु-संतों को नहीं आई. हम तो मामूली आदमी हैं. जहाँ तक हंसने का सवाल हैगोरक्षा आन्दोलन पर सारी दुनिया के लोग इतना हंस चुके हैं क उनका पेट दुखने लगा है. अब कम-से-कम दस सालों तक कोई आदमी हंस नहीं सकता. जो हंसेगा वो पेट के दर्द से मर जाएगा."
बन्नू ने कहा," सफलता मिल जायेगी?"
मैंने कहा," यह तो 'इशूबनाने पर है. अच्छा बन गया तो औरत मिल जाएगी. चलहम'एक्सपर्टके पास चलकर सलाह लेते हैं. बाबा सनकीदास विशेषज्ञ हैं. उनकी अच्छी 'प्रैक्टिस'चल रही है. उनके निर्देशन में इस वक़्त चार आदमी अनशन कर रहे हैं."
हम बाबा सनकीदास के पास गए. पूरा मामला सुनकर उन्होंने कहा," ठीक है. मैं इस मामले को हाथ में ले सकता हूँ. जैसा कहूँ वैसा करते जाना. तू आत्मदाह की धमकी दे सकता है?"
बन्नू कांप गया. बोला," मुझे डर लगता है."
"जलना नहीं है रे. सिर्फ धमकी देना है."
"मुझे तो उसके नाम से भी डर लगता है."
बाबा ने कहा," अच्छा तो फिर अनशन कर डाल. 'इशूहम बनायेंगे."
बन्नू फिर डरा. बोला," मर तो नहीं जाऊँगा."
बाबा ने कहा," चतुर खिलाड़ी नहीं मरते. वे एक आँख मेडिकल रिपोर्ट पर और दूसरीमध्यस्थ पर रखते हैं. तुम चिंता मत करो. तुम्हें बचा लेंगे और वह औरत भी दिला देंगे."
11 जनवरी
आज बन्नू आमरण अनशन पर बैठ गया. तम्बू में धुप-दीप जल रहे हैं. एक पार्टी भजन गा रही है - 'सबको
सन्मति दे भगवान्!'. पहले ही दिन पवित्र वातावरण बन गया है. बाबा सनकीदास इस कला के बड़े उस्ताद हैं. उन्होंने बन्नू के नाम से जो वक्तव्य छपा कर बंटवाया हैवो बड़ा ज़ोरदार है. उसमें बन्नू ने कहा है कि 'मेरी आत्मा से पुकार उठ रही है कि मैं अधूरी हूँ. मेरा दूसरा खंड सावित्री में है. दोनों आत्म-खण्डों को मिलाकर एक करो या मुझे भी शरीर से मुक्त करो. मैं आत्म-खण्डों को मिलाने के लिए आमरण अनशन पर बैठा हूँ. मेरी मांग है कि सावित्री मुझे मिले. यदि नहीं मिलती तो मैं अनशन से इस आत्म-खंड को अपनी नश्वर देह से मुक्त कर दूंगा. मैं सत्य पर हूँ,इसलिए निडर हूँ. सत्य की जय हो!'
सावित्री गुस्से से भरी हुई आई थी. बाबा सनकीदास से कहा," यह हरामजादा मेरे लिए अनशन पर बैठा है ना?"
बाबा बोले," देवीउसे अपशब्द मत कहो. वह पवित्र अनशन पर बैठा है. पहले हरामजादा रहा होगा. अब नहीं रहा. वह अनशन कर रहा है."
सावित्री ने कहा," मगर मुझे तो पूछा होता. मैं तो इस पर थूकती हूँ."
बाबा ने शान्ति से कहा," देवीतू तो 'इशूहै. 'इशूसे थोड़े ही पूछा जाता है. गोरक्षा आन्दोलन वालों ने गाय से कहाँ पूछा था कि तेरी रक्षा के लिए आन्दोलन करें या नहीं. देवीतू जा. मेरी सलाह है कि अब तुम या तुम्हारा पति यहाँ न आएं. एक-दो दिन में जनमत बन जाएगा और तब तुम्हारे अपशब्द जनता बर्दाश्त नहीं करेगी."
वह बड़बड़ाती हुई चली गई.
बन्नू उदास हो गया. बाबा ने समझाया," चिंता मत करो. जीत तुम्हारी होगी. अंत में सत्य की ही जीत होती है."
13 जनवरी
बन्नू भूख का बड़ा कच्चा है. आज तीसरे ही दिन कराहने लगा. बन्नू पूछता है, "जयप्रकाश नारायण आये?"
मैंने कहा," वे पांचवें या छठे दिन आते हैं. उनका नियम है. उन्हें सूचना दे दी है."
वह पूछता है," विनोबा ने क्या कहा है इस विषय में?"
बाबा बोले," उन्होंने साधन और साध्य की मीमांसा की हैपर थोड़ा तोड़कर उनकी बात को अपने पक्ष में उपयोग किया जा सकता है."
बन्नू ने आँखें बंद कर लीं. बोला,"भैयाजयप्रकाश बाबू को जल्दी बुलाओ."
आज पत्रकार भी आये थे. बड़ी दिमाग-पच्ची करते रहे.
पूछने लगे," उपवास का हेतु कैसा हैक्या वह सार्वजनिक हित में है? "
बाबा ने कहा," हेतु अब नहीं देखा जाता. अब तो इसके प्राण बचाने की समस्या है.अनशन पर बैठना इतना बड़ा आत्म-बलिदान है कि हेतु भी पवित्र हो जाता है."
मैंने कहा," और सार्वजनिक हित इससे होगा. कितने ही लोग दूसरे की बीवी छीननाचाहते हैंमगर तरकीब उन्हें नहीं मालूम. अनशन अगर सफल हो गयातो जनता का मार्गदर्शन करेगा."
14 जनवरी
बन्नू और कमज़ोर हो गया है. वह अनशन तोड़ने की धमकी हम लोगों को देने लगा है.इससे हम लोगों का मुंह काला हो जायेगा. बाबा सनकीदास ने उसे बहुत समझाया.
आज बाबा ने एक और कमाल कर दिया. किसी स्वामी रसानंद का वक्तव्य अख़बारों मेंछपवाया है. स्वामीजी ने कहा है कि मुझे तपस्या के कारण भूत और भविष्य दिखता है. मैंने पता लगाया है क बन्नू पूर्वजन्म में ऋषि था और सावित्री ऋषि की धर्मपत्नी. बन्नू का नाम उस जन्म में ऋषि वनमानुस था. उसने तीन हज़ार वर्षों के बाद अब फिर नरदेह धारण की है. सावित्री का इससे जन्म-जन्मान्तर का सम्बन्ध है. यह घोर अधर्म है कि एक ऋषि की पत्नी को राधिका प्रसाद-जैसा साधारण आदमी अपने घर में रखे. समस्त धर्मप्राण जनता से मेरा आग्रह है कि इस अधर्म को न होने दें.
इस वक्तव्य का अच्छा असर हुआ. कुछ लोग 'धर्म की जय हो!नारे लगाते पाए गए. एक भीड़ राधिका बाबू के घर के सामने नारे लगा रही थी----
"राधिका प्रसाद-- पापी है! पापी का नाश हो! धर्म की जय हो."
स्वामीजी ने मंदिरों में बन्नू की प्राण-रक्षा के लिए प्रार्थना का आयोजन करा दिया है.
15 जनवरी
रात को राधिका बाबू के घर पर पत्थर फेंके गए.
जनमत बन गया है.
स्त्री-पुरुषों के मुख से यह वाक्य हमारे एजेंटों ने सुने---
"बेचारे को पांच दिन हो गए. भूखा पड़ा है."
"धन्य है इस निष्ठां को."
"मगर उस कठकरेजी का कलेजा नहीं पिघला."
"उसका मरद भी कैसा बेशरम है."
"सुना है पिछले जन्म में कोई ऋषि था."
"स्वामी रसानंद का वक्तव्य नहीं पढ़ा!"
"बड़ा पाप है ऋषि की धर्मपत्नी को घर में डाले रखना."
आज ग्यारह सौभाग्यवतियों ने बन्नू को तिलक किया और आरती उतारी.
बन्नू बहुत खुश हुआ. सौभाग्यवतियों को देख कर उसका जी उछलने लगता है.
अखबार अनशन के समाचारों से भरे हैं.
आज एक भीड़ हमने प्रधानमन्त्री के बंगले पर हस्तक्षेप की मांग करने और बन्नू के प्राण बचाने की अपील करने भेजी थी. प्रधानमन्त्री ने मिलने से इनकार कर दिया.
देखते हैं कब तक नहीं मिलते.
शाम को जयप्रकाश नारायण आ गए. नाराज़ थे. कहने लगे," किस-किस के प्राण बचाऊं मैंमेरा क्या यही धंधा हैरोज़ कोई अनशन पर बैठ जाता है और चिल्लाता है प्राण बचाओ. प्राण बचाना है तो खाना क्यों नहीं लेताप्राण बचाने के लिए मध्यस्थ की कहाँ ज़रुरत हैयह भी कोई बात है! दूसरे की बीवी छीनने के लिए अनशन के पवित्र अस्त्र का उपयोग किया जाने लगा है."
हमने समझाया," यह 'इशूज़रा दूसरे किस्म है. आत्मा से पुकार उठी थी."
वे शांत हुए. बोले," अगर आत्मा की बात है तो मैं इसमें हाथ डालूँगा."
मैंने कहा," फिर कोटि-कोटि धर्मप्राण जनता की भावना इसके साथ जुड़ गई है."
जयप्रकाश बाबू मध्यस्थता करने को राज़ी हो गए. वे सावित्री और उसके पति से मिलकर फिर प्रधानमन्त्री से मिलेंगे.
बन्नू बड़े दीनभाव जयप्रकाश बाबू की तरफ देख रहा था.
बाद में हमने उससे कहा," अबे सालेइस तरह दीनता से मत देखा कर. तेरी कमज़ोरीताड़ लेगा तो कोई भी नेता तुझे मुसम्मी का रस पिला देगा. देखता नहीं हैकितने ही नेता झोलों में मुसम्मी रखे तम्बू के आस-पास घूम रहे हैं."
16 जनवरी
जयप्रकाश बाबू की 'मिशनफेल हो गई. कोई मानने को तैयार नहीं है. प्रधानमन्त्री नेकहा," हमारी बन्नू के साथ सहानुभूति हैपर हम कुछ नहीं कर सकते. उससे उपवास तुडवाओ,तब शान्ति से वार्ता द्वारा समस्या का हल ढूँढा जाएगा."
हम निराश हुए. बाबा सनकीदास निराश नहीं हुए. उन्होंने कहा," पहले सब मांग को नामंज़ूर करते हैं. यही प्रथा है. अब आन्दोलन तीव्र करो. अखबारों में छपवाओ क बन्नू की पेशाब में काफी'एसीटोनआने लगा है. उसकी हालत चिंताजनक है. वक्तव्य छपवाओ कि हर कीमत पर बन्नू के प्राण बचाए जाएँ. सरकार बैठी-बैठी क्या देख रही हैउसे तुरंत कोई कदम उठाना चाहिए जिससे बन्नू के बहुमूल्य प्राण बचाए जा सकें."
बाबा अद्भुत आदमी हैं. कितनी तरकीबें उनके दिमाग में हैं. कहते हैं, "अब आन्दोलन में जातिवाद का पुट देने का मौका आ गया है. बन्नू ब्राम्हण है और राधिकाप्रसाद कायस्थ.ब्राम्हणों को भड़काओ और इधर कायस्थों को. ब्राम्हण-सभा का मंत्री आगामी चुनाव में खड़ा होगा. उससे कहो कि यही मौका है ब्राम्हणों के वोट इकट्ठे ले लेने का."
आज राधिका बाबू की तरफ से प्रस्ताव आया था कि बन्नू सावित्री से राखी बंधवा ले.
हमने नामंजूर कर दिया.
17 जनवरी
आज के अखबारों में ये शीर्षक हैं---
"बन्नू के प्राण बचाओ!
बन्नू की हालत चिंताजनक!'
मंदिरों में प्राण-रक्षा के लिए प्रार्थना!"
एक अख़बार में हमने विज्ञापन रेट पर यह भी छपवा लिया---
"कोटि-कोटि धर्म-प्राण जनता की मांग---!
बन्नू की प्राण-रक्षा की जाए!
बन्नू की मृत्यु के भयंकर परिणाम होंगे !"
ब्राम्हण-सभा के मंत्री का वक्तव्य छप गया. उन्होंने ब्राम्हण जाति की इज्ज़त का मामला इसे बना लिया था. सीधी कार्यवाही की धमकी दी थी.
हमने चार गुंडों को कायस्थों के घरों पर पत्थर फेंकने के लिए तय कर किया है.
इससे निपटकर वही लोग ब्राम्हणों के घर पर पत्थर फेंकेंगे.
पैसे बन्नू ने पेशगी दे दिए हैं.
बाबा का कहना है क कल या परसों तक कर्फ्य लगवा दिया जाना चाहिए. दफा 144 तो लग ही जाये. इससे 'केसमज़बूत होगा.
18 जनवरी
रात को ब्राम्हणों और कायस्थों के घरों पर पत्थर फिंक गए.
सुबह ब्राम्हणों और कायस्थों के दो दलों में जमकर पथराव हुआ.
शहर में दफा 144 लग गयी.
सनसनी फैली हुई है.
हमारा प्रतिनिधि मंडल प्रधानमन्त्री से मिला था. उन्होंने कहा," इसमें कानूनी अडचनें हैं. विवाह-क़ानून में संशोधन करना पड़ेगा."
हमने कहा," तो संशोधन कर दीजिये. अध्यादेश जारी करवा दीजिये. अगर बन्नू मर गया तो सारे देश में आग लग जायेगी."
वे कहने लगे," पहले अनशन तुडवाओ ? "
हमने कहा," सरकार सैद्धांतिक रूप से मांग को स्वीकार कर ले और एक कमिटी बिठा देजो रास्ता बताये कि वह औरत इसे कैसे मिल सकती है."
सरकार अभी स्थिति को देख रही है. बन्नू को और कष्ट भोगना होगा.
मामला जहाँ का तहाँ रहा. वार्ता में 'डेडलॉकआ गया है.
छुटपुट झगड़े हो रहे हैं.
रात को हमने पुलिस चौकी पर पत्थर फिंकवा दिए. इसका अच्छा असर हुआ.
'प्राण बचाओ'---की मांग आज और बढ़ गयी.
19 जनवरी
बन्नू बहुत कमज़ोर हो गया है. घबड़ाता है. कहीं मर न जाए.
बकने लगा है कि हम लोगों ने उसे फंसा दिया है. कहीं वक्तव्य दे दिया तो हम लोग 'एक्सपोज़हो जायेंगे.
कुछ जल्दी ही करना पड़ेगा. हमने उससे कहा कि अब अगर वह यों ही अनशन तोड़ देगा तो जनता उसे मार डालेगी.
प्रतिनिधि मंडल फिर मिलने जाएगा.
20 जनवरी
'डेडलॉक '
सिर्फ एक बस जलाई जा सकी.
बन्नू अब संभल नहीं रहा है.
उसकी तरफ से हम ही कह रहे हैं कि "वह मर जाएगापर झुकेगा नहीं!"
सरकार भी घबराई मालूम होती है.
साधुसंघ ने आज मांग का समर्थन कर दिया.
ब्राम्हण समाज ने अल्टीमेटम दे दिया. १० ब्राम्हण आत्मदाह करेंगे.
सावित्री ने आत्महत्या की कोशिश की थीपर बचा ली गयी.
बन्नू के दर्शन के लिए लाइन लगी रही है.
राष्ट्रसंघ के महामंत्री को आज तार कर दिया गया.
जगह-जगह- प्रार्थना-सभाएं होती रहीं.
डॉ. लोहिया ने कहा है कि जब तक यह सरकार हैतब तक न्यायोचित मांगें पूरी नहींहोंगी. बन्नू को चाहिए कि वह सावित्री के बदले इस सरकार को ही भगा ले जाए.
21 जनवरी
बन्नू की मांग सिद्धांततः स्वीकार कर ली गयी.
व्यावहारिक समस्याओं को सुलझाने के लिए एक कमेटी बना दी गई है.
भजन औ र प्रार्थना के बीच बाबा सनकीदास ने बन्नू को रस पिलाया. नेताओं कीमुसम्मियाँ झोलों में ही सूख गईं. बाबा ने कहा कि जनतंत्र में जनभावना का आदर होना चाहिए. इस प्रश्न के साथ कोटि-कोटि जनों की भावनाएं जुड़ी हुई थीं. अच्छा ही हुआ जो शान्ति से समस्या सुलझ गईवर्ना हिंसक क्रान्ति हो जाती.
ब्राम्हणसभा के विधानसभाई उमीदवार ने बन्नू से अपना प्रचार कराने के लिए सौदा कर लिया है. काफी बड़ी रकम दी है. बन्नू की कीमत बढ़ गयी.
चरण छूते हुए नर-नारियों से बन्नू कहता है," सब ईश्वर की इच्छा से हुआ. मैं तो उसका माध्यम हूँ."
नारे लग रहे हैं -- सत्य की जय! धर्म की जय!




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