Wednesday, August 13, 2025

आज का दौर

2.9 कृषि का क्षेत्र ही है जिस पर मोदी के नेतृत्ववाली भाजपा-एनडीए सरकार की नव-उदारवादी तथा कारपोरेट परस्त नीतियों की सबसे बुरी मार पड़ी है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आकड़े दिखाते हैं कि 2014 से (जो मोदी निजाम का पहला वर्ष था) 2022 तक (जो आखिरी वर्ष है जिसके लिए आकड़े उपलब्ध हैं), भारत में 1,00,474 काश्तकारों तथा खेत मजदूरों को, मुख्यतः कर्ज के बोझ के चलते आत्महत्या करने पर मजबूर होना पड़ा था। विश्व भूख सूचकांक 2024 में भारत, 127 देशों में 105वें स्थान पर था। इस सब के पीछे काम कर रहे कृषि संकट के बुनियादी कारण, जोकि इस दौर में और उग्र हो गए हैं, इस प्रकार हैं: (अ) सरकारी सब्सीडियों में कटौतियों और कृषि लागत सामग्री के उत्पादन में कारपोरेटों को बढ़ावा दिए जाने के चलते, उत्पादन लागतों का तेजी से बढ़ना, (ब) उसके समानुरूप फसलों के दाम में बढ़ोतरी नहीं होना बल्कि उसमें अक्सर गिरावट भी हो जाना, जोकि केंद्र सरकार के सर्वसमावेशी उत्पादन लागत के डेढ़ गुने (सी2+50%) के हिसाब से लाभकारी न्यूनतम समर्थन मूल्य को लागू करने से इंकार करने का नतीजा है, (स) प्राकृतिक आपदाओं के चलते, जो जलवायु परिवर्तन के चलते और बढ़ रही हैं, फसलों के भारी नुकसान की भरपाई करने के लिए, पर्याप्त बीमा कवर का अभाव, और प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना (पीएमएफबीवाइ) का किसानों के लिए एक मजाक और बीमा कंपनियों के लिए ही वरदान साबित होना, जो औसतन 25 फीसद के करीब का सकल लाभ बटोर रही हैं; (द) बैंक ऋण की विकृत नीति, जो बुरी तरह से कारपोरेटों के पक्ष में तथा काश्तकारों के खिलाफ झुकी हुई है, जो काश्तकारों को लुटेरे निजी महाजनों तथा माइक्रो फाइनेंस संस्थाओं के चंगुल में और इस तरह कर्ज के फंदे में धकेलती है।

2.10 कृषि संकट के बदतर होने और किसानों की गंभीर दुर्दशा का एक और बुनियादी कारण है, कृषि तथा सहायक क्षेत्रों में सार्वजनिक निवेश में लगातार कटौती किया जाना। हाल के सघीय बजट में कृषि तथा सहायक क्षेत्रों के लिए कुल आवंटन, 2019 के 5.44 फीसद से घटकर, 2024 में 3.15 फीसद पर आ गया। उर्वरक तथा खाद्य सब्सीडियों में कटौतियां की गयी हैं। मगनरेगा का आवंटन 86,000 करोड़ रु० है, जो पिछले साल इस मद में किए गए खर्च से कम है। प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि, प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना और अन्य योजनाओं के लिए आवंटनों में कटौती की गयी है। कृषि शोध तथा विकास और विस्तार  सेवाओं के लिए फंड पूरी तरह से बंद ही कर दिए गए हैं, ताकि बहुराष्ट्रीय निगमों की मदद की जा सके।

2.11 केंद्र सरकार का मुख्य जोर, लुटेरे एग्रीबिजनस को फायदा पहुंचाने के लिए, कृषि के कारपारेटीकरण पर है, जिसका प्रतिबिंबन कृषि बाजारों के लिए राष्ट्रीय नीति फ्रेमवर्क के लाए जाने में होती है। बिजली का निजीकरण किया जा रहा है, जिसका पता बिजली (संशोधन) विधेयक, स्मार्ट मीटर लगाने की मुहिम, अडानी पावर, रिलायंस पावर, टाटा पावर आदि की बढ़ती ताकत और शहरी व ग्रामीण, दोनों ही क्षेत्रों के उपभोक्ताओं के लिए बिजली की दरों में भारी बढ़ोतरी से चलता है। यही बात सिंचाई क्षेत्र के मामले में सच है। डिजिटलीकरण के नाम पर सरकार ने, ग्रामीण गरीबों के खिलाफ चौतरफा हमला छेड़ दिया है, जो मनरेगा मजदूरों की दुर्दशा में देखा जा सकता है। दो वर्षों में, पूरे 8 करोड़ रजिस्टरशुदा मनरेगा मजदूरों को डी-रजिस्टर कर दिया गया है और उन्हें काम के वैध लाभों से वंचित कर दिया गया है, जोकि साफ तौर पर संबंधित कानून का उल्लंघन है। ग्रामीण भूमिहीनता और भूमि के स्वामित्व की असमानता, तेजी से बढ़ी है। 2019-21 के दौरान हुए राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे (एनएफएचएस) के अनुसार, 47.8 फीसद ग्रामीण परिवारों के पास कोई कृषि भूमि ही नहीं थी। सबसे ऊपर के 20 फीसद ग्रामीण परिवारों के पास, 82 फीसद कृषि भूमि की मिल्कियत थी।

2.12 कृषि की ओर मजदूरों के उलट-प्रवाह के चलते, ग्रामीण गरीबों के हालात बदतर हो गए हैं। वास्तविक ग्रामीण मजदूरी में 0.4 फीसद की गिरावट हुई है और ग्रामीण वास्तविक कृषि मजदूरी में 0.2 फीसद की वृद्धि के साथ, शायद ही कोई बढ़ोतरी हुई है। वास्तविक ग्रामीण मजदूरियों में गिरावट, ग्रामीण धनी गठजोड़ के हाथों, ग्रामीण मजदूरों के शोषण के तेज होने की संकेतक है। गरीब किराएदार किसानों को भी इस संकट की झोक झेलनी पड़ी है। ग्रामीण बदहाली के चलते, खेत मजदूरों की आत्महत्याएं बढ़ी हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो के अनुसार, 2022 में 6,087 खेत मजदूरों ने आत्महत्याएं की थीं, जो 2021 की 5,563 की संख्या से बढ़ोतरी को दिखाता था।


मजदूर वर्ग का बढ़ा हुआ शोषण

2.13 इस दौर में मजदूर वर्ग के कड़े संघर्षों से जीते अधिकारों पर एक चौतरफा हमला देखने को मिला है। भाजपा सरकार आक्रामक तरीके से चार कुख्यात श्रम संहिताओं को लागू करने की कोशिशें कर रही है, जिन्हें एकजुट ट्रेड यूनियन आंदोलन की ताकत ने रोके रखा था। केंद्र सरकार और अनेक राज्य सरकारों ने अपनी नीतियों के जरिए, श्रम को काम पर लगाए जाने के तरीकों में शोषणकारी बदलाव सुनिश्चित किए हैं। श्रम के ठेकाकरण की प्रक्रिया, जो कि नव-उदारवादी नीतियों का एक आवश्यक अंग है, तेज हो गयी है। औपचारिक विनिर्माण श्रम शक्ति में ठेका मजदूरों का अनुपात 2018 के 36.38 फीसद से बढ़कर, 2023 में 40.72 फीसद हो गया था। श्रम का यह बढ़ा हुआ शोषण इस स्तब्ध करने वाले आंकड़े में प्रतिबिंबित होता है कि संगठित क्षेत्र में मजदूरी की वृद्धि, 2014-15 से 2020-21 के बीच घटकर सिर्फ 6 फीसद रह गयी, जबकि इससे पहले के छ: वर्षों के दौरान यही वृद्धि 10.1 फीसद की थी। इस तरह, मुद्रास्फीति की ऊंची दरों को देखते हुए, मजदूरों की वास्तविक मजदूरी में गिरावट हुई है। औद्योगिक क्षेत्र में शोषण को समझने का एक और तरीका है, शुद्ध मूल्य संवर्द्धन में मजदूरी का हिस्से की दशा। इस हिस्से में 3 फीसद की गिरावट हुई है, जो 2020 के 18.9 फीसद से घटकर, 2023 में 15.9 फीसद पर आ गया। इसी अवधि में मुनाफों का हिस्सा, शुद्ध मूल्य संवर्द्धन के 38.7 फीसद से बढ़कर 51.7 फीसद हो गया।

2.14 देश के ज्यादातर हिस्सों में न्यूनतम मजदूरी भी नहीं दी जाती है। काम के घंटों को कुछ राज्यों में मनमाने तरीके से 12 घंटे तक तथा उससे भी ज्यादा बढ़ाया जा रहा है। कोई ओवरटाइम नहीं दिया जाता है। यूनियन बनाने के अधिकार पर हमला हो रहा है। कारोबार में आसानी सुनिश्चित करने के नाम पर, सरकारें बड़ी कंपनियों का साथ दे रही हैं। सौदेबाजी की घटी हुई शक्ति के साथ और सिर पर बेरोजगारी के काले बादल मंडरा रहे होने के चलते, ठेका मजदूरों की स्थिति कमजोर हो जाती है और वे अगर संगठित होने की जुर्रत करते हैं, उन्हें काम से निकाल दिया जाता है।

2.15 गिग अर्थव्यवस्था सेवाओं के साथ खुदरा क्षेत्र का विस्तार हुआ है, जिनमें 77 लाख मजदूर ठेके पर या अस्थायी श्रमिकों के रूप में और फ्रीलांसरों के रूप में अमेजन, फ्लिपकार्ट, स्वीगी, जोमेटो, ऊबर तथा अन्य, दर्जनों डिजिटल प्लेटफार्मों के लिए काम कर रहे हैं। इस बढ़ती श्रम शक्ति के लिए कोई अनिवार्य तथा अलग कानून नहीं हैं, जो उन्हें बहुत ही भयावह सेवा शर्तों के बीच छोड़ देता है।

2.16 केंद्र सरकार ने, अपने ही कर्मचारियों, मिसाल के तौर पर योजनाकर्मियों के साथ अपने सलूक में, जिनमें विशाल बहुमत महिलाओं का है, श्रम-विरोधी तौर-तरीकों का एक खाका स्थापित किया है। यह शर्मनाक है कि केंद्र सरकार, कुछ  आय हासिल करने की इन महिलाओं की मजबूरी का फायदा उठा रही है और आंगनवाड़ी, दोपहर का भोजन, आशा आदि, सेवाओं में लगे लाखों कार्मिकों को वर्करों के रूप में मान्यता देने और न्यूनतम मजदूरी, पेंशन आदि जैसे न्यूनतम अधिकार तक देने से इंकार कर रही है। मोदी सरकार, सबसे ज्यादा मजदूर-विरोधी सरकार साबित हुई है।

2.17 भारत में प्रवासी मजदूरों की भयावह दशा कोविड के दौर में खासतौर पर रेखांकित हुई थी, जब अनुमानतः 12 करोड़ मजदूर बुरी तरह से प्रभावित हुए थे। बहरहाल, भारत में प्रवासी मजदूरों की संख्या पर कोई विश्वसनीय डॉटा उपलब्ध नहीं है और कुछ सरकारी अनुमानों में तो उनकी संख्या में कमी होने के भी दावे किए गए हैं। वास्तव में कृषि संकट के पैमाने तथा कृषि में काम के अभाव को देखते हुए, चूंकि ग्रामीण भारत में कोई वैकल्पिक रोजगार नहीं हैं, अल्पावधि चक्रीय उत्प्रवास और दीर्घावधि उत्प्रवास, दोनों ही मामलों में उत्प्रवासियों की संख्या बढ़ गये होने की ही ज्यादा संभावना है। कोविड के अनुभव के बाद बहुत सारे दावे किए जाने के बावजूद, प्रवासी मजदूरों की दशा में कोई सुधार नहीं हुआ है और वे ठेकेदारों पर ही आश्रित हैं, जिन्हें सरकार से शायद ही कोई मदद मिल रही है या कोई मदद नहीं मिल रही है। महिला प्रवासी मजदूरों पर सबसे बुरी मार पड़ रही है।

जनता की दशा

2.18 मंहगाई का बोझः कीमतों में तथा खासतौर पर खाने-पीने की जरूरी चीजों के दामों में लगातार जारी बढ़ोतरी ने, परिवारों के बजटों को तहस-नहस कर के रख दिया है। ये पारिवारिक बजट मेहनतकशों की आय थोड़ी होने के चलते, पहले ही बहुत थोड़े थे। पिछले तीन वर्षों में, जहां कीमतों में आम बढ़ोतरी, उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के हिसाब से करीब 20 फीसद रहे होने का अनुमान है, खाद्य कीमतों में बढ़ोतरी 26 फीसद रही थी। चूंकि ज्यादातर लोग अपनी करीब आधी कमाई भोजन पर ही खर्च करते हैं, इन बढ़ोतरियों ने जीवन यापन खर्चों को ऊपर धकेल दिया है। खाने-पीने की वस्तुओं के अलावा अनेक अन्य आवश्यक वस्तुओं की कीमतें, मोदी सरकार ने अपने ही फैसलों से बढ़ायी हैं। मिसाल के तौर पर उस सरकारी निकाय ने, जिससे कीमतों पर नियंत्रण रखने की अपेक्षा की जाती है, अनेक दवाओं कीमतें बढ़ाने की इजाजत दे दी है। सरकार द्वारा संचालित महंगाई का सबसे बुरा उदाहरण पैट्रोलियम उत्पाद हैं। पैट्रोल तथा डीजल की  कीमतों को मोदी सरकार ने, इन उत्पादों पर ऊंचा उत्पाद शुल्क लगाने के जरिए ऊंचा बनाए रखा है, जबकि कच्चे तेल की कीमतों में हाल के महीनों में 18 फीसद की गिरावट हुई थी। ईंधन की कीमतों में बढ़ोतरी से परिवहन लागतें बढ़ती हैं और पलटकर इसका बोझ अन्य चीजों के अलावा खाने-पीने की बढ़ी हुई कीमतों के रूप में आम लोगों पर पड़ता है। रसोई गैस की सब्सीडी भी खत्म कर दी गयी है, जिसके चलते उसके दाम में भारी बढ़ोतरी हुई है। बिजली की दरों में बढ़ोतरी एक आम बात हो गयी है। इन बोझों के ऊपर से अनेक आवश्यक मालों पर जीएसटी थोप दी गयी है, जिससे उनकी कीमतें बढ़ गयी हैं। संक्षेप में यह कि सरकार कीमतों के हेर-फेर के जरिए आम जनता को निचोड़ रही है ताकि संसाधनों को या तो अपने खजाने में पहुंचा सके या फिर बड़े कारोबारियों तथा थोक व्यापारियों की तिजोरियों में पहुंचा सके।

2.19 बेरोजगारीः पिछले कुछ वर्षों में, जहां महामारी से बहुप्रचारित बहाली जमीन पर उतरने में ही विफल रही है, हमारे देश में बेरोजगारी का संकट अनेकानेक प्रकार से बदतर हुआ है। जैसाकि अनुमान लगाया जा सकता था, बेरोजगारी पर सरकारी (पीएलएफएस) आंकड़े तो 2023-24 में, कुल मिलाकर बेरोजगारी की सिर्फ करीब 3 फीसद दर दिखाते हैं। लेकिन दूसरे अनुमान, मिसाल के तौर पर सीएमआइई के अनुमान, 2024 के सितंबर में बेरोजगारी की दर करीब 8 फीसद आंकते हैं, जबकि इससे पहले कई महीने तक यह दर 6 से 9 फीसद के बीच रही थी। इसके ऊपर से सरकारी विभागों में और सार्वजनिक क्षेत्र के उद्यमों में लाखों रिक्तियां पड़ी हैं, जिन्हें सरकार भरने से ही इंकार कर रही है। सरकार तक को यह दर्ज करना पड़ा है कि युवाओं (15 से 29 वर्ष आयु) के मामले में बेरोजगारी की दर कहीं ऊंची, 10 फीसद से ऊपर रही है और शहरी इलाकों में तो और भी ज्यादा, करीब 15 फीसद रही है। बहरहाल, ये आंकड़े दारुण स्थिति को सही तरीके से नहीं दिखा पाते हैं क्योंकि काम करने की आयु के ज्यादातर लोग कोई भी काम, कितनी ही कम मजदूरी पर तथा कितनी ही खराब स्थितियों में करने के लिए तैयार हो जाते हैं, ताकि जिंदा रह सकें और इस तरह उनकी गिनती 'बारोजगारों' में हो जाती है। यह प्रछन्न या छुपी हुई बेरोजगारी के सिवा और कुछ नहीं है। हाल के वर्षों का एक और विकट रुझान, जिसने महामारी के बाद के वर्षों में जोर पकड़ा है, कृषि में काम कर रहे लोगों के अनुपात का बढ़ना है, जबकि विनिर्माण के क्षेत्र में यह अनुपात घटा ही है। टिकाऊ, अच्छी कमाई के तथा सुरक्षित रोजगार मुहैया कराना तो दूर रहा, सरकार की नीतियों ने पहले के रुझानों को पलट दिया है और लोगों को पहले ही संतृप्त कृषि क्षेत्र में वापस धकेल रही हैं, जबकि इस क्षेत्र में कमाई कम है और काम मौसमी होता है।


शिक्षा तक पहुंच में कमी

2.42 पिछले तीन वर्षों में शिक्षा पर सबसे गंभीर हमला हुआ है। इस हमले की सबसे बड़ी विशेषता है शिक्षा तक पहुंच में भारी कमी का आना। व्यावहार्यता के नाम पर हज़ारों सरकारी स्कूल बंद कर दिए गए हैं, जो उस शिक्षा के अधिकार अधिनियम का पूर्ण उल्लंघन है, जो निर्देशित करता है कि स्कूल अनिवार्य रूप से आस-पास के क्षेत्रों में ही हो। केरल जैसे उल्लेखनीय अपवादों को छोड़कर, निजीकरण के अभियान के कारण छात्र, सरकारी स्कूलों से निजी स्कूलों की ओर पलायन कर रहे हैं। यही सिद्धांत स्नातक संस्थानों पर भी लागू किया गया है, जिसके परिणामस्वरूप कॉलेज छोड़ने वालों की दर में तेजी से वृद्धि हुई है। वित्त पोषण में कमी और कम वित्त पोषण के माध्यम से, सामाजिक क्षेत्र के लिए आबंटन और व्यय को कम करने का सरकार का समग्र अभियान, इस प्रतिकूल विकास का एक प्रमुख कारक रहा है। कोविड-19 महामारी के बाद शैक्षणिक संस्थानों के बड़े पैमाने पर और लंबे समय तक लॉकडाउन ने, इस नई नीति को बढ़ावा आ दिया है।

2.43 इस हमले का दूसरा पहलू विज्ञान, वैज्ञानिक स्वभाव और तर्कसंगत सोच पर व्यापक हमला है। विश्वास-आधारित विषय-वस्तु को बढ़ावा दिया जा रहा है, जो तानाशाही और फासीवादी सिद्धांतों की ओर बढ़ने की एक पहचान है। यह दिशा न केवल सांप्रदायिक और पहचान आधारित घृणा फैलाने को बढ़ावा देती है, बल्कि गणतंत्र और उसके नागरिकों की लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष पहचान को, हिंदुत्ववादी दृष्टिकोण के आधार पर फिर से परिभाषित करती है। विशेष रूप से यह बदलाव विशेषीकृत नीति निकायों और संस्थानों पर कब्जे और उसमें नियुक्तियों से स्पष्ट है, जो विश्वविद्यालयों और अन्य उच्च शिक्षा प्रतिष्ठानों तक फैल गया है।

2.44 सरकारी फंडिंग वापस लेने के कारण बड़े पैमाने पर संसाधनों की कमी पैदा हो गई है। इसको अब मुनाफे के लिए बड़े पैमाने पर कॉर्पोरेट निवेश से पूरा किया जा रहा है। इसके परिणामस्वरूप शिक्षक छात्र शारीरिक संपर्क द्वारा प्रक्रिया संचालित की जगह डिजिटल निर्देश ने ले ली है, जिससे शिक्षा प्रक्रिया पूरी तरह से शिक्षा कॉर्पोरेटों द्वारा प्रचारित डिजिटल प्लेटफॉर्मों की दया पर निर्भर हो गई है।

2.45 राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के क्रियान्वयन के साथ ही शिक्षा क्षेत्र के प्रबंधन का अत्यधिक केंद्रीकरण किया गया है, जिसने संघीय सिद्धांतों को निर्णायक रूप से कमजोर कर दिया है। त्रिभाषा फार्मूले के नाम पर, हिंदी थोपने की कोशिश की जा रही है। इस केंद्रीकरण का एक प्रमुख तत्व कुलाधिपति के पद का दुरुपयोग है, जिसमें राज्यपाल केंद्र सरकार के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए एक साधन के रूप में कार्य कर रहे हैं, जो संवैधानिक योजना का स्पष्ट उल्लंघन है। यूजीसी के दिशा-निर्देशों का मसौदा, राज्य विश्वविद्यालयों के कुलपतियों के चयन का अधिकार, कुलाधिपति को देने का तकाजा करता है। इसके अलावा, कई राज्यों में कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में छात्र संघों के गठन की अनुमति नहीं है।

स्वास्थ्य सेवा का निजीकरण

2.46 हाल के दिनों में भारत सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़ी कई प्रतिकूलताओं का सामना कर रहा है। अर्थव्यवस्था के सभी प्रमुख क्षेत्रों में स्वास्थ्य वित्तपोषण में पहले से ही सबसे कम सार्वजनिक हिस्सेदारी और भी कम हो गई है और जेब से खर्च का बोझ बढ़ गया है। स्वास्थ्य सेवा और चिकित्सा शिक्षा का कॉरपोरेटीकरण और मुनाफाखोरी, अविश्वसनीय स्तर तक बढ़ गई है। प्रधानमंत्री जन-आरोग्य योजना (पीएमजेएवाइ) जैसी बीमा योजनाओं के जरिए निजी देखभाल के लिए सार्वजनिक
भुगतान करना आम बात हो गई है, जिससे भ्रष्टाचार को संस्थागत रूप मिला है, जबकि सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा का बुनियादी ढांचा और सेवाएं कमज़ोर हो गई हैं। सार्वजनिक क्षेत्र के दवा उत्पादन और स्वास्थ्य प्रौद्योगिकी क्षेत्र को व्यवस्थित रूप से कमज़ोर किया गया है, जबकि बहुत ही खराब ढंग से विनियमित कॉर्पोरेट श्रृंखलाएं एकाधिकार प्राप्त कर रही हैं। यहां तक कि टीकों सहित शोध एवं विकास कार्यों को भी निजी क्षेत्र के प्रतिभागियों को सौंप दिया गया है। गिग इकॉनमी सहित, व्यावसायिक स्वास्थ्य की चुनौतियां बढ़ रही हैं। डिजिटलीकरण और संबंधित तकनीक केंद्रित सुधार पहले से ही वंचित आबादी को और भी हाशिए पर धकेल रहे हैं। सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली तेजी से बिगड़ने के चलते, लोगों के स्वास्थ्य परिणाम, विशेष रूप से गरीबों के लिए, खराब हो रहे हैं। यह सब कोविड महामारी के दौरान भारत को मिले विनाशकारी अनुभव के बावजूद हो रहा है, जिसने देश में सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली के दिवालियेपन को पूरी तरह से उजागर कर दिया था।

47

स्वास्थ्य, राज्य का विषय है। राजकोषीय संघवाद के कमजोर होने के बावजूद, जो राज्य सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणालियों को मजबूत करने की कोशिश कर रहे हैं, उन राज्यों के लिए बाधाएं खड़ी की जा रही हैं। भाजपा सरकार, स्वास्थ्य की स्थिति और स्वास्थ्य सेवा पर झूठे दावे और प्रचार कर रही है, जबकि जवाबदेही मांगने के रास्ते बंद कर रही है। अति आवश्यक सावधिक स्वास्थ्य सर्वेक्षणों को बदनाम किया गया है और उन पर समझौता किया गया है। दवा क्षेत्र में, सरकार ऐसी नीतियों को जारी रखती है, जो आवश्यक गैर-पेटेंट दवाओं की कीमतों में भारी वृद्धि की अनुमति देती हैं और पेटेंटशुदा दवाओं के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियों द्वारा वसूली जा रही अत्यधिक कीमतों को चुनौती नहीं देती हैं तथा इस तरह, कॉर्पोरेट्स के लिए सुपर-मुनाफे को बढ़ावा देती हैं। लोगों के स्वास्थ्य के अधिकार और सार्वजनिक रूप से वित्तपोषित स्वास्थ्य सेवा तक सार्वभौमिक पहुंच के लिए संघर्ष को, वैकल्पिक नीतियों के हिस्से के रूप में आगे बढ़ाया जाना चाहिए।

मीडिया पर कब्ज़ा

2.49
मीडिया पर कब्ज़ा
 कुछ अपवादों को छोड़कर, मुख्यधारा के मीडिया को सत्तारूढ़ पार्टी और केंद्र सरकार के नियंत्रण में ले आया गया है। कॉरपोरेट मीडिया के मालिक, सरकार के साथ मिल गए हैं और उनके टीवी चैनल सांप्रदायिक प्रचार कर रहे हैं। स्वतंत्र मीडिया और डिजिटल मीडिया प्लेटफ़ॉर्मों को डराया-धमकाया जा रहा है। पुलिस और केंद्रीय एजेंसियों द्वारा न्यूज़क्लिक को निशाना बनाना, एक चेतावनी के तौर पर था। मीडिया को विनियमित और सेंसर करने के लगातार प्रयास किए जा रहे हैं, जैसा कि आइटी नियम संशोधन 2023 में देखा गया है, जिसके कुछ प्रावधानों पर बॉम्बे हाई कोर्ट ने रोक लगा दी है। 2024 के प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक में भारत अब 180 देशों में से 159वें स्थान पर है।

पर्यावरणीय आपदा की ओर अग्रसर

2.64 भाजपा के नेतृत्व में लगातार चलती आ रही सरकारों के तहत, भारत के पर्यावरण और उससे जुड़े लोगों के अधिकारों और कल्याण पर आज जैसा हमला हो रहा है, पहले कभी नहीं हुआ था। गोदी पूंजीपति और बहुराष्ट्रीय कंपनियों सहित बड़ी कंपनियां पारिस्थितिकीय रूप से संवेदनशील क्षेत्रों में खनन, अन्वेषण और निष्कर्षण उद्योग, बुनियादी ढांचे और वाणिज्यिक गतिविधियों का विस्तार कर रही हैं, जिसमें जंगलों के अंदर के और वन्यजीवों के आवासों के क्षेत्र भी शामिल हैं, जिससे पारिस्थितिकी तंत्र के साथ-साथ आदिवासियों, वनवासियों और प्राकृतिक संसाधनों पर निर्भर अन्य लोगों के जीवन, आवास और आजीविका को नुकसान पहुंच रहा है। वन्य जीवों के आवासों के सिकुड़ने के कारण, मानव-पशु संघर्ष बढ़ रहे हैं। ऐसे संघर्षों को कम करने के लिए योजनाबद्ध और समग्र तरीके से कदम नहीं उठाए जा रहे हैं। भाजपा के व्यापार की सुगमत लाने की कोशिश का मतलब है पर्यावरण नियमों को खत्म करना, अब तक संरक्षित क्षेत्रों में परियोजनाओं की अनुमति देना और नियामक एजेंसियों और तंत्रों को कमजोर करना। बड़े पैमाने पर गुणवत्तापूर्ण वन नष्ट हो रहे हैं, जिसे सरकार झूठे और गलत तरीके से प्रस्तुत किए गए आंकड़ों के माध्यम से छिपा रही है। विकास और पर्यटन के नाम पर नाजुक पश्चिमी और पूर्वी हिमालयी क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर बुनियादी ढांचे, जल विद्युत और सड़क परियोजनाओं ने अत्यधिक वर्षा जैसे जलवायु प्रभावों को बढ़ा दिया है और इन क्षेत्रों को भूस्खलन, कस्बों के धंसने और बार-बार बाढ़ के प्रति अत्यधिक संवेदनशील बना दिया है, जिससे हर साल जान-माल का भारी नुकसान हो रहा है। अनियोजित शहरीकरण, पर्यावरणीय समस्याओं को बढ़ रहा है।

2.65 
जलवायु परिवर्तन के कारण पूरे देश में लोगों और बुनियादी ढांचे को भारी नुकसान हो रहा है, जिसके परिणामस्वरूप स्वास्थ्य को नुकसान हो रहा है औ बड़े पैमाने पर आर्थिक नुकसान हो रहा है। भारत में अधिक तीव्र और लंब अवधि की गर्मी की लहरें चल रही हैं। निर्माण और खुले में काम करने वाले अन्य  मजदूर, रेहड़ी-पटरी वाले, खेत मजदूर, घरेलू नौकर, गिग वर्कर और अनौपचारिक बस्तियों में रहने वाले लोग, सबसे बुरी तरह प्रभावित हैं। देश के अधिकांश हिस्सों में सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली इन्हें आवश्यक सहायता प्रदान करने की स्थिति में नहीं है और दीर्घकालिक उपायों के बारे में नहीं सोचा गया है। शहरों में कंक्रीट से बने बुनियादी ढांचे के, गर्मी को रोके रखने वाले प्रभावों के कारण, शहरी क्षेत्र सबसे अधिक प्रभावित हैं। अत्यधिक वर्षा के कारण, जिसकी समस्या को बेमेल जल निकासी प्रणालियों और बेतरतीब शहरीकरण और बढ़ा देते हैं, शहरी बाढ़ें आती हैं। अब लगभग हर साल महानगरों में भी ऐसी बाढ़ें आने लगी हैं, जिनसे हजारों करोड़ रुपये का भारी नुकसान होता है। केंद्र सरकार द्वारा राजकोषीय अति-केंद्रीकरण किए जाने के कारण राज्य सरकारों और शहरी स्थानीय निकायों के पास इन समस्याओं से निपटने के लिए धन की कमी है।

No comments:

beer's shared items

Will fail Fighting and not surrendering

I will rather die standing up, than live life on my knees:

Blog Archive