Friday, November 17, 2023

Family

 


Before understanding the problems of an Indian middle-class family we should first understand what is a middle-class family.

A middle-class family is a social group that consists of ordinary people who usually have good jobs and are neither rich nor very poor.

Following are the problems faced by middle-class family:

Monetary Problem: This is one of the most common problems a middle-class man has to deal with. With the slumping economy and the ever-increasing costs of everything from groceries to petrol, how can one expect something different? With a modest salary that can hardly even cover electricity bills and taxes, the middle-class man faces roadblocks every step of the way because there’s just no money left, no money to save, and no money to buy anything. Interest rates on loans are going through the ceiling; insurance premiums had never before been so costly; so now the middle-class man finds himself knee-deep in debts, mortgages and loans.

Quality Education: Along with everything today, education to has caught up in terms of cost. A decent education for their kids is something all parents think about. But maybe the middle-class man cannot even afford to think about it. Most children who go to esteemed colleges and universities think renowned private schools, tuition, coaching classes, etc all are a must.  Also, there are additional expenses in terms of mandatory picnics, Industrial Visits, fees for other annual programs etc. But most middle-class children have to do with Government schools and maybe no tuition unless it’s very cheap. Sometimes even with an excellent academic record, the best colleges are out of reach without a scholarship due to financial constraints. In severe situations, parents even have to sell off their assets such as jewellery for their children’s education.


pressure of fulfilling their parents dreams tenses the children of a middle-class family.

Can’t Afford to dream: The last point brought something to my mind. I’m not talking here about the dreams that we see when we’re up in seventh heaven. Nah, the dreams I speak of are the ones all of us have about our future: our ambitions, our goals, what and where we want to be someday. A middle-class man can’t do that because if he does, there will be a lot of disappointments, heartbreaks and ego-bruising things to deal with and again their practical life and difficulties bring them back to earth.



problems not only keeps the adults of the family but also the children.  The expectation to work hard and earn more always tenses the adults whereas the expectation of socializing and pressure of fulfilling their parents dreams tenses the children of a middle-class family.


Can’t Afford to dream: The last point brought something to my mind. I’m not talking here about the dreams that we see when we’re up in seventh heaven. Nah, the dreams I speak of are the ones all of us have about our future: our ambitions, our goals, what and where we want to be someday. A middle-class man can’t do that because if he does, there will be a lot of disappointments, heartbreaks and ego-bruising things to deal with and again their practical life and difficulties bring them back to earth.


चे ग्वेरा

 अंतर्राष्ट्रीयतावादी क्रांतिकारी चे ग्वेरा की 

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धरती लेटिन अमेरिका क्रांति के तूफानों में,,,

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                   ,,,,,,,, मुनेश त्यागी


   अभी पिछले दिनों अमेरिका के राष्ट्रपति ट्रंप ने कहा था कि लैटिन अमेरिका में समाजवाद मर रहा है और पूंजीवाद फूल फल रहा है, मगर जब वहां की हालात का जायजा लिया तो पता चला कि वहां पर अमेरिका का राष्ट्रपति ट्रंप झूठ बोल रहा है, पूरी जनता को गुमराह कर रहा है। वहां के आठ से ज्यादा देशों में क्रांति का तूफान उठ खड़ा हुआ है, लोग सड़कों पर आ गए हैं।वहां की सरकारों को उखाड़ कर फेंक रहे हैं और वामपंथी विचारधारा में और वामपंथी नीतियों में अपना यकीन कायम कर रहे हैं। कुछ देशों पर नजर डालना समीचीन होगा।

     इक्वेडोर ,,,,

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पिछले दिनों यहां पर बहुत बड़े बड़े प्रदर्शन देखे गए हैं जिसमें दसियों लाख से ज्यादा लोगों ने भाग लिया है, लोग अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और अमेरिका द्वारा लादी गई नवउदार नीतियों का विरोध कर रहे हैं, अपनी मांगों के समर्थन में सड़कों पर हैं,

     चिली,,,, 

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यहां पर बहुत बड़े-बड़े प्रदर्शन देखे गए हैं, लोग उदारवादी नीतियों का विरोध कर रहे हैं, दसों दसों लाख से ज्यादा लोग सड़कों पर हैं और साठ के दशक से भी बड़े-बड़े प्रदर्शन यहां दिखाई दे रहे हैं। लोग पूंजीवादी नीतियों का, पूंजीवादी व्यवस्था का विरोध कर रहे हैं और वामपंथी नीतियों को लागू करने की मांग कर रहे हैं।

      ब्राजील,,,,

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यहां  के लोग अपनी  मांगों के समर्थन में सड़कों पर हैं, शिक्षा में की गई कटौती का विरोध कर रहे हैं ,उदारवादी नीतियों का विरोध कर रहे हैं, सामाजिक सुरक्षा में जो कटौती की गई है, उसका विरोध कर रहे हैं, वहां के नेता जो दक्षिणपंथी हैं उसका पुरजोर विरोध कर रहे हैं और पूर्व राष्ट्रपति लूला जो पिछले दिनों से जेल में हैं,उनका समर्थन कर रहे हैं और वे आज भी वहां के  सबसे पॉपुलर नेता हैं। 

      अर्जेंटीना,,,,

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यहां पर पुराने राष्ट्रपति का जोरदार विरोध हो रहा है और अभी चुनाव हुए हैं जहां पर अल्बर्टो फर्नांडीस जो वामपंथी नेता हैं और जनविरोधी नीतियों का करते हैं,वह जीत कर आए हैं, जनता ने दक्षिणपंथी नीतियों को हरा दिया है और नई सरकार से मांग की है कि वे जनता की सुरक्षा करें उसकी मुक्ति के सारे कार्यक्रम लागू करें।

    बोलीविया,,,, 

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यह वही धरती है जहां पर क्रांति दूत अंतरराष्ट्रीय क्रांति के वाहक अर्नेस्टो चे ग्वेरा ने क्रांतिकारी लड़ाई लड़ी थी और यहीं पर अपने प्राण बलिदान किए थे, वहां की जनता राष्ट्रपति इवो मोरालिस के नेतृत्व में काम कर रही है एवं उसकी सरकार ने वामपंथी नीतियों को अपनाते हुए गरीबी का खात्मा कर दिया है और इस देश में इस पूरे महाद्वीप में सबसे ज्यादा आर्थिक विकास की ऊंची दर कायम की है।

    मैक्सिको,,,, 

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यहां जनता भ्रष्टाचार और असमानता का जोरदार विरोध कर रही है, सामाजिक मुक्ति के कार्यक्रमों की मांग कर रही है और वहां की जनता ने दक्षिणपंथी और पूंजीवादी नेताओं को हराकर वामपंथी नेताओं को सत्ता में ला खडा किया है और जनता ने अमेरिकी प्रभुत्व को करारी मात दे दी है

    कोलंबिया,,,,

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 यहां की जनता अपनी जन समर्थक और जनमुक्ति की समस्या की नीतियों को लेकर सड़कों पर हैं, लाखों लाख की संख्या विद्रोह कर रही है,यह लोग भ्रष्टाचार का विरोध कर रहे हैं और वहां के निजाम द्वारा थोपी गई जनविरोधी नीतियों और नव उदारवाद की नीतियों का विरोध कर रहे हैं।

    वेनेजुएला,,,,

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 यहां पर लोग सरकार के समर्थन में सड़कों पर हैं और  अपनी लोकप्रिय सरकार को बचाने में लगे हुए हैं और यहां की जनता ने एकजुट होकर अमेरिका द्वारा समर्थित कठपुतली नेता को पराजित कर दिया है और उसको तख्तापलट करने से रोक दिया है। वेनेजुएला बोलिवियन क्रांति के उद्देश्यों को आगे बढ़ा रहा है। 

     यह सब जनता की एकजुटता और एकता की वजह से कामयाब हो पाया है, वहां  के लोग यानी लैटिन अमेरिका के लोग  अमेरिकी प्रभुत्व की नीतियों का जोरदार विरोध कर रहे हैं, सुरक्षा की मांग कर रहे हैं पेंशन और रोजगार की मांग कर रहे हैं और अमेरिका और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा थोपी गई नवउदारवादी नीतियों का जोरदार विरोध कर रहे हैं।

    इस सब को देख कर हम कह सकते हैं कि लैटिन अमेरिका की जनता क्रांति की शरण में चली गई है और वह अपने अपने देशों में क्रांति द्वारा उपलब्ध कराए गए सबको शिक्षा, सबको रोजगार, सब को मुफ्त इलाज, सब को मुफ्त शिक्षा, सामाजिक सुरक्षा,पेंशन आदि की मांग को लेकर सड़कों पर है और वह क्रांति के तूफानों के आगोश में है। 

     वह पूरी दुनिया के लोगों को दिखा रही है कि अमरीका द्वारा निर्धारित और अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा थोपी गई नीतियों का विरोध किया जा सकता है और जनता की चाही सरकार किसी भी देश में कायम की जा सकती है बशर्ते कि जनता एकजुट होकर क्रांति की पांतों में आए और क्रांति के लिए अपनी मुक्ति के लिए संघर्ष में लग जाए।

      इस सब को देख कर हम यह भी कह सकते हैं कि क्रांतिकारी शहीदों  द्वारा लेटिन अमेरिका में बोए गए क्रांति के बीज अब कोंपल बन कर उगने लगे हैं। वे जनता को नई राह दिखा रहे हैं, उनमें आशा और विश्वास का संचार कर रहे हैं, पूरी दुनिया के लोगों को एकजुट होना सिखा रहे हैं और बता रहे हैं कि हम एकजुट होकर शोषण करने वालों, असमानता फैलाने वालों और समाज में नफरत और वैमनस्यता फैलाने वालों को सत्ता से दूर कर  सकते हैं और यह काम केवल और केवल क्रांतिकारी लोगों द्वारा क्रांतिकारी विचारधारा को अमल में लाकर ही किया जा सकता है।

जनता का लोकतंत्र

 जनता का लोकतंत्र

19 नवंबर 2023


मध्य प्रदेश: भाजपा शासन में बीमारू



गुजरात के बाद मध्य प्रदेश सबसे लंबे समय तक भाजपा द्वारा शासित राज्य है। भाजपा ने 2002 से अब तक राज्य में डेढ़ साल के अंतराल पर कांग्रेस सरकार (जो दलबदल के माध्यम से गिरा दी गई थी) पर शासन किया है। विधानसभा चुनाव प्रचार के दौरान केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने दावा किया है कि भाजपा ने पिछले 18 वर्षों में मध्य प्रदेश को बीमारू राज्य से बेमिसाल (अतुलनीय) राज्य बना दिया है।


इतने लंबे समय तक राज्य में शासन करने के बाद भाजपा को अपने रिकॉर्ड को सही ठहराना होगा। यही कारण है कि अमित शाह के अलावा, निर्मला सीतारमण और राजनाथ सिंह जैसे कई भाजपा नेता घोषणा कर रहे हैं कि मध्य प्रदेश एक बीमारू राज्य नहीं रह गया है और एक "बेजोड़" राज्य बन गया है।

   बीमारू टैग हिंदी क्षेत्र के राज्यों बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान और उत्तर प्रदेश को उनके आर्थिक पिछड़ेपन और सामाजिक संकेतकों के निम्न स्तर को रेखांकित करने के लिए जोड़ा गया था। यह मध्य प्रदेश का वर्गीकरण है जिसे भाजपा अब यह कहकर खारिज कर देती है कि राज्य ने भाजपा शासन के तहत तेजी से प्रगति की है।


लेकिन हकीकत क्या है? मध्य प्रदेश का आर्थिक प्रदर्शन देश में सबसे खराब है। 1993-94 में, प्रति व्यक्ति शुद्ध राज्य घरेलू उत्पाद में राज्य 27 राज्यों में से 19वें स्थान पर था। हालाँकि, 2021-22 में यह केवल दो स्थान बढ़कर 17 हो गया। नीति आयोग के अनुसार, राज्य की आधी से अधिक आबादी निम्नतम दो संपत्ति क्विंटलों से संबंधित है। जहां तक ​​शिक्षा का सवाल है, 2020 में प्राथमिक, उच्च माध्यमिक और कॉलेज स्तर की शिक्षा में नामांकन जैसे संकेतकों पर मध्य प्रदेश 30 राज्यों में से 20वें स्थान पर था।

सामाजिक संकेतकों में भी मध्य प्रदेश की रैंक कम है। उदाहरण के लिए, 2019-21 में, मध्य प्रदेश में 35.7 प्रतिशत अविकसित बच्चे थे और 30 राज्यों में से 25वें स्थान पर थे। 2015-16 और 2019-21 के बीच कम वजन वाले बच्चों के पैरामीटर में राज्य की रैंकिंग में केवल दो स्थान (28 से 26) का सुधार हुआ है। मध्य प्रदेश की समग्र निम्न सामाजिक रैंकिंग मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) में इसकी रैंक से इंगित होती है, जहां यह 2021 में 30 राज्यों में से 27वें स्थान पर था।

यदि सामाजिक-आर्थिक संकेतक राज्यों की सूची के निचले आधे हिस्से में कमजोर बने रहे, तो शिवराज सिंह चौहान सरकार द्वारा स्थापित सांप्रदायिक-कॉर्पोरेट शासन का समग्र प्रभाव हानिकारक परिणाम दिखाता है। राज्य ने अंधाधुंध खनन की अनुमति देकर राष्ट्रीय संसाधनों की लूट देखी है। नवीनतम मामला अडानी समूह को दिया गया धीरौली कोयला खनन पट्टा है जो 2,672 हेक्टेयर जंगलों, खेतों और गांवों में फैला हुआ है।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार, 2021 में अनुसूचित जनजातियों के खिलाफ अत्याचार के सबसे अधिक मामले मध्य प्रदेश में दर्ज किए गए, जो देश में दर्ज कुल मामलों का 29.8 प्रतिशत है। 14.1 प्रतिशत मामलों के साथ अनुसूचित जाति के खिलाफ अत्याचार के दर्ज मामलों में यह तीसरे स्थान पर है।


हिंदुत्व एजेंडा, जिसे विशेष रूप से 2019 से शुरू होने वाले भाजपा सरकार के वर्तमान कार्यकाल में सख्ती से आगे बढ़ाया गया है, में अल्पसंख्यकों पर भयानक हमले देखे गए हैं। इंदौर में मुस्लिम विक्रेताओं पर हमले और खरगोन में मुसलमानों के घरों को ध्वस्त करना अल्पसंख्यकों के उत्पीड़न के कुछ उदाहरण हैं। यहां तक ​​कि ईसाई पूजा स्थलों को भी नहीं बख्शा गया है।

सभी ने कहा, मध्य प्रदेश में सांप्रदायिक-कॉर्पोरेट शासन की प्रकृति ने केवल 'बीमारू' स्थिति को कायम रखा है, एक ऐसा समाज जो सांप्रदायिक रोगज़नक़ से संक्रमित है और दलितों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों के नग्न उत्पीड़न से चिह्नित है। .


यह एक ऐसा रिकॉर्ड है जिससे लोगों में भारी असंतोष है और यह फैसले में दिखाई देगा जब 17 नवंबर को मध्य प्रदेश में चुनाव होंगे।


 


(नवंबर 15, 2023)

Wednesday, November 15, 2023

Palliative surgery

 Palliative surgery is surgery designed to help relieve symptoms of incurable diseases. There are many different types of palliative surgeries, most of which are used to remedy the discomfort of symptoms of serious and chronic conditions such as: Amyotrophic Lateral Sclerosis (ALS)

 Palliative surgery is surgery designed to help relieve symptoms of incurable diseases. There are many different types of palliative surgeries, most of which are used to remedy the discomfort of symptoms of serious and chronic conditions such as:


Amyotrophic Lateral Sclerosis (ALS)

Alzheimer's disease

Cancer

Cardiac disease, such as congestive heart failure (CHF)

Chronic obstructive pulmonary disease (COPD)

Kidney failure

Parkinson's disease

Dementia

Stroke 

Palliative surgical procedures are intended to reduce suffering or support quality of life rather than prolong life or cure disease.

 Palliative surgical procedures are intended to reduce suffering or support quality of life rather than prolong life or cure disease.

Palliative surgery is mainly directed toward alleviating symptoms and suffering and improving quality of life (QOL), whether or not treatments are being directed at modifying the underlying disease

 Although the term 'surgical palliative care' has been defined in a variety of ways, it is the treatment of suffering and the promotion of quality of life for seriously ill or terminally ill patients under surgical care.

Palliative care

 Key facts

Palliative care improves the quality of life of patients and that of their families who are facing challenges associated with life-threatening illness, whether physical, psychological, social or spiritual. The quality of life of caregivers improves as well.

Each year, an estimated 56.8 million people, including 25.7 million in the last year of life, are in need of palliative care.

Worldwide, only about 14% of people who need palliative care currently receive it.

Unnecessarily restrictive regulations for morphine and other essential controlled palliative medicines deny access to adequate palliative care.

Adequate national policies, programmes, resources, and training on palliative care among health professionals are urgently needed in order to improve access.

The global need for palliative care will continue to grow as a result of the ageing of populations and the rising burden of noncommunicable diseases and some communicable diseases.

Early delivery of palliative care reduces unnecessary hospital admissions and the use of health services.

Palliative care involves a range of services delivered by a range of professionals that all have equally important roles to play – including physicians, nursing, support workers, paramedics, pharmacists, physiotherapists and volunteers –– in support of the patient and their family.

Palliative care is an approach that improves the quality of life of patients (adults and children) and their families who are facing problems associated with life-threatening illness. It prevents and relieves suffering through the early identification, correct assessment and treatment of pain and other problems, whether physical, psychosocial or spiritual.

Addressing suffering involves taking care of issues beyond physical symptoms. Palliative care uses a team approach to support patients and their caregivers. This includes addressing practical needs and providing bereavement counselling. It offers a support system to help patients live as actively as possible until death.


Palliative care is explicitly recognized under the human right to health. It should be provided through person-centered and integrated health services that pay special attention to the specific needs and preferences of individuals. 


Palliative care is required for a wide range of diseases. The majority of adults in need of palliative care have chronic diseases such as cardiovascular diseases (38.5%), cancer (34%), chronic respiratory diseases (10.3%), AIDS (5.7%) and diabetes (4.6%). Many other conditions may require palliative care, including kidney failure, chronic liver disease, multiple sclerosis, Parkinson’s disease, rheumatoid arthritis, neurological disease, dementia, congenital anomalies and drug-resistant tuberculosis.


Pain and difficulty in breathing are two of the most frequent and serious symptoms experienced by patients in need of palliative care. For example, 80% of patients with AIDS or cancer, and 67% of patients with cardiovascular disease or chronic obstructive pulmonary disease will experience moderate to severe pain at the end of their lives. Opioids are essential for managing pain. 


Opioids can also alleviate other common distressing physical symptoms including breathlessness. Controlling such symptoms at an early stage is an ethical duty to relieve suffering and to respect a person’s dignity.


Insufficient access to palliative care

Each year an estimated 56.8 million people are in need of palliative care, most of whom live in low- and middle-income countries. For children, 98% of those needing palliative care live in low- and middle-income countries with almost half of them living in Africa.


Worldwide, a number of significant barriers must be overcome to address the unmet need for palliative care:


national health policies and systems often do not include palliative care at all;

training on palliative care for health professionals is often limited or non-existent; and

population access to opioid pain relief is inadequate and fails to meet international conventions on access to essential medicines.

According to a WHO survey relating to noncommunicable diseases conducted among 194 Member States in 2019: funding for palliative care was available in 68% of countries and only 40% of countries reported that the services reached at least half of patients in need (1).


The International Narcotics Control Board found that in 2018, 79 per cent of the world’s population, mainly people in low- and middle-income countries, consumed only 13 per cent of the total amount of morphine used for the management of pain and suffering, or 1 per cent of the 388 tons of morphine manufactured worldwide. Although that was an improvement over 2014, when 80 per cent of the world’s population consumed only 9.5 per cent of the morphine used for the management of pain and suffering, the disparity in the consumption of narcotic drugs for palliative care between low- and middle-income countries and high-income countries continues to be a matter of concern (2).


Other barriers to palliative care include:


lack of awareness among policy-makers, health professionals and the public about what palliative care is, and the benefits it can offer patients and health systems;

cultural and social barriers, such as beliefs about death and dying;

misconceptions about palliative care, such as that it is only for patients with cancer, or for the last weeks of life; and

misconceptions that improving access to opioid analgesia will lead to increased substance abuse.

What can countries do?

National health systems are responsible for including palliative care in the continuum of care for people with chronic and life-threatening conditions, linking it to prevention, early detection and treatment programmes. This includes, as a minimum, the following components:


health system policies that integrate palliative care services into the structure and financing of national health-care systems at all levels of care;

policies for strengthening and expanding human resources, including training of existing health professionals, embedding palliative care into the core curricula of all new health professionals, as well as educating volunteers and the public; and

a medicines policy which ensures the availability of essential medicines for managing symptoms, in particular opioid analgesics for the relief of pain and respiratory distress.

Palliative care is most effective when considered early in the course of the illness. Early palliative care not only improves quality of life for patients but also reduces unnecessary hospitalizations and use of health-care services.


Palliative care needs to be provided in accordance with the principles of universal health coverage. All people, irrespective of income, disease type or age, should have access to a nationally- determined set of basic health services, including palliative care. Financial and social protection systems need to take into account the human right to palliative care for poor and marginalized population groups.


As part of multidisciplinary teams, the nursing workforce should be trained in palliativecare skills, especially those who work with patients with serious illness.


Specialist palliative care is one component of palliative care service delivery. But a sustainable, quality and accessible palliative care system needs to be integrated into primary health care, community and home-based care, as well as supporting care providers such as family and community volunteers. Providing palliative care should be considered an ethical duty for health professionals.


WHO response

Palliative care medicines, including those for pain relief, are included in WHO Essential Medicines List and the WHO Essential Medicines List for Children. Palliative care is recognized in key global mandates and strategies on universal health coverage, noncommunicable diseases, and people-centred and integrated health services. WHO Guidelines for the pharmacological and radiotherapeutic management of cancer pain in adults and adolescents were released in 2019 (3).


In 2014, the first ever global resolution on palliative care, World Health Assembly resolution WHA67.19, called upon WHO and Member States to improve access to palliative care as a core component of health systems, with an emphasis on primary health care and community/home-based care. WHO’s work to strengthen palliative care focuses on the following areas:


integrating palliative care into all relevant global disease control and health system plans;

assessing the development of palliative care services;

developing guidelines and tools on integrated palliative care across disease groups and levels of care, addressing ethical issues related to the provision of comprehensive palliative care;

supporting Member States in improving access to palliative care medicines through improved national regulations and delivery systems;

a special focus on palliative care for people living with HIV, including development of guidelines;

promoting increased access to palliative care for children (in collaboration with UNICEF);

monitoring global palliative care access and evaluating progress made in palliative care programmes;

developing indicators for evaluating palliative care services;

encouraging adequate resources for palliative care programmes and research, especially in resource-limited countries; and

building evidence of models of palliative care that are effective in low- and middle-income settings.

Sunday, November 5, 2023

घटना जिसनै अम्बेडकर भी हिला दिया

 घटना जिसनै अम्बेडकर भी हिला दिया


 घटना सन् 1935 की सै। इस घटना नै अम्बेडकर बरगे पहोंच्या औड़ बुद्धिजीवी भी हिला कै धर दिया था। उस बख्त बम्बई सरकार नै एक आदेश जारी करया था कि सार्वजनिक स्कूलां मैं अछूतां के बालकां ताहिं दाखिला दिया जावै। इस आदेश के तहत बम्बई प्रेसीडैंसी के अहमदाबाद जनपद के धोल्का तालुका मैं कबील नाम के गाम मैं 8 अगस्त 1935 नै उस गाम के अछूत अपणे च्यार बालकां नै स्कूल मैं दाखिला करवावण ले कै गए। उननै देखण की खातर सवर्ण हिंदू स्कूल के चारों कान्हीं जमा होगे। जिब दाखिला हो लिया तो आगले कुछ दिनां मैं हिंदुआं नै अपणे बालक स्कूल तै ठा लिये।

 अर उसके कुछ दिन पाछै एक बाहमण नै गाम के एक अछूत पै हमला बोल दिया। इस हमले कै खिलाफ 12 अगस्त नै गाम के अछूत मजिस्ट्रेट की कचहरी मैं शिकायत करण की खातर धोल्का पहोंचे। हिंदुआं नै न्यों देख कै अक अछूता के बालिग लोग गाम मैं कोण्या, लाट्ठी, भाले अर तलवारां गेल्यां अछूतां के घरां पै हमला बोल दिया। उननै महिलावां, बूढ़याँ अर बालकां कै चोट मारी अर वे अधमरे कर दिये। धोल्का गये होए अछूत भी उसे रात नै गाम मैं उलटे आवण आले थे। हिंदू उननै मारण की खातर राह मैं घात लगा कै बैठगे।

 एक बुढ़िया नै इस बात का बेरा लागग्या। उसनै उन धोरै खबर भिजवा दी ज्यां करकै वे उस रात ने कोनी आए अर एक और हादसा टलग्या। हमलावर हिंदू सारी रात उनकी बाट देखते रहे अर आगले दिन तड़कै हे वापस घर नै आए। भयभीत अछूत गांव छोड़ कै अहमदाबाद चाले गए अर उड़ै जाकै गांधी जी की संस्था ‘हरिजन सेवक संघ’ के मंत्री ताहिं सारी बात खोल कै बताई। फेर इस संस्था के मंत्री नै कोए मदद नहीं करी।

 न्यून गाम मैं हिंदुआं नै अछूतां का सामाजिक बहिष्कार कर दिया। उन ताहिं मजदूरी देणा बंद कर दिया। खावण पीवण की चीज बेचण ताहिं इन्कार कर दिया। जड़ असली बात या सै कि उनका घर तै बाहर लिकड़ना मुश्किल कर दिया। और तो और उनके कुंए मैं माट्टी का तेल गेर दिया। आखिर मैं 17 अक्तूबर नै अछूतां नै मजिस्ट्रेट की अदालत मैं फौजदारी का मुकद्दमा दर्ज करवाया। डा. अम्बेडकर नै लिख्या बताया कि इस मामले मैं सबतै अजीब पक्ष तो महात्मा गांधी अर उनके सहयोगी वल्लभ भाई पटेल का रहया जिननै अछूतां ताहिं याहे सलाह दी कि वे गाम छोड़ दें। दलित इस मामले मैं बहोत असहाय महसूस करैं थे।

 जै आज भी देखैं तो कई जगहां मैं हालात उड़ैए सी खड़े दीखैं सैं। चाहे दुलीना कांड हो, चाहे हरसौला का मामला हो अर चाहे पहरावर के सरपंच का मामला हो। दलित उत्पीड़न की मार कसूती पड़री सै।

 कबीर गाम की उस घटना नै सन 1935 मैं बाबा अम्बेडकर का दिल भीतर ताहिं हिला कै धर दिया था। अम्बेडकर जी नै मेवला मैं इस ढाल के उत्पीड़न करण आले हिंदू धर्म मैं ना रहवण की घोषणा करी बताई। उनकी इस घोषणा तै या बात साफ होज्या सै कि दलितां पर उत्पीड़न उन बख्तां मैं कितना था। आम्बेडकर जिसे बुद्धिजीवियां नै भी इसी घोषणा करणी पड़ी।

 इसी घटना आज पूरे हिंदुस्तान मैं अर खास कर उत्तरी भारत मैं बहोत घणी होवण लागगी। बहुजन समाज नै बी अंगड़ाई ली सै अर इस उत्पीड़न का प्रतिरोध भी दिखाई देवण लाग्या सै या अच्छी बात सै। फेर एक बात और समझण की सै कि यू एकला दलित भाइयां के उत्पीड़न का मसला नहीं सै। यू पूरे समाज का मसला सै। यू मानवता का मसला सै अर यू नागरिक समाज के विकास का मसला सै। इस मसले तै रूबरू होवण आली बात सै। आज नहीं तो काल पूरे समाज नै सोचना पड़ैगा कि इतने साल की आजादी पाछै बी दलित उत्पीड़न क्यूं बढ़ता जावण लागरया सै अर इसका के इलाज सै?

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त्रिपुरा में महिलाओं पर बढ़ता अत्याचार*

 ***त्रिपुरा में महिलाओं पर बढ़ता अत्याचार***

अखिल भारतीय लोकतांत्रिक महिला संघ ने 5 जून को जारी एक बयान में, भाजपा शासित राज्य त्रिपुरा में बलात्कार, सामूहिक बलात्कार और महिलाओं पर अन्य प्रकार की हिंसा की बढ़ती घटनाओं की कड़ी निंदा की है।

यह चिंता के साथ नोट करता है कि AIDWA की त्रिपुरा राज्य समिति ने अकेले 15 अप्रैल और 1 जून, 2023 के बीच इस तरह की हिंसा के कम से कम 12 मामले दर्ज किए हैं। इन घटनाओं में आधे से अधिक पीड़ित नाबालिग और युवा लड़कियां थीं, जिनमें से दो आदिवासी महिलाएं थीं और एक विकलांग महिला थी।

महिलाओं के खिलाफ लक्षित राजनीतिक हिंसा के एक से अधिक उदाहरण सामने आए हैं, खासकर त्रिपुरा में पिछले विधानसभा चुनावों में भाजपा की जीत के बाद से। त्रिपुरा AIDWA इनका विरोध कर रहा है और महिलाओं के खिलाफ हिंसा की बढ़ती दर का संज्ञान लेने के लिए त्रिपुरा राज्य महिला आयोग को याचिका दी है। स्वाभाविक रूप से सरकार और महिला आयोग दोनों ने इन याचिकाओं को नज़रअंदाज़ करना जारी रखा है और अभियुक्तों को संरक्षण और समर्थन प्रदान करना जारी रखा है जैसा कि बीजेपी देश के बाकी हिस्सों में करती रही है। 


       एआईडीडब्ल्यूए त्रिपुरा की महिलाओं के साथ एकजुटता व्यक्त करता है और पूरे देश में अपनी इकाइयों के साथ-साथ अन्य लोकतांत्रिक विचारधारा वाले नागरिकों को त्रिपुरा सरकार की निष्क्रियता के खिलाफ अभियान चलाने और उन महिलाओं के लिए न्याय की मांग करने के लिए कहता है जो हमले का शिकार हैं। यह मांग करता है कि त्रिपुरा महिला आयोग एक तथ्यान्वेषी समिति का गठन करे और इन मामलों में दोषियों के खिलाफ की गई कार्रवाई पर एक रिपोर्ट जारी करे।

एडवा मांग करती है कि सरकार आरोपियों को तुरंत पकड़ें और राज्य में महिलाओं की सुरक्षा के लिए उचित कदम उठाएं. 


15 अप्रैल - 1 जून, 2023 के बीच रिकॉर्ड की गई हिंसा की घटनाएं 

15 अप्रैल 2023- 12 साल की बच्ची से रेप 23 अप्रैल 2023- भाजपा के गुंडों व पंचायत प्रधान द्वारा दुष्कर्म का प्रयास 

2 मई, 2023- मानसिक रूप से विक्षिप्त महिला से दुष्कर्म 

9 मई 2023 - अगरतला में कॉलेज छात्रा से रेप 14 मई 2023- दो आदिवासी बच्चियों से रेप 24 मई 2023- 8 साल की बच्ची से रेप 


28 मई 2023 - 11 साल की बच्ची से सामूहिक दुष्कर्म 

30 मई, 2023- गृहिणी से छेड़छाड़ 

31 मई 2023- शहर में युवती से दुष्कर्म 1 जून 2023- 5 साल की बच्ची से रेप 

1 जून 2023- 14 साल की बच्ची से गैंगरेप 

2 जून 2023- 14 वर्षीय किशोरी व आईटीआई के छात्र का अपहरण

व्यक्तिगत डेटा का रिसाव


व्यक्तिगत डेटा के रिसाव में पूछताछ सोमवार, 12 जून, 2023 भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) के पोलित ब्यूरो ने निम्नलिखित बयान जारी किया है: चौंकाने वाली रिपोर्ट एक मेगा डेटा उल्लंघन की सामने आई है जिसमें आधार कार्ड आदि सहित भारतीयों की व्यक्तिगत जानकारी CoWin पोर्टल से लीक हुई है जिसमें लोगों ने अपने व्यक्तिगत विवरण के साथ टीकाकरण के लिए पंजीकरण कराया था। यह गंभीर चिंता का विषय है और निजता के अधिकार का उल्लंघन है जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने सभी भारतीयों के मौलिक अधिकार के रूप में घोषित किया था। स्वास्थ्य मंत्रालय ने जून 2021 में इसी तरह के एक आरोप से इनकार किया था, लेकिन फिर भी उसने इलेक्ट्रॉनिक्स और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय (MEITY) के तहत काउंटर हैकिंग समूह, कंप्यूटर इमरजेंसी रिस्पांस टीम द्वारा CoWin सिस्टम से कथित रिसाव की जांच का आदेश दिया था। इस जांच का विवरण अभी तक सार्वजनिक डोमेन में नहीं है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) का पोलित ब्यूरो एक गहन जांच की मांग करता है और भारतीयों की व्यक्तिगत जानकारी की सुरक्षा में इस तरह के बड़े उल्लंघन के लिए जिम्मेदार लोगों की पहचान की जानी चाहिए और इसके बाद कड़ी कार्रवाई की जानी चाहिए। टैग: व्यक्तिगत डेटा का रिसाव आधार

मोदी सरकार के 9 साल*

 *मोदी सरकार के 9 साल* 

**साल दर साल गहरा हुआ रोजी-रोटी का संकट**

2014 के बाद से कुल 48499 किसान और 40685 खेतिहर मजदूर आत्महत्या करने को मजबूर हुए हैं।

इन आंकड़ों में भूमि किराए पर लेने वाले किसानों/बंटाईदारों , आदिवासियों और बिना पट्टे वाले दलितों , महिला किसानों, वन भूमि के काश्तकारों और भूमिहीन खेत मजदूरों द्वारा की जाने वाली हजारों आत्माओं को शामिल नहीं किया गया है क्योंकि राज्य सरकारें इन्हें किसान आत्महत्याओं के रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं।

एनसीआरबी की रिपोर्ट के अनुसार केवल वर्ष 2021 में 5318 किसानों और 5535 मजदूरों ने आत्महत्या की है 

अर्थ व्यवस्था के समग्र संकट का एक नया पहलू मजदोइरों द्वारा आत्महत्याओं की बढ़ती संख्या है । 

वर्ष 2014-2021 में 2,35,799 से अधिक दिहाड़ी मजदूरों को आत्महत्या करने के लिए मजबूर किया गया है।

किसानों , खेत मजदूरों और दिहाड़ी मजदूरों  द्वारा की जाने वाली आत्महत्याओं को संयुक्त रूप में लें तो 2014--21 की अवधि में ये आत्महत्याएं लगभग 3, 25,000 की संख्या को छूती हैं।

सेंगोल की अजीब दास्तान

 सेंगोल की अजीब दास्तान

20 विपक्षी पार्टियों ने 28 मई को नए संसद भवन के उद्घाटन का विरोध किया था क्योंकि मोदी सरकार ने इस आयोजन में भारत की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को दरकिनार कर दिया था, जबकि व राज्य प्रमुख भी हैं और संसद की मुखिया भी हैं। इसके बजाय सरकार ने तय किया था कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी नए संसद भवन का उद्घाटन करेंगे । कार्यपालिका के मुखिया का संसद पर इस तरह लादा जाना  एक संवैधानिक रूप से अनुचित कृत्य था और विपक्ष के उसका विरोध करने का हरेक कारण बनता था । 

    लेकिन नए संसद भवन  के दिन वास्तव में जो कुछ हुआ, उसने तो विपक्ष के इससे दूर ही रहने के निर्णय को और पुख्ता करने का ही काम किया है। आयोजन से पहले , एक दिन अचानक केंद्रीय गृहमंत्री, ने ऐलान कर दिया कि एक सेंगेल(राजदंड) को , जिसे सत्ता के हस्तांतरण की निशानी के तौर पर तत्कालीन वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन ने जवाहरलाल नेहरू को सौंपा था, संसद में स्थापित किया जाएगा । अमित शाह का कहना था कि, 'पंडित जवाहरलाल नेहरू को "सेंगोल" सौंपे  जाने से, भारत के लिए सत्ता का हस्तांतरण हुआ था।' इस तरह एक ऐसे हिन्दू धार्मिक चिन्ह की  काल्पनिक कहानी गढ़कर पेश कर दी गई, जिसे ब्रिटिश हकूमत ने नए भारतीय शासन के हाथों में "सत्ता के हस्तांतरण" की निशानी बनाया जा रहा है।

          आधिकारिक रूप से यह दावा किया जा रहा था कि लॉर्ड माउंटबेटन ने जवाहरलाल नेहरू से पूछा था कि क्या कोई  भारतीय रस्म है, जो सत्ता के हस्तांतरण का  द्योतक हो। इस पर नेहरू ने वयोवृद्ध नेता, श्री राजगोपालाचारी से इस संबंध में बात की थी और उन्होंने तमिलनाडु के धार्मिक  मठों से इस संबंध में जानकारी हासिल कर, यह परामर्श दिया था कि सेंगोल को, सत्ता हस्तांतरण की निशानी बना देना चाहिए। यह भी बताया जा रहा है कि लॉर्ड माउंटबेटन ने खुद ही 14 अगस्त को रात को, संविधान सभा की आधिकारिक बैठक से पहले जवाहरलाल नेहरू को यह सेंगोल सौंपा था।    

         लेकिन, सेंगोल  के मामले में सच्चाई क्या है और इसका इतिहास क्या है? इसका कोई  रिकॉर्ड या साक्ष्य तो है ही नहीं पूछा माउंटबेटन ने नेहरू से पूछा था कि क्या चीज है, जिसे सत्ता के हस्तांतरण के प्रतीक के रूप में उन्हें भेंट किया जा सकता हो। इस मामले में राजा जी की किसी भूमिका का भी कोई साक्ष्य नहीं है। वास्तव में साक्ष्य तो इसी के हैं कि माउंटबेटन ने नेहरू को कोई सेंगोल नहीं दिया था। वह 13 अगस्त की शाम को कराची चले गए थे और 14 की रात को देर से ही दिल्ली लौटे थे वास्तव में संबोधित तमिलनाडु में बनवाया था बाद में उसे दिल्ली लाया गया था 14 तारीख की रात को देर से ही दिल्ली लौटे थे।

     वास्तव में , संबंधित सेंगोल तमिलनाडु के शैव मठ से बनवाया गया था।बाद में इसे दिल्ली लाया गया था और 14 अगस्त की रात को  नेहरू को, उनके घर पर ही सौंपा गया था। इसके लिए कोई अधिकारिक कार्यक्रम नहीं हुआ था और यह एक निजी फल का ही मामला था। इस महत्वपूर्ण मौके पर दूसरे अनेक उपहारों की तरह, नेहरू का इस सेंगोल को भी स्वीकार करना और इसका अंततः इलाहाबाद संग्रहालय में रखवाया जाना , बताता है कि नेहरू इस मामले को किस तरह से देखते थे।

      बहरहाल, 14 अगस्त की रात को सेंगोल के भेंट किये जाने के जरिये, 'सत्ता के हस्तांतरण' का यह फर्जी दावा,आरएसएस-भाजपा के इस आख्यान में एकदम फिट बैठता है कि किस तरह , हिंदू राज की बहाली के जरिये ,सदियों की दास्तां का अंत हुआ था। सत्ता के हस्तांतरण का यह 'हिन्दुत्वीकरण'  एक अनैतिहासिक हाथ की सफाई के जरिये किया जा रहा है, जिसके लिए वास्तविक ऐतिहासिक पात्रों को मन से गढ़े हुए रोल में खड़ा कर दिया गया है । सेंगोल की यह पूरी कहानी, आरएसएस के सिद्धान्तकार , एस गुरुमूर्ति ने पेश की थी। उन्होंने 2021 में एक तमिल पत्रिका में यह पूरी कहानी पेश की थी।

      प्रधानमंत्री मोदी के दोनों हाथों से सेंगोल को उठाये शेर सिंह गौड़ के उपाय, अधिनमों(मठों के पुजारियों तथा प्रमुखों)  के जुलूस के आगे- आगे चलकर, उसे लोकसभा के स्पीकर के आसन  के पीछे स्थापित करने का जो फोटो 28 मई को सुबह देखने को मिला ,नए भारत की एक ऐसी छवि गढ़ने का हिस्सा है, जिससे हिंदू राष्ट्र का आभास मिलता है । यह  धर्मनिरपेक्ष, जनतांत्रिक गणराज्य की प्रकृति के  ही खिलाफ जाता है। परंपरागत रूप से सेंगोल, एक ऐसा राजदंड रहा है जो शीर्ष धर्माचार्य द्वारा किसी नए नए बने राजा को वैध रूप से शासन करने के लिए दिया जाता था। एक जनतांत्रिक गणराज्य में इसकी कोई जगह ही नहीं है, जहां नागरिक ही हैं जो सरकार का चुनाव करते हैं। यह भारतीय गणराज्य के धर्मनिरपेक्ष चरित्र के भी खिलाफ है कि एक  धार्मिक चिन्ह को, संसद में सर्वोत्तम स्थान पर स्थापित किया गया है।

       28 मई का दिन नए संसद भवन के उद्घाटन के लिए इसीलिए चुना गया था कि यह वीडी सावरकर की जयंती का दिन था। इसने भी एक नए भारत के आख्यान को गढ़ने में ही मदद की है। सावरकर ने एक स्वतंत्रता सेनानी के रूप में शुरुआत जरूर की थी, लेकिन बार-बार उनके दया याचिकाएं लिखने के बाद ब्रिटिश राज ने जब अंडेमान  की सेलुलर जेल से उन्हें  रिहा कर दिया, उसके बाद उन्होंने ब्रिटिश राज के खिलाफ लड़ाई का  त्याग ही कर दिया था। अब उन्होंने अपना ध्यान , पहले कभी देश के शासक रहे मुसलमानों से लड़ने में और हिंदुत्व की स्थापना करने में ही लगाया। वर्तमान भाजपा शासक, उनके हिंदुत्ववादी, साम्प्रदायिक्तवाद  का अनुमोदन करते हैं और भारत में एक हिंदू राष्ट्र की स्थापना को ही हजार साल की गुलामी के अंत का चरमोत्कर्ष मानते हैं।

    बहरहाल सेंगोल के धर्म(न्यायपूर्णता) का चिन्ह होने के भाजपाई शासकों के दावे  की शक्ल उसी दिन तब पूरी तरह बिगड़ गई, जब जिस नये संसद भवन में सेंगोल को स्थापित किया जा रहा था, उससे महज कुछ सौ मीटर की दूरी पर, एक महीने से ज्यादा से शांतिपूर्वक विरोध प्रदर्शन कर रही महिला पहलवानों को, पुलिस द्वारा सड़क पूर बुरी तरह से घसीटा गया और गिरफ्तार कर लिया गया।

     नरेंद्र मोदी ने जिस नए भारत का अवतरण कराया है , उसके सभी प्रतीक--  चाहे वह अयोध्या में राम मंदिर का निर्माण हो सेंट्रल विस्टा का तथा नए संसद भवन का --एक नए तानाशाही पूर्ण  हिंदुत्ववादी संप्रदायिक  राज्य की ही निशानियां हैं। इस नए आख्यान में फिट होने के हिसाब से , इतिहास को विकृत किया जा रहा है ।

(संपादकीय, लोक लहर अंक 23)

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