कोई मंजिल न रास्ता है कोई
फासिलों में उलझ गया है कोई |
हर किसी को यूं जांचता है कोई
जैसे बस्ती का वो खुदा है कोई |
जलजलों को समेत कर खुद में
कैसे पत्थर का हो गया है कोई |
कैसी सीढ़ी थी जिस पे चढ़ते ही
सब की नजरों से गिर गया है कोई |
वक्त ने रख दिया था चोटी पर
फिर जमीं पर ही आ गिरा है कोई
जो भी आया वही उलझता गया
जाल ऐसा बिछा गया है कोई |
लोग है मुत मइन अंधेरों से
वर्ना सूरज लिए खड़ा है कोई |
ये बुलंदी कहाँ नसीब उसे
इस जगह उसको रख गया है कोई |
ले उडी सब दिलों से हम दर्दी
वक्त की ये नयी हवा है कोई |
एक नफरत कदे में बरसों से
प्यार की बात कर रहा है कोई |
रूठने की कोई वजह तो नहीं
मुझ से किस बात से खफा है कोई |
बे वजह दर्द जो मिला 'राठी'
बे गुनाही की ये सजा है कोई |
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