Tuesday, December 3, 2024

*चुनाव परिणाम को लेकर प्रचार और हकीकत*

 हरियाणा

*चुनाव परिणाम को लेकर प्रचार और हकीकत*


हरियाणा विधानसभा के लिए हुए चुनाव परिणाम के अनुसार भाजपा 39.94% वोट लेकर 48 सीटें जीत गई है और कांग्रेस 39.09% यानी .85% कम वोट मिलने से 37 सीटें ही जीत पाई है। यदि जनादेश की नजर से देखें तो 60.06% लोगों ने भाजपा को पसंद नहीं किया है। इसके बावजूद जीत को बढ़ाचढ़ाकर पेश किया जा रहा है, क्योंकि चुनाव परिणाम अप्रत्याशित हैं। आमजन भावना, मीडिया सर्वे, एक्जिट पोल आदि में कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत मिलता दिखाया जा रहा था और परिणाम उसके विपरीत आया है। इसलिए सभी भाजपा को मिले पूर्ण बहुमत की अपने-अपने ढंग से व्याख्या कर रहे हैं। अनेक पत्रकारों, चुनाव विश्लेषकों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने इसे जाति ध्रुवीकरण, सामाजिक मुद्दों के हावी होने अथवा जाट बनाम अन्य कहकर सरलीकृत करने का प्रयास किया है। ऐसा कहना तथ्यों से मेल भी नहीं खाता और ऐसे मिथ्या प्रचार से समाज में आपसी रिश्तों पर बुरा प्रभाव पड़ने की आशंका भी है। कुछ लोग जानबूझकर दलित मतदाताओं को भाजपा के पाले में गए दिखाकर उन्हें कांग्रेस से छिटकाने की भाजपा की चाल का शिकार हो गए हैं।


कांग्रेस पार्टी की सांगठनिक कमजोरी, गुटबाजी, जाटबहुल मतदाताओं के अति उत्साह से कुछ दलित वोटों का चुपचाप भाजपा के पाले में चले जाना, कुमारी शैलजा की टिकट वितरण को लेकर उपेक्षा और उनकी प्रतिक्रिया आदि अनेकों प्रश्न अपनी जगह सही और असरदार हो सकते हैं। इसके बावजूद डाले गए मतों के रूझान और ठोस साक्ष्य दिखाते हैं कि जाति ध्रुवीकरण या 35 : 1 के बीच ध्रुवीकरण दिखाना तथ्यात्मक रूप से ही गलत है। जाट बहुल इलाकों में कांग्रेस के बागी या इनेलो के उम्मीदवारों ने कई सीटों पर अच्छे वोट लिए हैं जिनके चलते कांग्रेस के उम्मीदवार हार गए। उन्हें मिले हुए अधिकतर वोट जाट समुदाय के हैं। वहाँ यदि कांग्रेस जीती है या मुकाबले में बनी रही है तो यह तभी संभव हो पाया है जब उसके पक्ष में दलितों व पिछड़ों समेत अन्य जातियों के लोगों ने वोट डाले हैं। उदाहरण के लिए नरवाना में कांग्रेस से बागी होकर इनेलो टिकट पर आई विद्या दनोदा को 46303 वोट मिले और भाजपा के कृष्ण बेदी 11499 मतों से विजयी रहे। क्या यह जाति ध्रुवीकरण को दिखाता है? नहीं, विद्या को मिले अधिकतर वोट बिनैण खाप से जाटों के हैं। उचाना देख लें - कांग्रेस से बागी होकर या चौधरी वीरेन्द्र सिंह के विरोध के लिए खड़े तीन उम्मीदवारों को 50 हजार से ज्यादा वोट मिले हैं। ये जाटों के ही हैं। इसका मतलब साफ है कि कांग्रेस के बृजेन्द्र सिंह को मिले वोटों में गैर जाट का भी बड़ा हिस्सा रहा है। वे केवल 32 मतों से हारे हैं। लोकसभा चुनाव के विपरीत जीन्द सीट पर विशेषकर कंडेला खाप के कुछ गांवों में कांग्रेस के महावीर गुप्ता को मिला कम समर्थन तथा बागी प्रदीप गिल को मिले छह हजार से ज्यादा वोट जाट मतदाताओं का विभाजन ही दिखाते हैं। सफीदों सीट पर निर्दलीय  जसबीर देसवाल को 20114 वोट मिले और सुभाष गांगोली 4037 मतों से हार गए।


सोनीपत जिले को देख लें। भले ही बरोदा सीट कांग्रेस जीत पाई लेकिन दूसरे स्थान पर रहे कपूर सिंह नरवाल के 48820 वोट जाट मतों के बंटवारे तथा इन्दुराज को छत्तीस बिरादरी के समर्थन का साक्ष्य हैं। गोहाना में कांग्रेस 10429 वोटों से हार गई। यहाँ कांग्रेस के बागी हर्ष छिक्कारा 14761 वोट ले गए। इनके अलावा रणवीर दहिया को 8824 मत पड़े। खरखौदा, राई, सोनीपत, गन्नौर सभी सीटों पर जाट मतों विभाजन इस बात का साक्षी है कि कांग्रेस उम्मीदवार गैर जाट समुदाय में अच्छी वोट ले पाए।  बाढड़ा, भिवानी, बरवाला, हाँसी,  इसराना, कलायत आदि सीटें भी यही रूझान दिखाती हैं कि जाट मतों का बंटवारा एकाधिक उम्मीदवारों के बीच हुआ और दलित वर्ग व अन्य तबकों के वोटों के सहारे कांग्रेस के उम्मीदवार जीते या अच्छी वोट ले पाए। एक और ठोस उदाहरण लाडवा सीट का है। नायब सिंह सैनी ने यह सीट 16054 मतों से जीती। यहाँ विक्रमजीत सिंह चीमा ने 11191 और सपना बड़शामी ने 7439 वोट लिए। इन दोनों के 18530 वोटों में से अधिकतर जाटों व जट्टसिक्खों के हैं। यदि कांग्रेस के मेवासिंह को अन्य जातियों का समर्थन नहीं मिला होता तो 54123 वोट कहाँ से मिलते? इस हल्के में जाट मतदाताओं की कुल संख्या ही लगभग 40 हजार है। यदि कम अन्तर से हारी या जीती हुई सीटों का विश्लेषण ठीक ढंग से किया जाए और एस सी के अलग बूथों पर पड़े वोटों को देखा जाए तो साफ दिखाई देता है कि जातिवादी ध्रुवीकरण उतना नहीं था जितना बताया जा रहा है। कुछ जगह सुप्रीम कोर्ट द्वारा एस सी में श्रेणीकरण सम्बन्धी फैसले का भाजपा को लाभ मिला है। निस्संदेह, सीटों के बंटवारे को लेकर उठी आपत्ति के बाद शैलजा के सम्बन्ध में नारनौंद क्षेत्र में की गई टिप्पणी और उसके बाद उनकी प्रतिक्रिया से कुछ मतदाताओं पर असर जरूर पड़ा होगा।


चुनाव परिणामों का अप्रत्याशित होने के पीछे कांग्रेस द्वारा सीटों के बंटवारे में गुणदोष या जिताऊ उम्मीदवार को चुनने की बजाए नेताओं के साथ सम्बन्ध के आधार पर टिकट देना भी कारण रहा है। उदाहरण के लिए बहादुरगढ़ सीट पर बागी राजेश जून 73191 वोट लेकर विजयी हुए और कांग्रेस यहाँ केवल 28955 वोटों के साथ तीसरे नंबर पर खिसक गई। अम्बाला कैंट में दूसरे नंबर पर रही बागी चित्रा सरवारा को 59858 वोट मिले और कांग्रेस के परविंदर परी को 14469. इसी तरह पुंडरी में सतबीर भाणा बागी होकर दूसरे नंबर पर रहे और कांग्रेस तीसरे स्थान पर खिसक गई। तिगांव में दूसरे नंबर पर रहे ललित नागर को टिकट दिया जाता तो जीतने की संभावना ज्यादा रहती। ऐसा ही बल्लभगढ़ सीट पर हुआ। शारदा राठौर दूसरे नंबर आई तो कांग्रेस की पराग शर्मा मात्र 8674 वोट ले पाई। कालका सीट मात्र 10883 मतों से हार गए जबकि निर्दलीय गोपाल सुक्खोमाजरी 31688 वोट ले गए। बवानीखेड़ा में भी बाहर से उम्मीदवार लाने के कारण कांग्रेस पिछड़ गई। उपयुक्त उम्मीदवार का चयन करने के लिए कोई एक नेता जिम्मेदार नहीं है। ऊपर गिनाए गए टिकटों में हुड्डा समर्थक भी हैं, शैलजा की पसंद के भी हैं और रणदीप के भी। दो-तीन टिकटें केन्द्रीय नेतृत्व के सीधे सम्बन्धों के कारण दी गई बताते हैं।


 कुछ तथ्य और समीक्षा के बिन्दु बाद तक भी आते रहेंगे लेकिन इतना साफ है कि कांग्रेस के पक्ष में बड़ी लहर नहीं थी और कुछ तबकों में सरकार के खिलाफ गुस्सा भी नहीं था। जिस सीमा तक गुस्सा था उसे कम करने में अथवा विभाजित करने में भाजपा की रणनीति सफल रही। उसका प्रचार तंत्र, कुछ हद तक जाति ध्रुवीकरण में सफलता, वोट काटू निर्दलीयों व छोटे दलों से पर्दे के पीछे सांठगांठ, बिना शोरगुल के वोट डालने वालों को सांगठनिक तंत्र के जरिए बूथ तक पहुंचाने में सफलता, धनबल से परोक्ष या प्रत्यक्ष ढंग से वोट  खरीदना और गरीबों के एक हिस्से में कथित दबंगों से बचने के लिए भाजपा के ढाल होने का नैरेटिव आदि अनेकों कारण हैं जिन्हें उसके प्रतिद्वंद्वी न तो भांप सके और इसीलिए न उनकी काट पेश कर सके।


चुनाव में ईवीएम को लेकर कुछ आपत्तियां सामने आई हैं। जैसे नरवाना, महेन्द्रगढ़, पानीपत के अनेक बूथों पर बैटरी चार्ज 99% दिखाया गया जो सामान्यतः तीन दिन बाद रहना संभव नहीं है। आरोप यह है कि इन मशीनों से बहुतायत वोट भाजपा के निकले। यह शिकायत भी मिली है कि मतगणना टीमों को सभी मशीनों की बैटरी अलग करने और वीवीपैट मशीन हटाने के आदेश दिए गए। ऐसा पहले कभी नहीं किया जाता था। इसके अलावा मशीनों में रिकॉर्ड किए गए मतों की संख्या में अंतर की रिपोर्ट भी सामने आई है। कांग्रेस पार्टी के डेलीगेशन ने इसकी शिकायत दर्ज करवाई है लेकिन चुनाव आयोग ने पहले ही सार्वजनिक बयान देकर उनके आरोपों को खारिज कर दिया है। अब उनसे निष्पक्ष ढंग जाँच करने की उम्मीद क्या रह जाती है?


यद्यपि भाजपा ने बिना पर्ची-खर्ची नौकरी के नैरेटिव का धुआंधार प्रचार किया, लेकिन यह हकीकत नहीं था। पेपर लीक के अलावा संगठित ढंग से पेपर्स में पास करवाना और इंटरव्यू के समय भर्ती से सम्बन्धित लोगों द्वारा लाखों रुपए बटोरने के मामले हैं। यदि बहुमत नहीं आता तो इनमें से कुछ लोग बोलते भी। इसके बावजूद कौशल रोजगार के मामूली वेतन पाने वाले भी स्वयं को शासक पार्टी के आभारी की तरह देख रहे थे। लक्षित समूहों को डिजिटल मोड से लाभ पहुंचाने का भी गरीब तबकों में प्रभाव है। भले ही इसकी वजह से धक्के खाने वालों व बार-बार कम्प्यूटर की दुकान पर पैसा खर्च करने वालों की भी उल्लेखनीय संख्या है। उदाहरण के लिए हैप्पीनेस कार्ड के जरिए सफर करने वालों की संख्या बहुत थोड़ी है लेकिन इसका प्रभाव समस्त गरीब लोगों पर देखा जा सकता है।


जनता की नजर से परिणाम को समझने की कोशिश करें तो भाजपा इस नतीजे पर पहुंच सकती है कि लोगों के मुद्दों पर ध्यान देना इतना जरूरी नहीं है जितना सोशल इंजीनियरिंग और लोगों को बांटे रखना। इसका परिणाम यह भी होगा कि आने वाले दौर में शिक्षा, स्वास्थ्य, नौकरी, कृषि, मनरेगा, पीडीएस आदि के लिए संघर्ष करने का ही विकल्प बचेगा। कांग्रेस पार्टी अपने भीतर मंथन करेगी या नहीं, यह तो निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता, लेकिन इतना तय है उसके लिए जनता से जुड़ने के साथ-साथ अपने संगठन को संभालना भी प्राथमिकता पर नहीं आया तो वह आगे और अधिक चुनौतियों से जूझ रही होगी। भाजपा से नजदीकी बनाने की वजह से कुलदीप बिश्नोई, चौधरी वीरेन्द्र सिंह, रणजीत सिंह, जजपा आदि को निराशा झेलनी पड़ी है। किरण चौधरी, धर्मवीर सिंह, राव इन्द्रजीत सिंह अभी बचे हुए हैं। इनेलो दो सीटें व 4.14% वोट लेकर जजपा की तुलना में खड़े रहने लायक है। शिक्षक, कर्मचारी, मजदूर, किसान, युवा, महिला आदि विभिन्न तबकों के लिए चुनौतियां पहले से भी बड़े आकार में मौजूद होंगी। पुरानी पेंशन, वेतन आयोग, सेवाएं पक्की करवाना और खाली पदों पर अकादमिक मेरिट से पक्की भर्ती करवाना बड़ा काम होगा। यद्यपि हमें अनेक दलों व नेताओं की सरकारों के समय काम करने का अनुभव है। बिना एकता और संघर्ष के हमारी न्यायोचित मांगें कभी पूरी नहीं हो पाई। यह भी याद रहे कि सब तरह तिकड़मों के बावजूद 60 प्रतिशत से अधिक लोग भाजपा से नाराज हैं। इन्हें जाति या साम्प्रदायिक विभाजन की नजर से देखना नादानी होगी। ये किसान हैं जो सन् 2020-21 में संघ, भाजपा और मोदी के गरूर को तोड़ चुके हैं और आज भी संघर्ष की राह पर हैं। ये खेतमजदूर और मजदूर हैं, स्कीम वर्कर्स हैं जो बहुसंख्य कामकाजी जनता का अभिन्न हिस्सा हैं। शिक्षित युवा व छात्र शिक्षा व रोजगार को हड़पने के चलते सरकार से खफा हैं। आपकी अग्निवीर व कौशल रोजगार तथा उम्र भर कम वेतन में शोषण का छलावा लम्बे काम नहीं करने वाला है। यहाँ कर्मचारी वर्ग अपने मुद्दों को लेकर केंद्र व राज्य की भाजपा सरकारों के प्रति आक्रोश में है। ऐसा लगता है कि भाजपा सरकार हनीमून काल क्षणभंगुर सपने की तरह साबित होने वाला है। आने वाली चुनौतियों के मध्यनजर लोग अपने संगठनों व संघर्षों की ओर अधिक ध्यान देते हुए संघर्ष के मैदान में उतरेंगे। वे भाजपा के छलावे और चुनावी जुमलों पर लम्बे समय तक भरोसा नहीं कर सकते।



            


Monday, July 8, 2024

आज के दौर का समय

आज के दौर का समय 1 फासीवादी आरएसएस द्वारा अपने हिंदुत्ववादी सांप्रदायिकता के एजेंडे का आकारात्मक तरीके से आगे बढ़ाया जाना जारी है। 2. कॉर्पोरेट सांप्रदायिक गठनजोड़ ,घोर उदारवादी सुधारों को चला रहा है। 3. दरबारी पूंजीवाद को आगे बढ़ाया जा रहा है और राष्ट्रीय परिसंम्पतियों को लूटा जा रहा है। 4. राजनीतिक भ्रष्टाचार के वैश्वीकरण के साथ-साथ, मुकम्मल तानाशाही को कायम किया जा रहा है। 5. भारतीय संविधान पर हमला किया जा रहा है। संविधान के अंतर्गत स्थापित की गई सभी स्वतंत्रत वैधानिक संस्थाओं पर भीषण हमला हो रहा है। 6. केंद्रीय एजेंसियां सत्ताधारी पार्टी के एजेंडों को आगे बढ़ाने और विपक्षी पार्टियों के नेताओं को निशाना बनाने का हथियार बन गई हैं । 7.भारत एक अधीनस्थ सहयोगी के रूप में, अमेरिकी साम्राज्यवादी वैश्विक रणनीति के साथ और ज्यादा अभिन्न होता जा रहा है। 8. वैश्विक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के लिए आगे के आसार अनिश्चित बने हुए हैं । वैश्विक वृद्धि को 2023 में 2.5% पर सीमित होने की संभावना है । 9.अमेरिका के तीन बैंक दिवालिया हो गए हैं। ब्याज की दरें बढ़ाई गई हैं। 10. यूक्रेन युद्ध का असर -आर्थिक संकट के बढ़ने का सबसे महत्वपूर्ण कारक है। 11. गैर डालरीकरण- रूस ने भुगतान डॉलर से काटकर रूसी रूबल में मोड़ दिया है। 12. कृत्रिम मेधा- कृति मेधा (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस ) का एक औजार। के रूप में विकास इसलिए किया गया है ताकि यह उत्पादन प्रक्रियाओं में शारीरिक व बौद्धिक श्रम की जगह ले सके । जिससे पूंजीवाद के अंतर्गत मुनाफे के अधिकतम किए जाने को और आगे ले जाया जा सके। 13. विश्व भर में बढ़ती विरोध कार्यवाहियां-- वास्तविक मजदूरी के सिकुड़ने, बढ़ती बेरोजगारी तथा बढ़ते जीवनयापन खर्चों के संकट के खिलाफ मेहनतकश जनता का प्रतिरोध पूरे यूरोप में बढ़ रहा है। जर्मनी, बेल्जियम , बुल्गारिया स्लोवाकिया, इटली, पोलैंड, चेक गणराज्य तथा स्पेन में विरोध कार्यवाही हुई हैं। यूके पुर्तगाल , ग्रीस आदि में भी । संघर्ष के लिए तैयार रहें 1. किसान मजदूर के साथ किए गए विश्वास घात के लिए भाजपा को सबक सिखाओ। 2. फैमिली आईडी और ऑनलाइन के बहाने से गरीबों के हकों पर डाका डालना बंद करो 3. मजदूरों की दिहाड़ी मारने वालों पर सख्त कार्रवाई करो 4. रेहड़ी पटड़ी वालों को उजाड़ना बंद करो 5. मनरेगा में 200 दिन काम व दिहाड़ी 600 रूपये दो 6. सभी फसलों के लिए एमएसपी की कानूनी गारंटी हो 7. चार लेबर कोड्स स्कूल और बिजली बिल 2022 वापस लो 8. सभी बेरोजगारों को रोजगार, न्यूनतम वेतन 26000 रूपये दो 9. शिक्षा, स्वास्थ्य, खाद्य सुरक्षा, आवास की गारंटी दो 10. स्कीम वर्कर्स कर्मियों को पक्का करो 11. निजीकरण और ठेका प्रथा पर रोक लगाओ 12. किसानों व मजदूरों का कर्ज माफ करो 13. निर्माण मजदूर कल्याण बोर्ड समेत सभी कल्याण बोर्ड को मजबूत करो व लंबित सुविधा दो 14. हिट एंड रन का काला कानून वापस लो, सभी ट्रांसपोर्ट वर्गों के लिए बोर्ड का गठन करो 15. विकलांग अधिकार कानून 2016 लागू करो 16. खेल मैदानों , पार्कों व सार्वजनिक शौचालयों के रख रखाव में सुधार करो 17. ट्रांसजेंडरों को नौकरियों में आरक्षण देते हुए मुख्यधारा में शामिल करो 18. शहर में लोकल बसों की सेवा बढ़ाई जाए 19. बन्दरों, कुत्तों व आवारा पशुओं से निजात दिलाओ 20. महिलाओं, दलितों व अन्य कमजोर तबकों के विकास के लिए बने कानून व योजनाएं मूल भावना के हिसाब से लागू की जाएं 21. पक्का काम -पक्की नौकरी नीति लागू करो 22. ठेका प्रथा व कौशल रोजगार बन्द करो 23. बाहरी कालोनियों को रेगुलर करो संयुक्त मोर्चा बनाकर संघर्ष में शामिल होने की अपील।

आज के दौर का समय

आज के दौर का समय 1 फासीवादी आरएसएस द्वारा अपने हिंदुत्ववादी सांप्रदायिकता के एजेंडे का आकारात्मक तरीके से आगे बढ़ाया जाना जारी है। 2. कॉर्पोरेट सांप्रदायिक गठजोड़ ,घोर उदारवादी सुधारों को चला रहा है। 3. दरबारी पूंजीवाद को आगे बढ़ाया जा रहा है और राष्ट्रीय परिसंम्पतियों को लूटा जा रहा है। 4. राजनीतिक भ्रष्टाचार के वैश्वीकरण के साथ-साथ, मुकम्मल तानाशाही को कायम किया जा रहा है। 5. भारतीय संविधान पर हमला किया जा रहा है। संविधान के अंतर्गत स्थापित की गई सभी स्वतंत्रत वैधानिक संस्थाओं पर भीषण हमला हो रहा है। 6. केंद्रीय एजेंसियां सत्ताधारी पार्टी के एजेंडों को आगे बढ़ाने और विपक्षी पार्टियों के नेताओं को निशाना बनाने का हथियार बन गई हैं । 7.भारत एक अधीनस्थ सहयोगी के रूप में, अमेरिकी साम्राज्यवादी वैश्विक रणनीति के साथ और ज्यादा अभिन्न होता जा रहा है। 8. वैश्विक पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के लिए आगे के आसार अनिश्चित बने हुए हैं । वैश्विक वृद्धि को 2023 में 2.5% पर सीमित होने की संभावना है । 9.अमेरिका के तीन बैंक दिवालिया हो गए हैं। ब्याज की दरें बढ़ाई गई हैं। 10. यूक्रेन युद्ध का असर -आर्थिक संकट के बढ़ने का सबसे महत्वपूर्ण कारक है। 11. गैर डालरीकरण- रूस ने भुगतान डॉलर से काटकर रूसी रूबल में मोड़ दिया है। 12. कृत्रिम मेधा- कृति मेधा (आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस ) का एक औजार। के रूप में विकास इसलिए किया गया है ताकि यह उत्पादन प्रक्रियाओं में शारीरिक व बौद्धिक श्रम की जगह ले सके । जिससे पूंजीवाद के अंतर्गत मुनाफे के अधिकतम किए जाने को और आगे ले जाया जा सके। 13. विश्व भर में बढ़ती विरोध कार्यवाहियां-- वास्तविक मजदूरी के सिकुड़ने, बढ़ती बेरोजगारी तथा बढ़ते जीवनयापन खर्चों के संकट के खिलाफ मेहनतकश जनता का प्रतिरोध पूरे यूरोप में बढ़ रहा है। जर्मनी, बेल्जियम , बुल्गारिया स्लोवाकिया, इटली, पोलैंड, चेक गणराज्य तथा स्पेन में विरोध कार्यवाही हुई हैं। यूके पुर्तगाल , ग्रीस आदि में भी । संघर्ष के लिए तैयार रहें 1. किसान मजदूर के साथ किए गए विश्वास घात के लिए भाजपा को सबक सिखाओ। 2. फैमिली आईडी और ऑनलाइन के बहाने से गरीबों के हकों पर डाका डालना बंद करो 3. मजदूरों की दिहाड़ी मारने वालों पर सख्त कार्रवाई करो 4. रेहड़ी पटड़ी वालों को उजाड़ना बंद करो 5. मनरेगा में 200 दिन काम व दिहाड़ी 600 रूपये दो 6. सभी फसलों के लिए एमएसपी की कानूनी गारंटी हो 7. चार लेबर कोड्स स्कूल और बिजली बिल 2022 वापस लो 8. सभी बेरोजगारों को रोजगार, न्यूनतम वेतन 26000 रूपये दो 9. शिक्षा, स्वास्थ्य, खाद्य सुरक्षा, आवास की गारंटी दो 10. स्कीम वर्कर्स कर्मियों को पक्का करो 11. निजीकरण और ठेका प्रथा पर रोक लगाओ 12. किसानों व मजदूरों का कर्ज माफ करो 13. निर्माण मजदूर कल्याण बोर्ड समेत सभी कल्याण बोर्ड को मजबूत करो व लंबित सुविधा दो 14. हिट एंड रन का काला कानून वापस लो, सभी ट्रांसपोर्ट वर्गों के लिए बोर्ड का गठन करो 15. विकलांग अधिकार कानून 2016 लागू करो 16. खेल मैदानों , पार्कों व सार्वजनिक शौचालयों के रख रखाव में सुधार करो 17. ट्रांसजेंडरों को नौकरियों में आरक्षण देते हुए मुख्यधारा में शामिल करो 18. शहर में लोकल बसों की सेवा बढ़ाई जाए 19. बन्दरों, कुत्तों व आवारा पशुओं से निजात दिलाओ 20. महिलाओं, दलितों व अन्य कमजोर तबकों के विकास के लिए बने कानून व योजनाएं मूल भावना के हिसाब से लागू की जाएं 21. पक्का काम -पक्की नौकरी नीति लागू करो 22. ठेका प्रथा व कौशल रोजगार बन्द करो 23. बाहरी कालोनियों को रेगुलर करो संयुक्त मोर्चा बनाकर संघर्ष में शामिल होने की अपील।

Tuesday, June 25, 2024

समीक्षात्मक नोट

समीक्षात्मक नोट 1980 के आरंभिक वर्षों में हरियाणा की पार्टी में प्रदेश के सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण को समझने के लिए विमर्श शुरू किया गया। इस विमर्श में हरियाणा में सांस्कृतिक पिछड़ेपन को रेखांकित किया गया और इसे समझते हुए हस्तक्षेप की समझ बनाई गई। राज्य स्तर पर जनवादी सांस्कृतिक मंच का गठन किया गया। इसी दौरान राष्ट्रीय स्तर पर जनवादी लेखक संघ भी बनाया गया। हरियाणा में मंच के ज़रिए जो विमर्श शुरू हुआ, उसका केंद्रीय बिंदु सामाजिक-सांस्कृतिक पिछड़ेपन के खिलाफ़ कार्य करने का था। इस कार्य को व्यवस्थित रूप से चलाने के लिए भिवानी से प्रयास नामक पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया गया। आगे चलकर इस पत्रिका का नाम जतन रखा गया। हरियाणा के कई ज़िलों में जनवादी सांस्कृतिक मंच/सांस्कृतिक मंच/डैमोक्रेटिक फ़ोरम, विचार मंच आदि खड़े किए गए। इन मंचों ने कई वर्षों तक जनतांत्रिक संस्कृति के निर्माण का काम किया जिसके फलस्वरूप पार्टी को अनेक कार्यकर्ता भी मिले। इसी दौरान हरियाणा में जनवादी लेखक संघ भी बनाया गया। दोनों मंच एक दूसरे के पूरक थे। लेखक संघ ने भी विचारधारात्मक कार्य को और सघन बनाया। इन मंचों की पहुंच शहरी शिक्षित मध्यवर्ग में थी और इस वर्ग के लोगों के दिल-ओ-दिमाग में सुप्तावस्था में पड़े आदर्शवाद को जगाने का कार्य तो किया ही गया, साथ ही प्रांत में अर्धसामंती जकड़न पर खरोंच डालने का कार्य भी किया गया। सांस्कृतिक मंचों के लक्ष्य-उद्देश्य प्रगतिशील समाज के निर्माण की दिशा बनाने वाले थे जो आज भी सार्थक हैं। उस समय तक गांवों की ओर जाना और समाज के निचले तबकों तक पहुंच बनाने का कार्य होना बाकी था। लेकिन मध्यवर्ग के कई लोगों को इन प्रक्रियाओं से एक विश्वदृष्टि ज़रूर मिली जिसके चलते कुछ लोग पार्टी के कार्यों में आज भी सक्रिय हैं। हरियाणा में यह कार्य चल ही रहा था कि 1987 में देश-भर में पार्टी द्वारा विज्ञान और तकनीक से जुड़े प्रश्नों को धर्मनिरपेक्षता, जनतंत्र और भाईचारे से जोड़ते हुए जनता के व्यापक हिस्सों के बीच जाने की समझ बनाई गई और 'भारत जन विज्ञान जत्था' देश के अलग-अलग हिस्सों में चलाया गया। इस जत्थे का मूल उद्देश्य जनता के साथ वैकल्पिक समाज की परिकल्पना को सांझा करना था और इस अभियान को जिन नारों से संचालित किया गया उनमें 'जनतंत्र के लिए विज्ञान', 'धर्मनिरपेक्षता के लिए विज्ञान', 'राष्ट्रीय विकास और आत्मनिर्भरता के लिए विज्ञान' आदि थे। हरियाणा में भी राष्ट्रीय जत्थे का स्वागत हुआ और इसका प्रभाव भी सकारात्मक रहा। प्रांत में जो सांस्कृतिक/जनतांत्रिक मंच कार्यरत थे उनमें भी विज्ञान के प्रश्नों पर विमर्श शामिल हुआ। अत: प्रांत में विज्ञान और जनता के बीच गहन सम्बन्ध बनाने का जो संदेश राष्ट्रीय जत्थे से मिल रहा था, उसी के मद्देनज़र 20 जून 1987 को 'हरियाणा विज्ञान मंच' की स्थापना हुई। शुरुआत से ही मंच के साथ विज्ञान के क्षेत्र के बुद्धिजीवी, वैज्ञानिक, डॉक्टर, इंजीनियर, प्रोफ़ेसर, अध्यापक तथा अन्य कर्मचारी और सामान्य जन जुड़ गए। जो कार्य आरम्भ हुए, कार्य पद्धति विकसित हुई, परिप्रेक्ष्य बना - वे सब पूर्व की प्रक्रियाओं से गुणात्मक रूप से भिन्न थे। अब पूरा विमर्श विज्ञान और उसके विभिन्न पक्षों के इर्द-गिर्द बनने लगा। सांस्कृतिक मंचों के कार्यों से जो दृष्टि बनी थी, वह तो काम आई लेकिन उन कार्यों का संश्लेषण अथवा समेकन विज्ञान मंच के परिप्रेक्ष्य और कामों में नहीं हो पाया। जतन पत्रिका जो एक समय पर विमर्श को दिशा देने का कार्य कर रही थी, बंद हो गई। विज्ञान मंच के शुरूआती दिनों में राष्ट्रीय जत्थे से निकले बिंदु, जैसे - आत्मनिर्भरता, धर्मनिरपेक्षता, समानता, न्याय और समतामूलक समाज के लिए विज्ञान आदि विज्ञान मंच के विमर्श के केन्द्र में रहे। साइंस बुलेटिन नामक पत्रिका भी शुरू की गई। प्रारम्भिक वर्षों में विज्ञान मंच में वैचारिक विमर्श, मंच का प्रसार, पत्रिका प्रकाशन, ज़िलों पर इकाइयों का गठन आदि कार्य हुए लेकिन धीरे-धीरे मंच राष्ट्रीय सरकारी एजेसिंयों से प्रोजेक्ट आदि लेने की दिशा में बढ़ा। इनके संचालन तथा नियोजन के लिए न्यूनतम स्थापत्य, यानी दफ़्तर, मानदेय आधारित कार्यकर्ता, बैठकों आदि के लिए प्रायोजित खर्च, परियोजनाओं पर आधारित कार्यक्रमों का आयोजन, आने-जाने वालों को किराया-भाड़ा दे सकने के प्रावधान आदि के चलते विज्ञान मंच की कार्य पद्धतियों में गुणात्मक परिवर्तन आ गए। धीरे-धीरे लोगों से सम्पर्क कम होते गए और दफ़्तरी प्रकियाएं (जिनमें न्यूनतम वित्त-उपलब्ध था) हावी होती गईं। यह एक चारित्रिक परिवर्तन था। अब शुरुआती विमर्श भी पीछे जाने लगा और परिप्रेक्ष्य की ओर भी ध्यान कम होता चला गया। परियोजनाओं के कार्यों, उनको जारी रखने की कोशिशों, वित्तीय प्रबंधन, प्रायोजित करने वाली सरकारी एजेंसियों की बैठकों में समय लगने लगा। इसी दौरान हरियाणा विज्ञान मंच को राष्ट्रीय नेतृत्व के एक हिस्से की ओर से विकास केंद्र (डेवलपमेंट सेंटर) की परियोजना लेने का प्रस्ताव पेश किया गया। इस केंद्र के ज़रिये ग्रामीण कारीगरों के हुनर-विकास का कार्य प्रमुखता से होना था जिसके आधार पर ये कारीगर बाज़ार के लिए उपयोगी वस्तुओं का उत्पादन कर सकें। यह केंद्र भी आय-वृद्धि के लिए प्रशिक्षण करने के साथ-साथ इन कारीगरों को संगठित करने और वैचारिक तौर पर विकसित करने का उद्देश्य लिये हुए था परंतु इसका अनुभव भी बुनियादी तौर पर विज्ञान मंच के अनुभव से अलग नहीं हो पाया। इस केंद्र में तो अंततः वित्तीय अभाव भी बन गया और इसे बंद ही करना पड़ा। विज्ञान मंच के अनुभव से यह स्पष्ट होता है कि सरकारी परियोजनाओं में साधन तो उपलब्ध हुए, जैसा कि चमारिया में ज़मीन ली गई या आज़ादगढ़ में प्लॉट ले लिया गया लेकिन वैचारिक कार्य, सांगठनिक पद्धति और लोगों से जुड़ाव में कमज़ोरी आई। यह दौर दुनिया-भर में उदारीकरण के दौर के रूप में जाना जाता है। सोवियत संघ का विघटन हो गया और अमेरिका ने दुनिया की एक ध्रुवीय होने की घोषणा कर दी। अब साम्राज्यवाद ने सामाजिक सुरक्षा के नेटवर्क के तौर पर गैर-सरकारी संगठनों/संस्थाओं को मदद देकर उभारना शुरु किया। पार्टी ने इस घटनाक्रम का संज्ञान लेते हुए कहा कि यह सुरक्षा वाल्व युवाओं को वामपंथ की ओर जाने से रोकने का भी औज़ार है। इस विश्लेषण को पार्टी की कतारों में ले जाने के लिए एक नोट/दस्तावेज़ भी तैयार किया गया। इसकी निरंतरता में 1996 में एक और पार्टी दस्तावेज़ आया। इन दस्तावेज़ों में स्पष्ट कहा गया कि गैर-सरकारी संस्थाओं के रूप में साम्राज्यवाद ने जो सुरक्षा कवच तैयार किया है, वह हमारे लिए दुधारी तलवार की तरह है। इसमें हमें काम भी करना है और सावधान भी रहना है। इस समझ के साथ हमने कार्य किया। हमारे अनुभवों में दोनों बातें शामिल रहीं - गैर-वर्गीय रुझान भी आए और हमने कुछ जगह भी बनाई। हरियाणा में 1991 में 'पानीपत की चौथी लड़ाई' के नाम से साक्षरता अभियान चला। इस अभियान में हरियाणा के अलग-अलग ज़िलों से पार्टी के कार्यकर्ता पानीपत गए और लगभग डेढ़ वर्ष तक वहीं रहकर कार्य किया। साक्षरता अभियानों का अन्य ज़िलों में भी फैलाव हुआ। पानीपत की परियोजना को 'भारत ज्ञान-विज्ञान समिति, पानीपत' के नाम से बनी संस्था द्वारा चलाया गया। साक्षरता परियोजनाओं में कार्य करते हुए 'जन सांस्कृतिक मंच' और 'हरियाणा विज्ञान मंच' के तमाम विमर्शों और परिप्रेक्ष्य को समाहित करते हुए कार्य नहीं हो पाया। हां, यह ज़रूर हुआ कि राष्ट्रीय पार्टी द्वारा देश-भर के लिए भारत ज्ञान-विज्ञान समिति का गठन किया गया और इसके माध्यम से साक्षरता अभियान का जनपक्षीय परिप्रेक्ष्य विकसित हो गया था जिसे हरियाणा में एक हद तक आत्मसात् किया गया। यह परिप्रेक्ष्य लोगों को अपनी बदहाली के कारणों को समझने और संगठित होकर उन्हें दूर करने के प्रयासों में शामिल होने के लिए प्रेरित करता था। इन परियोजनाओं में 'जन भागीदारी' का पहलू मूल रूप से शामिल था और यही इन अभियानों की सफलता का मापदंड भी था। दूसरा पहलू यह था कि इसमें 'स्वयंसेवी कार्य' करने की प्रेरणा बद्धमूल थी और यह पार्टी की समझ का एक और महत्त्वपूर्ण आयाम था। फिर भी साक्षरता अभियानों के बाद भारत ज्ञान-विज्ञान समिति का संगठन नहीं बन पाया। इस अनुभव की समीक्षा पार्टी द्वारा की गई। समीक्षा से कुछ निष्कर्ष निकले जो इस प्रकार हैं : 1. पानीपत साक्षरता अभियान में कार्य करने का निर्णय हुआ और काम भी हुआ लेकिन बीजीवीएस का संगठन नहीं बन पाया। 2. इतने बड़े पैमाने की जन लामबंदी पहले कभी नहीं हुई थी। यह हमारा पहला अनुभव था। 3. पानीपत की पार्टी की समझ इस कार्य के प्रति कमज़ोर थी। राज्य से मार्गदर्शन होता रहा। समालखा में स्थानीय टीम मौजूद थी, इसलिए वहां एक संगठन की शुरुआत हो पाई। जींद में भी संगठन बन पाया। हमने और परियोजनाओं को न लेने का निर्णय लिया। इन परियोजनाओं में सरकारी अधिकारियों की अहम भूमिका थी परंतु हमें भी कुछ हद तक स्वायत्तता मिली। हमने जन-प्रभाव छोड़ा परंतु कंसॉलिडेशन नहीं हो पाया। 4. हमारी पहुंच का दायरा बढ़ा और हम शहरी मध्यवर्ग से आगे बढ़कर ग्रामीण समुदायों में पहुंच बना सके। 5. इन समुदायों में से भी महिलाएं, दलित तबके और युवा ज़्यादा शामिल हुए और उनकी अपेक्षाएं और हिस्सेदारी एक सामाजिक प्रगतिशील प्रक्रिया के अंश रूप में होती हुई नज़र आई। 6. हरियाणा के समाज में स्वयंसेवी भावना का प्रसार हुआ और जाति एवं पितृसत्ता जैसे अर्द्धसामंती बंधनों में कुछ ढील आई। प्रशासनिक हलकों में भी कुछ व्यक्ति इस कार्य को अपना निजी भावनात्मक समर्थन देते हुए दिखाई दिए। हमारी क्षमताओं में बढ़ोत्तरी हुई, जिसके चलते नवसाक्षरओं की पठन-पाठन सामग्री (कायदे एवं पुस्तकें), नाटक, गीत, रागनी आदि लिखे गए और गांव में भी पढ़ने-लिखने का वातावरण बना। कहीं-कहीं तो जन-भागीदारी और रचनात्मक कार्यों का प्रभाव इतना सघन था कि ग्रामीण समाज में जनजागृति का वातावरण बनता हुआ दिखाई पड़ता था। इन पहलुओं के साथ-साथ हमारी कमज़ोरियां भी अनेक थीं। जैसे - कुछ ज़िलों में पार्टी सदस्यों के बीच मतभेद उभरना, विज्ञान मंच के परिप्रेक्ष्य का समेकन न हो पाना (हालांकि साक्षरता अभियान के दौरान कहीं-कहीं विज्ञान प्रसार की गतिविधियां होती थीं)। साधनों की उपलब्धता ने व्यक्तियों के बीच गहरी समझ और तालमेल को रिप्लेस कर दिया क्योंकि साधनों की मदद से लोगों में पहुंचने का कार्य आसान हो गया और आपसी सहयोग से योजनाएं बनाना, क्रियान्वित करना, अनुभवों को सहेजना, समीक्षाएं करना आदि महत्त्वपूर्ण कार्य छूटते गए। इन्हीं कारणों से परियोजनाओं के बाद की स्थिति पर भी स्पष्ट सांझी समझ नहीं बन पाई और अभियानों के बाद सांगठनिक कंसोलिडेशन कम हो पाया। विज्ञान मंच में भी जब परियोजनाओं का दौर शुरू हुआ था तब शुरुआत के समय में तो वैचारिक विमर्श था लेकिन बाद में मात्र ढांचा ही रह गया। इसी तरह साक्षरता अभियान में भी हुआ। इस दौरान सामाजिक हस्तक्षेप की पार्टी की नज़र का भी विखंडन होने लगा। बौद्धिक कार्य और सांगठनिक कार्य के बीच एक रेखा उभरने लगी जिसके चलते फ़ील्ड बनाम विचारधारात्मक कार्य की बाइनरी बनती चली गई। शीर्ष के नेतृत्वकारी साथियों के बीच वैचारिक मतभेद बने जो उनके आपसी संबंधों को भी प्रभावित करने लगे। इस समय तक भी पार्टी ने परियोजनाओं के प्रभावों को गंभीरता से विश्लेषित करके कोई प्रपत्र आदि तैयार नहीं किया था, हालांकि इस बात को रेखांकित किया जाने लगा था कि हमें परियोजनाओं में निहित खतरों और इनसे बनने वाले रुझानों के प्रति अधिक सचेत होकर कार्य करने की ज़रूरत है। विज्ञान मंच की परियोजनाओं और साक्षरता अभियानों की परियोजनाओं के लक्ष्य-उद्देश्यों तथा कार्य-नीति में कुछ अंतर ज़रूर थे, फिर भी सरकारी अनुदान का तत्त्व समान था जो गुणात्मक रूप से प्रभावित कर रहा था। 1995 तक राष्ट्रीय साक्षरता मिशन में भी मिशनरी प्रेरणा का ह्रास हो चुका था और राष्ट्रीय स्तर पर पार्टी द्वारा निर्मित भारत ज्ञान-विज्ञान समिति के पास भी साक्षरता अभियानों को कंसोलिडेट करने के लिए ज़रूरी अंतर्दृष्टि का अभाव बनने लगा। ऐसी परिस्थितियों में देश के लगभग 350 ज़िलों में जो पहुंच बनी थी, उनमें से आधे से भी कम ज़िलों में हमारी कोशिशें और गतिविधियां जारी रह पाईं। हरियाणा में भी कमोबेश यही स्थिति बनी। ऐसी स्थिति में राष्ट्रीय स्तर पर भी हमारी दृष्टि धूमिल हुई लेकिन वहां के स्तर पर फिर भी राष्ट्रीय साक्षरता मिशन के साथ तालमेल बना रहा जिसके चलते एक और अवसर मिला। अब की बार प्रौढ़ शिक्षा के लिए शैक्षणिक और रणनीतिक कामों को करने के लिए राज्य संसाधन केंद्रों की स्थापना और संचालन का कार्य प्राप्त हुआ। राष्ट्रीय स्तर पर भारत ज्ञान-विज्ञान समिति के अनुभव और साख के चलते 5 राज्यों में संसाधन केंद्र चलाने का कार्य मिला - हरियाणा, मध्य प्रदेश, असम, त्रिपुरा और हिमाचल प्रदेश। हरियाणा में पार्टी के स्तर पर एक बार फिर से मंथन शुरू हुआ कि यह केंद्र ले लिया जाए और इसे चलाने के लिए हमारी समझ क्या होनी चाहिए। अब तक हमने परियोजनाओं के अनुभवों को भले ही गहनता के साथ आत्मसात् करके सामूहिक समझ विकसित नहीं की थी परंतु फिर भी यह ज़रूर था कि परियोजनाओं की सीमाओं पर चर्चाएं हो रही थीं जिनका नतीजा यह था कि हमें परियोजना में काम तो करना चाहिए लेकिन समय-समय पर उसकी समीक्षा ज़रूरी है। दूसरी बात जो धीरे-धीरे स्पष्ट होने लगी थी वह यह थी कि परियोजनाओं की सीमाओं में ही रह कर कोई बड़ा समाज-सुधार आंदोलन तो विकसित नहीं किया जा सकता। साक्षरता अभियान में युवा, दलित और महिलाओं की भागीदारी ने एक आंदोलन की संभावनाएं ज़रूर प्रस्तुत कर दी थी। इन संभावनाओं को देखते हुए और परियोजनाओं की सीमाओं को समझते हुए यह विमर्श शुरू कर लिया गया था कि हमें परियोजनाओं में कार्य करने के साथ-साथ एक स्वतंत्र संगठन बनाने की दिशा में बढ़ना चाहिए। फिर भी सैद्धांतिक समझ यही जारी रही कि दोनों कार्यों को साथ-साथ चला जाना चाहिए। राज्य संसाधन केंद्र का संचालन हमने 1995 से लेकर 2015 (लगभग 20 वर्षों) तक किया। पहले की परियोजनाओं का अनुभव तो हमारे पास था परंतु इस केंद्र का संचालन संस्थान के रूप में किया जाना था जो पहली बार का ही अनुभव बना। राष्ट्रीय केंद्र ने यह संस्थान हमारे आंदोलन को दिलवाने में तो मदद ज़रूर की लेकिन आगे के कार्यों के लिए वहां से भी दिशा-निर्देशन नहीं हो पाया। हमने यहां अब तक के अनुभवों से जो समझ विकसित की थी, उसके अनुसार कार्य शुरू किया। शुरुआत के समय में ही केंद्र के परिप्रेक्ष्य को लेकर सभी लोगों की राय अलग-अलग थी। पार्टी से बाहर के साथी भी हमारे केंद्र का अहम हिस्सा थे और पार्टी के भीतर के साथियों ने भी मत-भिन्नता थी, फिर भी कार्य हुआ। प्रथम चरण में यह स्पष्ट हुआ कि हमें केंद्र के कार्यों को आंदोलन के साथ न केवल तालमेल के साथ करना चाहिए बल्कि हमें इन तमाम कार्यों को आंदोलन को मज़बूत बनाने की दृष्टि से करना चाहिए। यह दृष्टि मूलतः सही थी परंतु व्यवहार में कुछ अंतर्विरोध भी बन रहे थे जिन्हें पार्टी की कमेटियों में चर्चा करके सुलझाने के आंशिक प्रयास ही हुए। इसके चलते मतभिन्नताएं, मतभेदों और फिर मनभेदों में बदल गईं। इन परिस्थितियों में जो भी थोड़े-बहुत जनोन्मुखी प्रयोग तथा जन आंदोलन के समरूप कार्य हो भी पाए तो उसके सकारात्मक प्रभाव अपेक्षाकृत कम होते गए और निरुत्साहित करने वाला वातावरण बनता गया। इसके ही फलस्वरूप सामूहिक विवेक के साथ स्वतंत्र संगठन खड़ा करने का कार्य भी ठीक से नहीं हो पाया और केंद्र के संसाधनों का उपयोग भी बेहतर नहीं हो पाया। हालांकि केंद्र के साधनों के ज़रिये ही नाटक और पुस्तकों के क्षेत्र में जनपक्षीय कार्य हुआ। एक पत्रिका भी लगातार प्रकाशित हुई और समाज के शिक्षित मध्य वर्गीय हिस्से में भी हमारी पहुंच बढ़ी। इसके बावजूद आपसी मतभेदों का दुष्प्रभाव पड़ा जिसके चलते स्वतंत्र संगठन बनाने का कार्य भी अवरुद्ध हुआ। इस दौर में परियोजना बनाम संगठन की बहस छिड़ गई जिसमें द्वंद्वात्मक दृष्टि का अभाव रहा और व्यक्तिगत कार्यों का महिमामंडन होने लगा। आरोप-प्रत्यारोप बने, कुछ पार्टी सदस्यों ने दूसरों को अवरोध के तौर पर देखना शुरू कर दिया। साथी पार्टी की बुनियादी समझ से अलग सामूहिक कार्यप्रणाली को छोड़कर व्यक्तिगत आकांक्षाओं से संचालित होने लगे और पूरे आंदोलन में बिखराव की स्थिति बन गई। अभी भी पार्टी द्वारा यह निष्कर्ष तो नहीं निकाला गया कि सरकारी अनुदान से चलने वाली परियोजनाओं को तिलांजलि दे दी जाए लेकिन इनकी सीमाओं को उजागर तो किया ही गया है। यह दौर विखंडन के समय के तौर पर भी रेखांकित किया गया। इन सबके चलते हरियाणा विज्ञान मंच, भारत ज्ञान-विज्ञान समिति, हरियाणा ज्ञान-विज्ञान समिति और जतन नाट्य केन्द्र - इन अलग-अलग संस्थाओं का अस्तित्व बना हुआ है और ये सभी ज्ञान-विज्ञान आंदोलन की घटक हैं। सभी की अलग-अलग फ्रैक्शन कमेटियां हैं और इन सभी फ्रैक्शनों के तालमेल के लिए एक सैंट्रल फ्रैक्शन है। इन संगठनों को लेकर पार्टी की समझ यह बनी कि सभी की स्वायत्तता के साथ-साथ तालमेल की ज़रूरत है। वर्तमान स्थिति यह है कि स्वायत्तता तो सभी संस्थाओं की बन गई है लेकिन तालमेल का अभाव है। तालमेल के अभाव की वजह पहले घटित मतभेद हैं, जो अभी भी मौजूद हैं और इसके चलते तालमेल की बजाय एक तरह की प्रतिस्पर्धा का वातावरण आज भी बना हुआ है। संस्थावार कार्यों की समीक्षा भी ऐसे वातावरण में ठीक से नहीं हो पाती है। अभी भी स्थिति यही है कि अपने कार्यों को आलोचनात्मक ढंग से न देखने का रुझान हावी है। इसके चलते हम अपनी चुनौतियों और कार्यों को भी ठीक से आत्मसात् नहीं कर पाते हैं और आत्मतुष्टि की स्थिति में रहते हैं जो आंदोलन के विकास में बाधक है। इस स्थिति को तोड़ने की ज़रूरत है। इसके लिए वर्तमान चुनौतियों को आत्मसात् करते हुए हमें जन-आंदोलन खड़ा करने की समझ से कार्य करना होगा। जब हम एक बड़ा लक्ष्य सामने रखते हुए कार्य करेंगे तो हमें अपनी सोच को भी विस्तृत करना होगा। स्वायत्त जन संगठन खड़ा करने की ज़रूरत सभी को एक साथ महसूस करनी होगी।

भारत में विज्ञान एवम तकनीकी: समकालीन चुनैतियां

भारत में विज्ञान एवम तकनीकी: समकालीन चुनैतियां 2.1- विविधता में एकता: स्वतंत्रता के बाद देश में विकास के लिए तीन प्रमुख धाराओं पर बहस हुआ करती थी। गांधीवाद नेहरुवाद एवम वामपंथ । इन धाराओं का तुलनात्मक विवरण इस प्रकार से है : बिन्दु : 1--विकास अवधारणा गांधीवाद : आत्मनिर्भर ग्रामीण अर्थव्यवस्था अर्थात सूक्ष्म ही सुन्दर है , भूदान के द्वारा भूमि का पुनः वितरण, पार्टी विहीन लोकतंत्र, नेहरुवाद में संकट के बाद एंट्री स्टेटिक रूख, नव गांधीवाद के परिप्रेक्ष्य में नव पारम्परिक राजनीति नेहरुवाद: टैक्स रुपी सरकारी पूँजी से बड़े तकनीकी सिस्टम तथा सार्वजनिक क्षेत्र में भारी लागत वाले उद्योगों की स्थापना, उपभोक्ता वस्तुओं के लिए सूक्ष्म और मध्यम निजी क्षेत्र, भूमि पुनः वितरण मात्र नारा बना, जैसे जैसे निजी क्षेत्र की क्षमता बढ़ी, वे अर्थव्यवस्था के प्रमुख खिलाड़ी बनते चले गए। नेहरुवाद संकट में आया तथा विकास पथ मुक्त बाजार की ओर मुड़ा। वामपंथ : उपनिवेशवाद से मुकाबले के लिए अंतरिम रूप से राष्ट्र के हाथों में पूँजी की स्थापना संसाधनों -- विशेषकर भूमि के बेलोग पुनः वितरण , केंद्रीय तालमेल के साथ श्रमिक संचालित बड़े तकनीकी सिस्टम की स्थापना, स्थानीय स्तर पर विकेन्द्रीकृत प्लानिंग के साथ विकास का जनभागीदारी मॉडल, राज्य का लोगों के प्रति उत्तरदायित्व । बिंदु 2---औद्योगिक प्रक्रिया : गांधीवाद : विकेंद्रीकरण औद्योगिक विकास , चरखा अभियान । नेहरुवाद : बुनियादी और पूंजीगत वस्तु क्षेत्र की स्थापना, आयात प्रतिस्थापन एवम कुटीर उद्योग को संरक्षण, सरकार के बाद निर्यात व व्यापर विकास के इंजन बने। वाम पंथ : भारी उद्योग का लगातार प्रोत्साहन , रोजगार प्रदान करने वाले कुटीर उद्योगों के द्वारा घरेलू बाजार का निर्माण , अन्न उत्पादन के लिये सिंचित खेती । बिंदु 3-- खेती क्षमता का विकास : गांधीवाद :- पारम्परिक व स्थानीय ज्ञान , निजी सूक्ष्म उद्योग, उपभोक्ता, वित्त व अन्य सेवाओं के लिए सहकारी समितियां नेहरुवाद: रिवर्स इंजीनियरिंग से आयत प्रतिस्थापना, सीमित क्षेत्रों में तकनीकी ज्ञान का विकास तथा विज्ञान व तकनीकी में आत्म निर्भरता , बुनियादी सभी जरूरतों की आपूर्ति के लिए तकनीकी ज्ञान का विकास । वामपंथ : सभी बड़े तकनीकी सिस्टम में आत्मनिर्भरता जैसे सिंचाई , रेल ,सड़क, टेलीकॉम, स्टील , भारी उद्योग व स्वास्थ्य, उपभोक्ता वस्तुओं के लिए श्रमिकों की सहकारी एग्रो इंडस्ट्रीज । बिंदु 4-- गरीबों के हितों की रक्षा के उपाय: गांधीवाद: कुटीर उद्योग व किसान आधारित कृषि को नीचे से ऊपर उठाणा। नेहरुवाद : बड़े स्तर पर लागू आधुनिक तकनीक को सूक्ष्म उद्योगों के अनुरूप ढालना वामपंथ : सार्वजनिक क्षेत्र के बड़े सिस्टम का उपयोग तथा श्रमिकों की सहकारी समितियों की सहायता, जन- विज्ञान आंदोलन से उपजे अनुरूप नेटवर्क ग्रुप एंट्रप्राइज , बड़े घरानों की बजाय सार्वजनिक व सहकारी क्षेत्र पर निर्भरता बिंदु 5 -- उत्पादन तकनीक प्रसार के सामाजिक वाहक : गांधीवाद : भूमि मालिकों व बड़े घरानों पर ट्रस्टी (संरक्षक) के रूप में विश्वास ताकि वे छोटे उत्पादक का ध्यान रख सकें । नेहरुवाद: उद्योगों व सामरिक क्षेत्रों के लिए सरकारी तंत्र, उपभोक्ता व खुदरा क्षेत्रों के लिए विदेशी तंत्र तथा बड़े घराने । वामपंथ: बड़े घरानों की बजाय सार्वजनिक व सहकारी क्षेत्र पर निर्भरता। बिंदु 6- ग्रामीण विकास हेतु प्राथमिकताएं: गांधीवाद: ग्रामीण उद्योगों को संरक्षण नेहरुवाद: सिंचाई, सड़क, व विद्युत शक्ति आदि की उपलब्धता वामपंथ: भूमि सुधार , सिचाई, विद्युत शक्ति, शिक्षा व स्वास्थ्य की उपलब्धता बिंदु --7- गरीब वर्ग की भागीदारी: गांधीवाद : स्थानीय, स्वशासन , स्वच्छता नेहरुवाद: क्षेत्र विकास, लघु व्यवसाय, वित्त उपलब्धता, गरीबी उन्मूलन कार्यक्रमों का प्रसार, सभी के लिए स्कूली शिक्षा वामपंथ : भोजन की जरूरतों के लिए सार्वजनिक वितरण, परिवहन, सार्वजनिक क्षेत्र के माध्यम से स्वास्थ्य सेवा, यूनिवर्सल शिक्षा सोच में अंतर के बावजूद तीनों धाराओं के लोग कुछ मामलों में एकमत थे। इस युग में मौजूद सहिष्णुता तथा समावेशता के कारण अनेक सकारात्मक नतीजे सामने आये। * विज्ञान को सांझी विरासत तथा जनहित के लिए उपयोगी संसाधन के रूप में स्वीकारा गया। * राष्ट्रीय एकता , मानवता तथा धर्म-निरपेक्षता की भावनाएं प्रबल हुई। * विज्ञान / तकनीकी को मुनाफाखोरी से अलग रखा गया * विज्ञान को समानता, स्वतंत्रता व भाईचारे के साथ जोड़ा गया है । सबका देश हमारा देश अभियान

Monday, April 8, 2024

साक्षरता

विजय कुमार dc RK खुल्लर dc P K Das dc इन अधिकारियों का गजब का सहयोग रहा पानीपत के साक्षरता अभियान में। इन्होने साक्षरता को पहली प्राथमिकता दी । **मुख्य कार्यकर्ता कमल कौर, सबीता, दीपा, मंजीत राठी, अनिता, अंजली, डॉ सुरेश शर्मा, सत्य प्रकाश, राजीव, राजपाल दहिया, राजेश अत्रे, डॉ शंकर इसराना, डॉ जयपाल इसराना, शीलक राम , साथी वीरेंद्र शर्मा, शीश पाल, साथी श्याम लाल, 2 साल के डेपुटेशन पर गया था मैं सरकार की इजाजत से मगर मेरे hod ने मुझे भगौड़ा करार दे दिया और मेरी एसीआर खराब कर दी। इंक्रीमेंट रुकी मेरी इस वजह से। ***जत्थे तैयार किये उन्होंने माहौल बनाया **स्लोगन्स **Primar तैयार किया छपवाया दिल्ली की प्रेस से उस दौर के छपे primers में सबसे सस्ता था । प्रेस हमारे voluntarism से काफी प्रभावित हुई। बाद तक इस प्रेस से संपर्क बना रहा। *** कुल निरक्षरों के 21 % लोगों को ही साक्षर कर पाए उस दौर में। ** जत्था लेकर गए । चौपालाे में। क्लासों में महिलाएं ज्यादा आई। उनसे पहले दौर में बहुत कम सीधा संपर्क कर पाये थे। जो कहते थे लोग पढ़ना नहीं चाहते, इस बात को झूठा साबित किया उन महिलाओं ने। पहले महिलाएं चौपाल के सामने से जाते हुए घूंघट करके जाती थी, उनको चौपाल में चढ़ कर महिलाओं को चौपाल में मीटिंग करना सिखाया। कई महिलाओं के घूंघट स्टेज से ही खुलवाये। बहुत कुछ सीखा ***** 1992 में क्लोजिंग रैली 10--12 दिसंबर 1992 को की गई। बाबरी मस्जिद के गिराने का दौर था। बड़ी संख्या में मुस्लिम साक्षर आये थे। **** मुझे मेरे hod ने abscondar का मेरी acr में तगमा दिया। जो आज भी है मेरे पास। **** लोगों से संवाद के तरीके सीखे। ***** बहुत कुछ है दो साल के सफर में। 3 लड़ाई 1526---राजा इब्राहिम लोदी और बाबर के बीच 1556---हेमू और अकबर के बीच 1761 -- अहमद शाह अब्दाली और मराठों के बीच पानीपत की चौथी लड़ाई 1990..1992 के बीच कुछ बातें कुछ सवाल लोगों के बीच से निकल कर आए: 1 . एक किसान एक एकड़ में कितना गन्ना पैदा करता है ? 2 एक क्विन्टल गन्ने में कितनी चिन्नी बनती है ? 3 . कितना शीरा बनता है ? 4 . कितनी खोही बनती है ? 5 . इनसे आगे एक किलो शीरा से एक दारू की बोतल बनती है । 6 . इसी प्रकार खोही से कापी पेन्सिल और बिजली बनती है । क्या कोई किताब है ऐसी जिसमें इसका पूरा हिसाब किया गया हो ? 1990-92 में पानीपत की चौथी लड़ाई नाम से साक्षरता अभियान में ये सवाल लोगों ने उठाये थे । मैंने दो साल वहां काम किया था \ तब से उस किताब को ढूंढ रहा हूँ ? आपके पास हो तो एक कापी मुझे भी भेजना जी । कुछ अनुभव जो अभी भी दिमाग में घूमते रहते हैं:- पानीपत की चौथी लड़ाई सारे मिलकर करैं पढ़ाई शायद मतलौडा ब्लॉक की वर्कशॉप थी टीचर्स और अक्षर सैनिकों कि primar निरक्षरों की क्लास में कैसे पढ़ना पढ़ाना है । एक पाठ बरसात कैसे होती है इस पर था । कैसे सूर्य की गर्मी और पानी के वाष्पीकरण से बादल बनते हैं और बरसात होती है। एक अध्यापक महोदय ने कहा यह गलत है, बरसात तो हवन करने से होती है । हमारे साथी ने उसे और ज्यादा सहजता के साथ समझाया कि बरसात के पीछे क्या क्या वैज्ञानिक मसले हैं । मास्टरजी तो अड़े रहे। फिर हमारे साथी ने पूछा-मास्टरजी आपका बच्चा कौनसी क्लास में पढता है? जवाब था-- आठवीं में। साथी-- यदि उसके एग्जाम में यह सवाल आ जाय कि बरसात कैसे होती है तो आप उसे क्या सलाह देंगे मास्टरजी-- उसे तो मैं यही कहूंगा कि बरसात बादलों से होती है यही लिख कर आना। साथी से रहा नहीं गया और कहा- फूफा फेर आध घण्टे तैं म्हारा सिर क्यूँ खान लागरया सै। यूं ही याद आयी पानीपत की चौथी लड़ाई जो 1990 में शुरू की और अब तक जारी है । एक दक्ष ***** “जो विचारों मे जिंदा रहते है वह कभी मरते नहीं” अलविदा ड़ा शंकर लाल, सलाम, जिंदाबाद हरियाणा मे ज्ञान - विज्ञान के मूल्यों पर आधारित नवजागरण के सजग प्रहरी और कर्मठ एवं समर्पित, नए हरियाणा का स्वप्न्न देखने वाले, भारतीय सविधान मे प्रदत बराबरी (जाती व धर्म, महिला पुरुष,) देश मे बढ़ती आर्थिक गैर बराबरी, यानि आर्थिक, सामाजिक व राजनैतिक तौर पर फ़ैली गैर बराबरी के खिलाफ डटकर लड़ने वाले वैज्ञानिक समझ के व्यक्तितव के धनी ड़ा. शंकर से मेरा परिचय 17 सितंबर 1990 मे हुआ था जब मै 16 वर्ष का था। व एक ग्रामीण बच्चो की तरह ही संसार को समझता था। उनसे मुलाक़ात पानीपत की चौथी लड़ाई (निरक्षरता के खिलाफ जंग) के समय हुई जब वह हमारे स्कूल मे सभी बच्चों के साथ साक्षरता अभियान के लिए स्वेछिक रूप से जुडने की अपील करने आए थे। उस समय बस इतना आभास सा था की समाज मे जो हो रहा है उसमे कुछ गड़बड़ है हमे कुछ करना चाहिए। उस समय पानीपत की चौथी लड़ाई के अगुवा साथियो मे पानीपत जिले मे डाक्टर शंकर, ड़ा सुरेश शर्मा व राजेश आत्रेय हुआ करते थे। ड़ाक्टर साहब के उस समय के साथ ने जिंदगी के मायने, सोचने के तरीके, मान्यताएँ सभी कुछ बदल दिया। मेरे जैसे कितने ही साक्षरताकर्मी है जिनकी जिंदगी मे बदलाव आया है व वैज्ञानिक समझ पैदा हुई है। यह श्र्देय डाक्टर साहब का ही योगदान की आज हम देश, दुनिया मे कही भी रहे लेकिन समाज बदलाव व समाज मे वैज्ञानिक समझ के पैदा करने का प्रयास निरंतर जारी है। और जारी रहेगा। वैचारिक, मानसिक, दोस्त - गुरु डाक्टर शंकर लाल अलविदा सलाम, जिंदाबाद ****** बैंक में पैसे जमा करवाने का मसला विजय कुमार जी ने एक बैंक बताया हमने कई बैंकों से पूछा इंटरेस्ट कितना देंगे। जिसने ज्यादा दिया वहां करवाया। विजय कुमार जी ने खुशी जताई। ****** जी जान लगा दी थी साथियों ने साथी वीरेंद्र ने अपनी जान पर खेल कर लोगों की ज्यान बचाई उसी दौर में। ****** हरयाणवी भाषा जीवन शैली बन गयी। लोगों के बीच हिंदी या अंग्रेजी भाषा काम नहीं आई। हरयाणवी में बातचीत शुरू हुई। अब यह हरयाणवी मेरी रोजाना की भाषा बन गई है। **** खर्च का मसला लोगों ने बहुत मदद की तो खर्च बहुत कम हुआ और काफी पैसा बच गया। इस वक्त उसका बेहतर इस्तेमाल नहीं कर पाए । बैंको में पड़ा है ******** हरियाणा के साक्षरता आंदोलन के कुछ अनुभव व विचार सन 90 से लेकर सन 1998 तक चले साक्षरता अभियानों के अनुभव कुछ इस प्रकार हैं, इन्हें और ज्यादा गहराई तथा आलोचनात्मक दृष्टि से देखने की आवश्यकता से इनकार नहीं किया जा सकता। 1) यह साक्षरता आंदोलन एक ऐतिहासिक आंदोलन के रूप में दर्ज किया जाएगा। 2) इसमें बहुत सारी जन गतिविधियां (मास एक्टिविटीज) आयोजित की गई जिनका लोक जन समूह (masses)पर व्यापक प्रभाव हुआ 3 ) इस प्रक्रिया ने कई नई संभावनाओं को जन्म दिया जिन्हें गहराई से समझा जाना चाहिए तथा महज नव साक्षरों के आंकड़ों तक सीमित करके इस प्रक्रिया को नहीं देखा जाना चाहिए 4) बड़ी संख्या में कला कर्मियों तथा स्वयंसेवी कार्यकर्ता संपर्क में आए तथा इस आंदोलन का हिस्सा बने 5) सामूहिकता तथा खुद की पहल कदमी जैसी प्रक्रियाएं उभरती दिखाई दे रही हैं या इनकी संभावनाएं पैदा हुई हैं 6) महिलाएं बड़े पैमाने पर इस आंदोलन में शामिल हुई तथा इस आंदोलन को अपना आंदोलन माना 7) पहले की अपेक्षा स्रोत व्यक्तियों की संख्या तथा उनके अपने क्षेत्र के काम में गहराई में विकास हुआ है 8) साक्षरता से संबंधित काफी पठन सामग्री तथा दूसरे सॉफ्टवेयर तैयार किए गए हैं 9) फंड्स के बारे में भी साक्षरता अभियान ने अपनी क्रेडिबिलिटी बनाई है 10) इसके बावजूद कई ऐसे अन देखे, अन पहचाने क्षेत्र हो सकते हैं जिनका पता विधिवत कंडक्ट की गई इंपैक्ट स्टडी से ही लगाया जा सकता है। 11) ग्रामीण जीवन की और शहरी जीवन की बारीकियों से जानकारियां सामने आई। 12) ग्रामीण महिलाओं को कैसे मोबिलाइज किया जाए इसके रास्ते निकाले 13) आईएस अफसरों के बारे कई भ्रांतियां भी साफ हुई। 14) गीत, रागनी, नाटक, ग्रुप वार्ता की अहमियत सामने आईं लोगों के बीच अपनी बात ले जाने के लिए । 15) पानीपत जिले के अनुभव ने रोहतक , जिंद, भिवानी, हिसार जिलों में भी अभियान चलाने का हौंसला दिया 16) बहुत सा साहित्य भी नव साक्षरों के लिए तैयार किया गया। 17) कई छोटी छोटी बुकलेट छापी गई 18) 19) मगर साक्षरता आंदोलन की कई सीमाएं भी रही जिनके चलते अपेक्षित सफलताएं नहीं मिल सकी । 1) जैसा कि सोचा गया था यह अभियान एक जन आंदोलन नहीं बन पाया हालांकि इसने व्यापक प्रभाव जरूर पैदा किया 2) इस अभियान का परिप्रेक्ष्य नीचे तक पूरी तरह से नहीं जा पाया साथ ही फीडबैक भी काफी कमजोर रहा 3) इस आंदोलन से बहुत ज्यादा अपेक्षाएं की गई जिनमें पूरा या सफल न होने पर इस आंदोलन के रैंक एंड फाइल में भी निराशा पैदा हुई 4) मध्यम वर्ग के उन हिस्सों को जिन्हें इस अभियान में शामिल किया जा सकता था हम शामिल नहीं कर पाए 5) सांप्रदायिकता, जात-पात तथा लिंग भेद के मुद्दों पर ज्यादा संवेदनशीलता की जरूरत थी 6) अपने कैडर की निरंतर शिक्षा व प्रशिक्षण (परिप्रेक्ष्य के बारे में) की कमी भी रही 7) राज्य स्तर पर काम कर रही बीजीवीएस तथा जेड एस एस (जिला साक्षरता समिति) के बीच भी gaps रहे 8) टीएलसी के विभिन्न स्तरों पर वांछित क्षमताओं की कमी तथा TLC/PLC जरूरतों को समय रहते लक्षित करके कारगर कदम उठाने की कमी भी एक कारण रही। टीएलसी पीएलसी की नेचुरल overlaping भी विजुलाइज नहीं कर पाए 9) ज्यादातर शिक्षण संस्थाएं इस अभियान से अछूती रही या इनडिफरेंट रही 10) हम पार्ट टाइमर के लिए उनका स्थान, उनकी इस अभियान में भूमिका सुनिश्चित नहीं कर पाए । उनका बहुत कम समय भी बहुत कीमती था 11) ज्यादा योजना बद्ध और सोचे समझे ढंग से पानीपत का पीएलसी नहीं चलाया जा सका 12) आंकड़ों के दबाव ने इस अभियान की गुणवत्ता को काफी प्रभावित किया 13) महिलाओं के मुद्दों पर अलग से योजना बनाने में काम में कमजोरी तथा कमी रही 14) राज्य स्तर पर राजनीतिक प्रतिबद्धता की अखरने वाली कमी भी एक मुख्य कारण रही 15) अफसरशाही ने भी जनतांत्रिक ने ढंग से पार्टिसिपेटरी तौर तरीकों को अंगीकार नहीं किया इससे भी काफी असर पड़ा 16 यमुनानगर और अंबाला जिलों में चले साक्षरता के सरकारी कार्यक्रमों की कागजी सफलता को सरकारी मान्यता तथा प्रचार ने भी साक्षरता अभियानों के मनोबल पर प्रतिकूल असर डाला वास्तव में वहां के आंकड़े कहीं कम थे 17) पूर्ण कालिक कार्यकर्ताओं पर अभियान की निर्भरता और पूर्ण कालिक कार्यकर्ताओं की Wage dependence ने अभियान को व्यापकता प्रदान करने में प्रतिकूल असर डाला। स्वयं सेवी भावना (अक्षय सैनिक की) तथा सीपीसी की Wage dependence में एक अंतर विरोध निहित था। इसका और ज्यादा विश्लेषण किया जाना चाहिए 18) Self Sustainef आत्म निर्भर गतिविधियों का अभाव रहा जबकि Sponsered गतिविधियों पर निर्भरता ज्यादा रही। इसलिए शायद नीचे के स्तर पर इनीशिएटिव भी ट्रांसफर नहीं हो पाया 19) दलित वर्गों से सरोकार रखने वाले विषयों तथा मुद्दों की भी कमी खलने वाली रही इस अभियान में 20) इस प्रोजेक्ट की आधारभूत संरचना ही कमांड स्ट्रक्चर की रही। इस प्रकार के ढांचे में अति केंद्रीयतावाद के खतरे बहुत होते हैं 21) स्वयं सेवी संस्थाओं का ग्राम स्तर पर सांगठनिक ढांचा न होना भी एक कारण था अभियान के दौरान यह ढांचा खड़ा नहीं हो सका । रणवीर सिंह दहिया 19.5.1998 Move to folder... Copyright © 2024 Rediff.com India Limited. All rights reserved.

Tuesday, March 19, 2024

हरियाणा

 

यह एक सच्चाई है कि हरियाणा के आर्थिक विकास के मुकाबले में सामाजिक विकास बहुत पिछड़ा रहा है ऐसा क्यों हुआ ? यह एक गंभीर सवाल है और अलग से एक गंभीर बहस कि मांग करता है हरियाणा के सामाजिक सांस्कृतिक क्षेत्र पर शुरू से ही इन्ही संपन्न तबकों का गलबा रहा है यहाँ के काफी लोग फ़ौज में गए और आज भी हैं मगर उनका हरियाणा में क्या योगदान रहा इसपर ज्यादा ध्यान नहीं गया है उनकी एक भूमिका है।


इसी प्रकार देश के विभाजन के वक्त जो तबके हरियाणा में आकर बसे उन्होंने हरियाणा की दरिद्र संस्कृति को कैसे प्रभावित किया ; इस पर भी गंभीरता से सोचा जाना शायद बाकी है क्या हरियाणा की संस्कृति महज रोहतक, जींद सोनीपत जिलों कि संस्कृति है? क्या हरियाणवी डायलैक्ट एक भाषा का रूप ले  सकता है ? महिला विरोधी, दलित विरोधी तथा प्रगति विरोधी तत्वों को यदि हरियाणवी संस्कृति से बाहर कर दिया जाये तो हरियाणवी संस्कृति में स्वस्थ पक्ष क्या बचता है ? इस पर समीक्षात्मक रुख अपना कर इसे विश्लेषित करने की आवश्यकता है क्या पिछले दस पन्दरा सालों में और ज्यादा चिंताजनक पहलू हरियाणा के सामाजिक सांस्कृतिक माहौल में शामिल नहीं हुए हैं ? व्यक्तिगत स्तर पर महिलाओं और पुरुषों ने बहुत सारी सफलताएँ हांसिल की हैं | समाज के तौर पर 1857 की आजादी की पहली जंग में सभी वर्गों ,सभी मजहबों सभी जातियों के महिला पुरुषों का सराहनीय योगदान रहा है इसका असली इतिहास भी कम लोगों तक पहुँच सका है


        हमारे हरियाणा के गाँव में पहले भी और कमोबेश आज भी गाँव की संस्कृति , गाँव की परंपरा , गाँव की इज्जत शान के नाम पर बहुत छल प्रपंच रचे गए हैं और वंचितों, दलितों महिलाओं के साथ न्याय कि बजाय बहुत ही अन्याय पूर्ण व्यवहार किये जाते रहे हैं ।उदाहरण के लिए हरियाणा के गाँव में एक पुराना तथाकथित भाईचारे सामूहिकता का हिमायती रिवाज रहा है कि जब भी तालाब (जोहड़) कि खुदाई का काम होता तो पूरा गाँव मिलकर इसको करता था रिवाज यह रहा है कि गाँव की हर देहल से एक आदमी तालाब कि खुदाई के लिए जायेगा पहले हरियाणा के गावों क़ी जीविका पशुओं पर आधारित ज्यादा रही है। गाँव के कुछ घरों के पास 100 से अधिक पशु होते थे इन पशुओं का जीवन गाँव के तालाब के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा होता था गाँव क़ी बड़ी आबादी के पास ज़मीन होती थी पशु होते थे अब ऐसे हालत में एक देहल पर तो सौ से ज्यादा पशु हैं, वह भी अपनी देहल से एक आदमी खुदाई के लिए भेजता था और बिना ज़मीन पशु वाला भी अपनी देहल से एक आदमी भेजता था वाह कितनी गौरवशाली और न्यायपूर्ण परंपरा थी हमारी? यह तो महज एक उदाहरण है परंपरा में गुंथे अन्याय को न्याय के रूप में पेश करने का


             महिलाओं के प्रति असमानता अन्याय पर आधारित हमारे रीति रिवाज , हमारे गीत, चुटकले हमारी परम्पराएँ आज भी मौजूद हैं इनमें मौजूद दुभांत को देख पाने क़ी दृष्टि अभी विकसित होना बाकी है | लड़का पैदा होने पर लडडू बाँटना मगर लड़की के पैदा होने पर मातम मनाना , लड़की होने पर जच्चा को एक धड़ी घी और लड़का होने पर दो धड़ी घी देना, लड़के क़ी छठ मनाना, लड़के का नाम करण संस्कार करना, शमशान घाट में औरत को जाने क़ी मनाही , घूँघट करना , यहाँ तक कि गाँव कि चौपाल से घूँघट करना आदि बहुत से रिवाज हैं जो असमानता अन्याय पर टिके हुए हैं सामंती पिछड़ेपन सरमायेदारी बाजार के कुप्रभावों के चलते महिला पुरुष अनुपात चिंताजनक स्तर तक चला गया मगर पढ़े लिखे हरियाणवी भी इनका निर्वाह करके बहुत फखर महसूस करते हैं यह केवल महिलाओं की संख्या कम होने का मामला नहीं है बल्कि सभ्य समाज में इंसानी मूल्यों की गिरावट और पाशविकता को दर्शाता है हरियाणा में पिछले कुछ सालों से यौन अपराध , दूसरे राज्यों से महिलाओं को खरीद के लाना और उनका यौन शोषण  आदि हरियाणा का सामाजिक सांस्कृतिक परिदृश्य

रणबीर सिंह दहिया


 भाग: 1


       हरियाणा एक कृषि प्रधान प्रदेश के रूप में जाना जाता है राज्य के समृद्ध और सुरक्षा के माहौल में यहाँ के किसान और मजदूर , महिला और पुरुष ने अपने खून पसीने की कमाई से नई तकनीकों , नए उपकरणों , नए खाद बीजों पानी का भरपूर इस्तेमाल करके खेती की पैदावार को एक हद तक बढाया , जिसके चलते हरियाणा के एक तबके में सम्पन्नता आई मगर हरियाणवी समाज का बड़ा हिस्सा इसके वांछित फल नहीं प्राप्त कर सका


का चलन बढ़ रहा है सती, बाल विवाह अनमेल विवाह के विरोध में यहाँ बड़ा सार्थक आन्दोलन नहीं चला स्त्री शिक्षा पर बल रहा मगर को- एजुकेसन का विरोध किया गया , स्त्रियों कि सीमित सामाजिक भूमिका की भी हरियाणा में अनदेखी की गयी उसको अपने पीहर की संपत्ति में से कुछ नहीं दिया जा रहा जबकि इसमें उसका कानूनी हक़ है चुन्नी उढ़ा कर शादी करके ले जाने की बात चली है दलाली, भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी से पैसा कमाने की बढ़ती प्रवृति चारों तरफ देखी जा सकती है यहाँ समाज के बड़े हिस्से में अन्धविश्वास , भाग्यवाद , छुआछूत , पुनर्जन्मवाद , मूर्तिपूजा , परलोकवाद , पारिवारिक दुश्मनियां , झूठी आन-बाण के मसले, असमानता , पलायनवाद , जिसकी लाठी उसकी भैंस , मूछों के खामखा के सवाल , परिवारवाद ,परजीविता ,तदर्थता आदि सामंती विचारों का गहरा प्रभाव नजर आता है ये प्रभाव अनपढ़ ही नहीं पढ़े लिखे लोगों में भी कम नहीं हैं हरियाणा के मध्यमवर्ग का विकास एक अधखबड़े मनुष्य के रूप में हुआ


             तथाकथित स्वयम्भू पंचायतें नागरिक के अधिकारों का हनन करती रही हैं और महिला विरोधी दलित विरोधी तुगलकी फैसले करती रहती हैं और इन्हें नागरिक को मानने पर मजबूर करती रहती हैं राजनीति प्रशासन मूक दर्शक बने रहते हैं या चोर दरवाजे से इन पंचातियों की मदद करते रहते हैं यह अधखबड़ा मध्यम वर्ग भी कमोबेश इन पंचायतों के सामने घुटने टिका देता है एक दौर में हरयाणा में सर्व खाप पंचायतों द्वारा जाति, गोत ,संस्कृति ,मर्यादा आदि के नाम पर महिलाओं के नागरिक अधिकारों के हनन में बहुत तेजी आई  और अपना सामाजिक वर्चस्व बरक़रार रखने के लिए जहाँ एक ओर ये जातिवादी पंचायतें घूँघट ,मार पिटाई ,शराब,नशा ,लिंग पार्थक्य ,जाति के आधार पर अपराधियों को संरक्षण देना आदि सबसे पिछड़े विचारों को प्रोत्साहित करती हैं वहीँ दूसरी ओर साम्प्रदायिक ताकतों के साथ मिलकर युवा लड़कियों की सामाजिक पहलकदमी और रचनात्मक अभिव्यक्ति को रोकने के लिए तरह तरह के फतवे जारी करती रही हैं जौन्धी और नयाबांस की घटनाएँ तथा इनमें इन पंचायतों द्वारा किये गए तालिबानी फैंसले जीते जागते उदाहरण हैं युवा लड़कियां केवल बाहर ही नहीं बल्कि परिवार में भी अपने लोगों द्वारा यौन-हिंसा और दहेज़ हत्या की शिकार हों रही हैं | ये पंचायतें बड़ी बेशर्मी से बदमाशी करने वालों को बचाने की कोशिश करती है अब गाँव की गाँव, गोत्र की गोत्र और सीम के लगते गाँव के भाईचारे की गुहार लगाते हुए हिन्दू विवाह कानून 1955 में संसोधन की बातें की जा रही हैं ,धमकियाँ दी जा रही हैं और जुर्माने किये जा रहे हैं। हरियाणा के रीति रिवाजों की जहाँ एक तरफ दुहाई देकर संशोधन की मांग उठाई जा रही है वहीँ हरियाणा की ज्यादतर आबादी के रीति रिवाजों की अनदेखी भी की जा रही है  


            हरियाणा में  खाते-पीते मध्य वर्ग और अन्य साधन सम्पन्न तबक़ों का इसे समर्थन किसी हद तक सरलता से समझ में सकता है, जिनके हित इस बात में हैं कि स्त्रियां, दलित, अल्पसंख्यक और करोड़ों निर्धन जनता नागरिक समाज के निर्माण के संघर्ष से अलग रहें। लेकिन साधारण जनता अगर फ़ासीवादी मुहिम में शरीक कर ली जाती है तो वह अपनी भयानक असहायता , अकेलेपन, हताशा अन्धसंशय, अवरुद्ध चेतना, पूर्वग्रहों, भ्रम द्वारा जनित भावनाओं के कारण शरीक होती है। फ़ासीवाद के कीड़े जनवाद से वंचित और उसके व्यवहार से अपरिचित, रिक्त, लम्पट और घोर अमानुषिक जीवन स्थितियों में रहने वाले जनसमूहों के बीच आसानी से पनपते हैं। यह भूलना नहीं चाहिए कि हिन्दुस्तान की आधी से अधिक आबादी ने जितना जनतंत्र को बरता है, उससे कहीं ज़्यादा फ़ासीवादी परिस्थितियों में रहने का अभ्यास किया है।


           गाँव की इज्जत के नाम पर होने वाली जघन्य हत्याओं की हरियाणा में बढ़ोतरी हों रही है समुदाय , जाति या परिवार की इज्जत बचाने के नाम पर महिलों को पीट पीट कर मार डाला जाता है , उनकी हत्या कर दी जाति है या उनके साथ बलात्कार किया जाता है एक तरफ तो महिला के साथ वैसे ही इस तरह का व्यवहार किया जाता है जैसे उसकी अपनी कोई इज्जत ही हों , वहीँ उसे समुदाय की 'इज्जत' मान लिया जाता है और जब समुदाय बेइज्जत होता है तो हमले का सबसे पहला निशाना वह महिला और उसकी इज्जत ही बनती है अपनी पसंद से शादी करने वाले युवा लड़के लड़कियों को इस इज्जत के नाम पर सार्वजनिक रूप से फांसी पर लटका दिया जाता है


           यहाँ के प्रसिद्ध संगियों हरदेवा , लख्मीचंद ,बाजे भगत ,मेहर सिंह ,मांगेराम ,चंदरबादी, धनपत ,खेमचंद दयाचंद की रचनाएं काफी प्रशिद्ध हुई हैं। रागनी कम्पीटिसनों का दौर एक तरह से काफी कम हुआ है ऑडियो कैसेटों की जगह सीडी लेती गई और अब यु ट्यूब और सोशल मीडिया ने ले ली है। स्वस्थ ,जन पक्षीय सामग्री के साथ ही पुनरुत्थानवादी अंधउपभोग्तवादी मूल्यों की सामग्री भी नजर आती है हरियाणा के लोकगीतों पर  समीक्षातमक काम कम हुआ है महिलाओं के दुःख दर्द का चित्रण काफी है हमारे त्योहारों के अवसर के बेहतर गीतों की बानगी भी मिल जाती है


        गहरे संकट के दौर में हमारी धार्मिक आस्थाओं को साम्प्रदायिकता के उन्माद में बदलकर हमें जात गोत्र धर्म के ऊपर लड़वा कर हमारी इंसानियत के जज्बे को , हमारे मानवीय मूल्यों को विकृत किया जा रहा है गऊ हत्या या गौ-रक्षा के नाम पर हमारी भावनाओं से खिलवाड़ किया जाता है दुलिना हत्या कांड और अलेवा कांड गौ के नाम पर फैलाये जा रहे जहर का ही परिणाम थे। इसी धार्मिक उन्माद और आर्थिक संकट के चलते हर तीसरे मील पर मंदिर दिखाई देने लगे हैं राधास्वामी और दूसरे सैक्टों का उभार भी देखने को मिलता है


         सांस्कृतिक स्तर पर हरयाणा के चार पाँच क्षेत्र हैं और इनकी अपनी विशिष्टताएं हैं हरेक गाँव में भी अलग अलग वर्गों जातियों के लोग रहते हैं एक गांव में कई गांव बस्ते हैं। जातीय भेदभाव एक ढंग से कम हुए हैं मगर अभी भी गहरी जड़ें जमाये हैं आर्थिक असमानताएं बढ़ रही हैं सभी पहले के सामाजिक नैतिक बंधन तनावग्रस्त होकर टूटने के कगार पर हैं   मगर जनतांत्रिक मूल्यों के विकास की बजाय बाजारीकरण की संस्कृति के मान मूल्य बढ़ते जा रहे हैं बेरोजगारी बेहताशा बढ़ी है मजदूरी के मौके भी कम से कमतर होते जा रहे हैं। मजदूरों का जातीय उत्पीडन भी बढ़ा है दलितों से भेदभाव बढ़ा है वहीँ उनका असर्सन भी बढ़ा है कुँए अभी भी कहीं कहीं अलग अलग हैं परिवार के पितृसतात्मक ढांचे में परतंत्रता बहुत ही तीखी हो रही है | पारिवारिक रिश्ते नाते ढहते जा रहे हैं मगर इनकी जगह जनतांत्रिक ढांचों का विकास नहीं हों रहा तल्लाकों के केसिज की संख्या कचहरियों में बढ़ती जा रही है इन सबके चलते महिलाओं और बच्चों पर काम का बोझ बढ़ता जा रहा है मजदूर वर्ग सबसे ज्यादा आर्थिक संकट की गिरफ्त में है खेत मजदूरों ,भठ्ठा मजदूरों ,दिहाड़ी मजदूरों माईग्रेटिड मजदूरों का जीवन संकट गहराया है लोगों का गाँव से शहर को पलायन बढ़ा है


                      कृषि में मशीनीकरण बढ़ा है तकनीकवाद का जनविरोधी स्वरूप ज्यादा उभर कर आया है ज़मीन की दो -ढाई एकड़ जोत पर 70 प्रतिशत के लगभग किसान पहुँच गया है | ट्रैक्टर ने बैल की खेती को पूरी तरह बेदखल कर दिया है। थ्रेशर और हार्वेस्टर कम्बाईन ने मजदूरी के संकट को बढाया है।सामलात जमीनें खत्म सी हों रही हैं कब्जे कर लिए गए या आपस में जमीन वालों ने बाँट ली अन्न की फसलों का संकट है पानी की समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया है नए बीज ,नए उपकरण , रासायनिक खाद कीट नाशक दवाओं के क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की दखलंदाजी ने इस सीमान्त किसान के संकट को बहुत बढ़ा दिया है प्रति एकड़ फसलों की पैदावार घटी है जबकि इनपुट्स की कीमतें बहुत बढ़ी हैं किसान का कर्ज भी बढ़ा है स्थाई हालातों से अस्थायी हालातों पर जिन्दा रहने का दौर तेजी से बढ़ रहा है अन्याय अत्याचार बेइन्तहा बढ़ रहे हैं किसान वर्ग के इस हिस्से में उदासीनता गहरे पैंठ गयी और एक निष्क्रिय परजीवी जीवन , ताश खेल कर बिताने की प्रवर्ति बढ़ी है हाथ से काम करके खाने की प्रवर्ति का पतन हुआ है साथ ही साथ दारू सुल्फे का चलन भी बढ़ा है और स्मैक जैसे नशीले पदार्थों की खपत बढ़ी है
पिछले दिनों एक साल तक चले किसान आंदोलन ने एक बार किसानी एकता को मजबूत करने का काम किया है। लेकिन किसानी संकट बढ़ता ही नजर रहा है। मध्यम वर्ग के एक हिस्से के बच्चों ने अपनी मेहनत के दम पर सॉफ्ट वेयर आदि के क्षेत्र में काफी सफलताएँ भी हांसिल की हैं मगर एक बड़े हिस्से में एक बेचैनी भी बखूबी देखी जा सकती है कई जनतांत्रिक संगठन इस बेचैनी को सही दिशा देकर जनता के जनतंत्र की लडाई को आगे बढ़ाने में प्रयास रत दिखाई देते हैं अब सरकारी समर्थन का ताना बाना टूट गया है और हरियाणा में कृषि का ढांचा बैठता जा रहा है इस ढांचे को बचाने के नाम पर जो नई कृषि नीति या नितियां परोसी जा रही हैं उसके पूरी तरह लागू होने के बाद आने वाले वक्त में ग्रामीण आमदनी ,रोजगार और खाद्य सुरक्षा की हालत बहुत भयानक रूप धारण करने जा रही है और साथ ही साथ बड़े हिस्से का उत्पीडन भी सीमायें लांघता जा रहा है, साथ ही इनकी दरिद्र्ता बढ़ती जा रही है नौजवान सल्फास की गोलियां खाकर या फांसी लगाकर आत्म हत्या को मजबूर हैं


                 गाँव के स्तर पर एक खास बात और पिछले कुछ सालों में उभरी है , वह यह कि कुछ लोगों के प्रिविलेज बढ़ रहे हैं इस नव धनाड्य वर्ग का गाँव के सामाजिक सांस्कृतिक माहौल पर गलबा है पिछले सालों के बदलाव के साथ आई छद्म सम्पन्नता , सुख भ्रान्ति और नए उभरे सम्पन्न तबकों --परजीवियों ,मुफतखोरों और कमीशन खोरों -- में गुलछर्रे उड़ाने की अय्यास कुसंस्कृति तेजी से उभरी है नई नई कारें ,कैसिनो ,पोर्नोग्राफी ,नँगी फ़िल्में ,घटिया केसैटें , हरयाणवी पॉप ,साइबर सैक्स ,नशा फुकरापंथी हैं,कथा वाचकों के प्रवचन ,झूठी हैसियत का दिखावा इन तबकों की सांस्कृतिक दरिद्र्ता को दूर करने के लिए अपनी जगह बनाते जा रहे हैं। जातिवाद साम्प्रदायिक विद्वेष ,युद्ध का उन्माद और स्त्री द्रोह के लतीफे चुटकलों से भरे हास्य कवि सम्मलेन बड़े उभार पर हैं इन नव धनिकों की आध्यात्मिक कंगाली नए नए बाबाओं और रंग बिरंगे कथा वाचकों को खींच लाई है विडम्बना है की तबाह हो रहे तबके भी कुसंस्कृति के इस अंध उपभोगतावाद से छद्म ताकत पा रहे हैं |


                     दूसर तरफ यदि गौर करेँ तो सेवा क्षेत्र में छंटनी और अशुरक्षा का आम माहौल बनता जा रहा है। इसके बावजूद कि विकास दर ठीक बताई जा रही है , कई हजार कर्मचारियों के सिर पर छंटनी कि तलवार चल चुकी है और बाकी कई हजारों के सिर पर लटक रही है सैंकड़ों फैक्टरियां बंद हों चुकी हैं बहुत से कारखाने यहाँ से पलायन कर गए हैं छोटे छोटे कारोबार चौपट हों रहे हैं संगठित क्षेत्र सिकुड़ता और पिछड़ता जा रहा है असंगठित क्षेत्र का तेजी से विस्तार हों रहा है फरीदाबाद उजड़ने कि राह पर है , सोनीपत सिसक रहा है , पानीपत का हथकरघा उद्योग गहरे संकट में है यमुना नगर का बर्तन उद्योग चर्चा में नहीं है ,सिरसा ,हांसी रोहतक की धागा मिलें बंद हों गयी हैं धारूहेड़ा में भी स्थिलता साफ दिखाई देती है


                शिक्षा के क्षेत्र में बाजार व्यवस्था का लालची दुष्ट्कारी खेल सबके सामने अब आना शुरू हो गया है सार्वजनिक क्षेत्र में साठ साल में खड़े किये ढांचों को या तो ध्वस्त किया जा रहा है या फिर कोडियों के दाम बेचा जा रहा है शिक्षा आम आदमी की पहुँच से दूर खिसकती जा रही है शिक्षा के क्षेत्र में जहां एक और एजुकेशन हब बनाने के दावे किए जा रहे हैं और नए नए विश्वविद्यालयों का खोलना एक अचीवमेंट के रूप में पेश किया जा रहा है, वहीं दूसरी ओर सरकारी स्कूल की शिक्षा की गुणवत्ता कई तरह से प्रभावित हुई है शिक्षा की प्राइवेट दुकानों में भी शिक्षा की गुणवत्ता का तो प्रश्न ही नहीं बल्कि शिक्षा  को व्यापार बना दिया गया है, चाहे वह स्कूली शिक्षा हो ,चाहे वह उच्च शिक्षा हो, चाहे वह विश्वविद्यालयों की शिक्षा हो या ट्रेनिंग संस्थाओं की शिक्षा हो, हरेक क्षेत्र में व्यापारी करण और पैसे के दम पर डिग्रियों का कारोबार बढ़ा है। दलाल संस्कृति ने इस क्षेत्र में दलाल माफियाओं की बाढ़ सी ला दी है सेमेस्टर सिस्टम ने भी शिक्षा के स्तर को बढाया तो बिल्कुल भी नहीं है घटाया बेशक हो। इंस्टिट्यूट खोल दिए गए कई कई सौ करोड़ की इमारत खड़ी करके , मगर उनकी फैकल्टी उनकी कार्यप्रणाली की किसी को कोई चिंता नहीं है। विश्वविद्यालयों के उपकुलपतियों की नियुक्तियां में यूजीसी की गाइडलाइन्स की धज्जियां उड़ाई जाती रही हैं और उड़ाई जा रही हैं  सबके लिए एक समान स्कूल की अनदेखी की जाती रही है जबकि यह संभव है।



          स्वास्थ्य के क्षेत्र में और भी बुरा हाल हुआ  है गरीब मरीज के लिए सभी तरफ से दरवाजे बंद होते जा रहे हैं लोगों को इलाज के लिए अपनी जमीनें बेचनी पड़ रही हैं आरोग्य कोष या राष्ट्रिय बीमा योजनाएं ऊँट के मुंह  में जीरे के समान हैं उसमें भी कई सवाल उठ रहे हैं स्वास्थ्य के क्षेत्र में प्राइवेट सेक्टर की दखलअंदाजी बढ़ी है एंपैनलमेंट का कारोबार खूब चल रहा है सरकार की स्वास्थ्य सेवाएं जैसे तैसे स्टाफ की कमी, डॉक्टरों की कमी, कहीं कुछ और कमियों के चलते घिसट रही हैं। गरीब जन की सेहत के लिए सरकारी स्वास्थ्य सेवाओं के माध्यम से इलाज के रास्ते बंद होते जा रहे हैं जितनी भी स्वास्थ्य सेवा की योजनाएं गरीबों के लिए हैं उनमें एग्जीक्यूशन की भारी कमियां हैं और योजना में भी कई कमियां हैं। प्राइवेट नर्सिंग होम के लिए केंद्र में पारित एक्ट भी हरियाणा में लागू नहीं किया है, इसलिए कई प्राइवेट नर्सिंग होम की लूट दिनोंदिन अमानवीय रूप धारण करती जा रही है सरकारी हॉस्पिटल में सीटी स्कैन की महीनों लम्बी तारीखें दी जाती हैं मुख्यमंत्री मुफ्त इलाज योजना सैद्धांतिक तौर पर बहुत ठीक योजना होते हुए भी उसकी एग्जीक्यूशन बहुत धीरे चल रही है। इसके लिए मॉनिटरिंग कमेटियों का प्रावधान नहीं रखा गया है। खून की कमी nfhs 4 के मुकाबले nfhs 5 में   गर्भवती महिलाओं में बढ़ी है। इसी प्रकार कुपोषण बच्चों में बढ़ा है गरीब के लिए मुफ्त इलाज महंगा होता जा रहा है।

beer's shared items

Will fail Fighting and not surrendering

I will rather die standing up, than live life on my knees:

Blog Archive