Saturday, December 13, 2014

लड़कियों को विलेन बनाने पर तुले दबंग


लड़कियों के साथ बस  स्टैंड पर क्या हुआ यह बीच में नहीं आ रहा है
बस की भी आधी सच सामने आ रही है। उनका    बस  से बाहर फेंका जाना सामने नहीं आया ।
हुड्डा पार्क में बनी विडिओ किसने बनाई यह सच सामने नहीं आया । लड़कियां कहती हैं की उन्होंने नहीं बनाई ।
इंडियन एक्सप्रेस में सिसाना के सुमित की तरफ से पैसे की कोई बात  गयी बताते हैं । पैसे की बात बाद में घड़ी गयी ।
लड़कियों से था णे में आसान के लड़कों  ने माफी क्यों मांगी थी ?
गोयनका स्कूल  के  चपड़ासी  वर्सन सामने  क्यों नहीं  आने दिया और किसने नहीं  आने  दिया ?
लड़कियों को ब्लैकमेलर और उनके बारे हल्की बात करने वालों के खिलाफ कार्यवाही  क्यूँ नहीं की  जा रही ?

सोशल मीडिया पर बहुत भद्दी कॉमेंट्स उनके बारे में किये जाने वालों पर साइबर क्राइम के तहत केस दर्ज क्यों नहीं किया जा रहा ?
लड़कों और affidavit  देने वालों का  नार्को टेस्ट क्यों नहीं करवाया जा रहा ।
लड़कियों को सुरक्षा  प्रदान करके पुलिस ने ठीक काम किया है ।

Friday, December 5, 2014

बस का मामला



दूसरी वीडियो का भी (बस स्टैंड के सामने वाले पार्क )अब  तोड़ खुलासा हो रहा है ।  उसमें एक सिसाने का लड़का है जो कहता है की 20 हजार देकर समझौता किया । जबकि लड़कियां पैसे की बात को ख़ारिज कर रही हैं ।  इसमें कई बिंदु हैं जिनपर क्लैरिटी होना बहुत जरूरी है और वह एक हद तक कल के तहलका विशेष में आई भी हैं  पक्ष हैं जिनको निष्पक्ष जाँच  निष्पक्षता के साथ ही सामने ल सकती है । लड़कियों के साहस को दुस्शाहस के रूप में देखा जाने लगा है यह कितना दुर्भाग्य पूर्ण है ?

पहले लड़कों के समर्थन में जातीय संगठन सक्रीय होते नजर आये और आज  कुछ जातीय संगठनों ने लड़कियों के समर्थन में अपनी बात रखी है ।  इस सारे मामले को  शुरू से ही जातीय रंगत  से देखने के प्रयास नजर आ रहे हैं और यह  मामला इस रंगत में और रंगे जाने का भय बढ़ रहा है । 

Haryana Vishesh : Bahaduri Se Vivad Tak

उल्लू और हंस

एक बार एक हंस और हंसिनी हरिद्वार के सुरम्य वातावरण से भटकते हुए उजड़े, वीरान और रेगिस्तान के इलाके में आ गये! हंसिनी ने हंस को कहा कि ये किस उजड़े इलाके में आ गये हैं ?? यहाँ न तो जल है, न जंगल और न ही ठंडी हवाएं हैं! यहाँ तो हमारा जीना मुश्किल हो जायेगा! भटकते भटकते शाम हो गयी तो हंस ने हंसिनी से कहा कि किसी तरह आज कि रात बिता लो, सुबह हम लोग हरिद्वार लौट चलेंगे! रात हुई तो जिस पेड़ के नीचे हंस और हंसिनी रुके थे उस पर एक उल्लू बैठा था। वह जोर से चिल्लाने लगा। हंसिनी ने हंस से कहा, अरे यहाँ तो रात में सो भी नहीं सकते। ये उल्लू चिल्ला रहा है। हंस ने फिर हंसिनी को समझाया कि किसी तरह रात काट लो, मुझे अब समझ में आ गया है कि ये इलाका वीरान क्यूँ है ?? ऐसे उल्लू जिस इलाके में रहेंगे वो तो वीरान और उजड़ा रहेगा ही। पेड़ पर बैठा उल्लू दोनों कि बात सुन रहा था। सुबह हुई, उल्लू नीचे आया और उसने कहा कि हंस भाई मेरी वजह से आपको रात में तकलीफ हुई, मुझे माफ़ कर दो। हंस ने कहा, कोई बात नही भैया, आपका धन्यवाद! यह कहकर जैसे ही हंस अपनी हंसिनी को लेकर आगे बढ़ा, पीछे से उल्लू चिल्लाया, अरे हंस मेरी पत्नी को लेकर कहाँ जा रहे हो। हंस चौंका, उसने कहा, आपकी पत्नी ?? अरे भाई, यह हंसिनी है, मेरी पत्नी है, मेरे साथ आई थी, मेरे साथ जा रही है! उल्लू ने कहा, खामोश रहो, ये मेरी पत्नी है। दोनों के बीच विवाद बढ़ गया। पूरे इलाके के लोग इक्कठा हो गये। कई गावों की जनता बैठी। पंचायत बुलाई गयी। पंच लोग भी आ गये! बोले, भाई किस बात का विवाद है ?? लोगों ने बताया कि उल्लू कह रहा है कि हंसिनी उसकी पत्नी है और हंस कह रहा है कि हंसिनी उसकी पत्नी है! लम्बी बैठक और पंचायत के बाद पंच लोग किनारे हो गये और कहा कि भाई बात तो यह सही है कि हंसिनी हंस की ही पत्नी है, लेकिन ये हंस और हंसिनी तो अभी थोड़ी देर में इस गाँव से चले जायेंगे। हमारे बीच में तो उल्लू को ही रहना है। इसलिए फैसला उल्लू के ही हक़ में ही सुनाना है! फिर पंचों ने अपना फैसला सुनाया और कहा कि सारे तथ्यों और सबूतों कि जांच करने के बाद यह पंचायत इस नतीजे पर पहुंची है कि हंसिनी उल्लू की पत्नी है और हंस को तत्काल गाँव छोड़ने का हुक्म दिया जाता है! यह सुनते ही हंस हैरान हो गया और रोने, चीखने और चिल्लाने लगा कि पंचायत ने गलत फैसला सुनाया। उल्लू ने मेरी पत्नी ले ली! रोते- चीखते जब वह आगे बढ़ने लगा तो उल्लू ने आवाज लगाई - ऐ मित्र हंस, रुको! हंस ने रोते हुए कहा कि भैया, अब क्या करोगे ?? पत्नी तो तुमने ले ही ली, अब जान भी लोगे ? उल्लू ने कहा, नहीं मित्र, ये हंसिनी आपकी पत्नी थी, है और रहेगी! लेकिन कल रात जब मैं चिल्ला रहा था तो आपने अपनी पत्नी से कहा था कि यह इलाका उजड़ा और वीरान इसलिए है क्योंकि यहाँ उल्लू रहता है! मित्र, ये इलाका उजड़ा और वीरान इसलिए नहीं है कि यहाँ उल्लू रहता है। यह इलाका उजड़ा और वीरान इसलिए है क्योंकि यहाँ पर ऐसे पंच रहते हैं जो उल्लुओं के हक़ में फैसला सुनाते हैं! शायद ६५ साल कि आजादी के बाद भी हमारे देश की दुर्दशा का मूल कारण यही है कि हमने हमेशा अपना फैसला उल्लुओं के ही पक्ष में सुनाया है। इस देश क़ी बदहाली और दुर्दशा के लिए कहीं न कहीं हम भी जिम्मेदार हैँ!

Wednesday, December 3, 2014

रेप काण्ड जो दबा दिया जाता है
हम खेताँ मैं न्यार लेवण तीन जणी चली
  

बिल्ली कै घंटी कौण बांधै

भेड़ों की  ढालां  बेघर लोगों का शहरां के ख़राब तैं  ख़राब घरां  में बढ़ता जमावड़ा आज के हरयाणा  की एक  कड़वी सच्चाई  सै ।
सारे  सामाजिक नैतिक बन्धनों का तनाव ग्रस्त होना तथा टूटते जाना  गहरे संकट की घंटी बजावण  सैं ।  बेर ना 
हमनै  सुनै   बी सै अक नहीं ? माहरे परिवार के  पितृ स्तात्मक  ढांचे में अधीनता (परतंत्रता ) का तीखा होना साफ  साफ  
देख्या जा  सकै  सै  । जिंघान  देखै  उँघानै पारिवारिक रिश्ते नाते ढहते जाना ।   युवाओं के  साहमी  पढ़ाई  लिखाई अर  रोजगार 
 की गंभीर चुनौतीयाँ  सैं ।   परिवारों में बुजुर्गों की असुरक्षा का बढ़ते जाना  जगहां  जगहाँ  देखन  मैं आवै सै ।  दारू नै रही सही 
कसर पूरी करदी , घर तो गामां  मैं  कोई बच नहीं रह्या  दारू तैं , मानस एकाध घर मैं बचरया  हो तो  न्यारी बात सै । ताश खेलण
तैं  फुरसत  नहीं ।  काम कै  हाथ लाकै  कोए  राज्जी  नहीं । बैलगाड्डी  की जागां  बुग्गी  नै   ले  ली  अर  बुग्गी  चलना  भी महिला 
के सिर  पै  आण  पड़या ।  ऐह्दी पणे  की हद होगी । महिलावाँ  पै और  बालकां  पै काम का बोझ बढ़ता जाण  लागरया  सै  | 
असंगठित क्षेत्र  बधग्या  अर  जन सुविधावां  मैं  घनी  कमी  आंती  जावै  सै |  एक नव धनाढ्य  वर्ग  पैदा होग्या  हरित क्रांति 
पाच्छै  उसकी  चांदी  होरी  सै  ।  उसका  निशाना  सै  पीस्से   कमाना  कुछ  भी  करकै   \ कठिन जीवन होता जा   सै । मजदूर वर्ग 
को पूर्ण रूपेण ठेकेदारी प्रथा में धकेल्या जाना आम बात की  ढा लां  देख्या  जा  सै  ।गरीब लोगों के जीने के आधार  कसूते  ढा ल  
सिकुड़ता  जान  लाग रया  सै \गाँव  तैं शहर को पलायन   का बढ़ना तथा लम्पन तत्वों की बढ़ोतरी होणा   चारों  कान्ही  दीखै  सै 
 | शहरां के विकास में अराजकता  छागी | ठेकेदारों  और प्रापर्टी डीलरों का बोलबाला  होग्या  चा रों तरफ ।
 जमीन की उत्पादकता में खडोत , पानी कि समस्या , सेम कि समस्या  तैं  किसानी का   संकट  गहरा ग्या ।  कीट नाशकां  के  
अंधाधुंध  इस्तेमाल  नै  पानी कसूता प्रदूषित कर दिया अर  कैंसर  जीसी  बीमारियां  के बधण  का   खतरा  पैदा  कर दिया । 
कृषि  तैं  फालतू  उद्योग कि तरफ  अर व्यापार की तरफ जयादा ध्यान  दिया  जावै  सै  इब  । 
स्थाई हालत से अस्थायी हालातों 
पर जिन्दा रहने का दौर आग्या  दीखै  सै ।   अंध विश्वासों को बढ़ावा दिया  जावण  लाग रया  सै  | हर दो किलोमीटर पर मंदिर 
का उपजाया जाना अर टी वी पर भरमार  सै  इसे  मैटर की ।
अन्याय  अर  असुरक्षा का बढ़ते जाण  की  साथ  साथ  कुछ लोगों के प्रिविलिज बढ़ रहे  सैं ।  मारूति से सैंट्रो कार की तरफ रूझान | आसान काला धन काफी इकठ्ठा किया गया सै । उत्पीडन अपनी सीमायें लांघता जा रया  सै  |गोहाना काण्ड  , मिर्चपुर कांड अर  रूचिका कांड ज्वलंत उदाहरण  सैं |
* व्यापार धोखा धडी में बदल  लिया  दीखै  सै । शोषण उत्पीडन और भ्रष्टाचार की तिग्गी भयंकर रूप धार रही  सै । भ्रष्ट नेता , 
भ्रष्ट अफसर और भ्रष्ट पुलिस   का  गठजोड़ पुख्ता हो  लिया  सै । प्रतिस्पर्धा ने दुश्मनी का रूप धार लिया ।  तलवार कि जगह 
सोने ने ले ली । वेश्यावृति दिनोंदिन बढ़ती जा सै  ।  भ्रम  अर  अराजकता का माहौल बढ़रया  सै  | धिगामस्ती बढ़ री  सै ।  
               संस्थानों की स्वायतता पर हमले बढे  पाछले  कुछ सालों  मैं । लोग मुनाफा कमा कर रातों रात करोड़ पति से अरब पति
 बनने के सपने देख रहे सैं  अर  किसी भी हद तक अपने  आप  नै गिराने को तैयार  सैं  । खेती में मशीनीकरण तथा औद्योगिकीकरण मुठ्ठी भर लोगों को मालामाल कर गया तथा लोक  जण को गुलामी व दरिद्रता में धकेलता जारया  सै । बहुराष्ट्रीय कम्पनियों का शिकंजा कसता जावण  लाग रया  सै 
वैश्वीकरण को जरूरी बताया जारया  सै जो असमानता पूर्ण विश्व व्यवस्था को मजबूत करता जाण  लाग  रहया  सै । पब्लिक सेक्टर
 की मुनाफा कमाने वाली कम्पनीयों को भी बेच्या जा रया   सै ।  हमारी आत्म निर्भरता खत्म करने की भरसक नापाक साजिश 
की जा रही सै । साम्प्रदायिक ताकतें देश के अमन चैन के माहौल को धाराशाई करती जा रही  सैं  जिनतें  हरयाणा  भी  अछूता  
 कोणी   सकता ।  सभी संस्थाओं का जनतांत्रिक माहौल खत्म किया जा रया  है । बाहुबल, पैसे , जान पहचान , मुन्नाभाई , ऊपर
 कि पहुँच वालों के लिए ही नौकरी के थोड़े बहुत अवसर बचे  सैं ।  महिलाओं  में अपनी मांगों के हक़ में खडा  होने  का उभार 
दिखाई देवै  सै | सबसे ज्यादा वलनेरेबल भी समाज का यही हिस्सा दिखाई देसै  मग़र सबसे ज्यादा जनतांत्रिक मुद्दों पर , नागरिक 
समाज के मुद्दों पर , सभ्य समाज के मुद्दों पर संघर्ष करने कि सम्भावना भी यहीं ज्यादा दिखाई देसै ।  वर्तमान विकास प्रक्रिया
भारी सामाजिक व इंसानी कीमत मानगणे  आली   सै  | इसको संघर्ष के जरिये पल ट्या जाना बहुत जरूरी  सै । फेर  बिल्ली  कै 
घंटी  कौण  बांधै ?

Thursday, September 4, 2014

GOSHTHEE HVMANCH OFFICE AT 3 PM ON 5.9.2014


चुनने का   अधिकार और "लव जेहाद "  का  मिथ
भारत में हर साल सैंकड़ों युवा पुरुष और  महिलायें प्यार के रिश्ते में बंधते हैं । वे अपने माता पिता , जाति और धार्मिक विचारों और परम्पराओं को चुनौती देते हैं।  उनमें से कई भागकर शादी कर लेते हैं ;  कुछ अन्य परिवार के दबाव में आकर हार मान लेते हैं और परम्परागत रूप से  स्वीकार्य भूमिकाओं के   लिए अपने कदम वापिस खींच लेते हैं |


GOSTHI ON THIS TOPIC IN HARYANA VIGYAN MANCH OFFICE NEAR KRISHAN PURA CHAUPAL, NEAR RAILWAY PHATAK ON 5.9.2014 AT 3 PM TO 5 PM SHARP 

YOUR PARTICIPATION WILL BE FRUITFULL . Pl do come

CONTACT NO--SATBIR NAGAL--9215610535



Wednesday, September 3, 2014

चुनने का अधिकार और "लव जेहाद " की राजनीति


चुनने का अधिकार और "लव जेहाद " की राजनीति 

We are presenting a list of couples where the women is a muslim to emphasise the point that in a plural and diverse society there would be inter religeous marriages and both 
ways and every individual has the Right to CHOOSE:
सुनील दत्त --- नर्गिस
अतुल अग्निहोत्री --- अलविरा खान
रोहित राजपाल --लैला खान
किशन चन्द्र --सलमा सिद्दीकी
जारी है ---
नाना  चुड़ास्मा  --मुनिरा जसदानवाला
अजय अरोरा --सिमोन खान
आदित्य पंचोली --ज़रीना   वहाब
अजीत आगरकर --फातिमा घनिदिल्ली







Sunday, August 17, 2014

साहित्य में समाज की खोज

Posted: 16 Aug 2014 06:27 AM PDT
साहित्य में समाज के खोज के अर्थ को जानने से पहले हमें इस बात पर विचार कर लेना आवश्यक जान पड़ता है कि साहित्य और समाज में किस तरह के सम्बन्ध हैं ? क्योंकि साहित्य की अनेक परिभाषाएँ दी गईं हैं । बालकृष्ण भट्ट ने साहित्य को 'जन समूह के हृदय का विकास' माना है तो महावीर प्रसाद द्वेदी ने साहित्य को 'ज्ञानराशि का संचित कोश' माना है । मुक्तिबोध ने 'कलाकृति को जीवन की पुनर्रचना' माना है और रामचन्द्र शुक्ल ने साहित्य को 'जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब' माना है । साहित्य समाज में होने वाली घटनाओं को केवल हूबहू प्रस्तुत नहीं कर देता बल्कि समस्याओं से निकलने की राह भी दिखाता है । शायद इसीलिए प्रेमचंद ने 'साहित्य को समाज के आगे.आगे चलने वाली मशाल' कहा है । इसके साथ ही वह साहित्य का उद्देश्य सिर्फ मनोरंजन करना नही मानते हैंए बल्कि साहित्य को व्यक्ति के 'विवेक को जाग्रत करने वाला' तथा 'आत्मा को तेजोदीप्त' बनाने वाला मानते हैं । कहने का अर्थ यह है कि सभी विद्वान साहित्य से समाज के घनिष्ट सम्बन्ध तो स्वीकार करते हैं ।
अब प्रश्न उठता है कि साहित्य में अभिव्यक्त समाज को कैसे देखा जाए ! इस पर कई सवाल उठते हैं । क्या साहित्य में अभिव्यक्त समाज को हम प्रामाणिक मान सकते हैं ? जबकि साहित्य में साहित्यकार की कल्पनाएँए आशाएँ एवं आकांक्षाएँ भी व्यक्त होती हैं । इन प्रश्नों पर विचार करते हुए हमें पाश्चात्य जगत् के विद्वानों की मान्यताओं पर भी ध्यान देना चाहिए । 'साहित्य से समाज का घनिष्ट संबंध सबसे पहले नारी मादाम स्तेल स्वीकार करते हुए साहित्य, समाज और राजनीति में भी घनिष्ट संबंध स्थापित किया ।'1 'आगे चलकर मादाम स्तेल की मान्यता का विकास तेन ने किया । तेन साहित्य को समाज के बारे में जानने के लिए प्रमुख स्रोत स्वीकार करते थे रिचर्ड हो गार्ड ने भी 'साहित्य कल्पना' से 'समाजशास्त्रीय कल्पना' का संबंध स्वीकार करते हैं ।'2 चूंकि साहित्यकार भी सभ्यताए संस्कृति और समाज की ही निर्मित है । उनकी कलपनाएँ और आकांक्षाएँ भी इसी समाज से अर्जित होती हैं, अत: साहित्य में समाहित कलपनाओं का भी समाजशास्त्रीय अधययन संभव है ।
हम देखते हैं कि साहित्यिक रचना एक सामाजिक कर्म है और कृति एक 'सामाजिक उत्पादन' । रचना दृ भाषाए भाव और विचारों का विन्यास है । रचना का मर्म उसकी संवेदना और उसकी मानवीय चिंताएं सामाजिक मनोभूमि पर ही प्रतिष्ठित होती हैं । एक सर्जक किसी रचना को जो रूप.आकार और कल्पना देता है वह समाजनिष्ठ होती है । समाज जो कि एक अमूर्त अवधारणा है, उसका सघन और अधिक वर्चस्वकारी रूप हम समूह और समुदाय में देखते हैं । साहित्य रचना और बोध की प्रक्रिया कभी भी अपने सामाजिक संदर्भ से अप्रभावित नहीं रही है । चूंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और मनुष्य की मनुष्यता की अभिव्यक्ति कला और साहित्य के माघ्यम से होती है । साहित्य यदि संवेदनवान होता है तो इसीलिए की उसमें मानव जीवन की उपस्थित भी है । मानव वस्तु नही है इसीलिए उसकी संवेदना वस्तु की तरह ठोस नही होती । साहित्य सृजन हमारा भौतिक सौन्दर्य नही है बल्कि वह हमारी आत्मा का सौन्दर्य हैए वह हमारी भावना और मानस का सौन्दर्य है । मनुष्य के प्रत्येक विचार उसके भाव, उसके कार्य, समुदाय अथवा समाज के भावों,विचारों तथा कार्यों से अविच्छिन्न रूप से सम्बद्ध रहते हैं । क्योंकि समाज से बाहर व्यक्ति का सामाजिक अस्तित्व ही नही रहता । इसीलिए तो जिसे असामाजिक या व्यक्तिवादी साहित्य कहा जाता है उसका भी समाज से एक तरह का रिश्ता होता है और साहित्य में समाज को खोजने का अर्थ निश्चित करते समय इसका भी ध्यान रखना चाहिए ।
हम देखते हैं कि केवल रचना में ही समाज नही होता बल्कि रचना के हर स्तर पर यहाँ तक कि शिल्प, भाषा,संरचना सबमें समाज की अभिव्यक्ति होती है । अब सवाल उठता है कि क्या साहित्य में समाज सीधे.सीधे उतरता है ? अगर हमें कुछ साल पहले का इतिहास जानना हो तो क्या हम साहित्य की मदद ले सकते हैं ?यदि हम स्तंत्रता संग्राम के समय का साहित्य उठाते हैं तो पाते हैं कि उस समय का साहित्य लोगों को जागरुक कर रहा था । इस संदर्भ में अमृतलाल नागर की 'गदर के फूल' और मैथलीशरण गुप्त की 'भारत.भरती' जैसी रचनाएँ देखी जा सकती हैं । स्वतंत्रता संग्राम के समय की रचनाओं में विद्रोह के स्वर मुखर हो रहे थे, इसलिए उस समय की कविताओं, कहानियों,उपन्यासों और नाटकों को प्रतिबंधित किया जा रहा था । अत: स्पष्ट है कि साहित्य समाज और राजनीति से निर्पेक्ष नहीं होता है और अगर देखा जाए तो साहित्य का इतिहास भी समाज के इतिहास से कटा नहीं रह सकता क्योंकि साहित्य का इतिहास भी समाज से जुड़ा हुआ होता है । किसी विद्वान ने सही ही कहा है कि साहित्य में सिर्फ तिथियाँ नही हैं, बाकी वह पूर्ण सामाजिक इतिहास होता है । इसलिए यदि हम सामाजिक इतिहास को ठीक से समझना चाहते हैं तो हमें साहित्य के शरण में जाना पड़ेगा । आज तक जो भी इतिहास लिखे गये हैं उसमें अधिकांश शासक वर्ग के दृष्टिकोण से लिखे गये हैं जिसमें प्राय: कुलीन वर्ग का ही प्रतिनिधित्व रहता है । आम जन प्राय: उसमें से गायब ही रहता है । यह सब तभी जान पाते हैं जब हम उस इतिहास में अभिव्यक्त समाज की खोज करते हैं । शायद इसीलिए आज 'सबल्टर्न हिस्ट्री' की मांग हो रही है । और इस प्रकार के इतिहास लेखन में उस समय का साहित्य काफी मदद्गार साबित हो सकता है । जैसे मध्ययुगीन स्त्रियों, दलितों एवं वनवासियों की स्थिति के बारे में 'रामचरितमानस' से जाना जा सकता है ।
यदि हमें स्वतंत्रता के बाद आंचलिक क्षेत्र में किस तरह राजनीतिक स्थिति थी उसे समझना होता है तो हम रेणु के 'मैला आंचल' को लेते हैं । यदि हम दलित जीवन की यंत्रणा को समझना चाहते हैं तो ओमप्रकाश वाल्मीकि सहित अनेक दलित साहित्यकारों की रचनाओं को पढ़ते हैं,और वर्तमान समय में देखा जाय तो स्त्री जीवन की विडम्बनाओं, इच्छाओं और आकांक्षाओं की पूरी अभिव्यक्ति मैत्रेयी पुष्पा, प्रभाखेतान, अनामिका आदि की रचनाओं में प्रखर रूप से सामने आयी हैं और यदि हम उत्तर भारत के किसानों के जीवन को समझना चाहते हैं तो 'गोदान' को उठाते हैं । यहाँ मेरे कहने का अर्थ यही है कि इन सारी रचनाओं नें अभिव्यकत समाज की खोज करते हैं तभी हम यह जान पाते कि' 'गोदान' किसान जीवन की महागाथा है' । हजारी प्रसाद द्वेदी ने तो प्रेमचंद के विषय में यहाँ तक कह देते हैं कि 'अगर आप उत्तर भारत के समस्त जनता के आचार दृविचार जानना चाहते हैं तो प्रेमचंद से उत्तम परिचायक आपको नहीं मिल सकता' । इस प्रकार के विचार साहित्य में समाज के खोज के अर्थ को अच्छी तरह से साबित करते हैं । बीसवीं सदी के दूसरे.तीसरे दशक का सामाजिक इतिहास 'गोदान' से अच्छा कहाँ मिलेगा ।
साहित्य में समाज के खोज की प्रक्रिया में उपलब्ध समाजशास्त्रीय पद्धतियों से बहुत मदद मिल सकती है । उदाहरण के लिए रणेन्द्र के उपन्यास 'ग्लोबल गाँव के देवता' में आदिवासी जीवन की समस्याओं, विस्थापन की समस्या तथा जमीन्दार एवं आदिवासी समुदाय के बीच के संघर्षों को मार्क्सवादी समाजशास्त्रीय पद्धति एवं ,अस्मितावादी, आलोचना पद्धति की मदद् से बेहतर तरीके से प्रस्तुत कर सकते हैं । इसी तरह से विभिन्न रचनाओं में समाज की खोज संरचनावादी, अनुभववादी आदि अध्ययन पद्धतियों से भी की जा सकती है ।
साहित्य में समाज के खोज का उद्देश्य, साहित्य के सामाजिक आधार को रेखांकित करना है तथा समाज की बदलती परिस्थितियों के साथ साहित्य में परिवर्तन को बतलाना है । इस प्रक्रिया के तहत'नए समाज' के निर्माण में रचनाकार की आकांक्षओं और 'रचना प्रक्रिया' को महत्व देना भी आलोचक का दायित्व हो सकता है ।
इस प्रकार साहित्य में समाज गहरे रूप से व्याप्त है और उसकी खोज की जानी चाहिए क्योंकि साहित्य 'अंतत तिथिरहित सामाजिक इतिहास है ।'
संदर्भ.सूची
1-    मैनेजर पाण्डेय . साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका, हरियाणा साहित्य अकादमी पंचकूला, तृतीय संस्करण - 2006, पृष्ठ संख्या - 13
2.   वही पृष्ठ संख्या - 18
सहायक.ग्रंथ.सूची
1.   मैनेजर पाण्डेय . आलोचना की सामाजिकता,वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली,2005
2.    संपा..निर्मला जैन . साहित्य का समाजशास्त्रीय चिंतनए हिन्दी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय, नई दिल्ली विश्वविद्यालय, 1986
-सोनम मौर्या
पी.एच.डी.
प्रथम वर्ष
मोबाइल नं.9013892748
जे. एन. यू.

Tuesday, July 15, 2014

India is the largest consumer of antibiotics

http://www.kractivist.org/india-is-the-largest-consumer-of-antibiotics-healthcare

India is the largest consumer of antibiotics #healthcare

Alarming increase in global use of 

Author(s): Aprajita Singh 
Date:Jul 14, 2014
A research published in a medical journal has sounded an alarm on overuse and misuse of antibiotic drugs.
imageAbout 76 per cent of this increase has come from developing economies like China, , Brazil, South Africa and Russia
A research published in a medical journal has sounded an alarm on overuse and misuse of antibiotic drugs.
The study, published by a team of researchers from Princeton University in journal Infectious Diseases last week, has revealed that the consumption of antibiotics around the globe has surged between 2000 and 2010. While globally, the antibiotic use has increased by 36 per cent, India has emerged as the world’s largest consumer of antibiotics with a 62 per cent increase in use.  About 76 per cent of this increase has come from developing economies like China, India, Brazil, South Africa and Russia.
The researchers studied consumption of antibiotics in 71 countries and seasonal differences and patterns in consumption in 63 of them. “Despite a fall in usage of antibiotics over the last decade, the US still has the greatest per capita consumption rates, more than double of that in India,” said the study.
Some good and bad 
The findings of the study indicate an increase in antibacterial usage in developing countries, implying that more people had access to medicine. But unfortunately, most of the use was not monitored by health officials. An alarming increase was also seen in the consumption of last-resort drugs such as the kind belonging to carbapenem class, which are broad spectrum antibiotics prescribed only for diseases for which there is no other known cure.
Researchers have also found that antibacterial medication was being misused at times. For example, in most countries, usage peaked around flu season. Since, flu is caused by , the medicine would have little or no effect on illness. It would, instead, pave the way for microbes to develop resistance to the drugs. In India, the usage peaked around the end of monsoon. A similar trend was noticed for other-borne and fever-producing diseases like chikungunya and dengue.
Such unmonitored use of antibiotics has led to an alarming increase in antibiotic resistance. Diseases caused by resistant bacteria have been known to be unresponsive to normal treatments and result in a higher probability of death. “New resistance mechanisms emerge and spread globally threatening our ability to treat common infectious diseases, resulting in death and disability of individuals who until recently could continue a normal course of life,” said World Health organization (WHO), in its recent report on antimicrobial resistance.
The researchers from Princeton University have called for rational use of antibiotics through coordinated efforts, particularly by the  countries where the increase in usage has been the most marked. It was noted that public health officials in these countries were using antibacterial medicine as a quick fix to health woes rather than actually implementing sanitation reforms to prevent the occurrence of disease in the first place.

Read more here- http://www.downtoearth.org.in/content/alarming-increase-global-use-antibiotics-india-largest-consumer

In Samalkha town

How Dalits are victims of caste discrimination in Haryana

In Samalkha town

Monday, 14 July 2014 – 1:12pm IST | Agency: DNA
  • child-rights-and-you-cryImage for representational purposes only.RNA Research & Archives
As you leave Delhi’s borders via the NH-1 and head towards Chandigarh, about 70 km away from Connaught Place is the small, bustling town of Samalkha. Located in’s Panipat district, it is famous for grain, jaggery and wood markets.
However, as you head deeper inside this industrial town, haunting stories of child rights violations begin to emerge.
It is the duty of our organisation Child Rights and You (CRY) to restore children’s rights in an area. CRY’s intervention area in Samalkha covers 19 -dominated hamlets under five villages. The  communities here are almost absolutely marginalised and excluded. Child rights violations are rampant in all  hamlets, and Dalits are being denied most democratic rights due to the strong socio-economic-political status of the Gujjars in the area.
The children in the families living there are vulnerable to , exploitation and violence simply because of the  into which they were born. The system relegates Dalits, formerly known as ‘untouchables’, to a lifetime of segregation and abuse. -based divisions dominate in housing and education, in and general social interaction. There is  at every level; the socio-economic condition of the Dalit community is deplorable.
The problem of land is central to the impoverished Dalit community. Dalits are prevented from possessing land – even that which has been set aside for them by the government. It is important to realise that land is not just a primary means of production, but also gives the holder economic security, social status and identity.
Illiteracy and school drop-out rates among Dalits are very high due to a number of social and physical factors. The illiteracy rate for Samalkha’s Dalit children is also generally higher compared to other children. Discriminatory practices exercised by teachers against these Dalit children include corporal punishment, denial of access to school water and indirect discrimination, such as neglect, repeated blaming, and labelling of Dalit students as weak performers, exclusion from the Mid-Day Meal Scheme etc., lead to social exclusion of Dalit students in school in the area.
The health and nutritional status of Dalit children in an intervention area is one of CRY’s major concerns; their effect is directly visible when it comes to early pregnancy, infant deaths, child deaths, maternal deaths and still births.
Data from our baseline survey shows an increasing number of infant and child deaths in our intervention area. The disparity in access to resources leads to disparity in exposure to the risk of disease, leading to disparity in disease burdens. There is a very clear indication from our experience in the area that the health status of children and women is very closely related to their social and economic status. More attention needs to be focused on the health of women, which would also help improve not only the health of the child but the whole population.
Ghar se bahar nikalte hi Jat ladke mujhe chedte hai, main school se waapis aati hun toh mera raasta rokte hain. (As soon as I leave my house, Jat boys eve-tease and verbally harass me. On my way back from school, they touch me and block my way.)”
This is the voice of a young Dalit girl currently living in Manana village in Samalkha.
Being discriminated against is a more serious problem for a Dalit girl child. Caste-based discrimination makes the Dalit girl more visible to the eyes of the perpetrators and, simultaneously, more invisible to the eyes of the protectors.
In Manana village, the liquor shop is located immediately outside the Dalit basti and is unavoidable on the route to and from the fields. Dalit girls going to or returning from the fields have no other option but to walk by the shop, where men leer at them and make suggestive remarks. Young non-Dalit men and boys who enter the basti to drink also bother the girls.
There should be a comprehensive approach to counter these problems, it is essential to recognise that the Dalit identity heightens the vulnerability to harassment, abuse and neglect. Constant efforts through awareness generation and capacity building about their rights to bring equal opportunity and social justice to the Dalit children in Samalkha will help them in overcoming the vicious cycle of caste and cultural barrier.
Read mor ehere- http://www.dnaindia.com/analysis/standpoint-how-dalits-are-victims-of-caste-discrimination-in-haryana-s-samalkha-town-2001998

Saturday, July 5, 2014

Causes of substance abuse

Causes of substance abuse
1. Family history/genes
2.Victim of Child abuse
3.Low self esteem
4. Mental Health --Depression or Anxiety
5.Traumatic Experience in Child hood

teen chutkale

तीन कीड़ी  रास्ते में बैठकर बातें कर रही थीं कि अचानक उस रास्ते से हाथी गुजरता हैं। 
वहां बैठी एक कीड़ी  हाथी से बोली- ऎ हाथी मुझसे कुश्ती लडोंगे। 
बाकी कीडियाँ - अरे रहने दो यार बेचारा अकेला हैं।


रमलू कमलू  पेपर देने के बाद लड़ रहे थे।
सर: तुम लोग क्यूं लड़ रहे हो।
रमलू : यह पागल पेपर खाली छोड़ कर आया है।
सर: तो क्या हुआ।
कमलू : क्यूंकि मैं भी तो पेपर खाली छोड़ कर आया हूं,अब टीचर को 
लगेगा कि हम दोनों ने नकल की है।


रमलू  फिल्म ‘धूम-2’ देखने सिनेमा हॉल गया। जब फिल्म खत्म हुई, तो सारे लोग हॉल से बाहर आ गए, लेकिन रमलू  आराम से अपने सीट पर बैठा रहा। थोड़ी देर बाद सिक्योरिटी गार्ड आए और उससे पूछा, ‘अभी तक बाहर क्यों नहीं गए।’ 
जवाब में रमलू  कहता है, ‘फिल्म के अंत में कहा गया था कि धूम-3 जल्दी ही आ रही है। बस उसी का इंतज़ार कर रहा हूं।’

बजट देश का

बजट देश का 
आज कल में बजट देश का सबके सामने आयेगा 
कुल मिला कर पॉपुलर बजट इसको कहा जायेगा 
दिखावे के वास्ते गरीब को कुछ लाली पॉप मिलेंगे 
अम्बानी अडानी के बागों में दोबारा से फूल खिलेंगे 
मध्यमवर्ग भरम में रहेगा सच को समझ न पायेगा 
विकास का धर्राटा उठेगा पूरे दरवाजे खोले जायेंगे 
बदेशी पूंजी के निवेश को कई क्षेत्रों में खूब बढ़ाएंगे 
तरक्की जरूर होगी मगर इसका फल कौन खायेगा 
सब्सिडी का खेल खेलेंगे कोई पाएंगे तो कोई झेलेंगे 
टैक्स पूरी जनता पर  मजबूरी कह करके ये पेलेंगे 
इलाज महंगा पढ़ाई महंगी पेट मुश्किल भर पायेगा 
एक हिस्से के पास पैसा खूब इकठ्ठा होना लाजमी 
दूज्जे हिस्से की नौकरी अपनी होगा खोना लाजमी 
क्लेश द्वेष माँर काट बढ़ेगी शासन डंडा फेर लायेगा 

Sunday, June 22, 2014

Monsanto --most evil corporation on Earth


Of all the mega-corps running amok, Monsanto has consistently outperformed its rivals, earning the crown as “most evil corporation on Earth!” Not content to simply rest upon its throne of destruction, it remains focused on newer, more scientifically innovative ways to harm the planet and its people.
1901: The company is founded by John Francis Queeny, a member of the Knights of Malta, a thirty year pharmaceutical veteran married to Olga Mendez Monsanto, for which Monsanto Chemical Works is named. The company’s first product is chemical saccharin, sold to Coca-Cola as an artificial sweetener.
Even then, the government knew saccharin was poisonous and sued to stop its manufacture but lost in court, thus opening the Monsanto Pandora’s Box to begin poisoning the world through the soft drink.
toxiclove1920s: Monsanto expands into industrial chemicals and drugs, becoming the world’s largest maker of  aspirin, acetylsalicyclic acid, (toxic of course). This is also the time when things began to go horribly wrong for the planet in a hurry with the introduction of  their polychlorinated biphenyls (PCBs).
“PCBs were considered an industrial wonder chemical, an oil that wouldn’t burn, impervious to degradation and had almost limitless applications. Today PCBs are considered one of the gravest chemical threats on the planet. Widely used as lubricants, hydraulic fluids, cutting oils, waterproof coatings and liquid sealants, are potent carcinogens and have been implicated in reproductive, developmental and immune system disorders. The world’s center of PCB manufacturing was Monsanto’s plant on the outskirts of East St. Louis, Illinois, which has the highest rate of fetal death and immature births in the state.”(1)
Even though PCBs were eventually banned after fifty years for causing such devastation, it is still present in just about all animal and human blood and tissue cells across the globe. Documents introduced in court later showed Monsanto was fully aware of the deadly effects, but criminally hid them from the public to keep the PCB gravy-train going full speed!
1930s: Created its first hybrid seed corn and expands into detergents, soaps, industrial cleaning products, synthetic rubbers and plastics. Oh yes, all toxic of course!
1940s: They begin research on uranium to be used for the Manhattan Project’s first atomic bomb, which would later be dropped on Hiroshima and Nagasaki, killing hundreds of thousands of Japanese, Korean and US Military servicemen and poisoning millions more.
The company continues its unabated killing spree by creating pesticides for agriculture containing deadly dioxin, which poisons the food and water supplies. It was later discovered Monsanto failed to disclose that dioxin was used in a wide range of their products because doing so would force them to acknowledge that it had created an environmental Hell on Earth.
1950s: Closely aligned with The Walt Disney Company, Monsanto creates several attractions at Disney’s Tomorrowland, espousing the glories of chemicals and plastics. Their “House of the Future” is constructed entirely of toxic plastic that is not biodegradable as they had asserted. What, Monsanto lied? I’m shocked!
“After attracting a total of 20 million visitors from 1957 to 1967, Disney finally tore the house down, but discovered it would not go down without a fight. According to Monsanto Magazine, wrecking balls literally bounced off the glass-fiber, reinforced polyester material. Torches, jackhammers, chain saws and shovels did not work. Finally, choker cables were used to squeeze off parts of the house bit by bit to be trucked away.”(2)
Monsanto’s Disneyfied vision of the future:
1960s: Monsanto, along with chemical partner-in-crime DOW Chemical, produces dioxin-laced Agent Orange for use in the U.S.’s Vietnam invasion. The results? Over 3 million people contaminated, a half-million Vietnamese civilians dead, a half-million Vietnamese babies born with birth defects and thousands of U.S. military veterans suffering or dying from its effects to this day!
 Monsanto is hauled into court again and internal memos show they knew the deadly effects of dioxin in Agent Orange when they sold it to the government. Outrageously though, Monsanto is allowed to present their own “research” that concluded dioxin was safe and posed no negative health concerns whatsoever. Satisfied, the bought and paid for courts side with Monsanto and throws the case out. Afterwards, it comes to light that Monsanto lied about the findings and their real research concluded that dioxin kills very effectively.
A later internal memo released in a 2002 trial admitted
“that the evidence proving the persistence of these compounds and their universal presence as residues in the environment is beyond question … the public and legal pressures to eliminate them to prevent global contamination are inevitable. The subject is snowballing. Where do we go from here? The alternatives: go out of business; sell the hell out of them as long as we can and do nothing else; try to stay in business; have alternative products.”(3)
Monsanto partners with I.G. Farben, makers of Bayer aspirin and the Third Reich’s go-to chemical manufacturer producing deadly Zyklon-B gas during World War II. Together, the companies use their collective expertise to introduce aspartame, another extremely deadly neurotoxin, into the food supply. When questions surface regarding the toxicity of saccharin, Monsanto exploits this opportunity to introduce yet another of its deadly poisons onto an unsuspecting public.
1970s: Monsanto partner, G.D. Searle, produces numerous internal studies which claim aspartame to be safe, while the FDA’s own scientific research clearly reveals that aspartame causes tumors and massive holes in the brains of rats, before killing them. The FDA initiates a grand jury investigation into G.D. Searle for “knowingly misrepresenting findings and concealing material facts and making false statements” in regard to aspartame safety.
During this time, Searle strategically taps prominent Washington insider Donald Rumsfeld, who served as Secretary of Defense during the Gerald Ford and George W. Bush  presidencies, to become CEO. The corporation’s primary goal is to have Rumsfeld utilize his political influence and vast experience in the killing business to grease the FDA to play ball with them.
A few months later, Samuel Skinner receives “an offer he can’t refuse,” withdraws from the investigation and resigns his post at the U.S. Attorney’s Office to go work for Searle’s law firm. This mob tactic stalls the case just long enough for the statute of limitation to run out and the grand jury investigation is abruptly and conveniently dropped.
1980s: Amid indisputable research that reveals the toxic effects of aspartame and as then FDA commissioner Dr. Jere Goyan was about to sign a petition into law keeping it off the market, Donald Rumsfeld calls Ronald Reagan for a favor the day after he takes office. Reagan fires the uncooperative Goyan and appoints Dr. Arthur Hayes Hull to head the FDA, who then quickly tips the scales in Searle’s favor and NutraSweet is approved for human consumption in dried products.This becomes sadly ironic since Reagan, a known jelly bean and candy enthusiast, later suffers from Alzheimers during his second term, one of the many horrific effects of aspartame consumption.
Searle’s real goal though was to have aspartame approved as a soft drink sweetener since exhaustive studies revealed that at temperatures exceeding 85 degrees Fahrenheit, it “breaks down into known toxins Diketopiperazines (DKP), methyl (wood) alcohol, and formaldehyde.”(4), becoming many times deadlier than its powdered form!
The National Soft Drink Association (NSDA) is initially in an uproar, fearing future lawsuits from consumers permanently injured or killed by drinking the poison. When Searle is able to show that liquid aspartame, though incredibly deadly, is much more addictive than crack cocaine, the NSDA is convinced that skyrocketing profits from the sale of soft drinks laced with aspartame would easily offset any future liability. With that, corporate greed wins and the unsuspecting soft drink consumers pay for it with damaged healths.
Coke leads the way once again (remember saccharin?) and begins poisoning Diet Coke drinkers with aspartame in 1983. As expected, sales skyrocket as millions become hopelessly addicted and sickened by the sweet poison served in a can. The rest of the soft drink industry likes what it sees and quickly follows suit, conveniently forgetting all about their initial reservations that aspartame is a deadly chemical. There’s money to be made, lots of it and that’s all that really matters to them anyway!
In 1985, undaunted by the swirl of corruption and multiple accusations of fraudulent research undertaken by Searle, Monsanto purchases the company and forms a new aspartame subsidiary called NutraSweet Company. When multitudes of independent scientists and researchers continue to warn about aspartame’s toxic effects, Monsanto goes on the offensive, bribing the National Cancer Institute and providing their own fraudulent papers to get the NCI to claim that formaldehyde does not cause cancer so that aspartame can stay on the market.
The known effects of aspartame ingestion are: “mania, rage, violence, blindness, joint-pain, fatigue, weight-gain, chest-pain, coma, insomnia, numbness, depression, tinnitus, weakness, spasms, irritability, nausea, deafness, memory-loss, rashes, dizziness, headaches, seizures, anxiety, palpitations, fainting, cramps, diarrhoea, panic, burning in the mouth. Diseases triggered/mimmicked include diabetes, MS, lupus, epilepsy, Parkinson’s, tumours, miscarriage, infertility, fibromyalgia, infant death, Alzheimer’s… Source : U.S. Food & Drug Administration.(5)
Further, 80% of complaints made to the FDA regarding food additives are about aspartame, which is now in over 5,000 products including diet and non-diet sodas and sports drinks, mints, chewing gum, frozen desserts, cookies, cakes, vitamins, pharmaceuticals, milk drinks, instant teas, coffees, yogurt, baby food and many, many more!(6) Read labels closely and do not buy anything that contains this horrific killer!
Amidst all the death and disease, FDA’s Arthur Hull resigns under a cloud of corruption and is immediately hired by Searle’s public relations firm as a senior scientific consultant. No, that’s not a joke! Monsanto, the FDA and many government health regulatory agencies have become one and the same! It seems the only prerequisite for becoming an FDA commissioner is that they spend time at either Monsanto or one of the pharmaceutical cartel’s organized crime corps.
1990s: Monsanto spends millions defeating state and federal legislation that disallows the corporation from continuing to dump dioxins, pesticides and other cancer-causing poisons into drinking water systems. Regardless, they are sued countless times for causing disease in their plant workers, the people in surrounding areas and birth defects in babies.
With their coffins full from the massive billions of profits, the $100 million dollar settlements are considered the low cost of doing business and thanks to the FDA, Congress and White House, business remains very good. So good that Monsanto is sued for giving radioactive iron to 829 pregnant women for a study to see what would happen to them.
In 1994, the FDA once again criminally approves Monsanto’s latest monstrosity, the Synthetic Bovine Growth Hormone (rBGH), produced from a genetically modified E. coli bacteria, despite obvious outrage from the scientific community of its dangers. Of course, Monsanto claims that diseased pus milk, full of antibiotics and hormones is not only safe, but actually good for you!
 Worse yet, dairy companies who refuse to use this toxic cow pus and label their products as“rBGH-free” are sued by Monsanto, claiming it gives them an unfair advantage over competitors that did. In essence, what Monsanto was saying is “yeah, we know rBGH makes people sick, but it’s not alright that you advertise it’s not in your products.”
 The following year, the diabolical company begins producing GMO crops that are tolerant to their toxic herbicide Roundup. Roundup-ready canola oil (rapeseed), soybeans, corn and BT cotton begin hitting the market, advertised as being safer, healthier alternatives to their organic non-GMO rivals. Apparently, the propaganda worked as today over 80% of canola on the market is their GMO variety.
A few things you definitely want to avoid in your diet are GMO soy, corn, wheat and canola oil, despite the fact that many “natural” health experts claim the latter to be a healthy oil. It’s not, but you’ll find it polluting many products on grocery store shelves.
 Because these GM crops have been engineered to ‘self-pollinate,’ they do not need  nature or bees to do that for them. There is a very dark side agenda to this and that is to wipe out the world’s bee population.
 Monsanto knows that birds and especially bees, throw a wrench into their monopoly due to their ability to pollinate plants, thus naturally creating foods outside of the company’s “full domination control agenda.” When bees attempt to pollinate a GM plant or flower, it gets poisoned and dies. In fact, the bee colony collapse was recognized and has been going on since GM crops were first introduced.
To counter the accusations that they deliberately caused this ongoing genocide of bees, Monsanto devilishly buys out Beeologics, the largest bee research firm that was dedicated to studying the colony collapse phenomenon and whose extensive research named the monster as the primary culprit! After that, it’s “bees, what bees? Everything’s just dandy!” Again, I did not make this up, but wish I had!
During the mid-90s, they decide to reinvent their evil company as one focused on controlling the world’s food supply through artificial, biotechnology means to preserve the Roundup cash-cow from losing market-share in the face of competing, less-toxic herbicides. You see, Roundup is so toxic that it wipes out non-GMO crops, insects, animals, human health and the environment at the same time. How very efficient!
 Because Roundup-ready crops are engineered to be toxic pesticides masquerading as food, they have been banned in the EU, but not in America! Is there any connection between that and the fact that Americans, despite the high cost and availability of healthcare, are collectively the sickest people in the world? Of course not!
 As was Monsanto’s plan from the beginning, all non-Monsanto crops would be destroyed, forcing farmers the world over to use only its toxic terminator seeds. And Monsanto made sure farmers who refused to come into the fold were driven out of business or sued when windblown terminator seeds poisoned organic farms.
This gave the company a virtual monopoly as terminator seed crops and Roundup worked hand in glove with each other as GMO crops could not survive in a non-chemical environment so farmers were forced to buy both.
Their next step was to spend billions globally buying up as many seed companies as possible and transitioning them into terminator seed companies in an effort to wipe out any rivals and eliminate organic foods off the face of the earth. In Monsanto’s view, all foods must be under their full control and genetically modified or they are not safe to eat!
 They pretend to be shocked that their critics in the scientific community question whether crops genetically modified with the genes of diseased pigs, cows, spiders, monkeys, fish, vaccines and viruses are healthy to eat. The answer to that question is obviously a very big “no way!”
You’d think the company would be so proud of their GMO foods that they’d serve them to their employees, but they don’t. In fact, Monsanto has banned GM foods from being served in their own employee cafeterias. Monsanto lamely responded “we believe in choice.” What they really means is “we don’t want to kill the help.”
It’s quite okay though to force-feed poor nations and Americans these modified monstrosities as a means to end starvation since dead people don’t need to eat! I’ll bet the thought on most peoples’ minds these days is that Monsanto is clearly focused on eugenics and genocide, as opposed to providing foods that will sustain the world. As in Monsanto partner Disney’s Sleeping Beauty, the wicked witch gives the people the poisoned GMO apple that puts them to sleep forever!
2000s: By this time Monsanto controls the largest share of the global GMO market. In turn, the US gov’t spends hundreds of millions to fund aerial spraying of Roundup, causing massive environmental devastation. Fish and animals by the thousands die within days of spraying as respiratory ailments and cancer deaths in humans spike tremendously. But this is all considered an unusual coincidence so the spraying continues. If you thought Monsanto and the FDA were one and the same, well you can add the gov’t to that sorry list now.
The monster grows bigger: Monsanto merges with Pharmacia & Upjohn, then separates from its chemical business and rebrands itself as an agricultural company. Yes, that’s right, a chemical company whose products have devastated the environment, killed millions of people and wildlife over the years now wants us to believe they produce safe and nutritious foods that won’t kill people any longer. That’s an extremely hard-sell, which is why they continue to grow bigger through mergers and secret partnerships.
Because rival DuPont is too large a corporation to be allowed to merge with, they instead form a stealth partnership where each agrees to drop existing patent lawsuits against one another and begin sharing GMO technologies for mutual benefit. In layman’s terms, together they would be far too powerful and politically connected for anything to stop them from owning a virtual monopoly on agriculture; “control the food supply & you control the people!”
 Not all is rosy as the monster is repeatedly sued for $100s of millions for causing illness, infant deformities and death by illegally dumping all manner of PCBs into ground water, and continually lying about products safety – you know, business as usual.
The monster often perseveres and proves difficult to slay as it begins filing frivolous suits against farmers it claims infringe on their terminator seed patents. In virtually all cases, unwanted seeds are windblown onto farmers’ lands by neighboring terminator-seeded farms. Not only do these horrendous seeds destroy the organic farmers’ crops, the lawsuits drive them into bankruptcy, while the Supreme Court overturns lower court rulings and sides with Monsanto each time.
At the same time, the monster begins filing patents on breeding techniques for pigs, claiming animals bred any way remotely similar to their patent would grant them ownership. So loose was this patent filing that it became obvious they wanted to claim all pigs bred throughout the world would infringe upon their patent.
The global terrorism spreads to India as over 100,000 farmers who are bankrupted by GMO crop failure, commit suicide by drinking Roundup so their families will be eligible for death insurance payments. In response, the monster takes advantage of the situation by alerting the media to a new project to assist small Indian farmers by donating the very things that caused crop failures in the country in the first place! Forbes then names Monsanto “company of the year.” Sickening, but true.
 More troubling is that Whole Foods, the corporation that brands itself as organic, natural and eco-friendly is proven to be anything but. They refuse to support Proposition 37, California’s GMO-labeling measure that Monsanto and its GMO-brethren eventually helped to defeat.
Why? Because Whole Foods has been in bed with Monsanto for a long time, secretly stuffing its shelves with overpriced, fraudulently advertized “natural & organic” crap loaded with GMOs, pesticides, rBGH, hormones and antibiotics. So, of course they don’t want mandatory labelling as that would expose them as the Whole Frauds and Whore Foods that they really are!
 However, when over twenty biotech-friendly companies including WalMart, Pepsico and ConAgra recently met with FDA in favor of mandatory labelling laws, this after fighting tooth and nail to defeat Prop 37, Whole Foods sees an opportunity to save face and becomes the first grocery chain to announce mandatory labelling of their GMO products…in 2018! Uh, thanks for nothing, Whore.
 And if you think its peers have suddenly grown a conscience, think again. They are simply reacting to the public’s outcry over the defeat of Prop 37 by crafting deceptive GMO-labelling laws to circumvent any real change, thus keeping the status quo intact.
 To add insult to world injury, Monsanto and their partners in crime Archer Daniels Midland, Sodexo and Tyson Foods write and sponsor The Food Safety Modernization Act of 2009: HR 875. This criminal “act” gives the corporate factory farms a virtual monopoly to police and control all foods grown anywhere, including one’s own backyard, and provides harsh penalties and jail sentences for those who do not use chemicals and fertilizers. President Obama decided this sounded reasonable and gave his approval.
 With this Act, Monsanto claims that only GM foods are safe and organic or homegrown foods potentially spread disease, therefore must be regulated out of existence for the safety of the world. If eating GM pesticide balls is their idea of safe food, I would like to think the rest of the world is smart enough to pass.
As further revelations have broken open regarding this evil giant’s true intentions, Monsanto crafted the ridiculous HR 933 Continuing Resolution, aka Monsanto Protection Act, which Obama robo-signed into law as well.This law states that no matter how harmful Monsanto’s GMO crops are and no matter how much devastation they wreak upon the country, U.S. federal courts cannot stop them from continuing to plant them anywhere they choose. Yes, Obama signed a provision that makes Monsanto above any laws and makes them more powerful than the government itself. We have to wonder who’s really in charge of the country because it’s certainly not him!
There comes a tipping point though when a corporation becomes too evil and the world pushes back…hard! Many countries continue to convict Monsanto of crimes against humanity and have banned them altogether, telling them to “get out and stay out!”
The world has begun to awaken to the fact that the corporate monster does not want control over the global production of food simply for profit’s sake. No, it’s become clear by over a century of death & destruction that the primary goal is to destroy human health and the environment, turning the world into a Mon-Satanic Hell on Earth!
 Research into the name itself reveals it to be latin, meaning “my saint,” which may explain why critics often refer to it as “Mon-Satan.” Even more conspiratorially interesting is that free masons and other esoteric societies assigned numbers to each letter in our latin-based alphabet system in a six system. Under that number system, what might Monsanto add up to? Why, of course 6-6-6!
 Know that all is not lost. Evil always loses in the end once it is widely exposed to the light of truth as is occurring now. The fact that the Monsanto-led government finds it necessary to enact desperate legislation to protect its true leader proves this point. Being evicted elsewhere, the United States is Monsanto’s last stand so to speak.
Yet, even here many have begun striking back by protesting against and rejecting GMO monstrosities, choosing to grow their own foods and shop at local farmers markets instead of the Monsanto-supported corporate grocery chains.
 The awakening people are also beginning to see they have been misled by corporate tricksters and federal government criminals poisoned by too much power, control and greed, which has resulted in the creation of the monstrous, out-of-control corporate beast.
 Notes

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I will rather die standing up, than live life on my knees:

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