*CJI गवई _ IPS Y. पूरण*
ना पहला हैं ना आखिरी...... !
*हिंदुत्व का उदय और प्रभाव : एक विश्लेषण*
कृष्ण नैन
हिंदुत्व की अवधारणा 1923 में स्थापित हुई, जो आरएसएस के वैचारिक नेतृत्व ने इटली के मुसोलिनी व जर्मनी के हिटलर की तानाशाही अवधारणा से ली थी। यह विचारधारा भारत के लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय के लिए एक नई चुनौती के रूप में उभरी है।जब तक शहीदों के सपने व साथी मुख्य भुमिका में रहें, उन्हें इन्हें फटकने भी नहीं दिया। परन्तु वर्तमान की जेन जी, को इतिहास, शहीदों व राजनीति की विचारधाराओं के अध्ययन व संघर्ष से दूर कर ही यह देशभक्तों का विरोधी विचार पनप पाया हैं। सरकार और साम्प्रदायिक शक्तियों के गठजोड़ ने इसे व्यापक रूप से अपनाया है, जिससे संवैधानिक ढांचे पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है तथा तानाशाही प्रवृत्तियों को बढ़ावा मिला है।
आओ आज हम हिंदुत्व के सैद्धांतिक आधार, इसकी सामाजिक-आर्थिक नीतियों, तथा इसके विरुद्ध जनता के संघर्षों का वैज्ञानिक दृष्टिकोण और देशभक्त परिप्रेक्ष्य से विश्लेषण करने की कोशिश करते है।
*धर्म, साम्प्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता : अवधारणाओं की समीक्षा*
धर्म विभिन्न सामाजिक एवं सांस्कृतिक प्रक्रियाओं, विश्वासों और आचरणों का समूह है, जो मानव जीवन को दिलासा देने का और नैतिक आधार प्रदान करता है। परंतु जब यह साम्प्रदायिकता का रूप ले लेता है, तो समाज में विभाजन और संघर्ष का कारण बनता है। जिससे विनाश के अलावा कुछ हासिल नहीं हो सकता है।
बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता विशेष रूप से चिंताजनक होती है, क्योंकि यह राष्ट्रीय एकता को कमजोर करती है और अल्पसंख्यक समुदायों को निशाना बनाती है।
धर्मनिरपेक्षता का तात्पर्य *राज्य और धर्म के पृथक्करण से है,* जिसके अंतर्गत सभी व्यक्तियों को समान अधिकार प्राप्त होते हैं। भारतीय संविधान इस सिद्धांत को अपनी नींव मानता है। किंतु वर्तमान शासन की नीतियाँ इस धर्मनिरपेक्षता को कमजोर करने की दिशा में अग्रसर हैं, जिससे सामाजिक समरसता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। अशांति में असुरक्षा से पूंजीपति भी उधोगों में निवेश से डरते हैं , इसलिए अडानी अंबानी समेत सभी पूंजी घराने सिर्फ बना बनाया सेवा क्षेत्र हथिया रहें हैं, जिसमें एआइ के प्रयोग से रोजगार बढ़ने की बजाय घट रहा हैं।
*हिंदुत्व और आर्थिक नीतियाँ : एक वर्गीय विश्लेषण*
सरकार की आर्थिक नीतियाँ मुख्यतः पूँजीपति वर्ग और जमींदारों के हित में केंद्रित हैं। इसके परिणामस्वरूप मजदूरों, किसानों, शिक्षकों, कर्मचारियों तथा अन्य श्रमिक वर्गों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से नुकसान पहुँचा है।
सार्वजनिक संसाधनों का निजीकरण, सामाजिक सुरक्षा प्रणालियों में कटौती, तथा विदेशी पूँजी की सेवा क्षेत्र में बढ़ती हिस्सेदारी जैसी नीतियाँ आम जनता की स्थिति को और अधिक कमजोर कर रही हैं।
कोविड-19 महामारी के पश्चात् बेरोज़गारी, महँगाई और गरीबी में बढ़ोतरी ने जनता के जीवन को और कठिन बना दिया है। किसानों के संघर्षों पर दमन, तथा विरोध के बावजूद कृषि कानूनों को लागू करना, इसी नीति की स्पष्ट झलक है। साथ ही, सामाजिक तनाव और साम्प्रदायिक हिंसा में हुई वृद्धि समाज की स्थिरता को गंभीर चुनौती दे रही है।
*मनुस्मृति और सामाजिक असमानता*
मनुस्मृति जैसी प्राचीन सामाजिक गैर बराबरी आधारित वर्ण व्यवस्था को संरक्षण देने वाले नीतिगत कदम दलितों, पिछड़े वर्गों, आदिवासियों और महिलाओं के प्रति भेदभाव को प्रोत्साहित करते हैं। ऐसी सामाजिक असमानताएँ समाज के समग्र विकास में बाधा उत्पन्न करती हैं।
सीजेआई गवई जुता कांड एवं आइपीएस पूरन जैसी संस्थागत हत्याओं जैसे सामाजिक दमन और भेदभाव के बढ़ते मामलों ने लोकतांत्रिक मूल्यों को गहरी ठेस पहुँचाई है।
*लोकतंत्र के स्तंभों पर खतरा*
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, न्यायपालिका की स्वायत्तता और नागरिक अधिकारों की सुरक्षा — ये लोकतंत्र के मूल स्तंभ हैं। वर्तमान में इन स्तंभों पर दबाव और नियंत्रण की प्रवृत्ति बढ़ी है। फासीवादी प्रवृत्तियों का उभार लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरा बन चुका है, जो सामाजिक और राजनीतिक तंत्र की स्थिरता को प्रभावित कर रहा है।
*जनता और कर्मचारी वर्ग का संघर्ष*
वर्तमान समय में शिक्षकों, कर्मचारियों और जनता के विभिन्न वर्गों में हिंदुत्व के खतरे को पहचानने की चेतना बढ़ी है। जनसेवा से जुड़े लोगों का जनता के साथ प्रत्यक्ष संबंध उन्हें इस खतरे को गहराई से समझने और उसका प्रतिरोध करने की क्षमता प्रदान करता है।
उन्होंने साम्प्रदायिकता, तानाशाही और आर्थिक अन्याय के विरुद्ध साझा संघर्ष की दिशा अपनाई है, जिसमें बीच-बीच में काफी बलिदान लिए जा रहें हैं, जो लोकतंत्र और संविधान के मूल्यों की रक्षा के लिए अत्यंत आवश्यक है।
विशेष रूप से शिक्षकों और कर्मचारियों के आंदोलनों ने जनता की भागीदारी को सशक्त किया है। यह संघर्ष केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक न्याय की लड़ाई भी है। इन वर्गों की सक्रिय भागीदारी के कारण इस आंदोलन की विश्वसनीयता और प्रभावशीलता में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। एक तरह से दमन व बलिदान का कडा मुकाबला चल रहा हैं। लेकिन जिस दिन दक्षिणपंथ के हाथ से सत्ता निकल गई,उसी दिन यह धड़ाम से गिरेगा।
*आगे का रास्ता*
संघर्ष की यह दिशा देश के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह न केवल हिंदुत्ववादी ताकतों के विरुद्ध है, बल्कि सामाजिक समरसता, आर्थिक न्याय और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रसार की पहल भी है।
इस संघर्ष में सभी वर्गों — शिक्षक, कर्मचारी, किसान, मजदूर और आम जनता — का एकजुट होना आवश्यक है। सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र की रक्षा के लिए यह आंदोलन तीव्र गति से आगे बढ़ रहा है और सकारात्मक परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त कर रहा है।