Sunday, October 12, 2025

अमेरिका

 अमेरिका के बारे में 
जानते हो?
साफ सफाई है
ऊंची ऊंची इमारतें हैं 
बिजली कभी गुम नहीं होती
काम करवानेवका पैसा 
देना नहीं पड़ता है
बहुत उन्नतशील है अमरीका
पशुओं को गेहूं खिलाता है
फिर पशुओं को खुद खाता है
छोटी मछलियों को पालता है
फिर उन्हें बड़ी मछलियों को
खिलाता है हंसते हंसते
जब इससे भीबकम नहीं चलता
तो आतंक फैलाता है या फिर
फैलवाता है
युद्ध करता है युद्ध करवाता है
हथियार दोनों को बेचता है 
अमरीका
उसे क्या मां की कोख खाली 
होती है तो हो चाहे वह
इस पार की मां है उस पार की
जैसे अब पाकिस्तान और
हिंदुस्तान को बेच रहा है
अपने हथियार अमरीका
आतंक के बहाने रोटी नहीं 
अपने परांठे सेक रहा है
अब पाकिस्तान हिंदुस्तान 
लड़ें या न लड़ें उसने तो अपने
हथियारों का सौदा कर ही लिया
इसकी चाल समझना है मुश्किल 
दिमाग हो तो समझें चाल हम 
इसे तो गिरवी रख दिया हमने
अपने परम परमेश्वर भगवान
के पास
आस्था सवाल नहीं चाहती 
सोचना नहीं चाहती
मगर अपने तौर पर सोचना 
एक दिन पड़ेगा हम सबको
उस दिन अमरीका के बारे
बहुत कुछ जान चुके होंगे हम।

हिंदुत्व

*CJI गवई _ IPS Y. पूरण*
ना पहला हैं ना आखिरी...... !

*हिंदुत्व का उदय और प्रभाव : एक विश्लेषण*
                कृष्ण नैन 

       हिंदुत्व की अवधारणा 1923 में स्थापित हुई, जो आरएसएस के वैचारिक नेतृत्व ने इटली के मुसोलिनी व जर्मनी के हिटलर की तानाशाही अवधारणा से ली थी। यह विचारधारा भारत के लोकतंत्र, धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक न्याय के लिए एक नई चुनौती के रूप में उभरी है।जब तक शहीदों के सपने व साथी मुख्य भुमिका में रहें, उन्हें इन्हें फटकने भी नहीं दिया। परन्तु वर्तमान की जेन जी, को इतिहास, शहीदों व राजनीति की विचारधाराओं के अध्ययन व संघर्ष से दूर कर ही यह देशभक्तों का विरोधी विचार पनप पाया हैं। सरकार और साम्प्रदायिक शक्तियों के गठजोड़ ने इसे व्यापक रूप से अपनाया है, जिससे संवैधानिक ढांचे पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है तथा तानाशाही प्रवृत्तियों को बढ़ावा मिला है।
 आओ आज हम हिंदुत्व के सैद्धांतिक आधार, इसकी सामाजिक-आर्थिक नीतियों, तथा इसके विरुद्ध जनता के संघर्षों का वैज्ञानिक दृष्टिकोण और देशभक्त परिप्रेक्ष्य से विश्लेषण करने की कोशिश करते है।
*धर्म, साम्प्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता : अवधारणाओं की समीक्षा*
        धर्म विभिन्न सामाजिक एवं सांस्कृतिक प्रक्रियाओं, विश्वासों और आचरणों का समूह है, जो मानव जीवन को दिलासा देने का और नैतिक आधार प्रदान करता है। परंतु जब यह साम्प्रदायिकता का रूप ले लेता है, तो समाज में विभाजन और संघर्ष का कारण बनता है। जिससे विनाश के अलावा कुछ हासिल नहीं हो सकता है।
बहुसंख्यक साम्प्रदायिकता विशेष रूप से चिंताजनक होती है, क्योंकि यह राष्ट्रीय एकता को कमजोर करती है और अल्पसंख्यक समुदायों को निशाना बनाती है।
धर्मनिरपेक्षता का तात्पर्य *राज्य और धर्म के पृथक्करण से है,* जिसके अंतर्गत सभी व्यक्तियों को समान अधिकार प्राप्त होते हैं। भारतीय संविधान इस सिद्धांत को अपनी नींव मानता है। किंतु वर्तमान शासन की नीतियाँ इस धर्मनिरपेक्षता को कमजोर करने की दिशा में अग्रसर हैं, जिससे सामाजिक समरसता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। अशांति में असुरक्षा से पूंजीपति भी उधोगों में निवेश से डरते हैं , इसलिए अडानी अंबानी समेत सभी पूंजी घराने सिर्फ बना बनाया सेवा क्षेत्र हथिया रहें हैं, जिसमें एआइ के प्रयोग से रोजगार बढ़ने की बजाय घट रहा हैं।
*हिंदुत्व और आर्थिक नीतियाँ : एक वर्गीय विश्लेषण*
सरकार की आर्थिक नीतियाँ मुख्यतः पूँजीपति वर्ग और जमींदारों के हित में केंद्रित हैं। इसके परिणामस्वरूप मजदूरों, किसानों, शिक्षकों, कर्मचारियों तथा अन्य श्रमिक वर्गों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से नुकसान पहुँचा है।
सार्वजनिक संसाधनों का निजीकरण, सामाजिक सुरक्षा प्रणालियों में कटौती, तथा विदेशी पूँजी की सेवा क्षेत्र में बढ़ती हिस्सेदारी जैसी नीतियाँ आम जनता की स्थिति को और अधिक कमजोर कर रही हैं।
कोविड-19 महामारी के पश्चात् बेरोज़गारी, महँगाई और गरीबी में बढ़ोतरी ने जनता के जीवन को और कठिन बना दिया है। किसानों के संघर्षों पर दमन, तथा विरोध के बावजूद कृषि कानूनों को लागू करना, इसी नीति की स्पष्ट झलक है। साथ ही, सामाजिक तनाव और साम्प्रदायिक हिंसा में हुई वृद्धि समाज की स्थिरता को गंभीर चुनौती दे रही है।
*मनुस्मृति और सामाजिक असमानता*
मनुस्मृति जैसी प्राचीन सामाजिक गैर बराबरी आधारित वर्ण व्यवस्था को संरक्षण देने वाले नीतिगत कदम दलितों, पिछड़े वर्गों, आदिवासियों और महिलाओं के प्रति भेदभाव को प्रोत्साहित करते हैं। ऐसी सामाजिक असमानताएँ समाज के समग्र विकास में बाधा उत्पन्न करती हैं।
सीजेआई गवई जुता कांड एवं आइपीएस पूरन जैसी संस्थागत हत्याओं जैसे सामाजिक दमन और भेदभाव के बढ़ते मामलों ने लोकतांत्रिक मूल्यों को गहरी ठेस पहुँचाई है।
*लोकतंत्र के स्तंभों पर खतरा*
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, न्यायपालिका की स्वायत्तता और नागरिक अधिकारों की सुरक्षा — ये लोकतंत्र के मूल स्तंभ हैं। वर्तमान में इन स्तंभों पर दबाव और नियंत्रण की प्रवृत्ति बढ़ी है। फासीवादी प्रवृत्तियों का उभार लोकतंत्र के लिए गंभीर खतरा बन चुका है, जो सामाजिक और राजनीतिक तंत्र की स्थिरता को प्रभावित कर रहा है।
*जनता और कर्मचारी वर्ग का संघर्ष*
वर्तमान समय में शिक्षकों, कर्मचारियों और जनता के विभिन्न वर्गों में हिंदुत्व के खतरे को पहचानने की चेतना बढ़ी है। जनसेवा से जुड़े लोगों का जनता के साथ प्रत्यक्ष संबंध उन्हें इस खतरे को गहराई से समझने और उसका प्रतिरोध करने की क्षमता प्रदान करता है।
उन्होंने साम्प्रदायिकता, तानाशाही और आर्थिक अन्याय के विरुद्ध साझा संघर्ष की दिशा अपनाई है, जिसमें बीच-बीच में काफी बलिदान लिए जा रहें हैं, जो लोकतंत्र और संविधान के मूल्यों की रक्षा के लिए अत्यंत आवश्यक है।
विशेष रूप से शिक्षकों और कर्मचारियों के आंदोलनों ने जनता की भागीदारी को सशक्त किया है। यह संघर्ष केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक न्याय की लड़ाई भी है। इन वर्गों की सक्रिय भागीदारी के कारण इस आंदोलन की विश्वसनीयता और प्रभावशीलता में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है। एक तरह से दमन व बलिदान का कडा मुकाबला चल रहा हैं। लेकिन जिस दिन दक्षिणपंथ के हाथ से सत्ता निकल गई,उसी दिन यह धड़ाम से गिरेगा।
*आगे का रास्ता*
     संघर्ष की यह दिशा देश के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि यह न केवल हिंदुत्ववादी ताकतों के विरुद्ध है, बल्कि सामाजिक समरसता, आर्थिक न्याय और वैज्ञानिक दृष्टिकोण के प्रसार की पहल भी है।
इस संघर्ष में सभी वर्गों — शिक्षक, कर्मचारी, किसान, मजदूर और आम जनता — का एकजुट होना आवश्यक है। सामाजिक न्याय, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र की रक्षा के लिए यह आंदोलन तीव्र गति से आगे बढ़ रहा है और सकारात्मक परिवर्तन का मार्ग प्रशस्त कर रहा है।

Wednesday, October 1, 2025

वीरांगनाएं



गुमनाम वीरांगनाएँ

आदिवासी नंगेलीः जो 'स्तन कर' के खिलाफ लड़ी

(हमारे इतिहास में बहुत सी गुमनाम महिलाएं हैं जिन्होंने अपने समय और सदी में अपने तरीके से इतिहास बदला।
लेकिन नंगेली की कहानी सबसे अलग जान पड़ती है। ये वो साहसिक आदिवासी महिला थी जिस ने केरल की निचली जनजाति की महिलाओं को स्तन ना ढाकने देने के क्रूर नियम को हटवाने के लिए सत्ता में बैठे लोगों के खिलाफ आवाज उठाई और अपनी जान की कुर्बानी दी।)

यह करीब 150 साल से भी पुरानी घटना है। उस समय केरल के बड़े भाग में त्रावण कोर के राजा का शासन था। यह वो दौर था जब जातिवाद समाज पर बुरी तरह हावी था। निचली जातियां शोषित थीं और उच्च जाति वाले खुद को उनका मालिक समझते थे। छुआ-छूत, सामाजिक बहिष्कार जैसी चीजें आम थी। इसी जातिगत भेदभाव के तहत निचली जाति की महिलाओं को स्तन ढकने का अधिकार नहीं था। यानि उस क्षेत्र में उच्च वर्ग की महिलाएं ही स्तन ढक सकती थीं, निचली जाति की महिलाओं को सार्वजनिक स्थलों पर भी स्तन ढके बिना ही काम करना होता था। यह नियम कई तरह के आदिवासी समूहों और जनजातियों के लिए बनाया गया था। अगर निचली जाति की महिलाए अपना स्तन ढकने की इच्छा रखती थीं तो उन्हें राजा को टैक्स के रूप मे कुछ रुपये देने पड़ते थे, जिसे 'स्तन कर' या 'मुल्लकरम' कहा जाता था। यह कर क्षेत्रीय आर्थिक विकास के मामले देखने वाले अधिकारी के पास जमा करवाना जरूरी था। यह कर न दे पाने की स्थिति मे इन महिलाओं को स्तन ढाकने की इजाजत नहीं थी। हम जिस दौर की बात कर रहे हैं, उसमें निचला वर्ग बहुत गरीब था इसलिए इस वर्ग की महिलाओं ने इज्जत को दाव पर रखकर स्तन ढके बिना ही जीना स्वीकार किया।




***
बहिना बाईः भारत की पहली आत्मकथा लेखिका


(प्रायः विद्वानों ने भारतीय आत्मकथाओं के विकास का क्रम सन 1900 के बाद निर्धारित किया है। किन्तु गांधी युग से कई साल पहले 1700 में मूल मराठी भाषा में लिखी गयी बहिना बाई की आत्मकथा को भारतीय भाषाओं की पहली आत्मकथा माना जा सकता है। उस समय जबकि भारतीय स्त्री में खुद के बारे में सोचने की चेतना नहीं के बराबर थी. बहिना बाई ने शब्दो के माध्यम से अपनी बातों को अनजाने ही लोगों तक पहुंचाने का प्रयात्त किया। उन्होंने अपनी गृहस्थी की घुटन और अपनी लगन द्वारा ज्ञान प्राप्ति की छटपटाहट को सीधे-सीधे सरल शब्दों में बाधा। मूल मराठी भाषा में लिखी गयी यह आत्मकथा सन् 1914 तक पाण्डुलिपि के रूप में ही रही। सन 1914 में इसे प्रकाशित किया। आत्मकथा हाथों-हाथ विक गयी। सन् 1926 में इसका दूसरा संस्करण प्रकाशित हुआ। मराठी जगने वाले अंग्रेज पादरी जस्टीन अबोट ने आत्मकथा का अंग्रेजी में अनुवाद किया और 1929 में ॐ यह रचना प्रकाशित हुई। अंग्रेजी संस्करण के प्रथम 1 पृष्ठों में बहिनाबाई की आत्मकया है पुस्तक के उत्तरार्दध में उनके द्वारा रचित अभंगों का अंग्रेजी अनुवाद है तथा अतिम भाग में बहिना बाई द्वारा मूल मराठी में लिखी गई आत्मकथा दी गई है।)
****

गुमनाम वीरांगनाएँ

पार्वती बाई अठावलेः जो विधवाओं के हक के लिए लड़ी

(हमारे भारतीय समाज में ऐसी अनेक महिलाए हुई हैं जिन्होंने अपने जीवन की अधेरी राहों को तो रोशन किया ही, पूरे समाज की महिलाओं को भी प्रकाश का रास्ता दिखाया। ऐसी ही गुमनाम वीरागनाओं में पार्वतीबाई अठावले का नाम अगली कतार में आता है. जिन्होंने मराठी भाषा में अपनी आत्मकथा लिखी जिसका अंग्रेजी अनुवाद 1923 में 'द ऑटोबायोग्राफी ऑफ एन इण्डियन विडो' शीर्षक से प्रकाशित हुआ तथा 1986 में 'हिन्दू विडो-एन ऑटोबायोग्राफी शीर्षक से पुनः प्रकाशित हुआ। इस हृदय विदारक आत्मकथा का अनुवाद मराठी का ज्ञान रखने वाले एक अंग्रेज पादरी 'जस्टीन अबोट ने किया।)

      पार्वती बाई का जन्म सन् 1870 में कोंकण के रत्नागिरि जिले के देवरुख गाँव में हुआ। 14 वर्ष की अल्पआयु में उनका विवाह गोवा में सरकारी नौकरी करने वाले अठावले से हुआ। 20 वर्ष की उम्र में ही उनके पति की मृत्यु हो गई। उस समय वे एक वर्ष के शिशु की माँ बन चुकी थी। अठावले के निधन से उन पर विपत्ति का पहाड़ टूट पड़ा क्योंकि वे अपने पीछे पार्वती की जीविका के लिए कोई आधार नहीं छोड गये थे। उन्हें मजबूरन अपने मायके लौटना पड़ा, वह मायका, जहाँ उनकी दो बड़ी बहनें पहले से ही वैधव्य का दुःखद जीवन जी रही थीं। परम्परागत हिन्दू विधवाओं का अभिशप्त जीवन जीते हुए भी वे अपने एकाकीपन और दुःख को मन की गहराइयों में छिपाकर बनावटी मुस्कान ओढ़े रहती थीं। उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है 'माता-पिता की उपस्थिति में मैं हमेशा खुद को खुश दिखाने की कोशिश करती।' पार्वती बाई के बड़े भाई, नरहर पत, सुधारवादी विचारों के समर्थक थे। उन्होंने अपनी एक बाल विधवा बहन, बाया को, मुंबई पढ़ने भेजा था। नरहर पत के घनिष्ठ मित्र थे आचार्य 'कर्वे' जिनसे बाया के पुनर्विवाह के लिए किसी विधुर वर की तलाश के लिए पत ने आग्रह किया। कर्वे स्वय इस कार्य के लिए तैयार हो गये। विवाह के बाद इस दंपत्ति ने पार्वती बाई को पूना में रखकर पढ़ाने का विचार किया। पार्वती बाई की सास को इस पर सख्त ऐतराज था क्योंकि वह नहीं चाहती थी कि उनकी बहू पर भी सुधारवाद की छाया पड़े।


***
फातिमा शेखः प्रथम मुस्लिम महिला शिक्षिका

(फातिमा शेख एक भारतीय शिक्षिका थी, जिन्होंने 19 वीं शताब्दी मे समाज सुधारक ज्योतिबा फुले और सवित्रीबाई फुले के साथ शिक्षा के काम को आगे बढ़ाया। फातिमा शेख मियां उस्मान शेख की बहन थी, जिनके घर में ज्योतिबा और सावित्रीबाई फुले ने उस समय शरण ली थी. जब फुले के पिता ने दलितों और महिलाओं के उत्थान के लिए किए जा रहे उनके कामों की वजह से उन्हें घर से निकाल दिया था। उस्मान शेख ने फुले दम्पत्ती को अपने घर में रहने की पेशकश की और परिसर में एक स्कूल चलाने पर भी सहमति व्यक्त की। फातिमा ने हर संभव तरीके से ज्योतिबा और सावित्रीबाई फुले के साथ मिलकर शिक्षा के प्रचार प्रसार के साथ साथ, अन्य कई तरीकों से समाज सुधार आदोलन में साथ दिया।)

Doctors and paramedical staff in jails of Haryana

Doctors and paramedical staff in jails of Haryana
As on 1.05.2025
Male medical officer
Sanctioned  37
Filled. 5
Vacant. 32
Lady medical doctors 

Sanctioned.. 18
Filled.. 1
Vacant..17
Dermatologist
Sanctioned..7
Filled..0
Vacant..7
Dental surgeon
Sanctioned..8
Filled...3
Vacant...5
Psychiatrist
Sanctioned..4
Filled..0
Vacant..4
Clinical Psychologist
Sanctioned..21
Filled..0
Vacant..21

Psychiatric social worker
Sanctioned..20
Filled...0
Vacant..20
Pharmacy officer

Sanctioned..42
Filled..8
Vacant..34

Lab technician
Sanctioned..20
Filled..1
Vacant..19

Dental Assistant
Sanctioned..7
Filled..0
Vacant..7
ECG Technician

Sanctioned..18
Filled..0
Vacant..18

Male Nurse
Sanctioned..39
Filled..2
Vacant..37

Female Nurse
Sanctioned..18
Filled..3
Vacant..15

Radiographer
Sanctioned..18
Filled..1
Vacant..17


Sanctioned..
Filled..
Vacant..


Sanctioned..
Filled..
Vacant..


Sanctioned..
Filled..
Vacant..

beer's shared items

Will fail Fighting and not surrendering

I will rather die standing up, than live life on my knees:

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