Sunday, November 5, 2023

सेंगोल की अजीब दास्तान

 सेंगोल की अजीब दास्तान

20 विपक्षी पार्टियों ने 28 मई को नए संसद भवन के उद्घाटन का विरोध किया था क्योंकि मोदी सरकार ने इस आयोजन में भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को दरकिनार कर दिया था, जबकि व राज्य प्रमुख भी हैं और संसद की मुखिया भी हैं। इसके बजाय सरकार ने तय किया था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी नए संसद भवन का उद्घाटन करेंगे । कार्यपालिका के मुखिया का संसद पर इस तरह लादा जाना  एक संवैधानिक रूप से अनुचित कृत्य था और विपक्ष के उसका विरोध करने का हरेक कारण बनता था । 

    लेकिन नए संसद भवन  के दिन वास्तव में जो कुछ हुआ, उसने तो विपक्ष के इससे दूर ही रहने के निर्णय को और पुख्ता करने का ही काम किया है। आयोजन से पहले , एक दिन अचानक केंद्रीय गृहमंत्री, ने ऐलान कर दिया कि एक सेंगेल(राजदंड) को , जिसे सत्ता के हस्तांतरण की निशानी के तौर पर तत्कालीन वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने जवाहरलाल नेहरू को सौंपा था, संसद में स्थापित किया जाएगा । अमित शाह का कहना था कि, 'पंडित जवाहरलाल नेहरू को "सेंगोल" सौंपे  जाने से, भारत के लिए सत्ता का हस्तांतरण हुआ था।' इस तरह एक ऐसे हिन्दू धार्मिक चिन्ह की  काल्पनिक कहानी गढ़कर पेश कर दी गई, जिसे ब्रिटिश हकूमत ने नए भारतीय शासन के हाथों में "सत्ता के हस्तांतरण" की निशानी बनाया जा रहा है।

          आधिकारिक रूप से यह दावा किया जा रहा था कि लॉर्ड माउंटबेटन ने जवाहरलाल नेहरू से पूछा था कि क्या कोई  भारतीय रस्म है, जो सत्ता के हस्तांतरण का  द्योतक हो। इस पर नेहरू ने वयोवृद्ध नेता, श्री राजगोपालाचारी से इस संबंध में बात की थी और उन्होंने तमिलनाडु के धार्मिक  मठों से इस संबंध में जानकारी हासिल कर, यह परामर्श दिया था कि सेंगोल को, सत्ता हस्तांतरण की निशानी बना देना चाहिए। यह भी बताया जा रहा है कि लॉर्ड माउंटबेटन ने खुद ही 14 अगस्त को रात को, संविधान सभा की आधिकारिक बैठक से पहले जवाहरलाल नेहरू को यह सेंगोल सौंपा था।    

         लेकिन, सेंगोल  के मामले में सच्चाई क्या है और इसका इतिहास क्या है? इसका कोई  रिकॉर्ड या साक्ष्य तो है ही नहीं पूछा माउंटबेटन ने नेहरू से पूछा था कि क्या चीज है, जिसे सत्ता के हस्तांतरण के प्रतीक के रूप में उन्हें भेंट किया जा सकता हो। इस मामले में राजा जी की किसी भूमिका का भी कोई साक्ष्य नहीं है। वास्तव में साक्ष्य तो इसी के हैं कि माउंटबेटन ने नेहरू को कोई सेंगोल नहीं दिया था। वह 13 अगस्त की शाम को कराची चले गए थे और 14 की रात को देर से ही दिल्ली लौटे थे वास्तव में संबोधित तमिलनाडु में बनवाया था बाद में उसे दिल्ली लाया गया था 14 तारीख की रात को देर से ही दिल्ली लौटे थे।

     वास्तव में , संबंधित सेंगोल तमिलनाडु के शैव मठ से बनवाया गया था।बाद में इसे दिल्ली लाया गया था और 14 अगस्त की रात को  नेहरू को, उनके घर पर ही सौंपा गया था। इसके लिए कोई अधिकारिक कार्यक्रम नहीं हुआ था और यह एक निजी फल का ही मामला था। इस महत्वपूर्ण मौके पर दूसरे अनेक उपहारों की तरह, नेहरू का इस सेंगोल को भी स्वीकार करना और इसका अंततः इलाहाबाद संग्रहालय में रखवाया जाना , बताता है कि नेहरू इस मामले को किस तरह से देखते थे।

      बहरहाल, 14 अगस्त की रात को सेंगोल के भेंट किये जाने के जरिये, 'सत्ता के हस्तांतरण' का यह फर्जी दावा,आरएसएस-भाजपा के इस आख्यान में एकदम फिट बैठता है कि किस तरह , हिंदू राज की बहाली के जरिये ,सदियों की दास्तां का अंत हुआ था। सत्ता के हस्तांतरण का यह 'हिन्दुत्वीकरण'  एक अनैतिहासिक हाथ की सफाई के जरिये किया जा रहा है, जिसके लिए वास्तविक ऐतिहासिक पात्रों को मन से गढ़े हुए रोल में खड़ा कर दिया गया है । सेंगोल की यह पूरी कहानी, आरएसएस के सिद्धान्तकार , एस गुरुमूर्ति ने पेश की थी। उन्होंने 2021 में एक तमिल पत्रिका में यह पूरी कहानी पेश की थी।

      प्रधानमंत्री मोदी के दोनों हाथों से सेंगोल को उठाये शेर सिंह गौड़ के उपाय, अधिनमों(मठों के पुजारियों तथा प्रमुखों)  के जुलूस के आगे- आगे चलकर, उसे लोकसभा के स्पीकर के आसन  के पीछे स्थापित करने का जो फोटो 28 मई को सुबह देखने को मिला ,नए भारत की एक ऐसी छवि गढ़ने का हिस्सा है, जिससे हिंदू राष्ट्र का आभास मिलता है । यह  धर्मनिरपेक्ष, जनतांत्रिक गणराज्य की प्रकृति के  ही खिलाफ जाता है। परंपरागत रूप से सेंगोल, एक ऐसा राजदंड रहा है जो शीर्ष धर्माचार्य द्वारा किसी नए नए बने राजा को वैध रूप से शासन करने के लिए दिया जाता था। एक जनतांत्रिक गणराज्य में इसकी कोई जगह ही नहीं है, जहां नागरिक ही हैं जो सरकार का चुनाव करते हैं। यह भारतीय गणराज्य के धर्मनिरपेक्ष चरित्र के भी खिलाफ है कि एक  धार्मिक चिन्ह को, संसद में सर्वोत्तम स्थान पर स्थापित किया गया है।

       28 मई का दिन नए संसद भवन के उद्घाटन के लिए इसीलिए चुना गया था कि यह वीडी सावरकर की जयंती का दिन था। इसने भी एक नए भारत के आख्यान को गढ़ने में ही मदद की है। सावरकर ने एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में शुरुआत जरूर की थी, लेकिन बार-बार उनके दया याचिकाएं लिखने के बाद ब्रिटिश राज ने जब अंडेमान  की सेलुलर जेल से उन्हें  रिहा कर दिया, उसके बाद उन्होंने ब्रिटिश राज के खिलाफ लड़ाई का  त्याग ही कर दिया था। अब उन्होंने अपना ध्यान , पहले कभी देश के शासक रहे मुसलमानों से लड़ने में और हिंदुत्व की स्थापना करने में ही लगाया। वर्तमान भाजपा शासक, उनके हिंदुत्ववादी, साम्प्रदायिक्तवाद  का अनुमोदन करते हैं और भारत में एक हिंदू राष्ट्र की स्थापना को ही हजार साल की गुलामी के अंत का चरमोत्कर्ष मानते हैं।

    बहरहाल सेंगोल के धर्म(न्यायपूर्णता) का चिन्ह होने के भाजपाई शासकों के दावे  की शक्ल उसी दिन तब पूरी तरह बिगड़ गई, जब जिस नये संसद भवन में सेंगोल को स्थापित किया जा रहा था, उससे महज कुछ सौ मीटर की दूरी पर, एक महीने से ज्यादा से शांतिपूर्वक विरोध प्रदर्शन कर रही महिला पहलवानों को, पुलिस द्वारा सड़क पूर बुरी तरह से घसीटा गया और गिरफ्तार कर लिया गया।

     नरेंद्र मोदी ने जिस नए भारत का अवतरण कराया है , उसके सभी प्रतीक--  चाहे वह अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण हो सेंट्रल विस्टा का तथा नए संसद भवन का --एक नए तानाशाही पूर्ण  हिंदुत्ववादी संप्रदायिक  राज्य की ही निशानियां हैं। इस नए आख्यान में फिट होने के हिसाब से , इतिहास को विकृत किया जा रहा है ।

(संपादकीय, लोक लहर अंक 23)

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