Tuesday, December 3, 2024

*चुनाव परिणाम को लेकर प्रचार और हकीकत*

 हरियाणा

*चुनाव परिणाम को लेकर प्रचार और हकीकत*


हरियाणा विधानसभा के लिए हुए चुनाव परिणाम के अनुसार भाजपा 39.94% वोट लेकर 48 सीटें जीत गई है और कांग्रेस 39.09% यानी .85% कम वोट मिलने से 37 सीटें ही जीत पाई है। यदि जनादेश की नजर से देखें तो 60.06% लोगों ने भाजपा को पसंद नहीं किया है। इसके बावजूद जीत को बढ़ाचढ़ाकर पेश किया जा रहा है, क्योंकि चुनाव परिणाम अप्रत्याशित हैं। आमजन भावना, मीडिया सर्वे, एक्जिट पोल आदि में कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत मिलता दिखाया जा रहा था और परिणाम उसके विपरीत आया है। इसलिए सभी भाजपा को मिले पूर्ण बहुमत की अपने-अपने ढंग से व्याख्या कर रहे हैं। अनेक पत्रकारों, चुनाव विश्लेषकों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने इसे जाति ध्रुवीकरण, सामाजिक मुद्दों के हावी होने अथवा जाट बनाम अन्य कहकर सरलीकृत करने का प्रयास किया है। ऐसा कहना तथ्यों से मेल भी नहीं खाता और ऐसे मिथ्या प्रचार से समाज में आपसी रिश्तों पर बुरा प्रभाव पड़ने की आशंका भी है। कुछ लोग जानबूझकर दलित मतदाताओं को भाजपा के पाले में गए दिखाकर उन्हें कांग्रेस से छिटकाने की भाजपा की चाल का शिकार हो गए हैं।


कांग्रेस पार्टी की सांगठनिक कमजोरी, गुटबाजी, जाटबहुल मतदाताओं के अति उत्साह से कुछ दलित वोटों का चुपचाप भाजपा के पाले में चले जाना, कुमारी शैलजा की टिकट वितरण को लेकर उपेक्षा और उनकी प्रतिक्रिया आदि अनेकों प्रश्न अपनी जगह सही और असरदार हो सकते हैं। इसके बावजूद डाले गए मतों के रूझान और ठोस साक्ष्य दिखाते हैं कि जाति ध्रुवीकरण या 35 : 1 के बीच ध्रुवीकरण दिखाना तथ्यात्मक रूप से ही गलत है। जाट बहुल इलाकों में कांग्रेस के बागी या इनेलो के उम्मीदवारों ने कई सीटों पर अच्छे वोट लिए हैं जिनके चलते कांग्रेस के उम्मीदवार हार गए। उन्हें मिले हुए अधिकतर वोट जाट समुदाय के हैं। वहाँ यदि कांग्रेस जीती है या मुकाबले में बनी रही है तो यह तभी संभव हो पाया है जब उसके पक्ष में दलितों व पिछड़ों समेत अन्य जातियों के लोगों ने वोट डाले हैं। उदाहरण के लिए नरवाना में कांग्रेस से बागी होकर इनेलो टिकट पर आई विद्या दनोदा को 46303 वोट मिले और भाजपा के कृष्ण बेदी 11499 मतों से विजयी रहे। क्या यह जाति ध्रुवीकरण को दिखाता है? नहीं, विद्या को मिले अधिकतर वोट बिनैण खाप से जाटों के हैं। उचाना देख लें - कांग्रेस से बागी होकर या चौधरी वीरेन्द्र सिंह के विरोध के लिए खड़े तीन उम्मीदवारों को 50 हजार से ज्यादा वोट मिले हैं। ये जाटों के ही हैं। इसका मतलब साफ है कि कांग्रेस के बृजेन्द्र सिंह को मिले वोटों में गैर जाट का भी बड़ा हिस्सा रहा है। वे केवल 32 मतों से हारे हैं। लोकसभा चुनाव के विपरीत जीन्द सीट पर विशेषकर कंडेला खाप के कुछ गांवों में कांग्रेस के महावीर गुप्ता को मिला कम समर्थन तथा बागी प्रदीप गिल को मिले छह हजार से ज्यादा वोट जाट मतदाताओं का विभाजन ही दिखाते हैं। सफीदों सीट पर निर्दलीय  जसबीर देसवाल को 20114 वोट मिले और सुभाष गांगोली 4037 मतों से हार गए।


सोनीपत जिले को देख लें। भले ही बरोदा सीट कांग्रेस जीत पाई लेकिन दूसरे स्थान पर रहे कपूर सिंह नरवाल के 48820 वोट जाट मतों के बंटवारे तथा इन्दुराज को छत्तीस बिरादरी के समर्थन का साक्ष्य हैं। गोहाना में कांग्रेस 10429 वोटों से हार गई। यहाँ कांग्रेस के बागी हर्ष छिक्कारा 14761 वोट ले गए। इनके अलावा रणवीर दहिया को 8824 मत पड़े। खरखौदा, राई, सोनीपत, गन्नौर सभी सीटों पर जाट मतों विभाजन इस बात का साक्षी है कि कांग्रेस उम्मीदवार गैर जाट समुदाय में अच्छी वोट ले पाए।  बाढड़ा, भिवानी, बरवाला, हाँसी,  इसराना, कलायत आदि सीटें भी यही रूझान दिखाती हैं कि जाट मतों का बंटवारा एकाधिक उम्मीदवारों के बीच हुआ और दलित वर्ग व अन्य तबकों के वोटों के सहारे कांग्रेस के उम्मीदवार जीते या अच्छी वोट ले पाए। एक और ठोस उदाहरण लाडवा सीट का है। नायब सिंह सैनी ने यह सीट 16054 मतों से जीती। यहाँ विक्रमजीत सिंह चीमा ने 11191 और सपना बड़शामी ने 7439 वोट लिए। इन दोनों के 18530 वोटों में से अधिकतर जाटों व जट्टसिक्खों के हैं। यदि कांग्रेस के मेवासिंह को अन्य जातियों का समर्थन नहीं मिला होता तो 54123 वोट कहाँ से मिलते? इस हल्के में जाट मतदाताओं की कुल संख्या ही लगभग 40 हजार है। यदि कम अन्तर से हारी या जीती हुई सीटों का विश्लेषण ठीक ढंग से किया जाए और एस सी के अलग बूथों पर पड़े वोटों को देखा जाए तो साफ दिखाई देता है कि जातिवादी ध्रुवीकरण उतना नहीं था जितना बताया जा रहा है। कुछ जगह सुप्रीम कोर्ट द्वारा एस सी में श्रेणीकरण सम्बन्धी फैसले का भाजपा को लाभ मिला है। निस्संदेह, सीटों के बंटवारे को लेकर उठी आपत्ति के बाद शैलजा के सम्बन्ध में नारनौंद क्षेत्र में की गई टिप्पणी और उसके बाद उनकी प्रतिक्रिया से कुछ मतदाताओं पर असर जरूर पड़ा होगा।


चुनाव परिणामों का अप्रत्याशित होने के पीछे कांग्रेस द्वारा सीटों के बंटवारे में गुणदोष या जिताऊ उम्मीदवार को चुनने की बजाए नेताओं के साथ सम्बन्ध के आधार पर टिकट देना भी कारण रहा है। उदाहरण के लिए बहादुरगढ़ सीट पर बागी राजेश जून 73191 वोट लेकर विजयी हुए और कांग्रेस यहाँ केवल 28955 वोटों के साथ तीसरे नंबर पर खिसक गई। अम्बाला कैंट में दूसरे नंबर पर रही बागी चित्रा सरवारा को 59858 वोट मिले और कांग्रेस के परविंदर परी को 14469. इसी तरह पुंडरी में सतबीर भाणा बागी होकर दूसरे नंबर पर रहे और कांग्रेस तीसरे स्थान पर खिसक गई। तिगांव में दूसरे नंबर पर रहे ललित नागर को टिकट दिया जाता तो जीतने की संभावना ज्यादा रहती। ऐसा ही बल्लभगढ़ सीट पर हुआ। शारदा राठौर दूसरे नंबर आई तो कांग्रेस की पराग शर्मा मात्र 8674 वोट ले पाई। कालका सीट मात्र 10883 मतों से हार गए जबकि निर्दलीय गोपाल सुक्खोमाजरी 31688 वोट ले गए। बवानीखेड़ा में भी बाहर से उम्मीदवार लाने के कारण कांग्रेस पिछड़ गई। उपयुक्त उम्मीदवार का चयन करने के लिए कोई एक नेता जिम्मेदार नहीं है। ऊपर गिनाए गए टिकटों में हुड्डा समर्थक भी हैं, शैलजा की पसंद के भी हैं और रणदीप के भी। दो-तीन टिकटें केन्द्रीय नेतृत्व के सीधे सम्बन्धों के कारण दी गई बताते हैं।


 कुछ तथ्य और समीक्षा के बिन्दु बाद तक भी आते रहेंगे लेकिन इतना साफ है कि कांग्रेस के पक्ष में बड़ी लहर नहीं थी और कुछ तबकों में सरकार के खिलाफ गुस्सा भी नहीं था। जिस सीमा तक गुस्सा था उसे कम करने में अथवा विभाजित करने में भाजपा की रणनीति सफल रही। उसका प्रचार तंत्र, कुछ हद तक जाति ध्रुवीकरण में सफलता, वोट काटू निर्दलीयों व छोटे दलों से पर्दे के पीछे सांठगांठ, बिना शोरगुल के वोट डालने वालों को सांगठनिक तंत्र के जरिए बूथ तक पहुंचाने में सफलता, धनबल से परोक्ष या प्रत्यक्ष ढंग से वोट  खरीदना और गरीबों के एक हिस्से में कथित दबंगों से बचने के लिए भाजपा के ढाल होने का नैरेटिव आदि अनेकों कारण हैं जिन्हें उसके प्रतिद्वंद्वी न तो भांप सके और इसीलिए न उनकी काट पेश कर सके।


चुनाव में ईवीएम को लेकर कुछ आपत्तियां सामने आई हैं। जैसे नरवाना, महेन्द्रगढ़, पानीपत के अनेक बूथों पर बैटरी चार्ज 99% दिखाया गया जो सामान्यतः तीन दिन बाद रहना संभव नहीं है। आरोप यह है कि इन मशीनों से बहुतायत वोट भाजपा के निकले। यह शिकायत भी मिली है कि मतगणना टीमों को सभी मशीनों की बैटरी अलग करने और वीवीपैट मशीन हटाने के आदेश दिए गए। ऐसा पहले कभी नहीं किया जाता था। इसके अलावा मशीनों में रिकॉर्ड किए गए मतों की संख्या में अंतर की रिपोर्ट भी सामने आई है। कांग्रेस पार्टी के डेलीगेशन ने इसकी शिकायत दर्ज करवाई है लेकिन चुनाव आयोग ने पहले ही सार्वजनिक बयान देकर उनके आरोपों को खारिज कर दिया है। अब उनसे निष्पक्ष ढंग जाँच करने की उम्मीद क्या रह जाती है?


यद्यपि भाजपा ने बिना पर्ची-खर्ची नौकरी के नैरेटिव का धुआंधार प्रचार किया, लेकिन यह हकीकत नहीं था। पेपर लीक के अलावा संगठित ढंग से पेपर्स में पास करवाना और इंटरव्यू के समय भर्ती से सम्बन्धित लोगों द्वारा लाखों रुपए बटोरने के मामले हैं। यदि बहुमत नहीं आता तो इनमें से कुछ लोग बोलते भी। इसके बावजूद कौशल रोजगार के मामूली वेतन पाने वाले भी स्वयं को शासक पार्टी के आभारी की तरह देख रहे थे। लक्षित समूहों को डिजिटल मोड से लाभ पहुंचाने का भी गरीब तबकों में प्रभाव है। भले ही इसकी वजह से धक्के खाने वालों व बार-बार कम्प्यूटर की दुकान पर पैसा खर्च करने वालों की भी उल्लेखनीय संख्या है। उदाहरण के लिए हैप्पीनेस कार्ड के जरिए सफर करने वालों की संख्या बहुत थोड़ी है लेकिन इसका प्रभाव समस्त गरीब लोगों पर देखा जा सकता है।


जनता की नजर से परिणाम को समझने की कोशिश करें तो भाजपा इस नतीजे पर पहुंच सकती है कि लोगों के मुद्दों पर ध्यान देना इतना जरूरी नहीं है जितना सोशल इंजीनियरिंग और लोगों को बांटे रखना। इसका परिणाम यह भी होगा कि आने वाले दौर में शिक्षा, स्वास्थ्य, नौकरी, कृषि, मनरेगा, पीडीएस आदि के लिए संघर्ष करने का ही विकल्प बचेगा। कांग्रेस पार्टी अपने भीतर मंथन करेगी या नहीं, यह तो निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता, लेकिन इतना तय है उसके लिए जनता से जुड़ने के साथ-साथ अपने संगठन को संभालना भी प्राथमिकता पर नहीं आया तो वह आगे और अधिक चुनौतियों से जूझ रही होगी। भाजपा से नजदीकी बनाने की वजह से कुलदीप बिश्नोई, चौधरी वीरेन्द्र सिंह, रणजीत सिंह, जजपा आदि को निराशा झेलनी पड़ी है। किरण चौधरी, धर्मवीर सिंह, राव इन्द्रजीत सिंह अभी बचे हुए हैं। इनेलो दो सीटें व 4.14% वोट लेकर जजपा की तुलना में खड़े रहने लायक है। शिक्षक, कर्मचारी, मजदूर, किसान, युवा, महिला आदि विभिन्न तबकों के लिए चुनौतियां पहले से भी बड़े आकार में मौजूद होंगी। पुरानी पेंशन, वेतन आयोग, सेवाएं पक्की करवाना और खाली पदों पर अकादमिक मेरिट से पक्की भर्ती करवाना बड़ा काम होगा। यद्यपि हमें अनेक दलों व नेताओं की सरकारों के समय काम करने का अनुभव है। बिना एकता और संघर्ष के हमारी न्यायोचित मांगें कभी पूरी नहीं हो पाई। यह भी याद रहे कि सब तरह तिकड़मों के बावजूद 60 प्रतिशत से अधिक लोग भाजपा से नाराज हैं। इन्हें जाति या साम्प्रदायिक विभाजन की नजर से देखना नादानी होगी। ये किसान हैं जो सन् 2020-21 में संघ, भाजपा और मोदी के गरूर को तोड़ चुके हैं और आज भी संघर्ष की राह पर हैं। ये खेतमजदूर और मजदूर हैं, स्कीम वर्कर्स हैं जो बहुसंख्य कामकाजी जनता का अभिन्न हिस्सा हैं। शिक्षित युवा व छात्र शिक्षा व रोजगार को हड़पने के चलते सरकार से खफा हैं। आपकी अग्निवीर व कौशल रोजगार तथा उम्र भर कम वेतन में शोषण का छलावा लम्बे काम नहीं करने वाला है। यहाँ कर्मचारी वर्ग अपने मुद्दों को लेकर केंद्र व राज्य की भाजपा सरकारों के प्रति आक्रोश में है। ऐसा लगता है कि भाजपा सरकार हनीमून काल क्षणभंगुर सपने की तरह साबित होने वाला है। आने वाली चुनौतियों के मध्यनजर लोग अपने संगठनों व संघर्षों की ओर अधिक ध्यान देते हुए संघर्ष के मैदान में उतरेंगे। वे भाजपा के छलावे और चुनावी जुमलों पर लम्बे समय तक भरोसा नहीं कर सकते।



            


No comments:

beer's shared items

Will fail Fighting and not surrendering

I will rather die standing up, than live life on my knees:

Blog Archive