Tuesday, December 24, 2024

हरयाणा का सामाजिक सांस्कृतिक परिद्रश्य

 हरयाणा का सामाजिक सांस्कृतिक परिद्रश्य

रणबीर सिंह दहिया

       हरयाणा एक कृषि प्रधान प्रदेश के रूप में जाना जाता है । राज्य के समृद्ध और सुरक्षा के माहौल में यहाँ के किसान और मजदूर , महिला और पुरुष ने अपने खून पसीने की कमाई से नई तकनीकों , नए उपकरणों , नए खाद बीजों व पानी का भरपूर इस्तेमाल करके खेती की पैदावार को एक हद तक बढाया , जिसके चलते हरयाणा के एक तबके में सम्पन्नता आई मगर हरयाणवी समाज का बड़ा हिस्सा इसके वांछित फल नहीं प्राप्त कर सका ।

       यह एक सच्चाई है कि हरयाणा के आर्थिक विकास के मुकाबले में सामाजिक विकास बहुत पिछड़ा रहा है । ऐसा क्यों हुआ ? यह एक गंभीर सवाल है और अलग से एक गंभीर बहस कि मांग करता है । हरयाणा के सामाजिक सांस्कृतिक क्षेत्र पर शुरू से ही इन्ही संपन्न तबकों का गलबा रहा है । यहाँ के काफी लोग फ़ौज में गए और आज भी हैं मगर उनका हरयाणा में क्या योगदान रहा इसपर ज्यादा ध्यान नहीं गया है । उनकी एक भूमिका है। 

इसी प्रकार देश के विभाजन के वक्त जो तबके हरयाणा में आकर बसे उन्होंने हरयाणा की दरिद्र संस्कृति को कैसे प्रभावित किया ; इस पर भी गंभीरता से सोचा जाना शायद बाकी है । क्या हरयाणा की संस्कृति महज रोहतक, जींद व सोनीपत जिलों कि संस्कृति है? क्या हरयाणवी डायलैक्ट एक भाषा का रूप ले  सकता है ? महिला विरोधी, दलित विरोधी तथा प्रगति विरोधी तत्वों तथा सामंती पितृसत्तात्मक सोच  को यदि हरयाणवी संस्कृति से बाहर कर दिया जाये तो हरयाणवी संस्कृति में स्वस्थ पक्ष क्या बचता है ? इस पर समीक्षात्मक रुख अपना कर इसे विश्लेषित करने कि आवश्यकता है । क्या पिछले दस पन्दरा सालों में और ज्यादा चिंताजनक पहलू हरयाणा के सामाजिक सांस्कृतिक माहौल में शामिल नहीं हुए हैं ? व्यक्तिगत स्तर पर महिलाओं और पुरुषों ने बहुत सारी सफलताएँ हांसिल की हैं | समाज के तौर पर 1857 की आजादी की पहली जंग में सभी वर्गों ,सभी मजहबों व सभी जातियों के महिला पुरुषों का सराहनीय योगदान रहा है । इसका असली इतिहास भी कम लोगों तक पहुँच सका है ।

        हमारे हरयाणा के गाँव में पहले भी और कमोबेश आज भी गाँव की संस्कृति , गाँव की परंपरा , गाँव की इज्जत व शान के नाम पर बहुत छल प्रपंच रचे गए हैं और वंचितों, दलितों व महिलाओं के साथ न्याय कि बजाय बहुत ही अन्याय पूर्ण व्यवहार किये जाते रहे हैं ।उदाहरण के लिए हरयाणा के गाँव में एक पुराना तथाकथित भाईचारे व सामूहिकता का हिमायती रिवाज रहा है कि जब भी तालाब (जोहड़) कि खुदाई का काम होता तो पूरा गाँव मिलकर इसको करता था । रिवाज यह रहा है कि गाँव की हर देहल से एक आदमी तालाब कि खुदाई के लिए जायेगा । पहले हरयाणा के गावों क़ी जीविका पशुओं पर आधारित ज्यादा रही है। गाँव के कुछ घरों के पास 100 से अधिक पशु होते थे । इन पशुओं का जीवन गाँव के तालाब के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा होता था । गाँव क़ी बड़ी आबादी के पास न ज़मीन होती थी न पशु होते थे । अब ऐसे हालत में एक देहल पर तो सौ से ज्यादा पशु हैं, वह भी अपनी देहल से एक आदमी खुदाई के लिए भेजता था और बिना ज़मीन व पशु वाला भी अपनी देहल से एक आदमी भेजता था । वाह कितनी गौरवशाली और न्यायपूर्ण परंपरा थी हमारी? यह तो महज एक उदाहरण है परंपरा में गुंथे अन्याय को न्याय के रूप में पेश करने का ।

             महिलाओं के प्रति असमानता व अन्याय पर आधारित हमारे रीति रिवाज , हमारे गीत, चुटकले व हमारी परम्पराएँ आज भी मौजूद हैं । इनमें मौजूद दुभांत को देख पाने क़ी दृष्टि अभी विकसित होना बाकी है | लड़का पैदा होने पर लडडू बाँटना मगर लड़की के पैदा होने पर मातम मनाना , लड़की होने पर जच्चा को एक धड़ी घी और लड़का होने पर दो धड़ी घी देना, लड़के क़ी छठ मनाना, लड़के का नाम करण संस्कार करना, शमशान घाट में औरत को जाने क़ी मनाही , घूँघट करना , यहाँ तक कि गाँव कि चौपाल से घूँघट करना आदि बहुत से रिवाज हैं जो असमानता व अन्याय पर टिके हुए हैं । सामंती पिछड़ेपन व सरमायेदारी बाजार के कुप्रभावों के चलते महिला पुरुष अनुपात चिंताजनक स्तर तक चला गया । मगर पढ़े लिखे हरयाणवी भी इनका निर्वाह करके बहुत फखर महसूस करते हैं । यह केवल महिलाओं की संख्या कम होने का मामला नहीं है बल्कि सभ्य समाज में इंसानी मूल्यों की गिरावट और पाशविकता को दर्शाता है । हरयाणा में पिछले कुछ सालों से यौन अपराध , दूसरे राज्यों से महिलाओं को खरीद के लाना और उनका यौन शोषण  आदि का चलन बढ़ रहा है । सती, बाल विवाह अनमेल विवाह के विरोध में यहाँ बड़ा सार्थक आन्दोलन नहीं चला । स्त्री शिक्षा पर बल रहा मगर को- एजुकेसन का विरोध किया गया , स्त्रियों कि सीमित सामाजिक भूमिका की भी हरयाणा में अनदेखी की गयी । उसको अपने पीहर की संपत्ति में से कुछ नहीं दिया जा रहा जबकि इसमें उसका कानूनी हक़ है । चुन्नी उढ़ा कर शादी करके ले जाने की बात चली है । दलाली, भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी से पैसा कमाने की बढ़ती प्रवृति चारों तरफ देखी जा सकती है । यहाँ समाज के बड़े हिस्से में अन्धविश्वास , भाग्यवाद , छुआछूत , पुनर्जन्मवाद , मूर्तिपूजा , परलोकवाद , पारिवारिक दुश्मनियां , झूठी आन-बाण के मसले, असमानता , पलायनवाद , जिसकी लाठी उसकी भैंस , मूछों के खामखा के सवाल , परिवारवाद ,परजीविता ,तदर्थता आदि सामंती विचारों का गहरा प्रभाव नजर आता है । ये प्रभाव अनपढ़ ही नहीं पढ़े लिखे लोगों में भी कम नहीं हैं । हरयाणा के मध्यमवर्ग का विकास एक अधखबड़े मनुष्य के रूप में हुआ । 


          तथाकथित स्वयम्भू सामंती संस्थाएं नागरिक के अधिकारों का हनन करती रही हैं और महिला विरोधी व दलित विरोधी तुगलकी फैसले करती रहती हैं और इन्हें नागरिक को मानने पर मजबूर करती रहती हैं । राजनीति व प्रशासन मूक दर्शक बने रहते हैं या चोर दरवाजे से इन संस्थाओं की मदद करते रहते हैं । यह अधखबड़ा मध्यम वर्ग भी कमोबेश इन संस्थाओं के सामने घुटने टिका देता है । एक दौर में हरयाणा में इस प्रकार की संस्थाओं द्वारा जाति, गोत ,संस्कृति ,मर्यादा आदि के नाम पार महिलाओं के नागरिक अधिकारों के हनन में बहुत तेजी आई  और अपना सामाजिक वर्चस्व बरक़रार रखने के लिए जहाँ एक ओर कई जात पर आधारित संस्थाएं घूँघट ,मार पिटाई ,शराब,नशा ,लिंग पार्थक्य ,जाति के आधार पर अपराधियों को संरक्षण देना आदि सबसे पिछड़े विचारों को प्रोत्साहित करती हैं वहीँ दूसरी ओर साम्प्रदायिक ताकतों के साथ मिलकर युवा लड़कियों की सामाजिक पहलकदमी और रचनात्मक अभिव्यक्ति को रोकने के लिए तरह तरह के फतवे जारी करती रही हैं । जौन्धी औऱ ,नयाबांस की घटनाएँ तथा इनमें इन संस्थाओं द्वारा किये गए तालिबानी फैंसले जीते जागते उदाहरण हैं । युवा लड़कियां केवल बाहर ही नहीं बल्कि परिवार में भी अपने लोगों द्वारा यौन-हिंसा और दहेज़ हत्या की शिकार हों रही हैं । ऐसी संस्थाएं बड़ी बेशर्मी से बदमाशी करने वालों को बचाने की कोशिश करती हैं । एक दौर से गाँव की गाँव, गोत्र की गोत्र और सीम के लगते गाँव के भाईचारे की गुहार लगाते हुए हिन्दू विवाह कानून 1955 ए में संसोधन की बातें की  गई और अभी भी कभी कभी की जा रही हैं ,धमकियाँ दी जा रही हैं और जुर्माने किये जा रहे हैं। हरयाणा के रीति रिवाजों की जहाँ एक तरफ दुहाई देकर संशोधन की मांग उठाई जा रही है वहीँ हरयाणा की ज्यादतर आबादी के रीति रिवाजों की अनदेखी भी की जा रही है । हरियाणा में  खाते-पीते मध्य वर्ग और अन्य साधन सम्पन्न तबक़ों का इसे समर्थन किसी हद तक सरलता से समझ में आ सकता है, जिनके हित इस बात में हैं कि ये तबके- स्त्रियां, दलित, अल्पसंख्यक और करोड़ों निर्धन जनता- नागरिक समाज के निर्माण के संघर्ष से अलग रहें। 

     लेकिन साधारण जनता अगर फ़ासीवादी मुहिम में शरीक करने की कोशिश की जाती है तो वह अपनी भयानक असहायता , अकेलेपन, हताशा अन्धसंशय, अवरुद्ध चेतना, पूर्वग्रहों, भ्रम द्वारा जनित भावनाओं के कारण शरीक होती है। फ़ासीवाद के कीड़े जनवाद से वंचित और उसके व्यवहार से अपरिचित, रिक्त, लम्पट और घोर अमानुषिक जीवन स्थितियों में रहने वाले जनसमूहों के बीच आसानी से पनपाए जा सकते हैं। यह भूलना नहीं चाहिए कि हिन्दुस्तान की आधी से अधिक आबादी ने जितना जनतंत्र को बरता है, उससे कहीं ज़्यादा फ़ासीवादी परिस्थितियों में रहने का अभ्यास किया है। 


           गाँव की इज्जत के नाम पर होने वाली जघन्य हत्याओं की हरियाणा में बढ़ोतरी हो रही हैं । समुदाय , जाति या परिवार की इज्जत बचाने के नाम पर महिलाओं को पीट पीट कर मार डाला जाता है , उनकी हत्या कर दी जाती है या उनके साथ बलात्कार किया जाता है । एक तरफ तो महिला के साथ वैसे ही इस तरह का व्यवहार किया जाता है जैसे उसकी अपनी कोई इज्जत ही न हो , वहीँ उसे समुदाय की 'इज्जत' मान लिया जाता है और जब समुदाय बेइज्जत होता है तो हमले का सबसे पहला निशाना वह महिला और उसकी इज्जत ही बनती है । अपनी पसंद से शादी करने वाले युवा लड़के लड़कियों को इस इज्जत के नाम पर सार्वजनिक रूप से फांसी पर लटका दिया जाता है ।

           यहाँ के प्रसिद्ध सांगियों हरदेव , लख्मीचंद ,बाजे भगत , महाशय दयाचंद, ,मांगेराम ,चंदरबादी, धनपत, मेहर सिंह , व खेमचंद  की रचनाएं काफी प्रशिद्ध हुई हैं। रागनी कम्पीटिसनों का दौर एक तरह से काफी कम हुआ है । ऑडियो कैसेटों की जगह सीडी लेती गई और अब यु ट्यूब और सोशल मीडिया ने ले ली है। स्वस्थ ,जन पक्षीय सामग्री के साथ ही पुनरुत्थान वादी व अंध उपभोग्तवादी मूल्यों की सामग्री भी नजर आती है । हरयाणा के लोकगीतों पर  समीक्षातमक काम कम हुआ है । महिलाओं के गीतों में महिला के दुःख दर्द का चित्रण काफी है । हमारे त्योहारों के अवसर के बेहतर गीतों की बानगी भी मिल जाति है ।

        गहरे संकट के दौर में हमारी धार्मिक आस्थाओं को साम्प्रदायिकता के उन्माद में बदलकर हमें जात गोत्र व धर्म के ऊपर लडवा कर हमारी इंसानियत के जज्बे को , हमारे मानवीय मूल्यों को विकृत किया जा रहा है | गऊ हत्या या गौ-रक्षा के नाम पर हमारी भावनाओं से खिलवाड़ किया जाता है । दुलिना हत्या कांड और अलेवा कांड गौ के नाम पर फैलाये जा रहे जहर का ही परिणाम थे। इसी धार्मिक उन्माद और आर्थिक संकट के चलते हर तीसरे मील पर मंदिर दिखाई देने लगे हैं । राधास्वामी और दूसरे सैक्टों का उभार भी देखने को मिलता है । अब इस ऊभार ने बहुत ही विकट रूप धारण कर लिया है।

         सांस्कृतिक स्तर पर हरयाणा के चार पाँच क्षेत्र हैं और इनकी अपनी विशिष्टताएं हैं । हरेक गाँव में भी अलग अलग वर्गों व जातियों के लोग रहते हैं । जातीय भेदभाव एक ढंग से कम हुए हैं मगर अभी भी गहरी जड़ें जमाये हुए हैं । आर्थिक असमानताएं बढ़ रही हैं । सभी पहले के सामाजिक व नैतिक बंधन तनावग्रस्त होकर टूटने के कगार पर हैं ।  मगर जनतांत्रिक मूल्यों के विकास की बजाय बाजारीकरण की संस्कृति के मान मूल्य बढ़ते जा रहे हैं । बेरोजगारी बेहताशा बढ़ी है । मजदूरी के मौके भी कम से कमतर होते जा रहे हैं। मजदूरों का जातीय उत्पीडन भी बढ़ा है । दलितों से भेदभाव बढ़ा है वहीँ उनका असर्सन भी बढ़ा है । कुँए अभी भी कहीं कहीं अलग अलग हैं । परिवार के पितृसतात्मक ढांचे में परतंत्रता बहुत ही तीखी हो रही है | पारिवारिक रिश्ते नाते ढहते जा रहे हैं मगर इनकी जगह जनतांत्रिक ढांचों का विकास नहीं हो रहा । तल्लाकों के केसिज की संख्या कचहरियों में बढ़ती जा रही है । इन सबके साथ साथ महिलाओं और बच्चों पर काम का बोझ बढ़ता जा रहा है । मजदूर वर्ग सबसे ज्यादा आर्थिक संकट की गिरफ्त में है । खेत मजदूरों ,भठ्ठा मजदूरों ,दिहाड़ी मजदूरों व माईग्रेटिड मजदूरों का जीवन संकट गहराया है । लोगों का गाँव से शहर को पलायन बढ़ा है ।

                      कृषि में मशीनीकरण बढ़ा है । तकनीकवाद का जनविरोधी स्वरूप ज्यादा उभर कर आया है । ज़मीन की दो -ढाई एकड़ जोत पर 70 प्रतिशत के लगभग किसान पहुँच गया है | ट्रैक्टर ने बैल की खेती को पूरी तरह बेदखल कर दिया है। थ्रेशर और हार्वेस्टर कम्बाईन ने मजदूरी के संकट को बढाया है।सामलात जमीनें खत्म सी हों रही हैं । कब्जे कर लिए गए या आपस में जमीन वालों ने बाँट ली । अन्न की फसलों का संकट है । पानी की समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया है । नए बीज ,नए उपकरण , रासायनिक खाद व कीट नाशक दवाओं के क्षेत्र में बहुराष्ट्रीय कम्पनियों की दखलंदाजी ने इस सीमान्त किसान के संकट को बहुत बढ़ा दिया है । प्रति एकड़ फसलों की पैदावार घटी है जबकि इनपुट्स की कीमतें बहुत बढ़ी हैं । किसान का कर्ज भी बढ़ा है । स्थाई हालातों से अस्थायी हालातों पर जिन्दा रहने का दौर तेजी से बढ़ रहा है । अन्याय व अत्याचार बेइन्तहा बढ़ रहे हैं । किसान वर्ग के इस हिस्से में उदासीनता गहरे पैंठ गयी थी और एक निष्क्रिय परजीवी जीवन , ताश खेल कर बिताने की प्रवर्ति बढ़ी है । हाथ से काम करके खाने की प्रवर्ति का पतन हुआ है । साथ ही साथ दारू व सुल्फे का चलन भी बढ़ा है और स्मैक जैसे नशीले पदार्थों की खपत बढ़ी है ।

पिछले दिनों एक साल तक चले किसान आंदोलन ने एक बार किसानी एकता को मजबूत करने का काम किया है। लेकिन किसानी संकट बढ़ता ही नजर आ रहा है। मध्यम वर्ग के एक हिस्से के बच्चों ने अपनी मेहनत के दम पर सॉफ्ट वेयर आदि के क्षेत्र में काफी सफलताएँ भी हांसिल की हैं । मगर एक बड़े हिस्से में एक बेचैनी भी बखूबी देखी जा सकती है । कई जनतांत्रिक संगठन इस बेचैनी को सही दिशा देकर जनता के जनतंत्र की लड़ाई को आगे बढ़ाने में प्रयासरत दिखाई देते हैं । अब सरकारी समर्थन का ताना बाना टूट गया है और हरयाणा में कृषि का ढांचा बैठता जा रहा है । इस ढांचे को बचाने के नाम पर जो नई कृषि नीति या नितियां परोसी जा रही हैं उसके पूरी तरह लागू होने के बाद आने वाले वक्त में ग्रामीण आमदनी ,रोजगार और खाद्य सुरक्षा की हालत बहुत भयानक रूप धारण करने जा रही है। 

    आज के दौर में साथ ही साथ बड़े हिस्से का उत्पीडन भी सीमायें लांघता जा रहा है, और इनकी दरिद्र्ता बढ़ती जा रही है । नौजवान सल्फास की गोलियां खाकर या फांसी लगाकर आत्म हत्या को मजबूर हैं ।

                 गाँव के स्तर पर एक खास बात और पिछले कुछ सालों में उभरी है वह यह की कुछ लोगों के प्रिविलेज बढ़ रहे हैं । इस नव धनाड्य वर्ग का गाँव के सामाजिक सांस्कृतिक माहौल पर गलबा है । पिछले सालों के बदलाव के साथ आई छद्म सम्पन्नता , सुख भ्रान्ति और नए उभरे सम्पन्न तबकों --परजीवियों ,मुफतखोरों और कमीशन खोरों -- में गुलछर्रे उड़ाने की अय्यास कुसंस्कृति तेजी से उभरी है । नई नई कारें ,कैसिनो ,पोर्नोग्राफी ,नँगी फ़िल्में ,घटिया केसैटें , हरयाणवी पॉप ,साइबर सैक्स ,नशा व फुकरापंथी हैं,कथा वाचकों के प्रवचन ,झूठी हसियत का दिखावा इन तबकों की सांस्कृतिक दरिद्र्ता को दूर करने के लिए अपनी जगह बनाते जा रहे हैं| जातिवाद व साम्प्रदायिक विद्वेष ,युद्ध का उन्माद और स्त्री द्रोह के लतीफे चुटकलों से भरे हास्य कवि सम्मलेन बड़े उभार पर हैं । इन नव धनिकों की आध्यात्मिक कंगाली नए नए बाबाओं और रंग बिरंगे कथा वाचकों को खींच लाई है । विडम्बना है की तबाह हों रहे तबके भी कुसंस्कृति के इस अंध उपभोगतावाद से छद्म ताकत पा रहे हैं ।

                     दूसर तरफ यदि गौर करेँ तो सेवा क्षेत्र में छंटनी और अशुरक्षा का आम माहौल बनता जा रहा है इसके बावजूद कि विकास दर ठीक बताई जा रही है । कई हजार कर्मचारियों के सिर पर छंटनी कि तलवार चल चुकी है और बाकी कई हजारों के सिर पर लटक रही है । सैंकड़ों फैक्टरियां बंद हों चुकी हैं । बहुत से कारखाने यहाँ से पलायन कर गए हैं । छोटे छोटे कारोबार चौपट हों रहे हैं । संगठित क्षत्र सिकुड़ता और पिछड़ता जा रहा है । असंगठित क्षेत्र का तेजी से विस्तार हों रहा है । फरीदाबाद उजड़ने कि राह पर है , सोनीपत सिसक रहा है , पानीपत का हथकरघा उद्योग गहरे संकट में है । यमुना नगर का बर्तन उद्योग चर्चा में नहीं है, ,सिरसा ,हांसी व रोहतक की धागा मिलें बंद हो गयी । धारूहेड़ा में भी स्थिलता साफ दिखाई देती है ।

      स्वास्थ्य के क्षेत्र में और शिक्षा के क्षेत्र में बाजार व्यवस्था का लालची व दुष्टकारी खेल सबके सामने अब आना शुरू हो गया है । सार्वजनिक क्षेत्र में साठ साल में खड़े किये ढांचों को या तो ध्वस्त किया जा रहा है या फिर कोडियों के दाम बेचा जा रहा है । शिक्षा आम आदमी की पहुँच से दूर खिसकती जा रही है । स्वास्थ्य के क्षेत्र में और भी बुरा हाल हुआ  है । गरीब मरीज के लिए सभी तरफ से दरवाजे बंद होते जा रहे हैं । लोगों को इलाज के लिए अपनी जमीनें बेचनी पड़ रही हैं । आरोग्य कोष या राष्ट्रिय बीमा योजनाएं ऊँट के मुंह  में जीरे के समान हैं । उसमें भी कई सवाल उठ रहे हैं । 

      आज के दिन व्यापार धोखाधड़ी में बदल चुका  है । छोटे व्यापारी का संकट बढ़ा है। माध्यम वर्ग के व्यापारी की हालत भी बदतर होती जा रही है। 

         यही हाल हमारे यहाँ की ज्यादातर राजनैतिक पार्टियों का हो चुका है । आज के दिन हर क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा ने दुश्मनी का रूप ले लिया है । हरयाणा में दरअसल सभ्य भाषा का इस्तेमाल खत्म सा होता दिखाई दे रहा है । लठ की भाषा का प्रचलन बढ़ा है । भ्रम व अराजकता का माहौल बढ़ा है । लोग किसी भी तरह मुनाफा कमाकर रातों रात करोड़पति से अरब पति बनने  के सपने देखते हैं । मनुष्य की मूल्य व्यवस्था ही उसकी विचारधारा होती है । मनुष्य कितना ही अपने को गैर राजनैतिक मानने की कोशिश करे फिर भी वह अपनी जिंदगी  में मान मूल्यों का निर्वाह करके इस या उस वर्ग की राजनीति कर रहा होता है । विचार धारा का अर्थ है कोई समूह ,समाज या मनुष्य खुद को अपने चारों ओर की दुनिया को, अपनी वास्तविकता को कैसे देखता है । 

     हरयाणा के  सांस्कृतिक क्षेत्र के भिन्न भिन्न पहलू हैं । धर्म, परिवार , शिक्षा , प्रचार माध्यम , सिनेमा टी वी ,रेडियो ,ऑडियो ,विडिओ ,अखबार , पत्र --पत्रिकाएँ , अन्य लोकप्रिय साहित्य , संस्कृति के अन्य लोकप्रिय रूप जिनमें लोक कलाएं ही नहीं जीवन शैलियों से लेकर तीज त्यौहार , कर्मकांड , विवाह , मृत्यु भोज आदि तो हैं ही ; टोने- टोटके , मेले ठेले भी शामिल हैं । इतिहास और विचारधारा की समाप्ति की घोषणा करके एक सीमा तक भ्रम अवश्य फैलाया जा सकता है मगर वर्ग संघर्ष को मिटाया नहीं जा सकता । यही प्रकृति का नियम भी है और विज्ञान सम्मत भी । इंसान पर निर्भर करता है कि वह मुठठी  भर लोगों के विलास बहुल जीवन की झांकियों को अपना आदर्श मानते हुए स्वप्न लोक के नायक और नायिकाओं के मीठे मीठे प्रणय गल्पों में मजा ले,मानव मानवी की अनियंत्रित यौन आकांक्षाओं को जीवन की सबसे बड़ी प्राथमिकता के रूप में देखें , औरत की देह को जीवन का सबसे सुरक्षित क्षेत्र बना डालें या अपने और आम जनता के विशाल जीवन और उसके विविध संघर्षों  को आदर्श मानकर वैचारिक उर्जा प्राप्त करे । समाज का बड़ा तबका बेचैन है अपनी गरिमा को फिर से अर्जित करने को। कुछ जनवादी संगठन इस बेचैनी को आवाज देने व जनता को वर्गीय अधरों पर लामबंद करने को प्रयास रत हैं ।


हरयाणा का सामाजिक सांस्कृतिक परिद्रश्य

रणबीर सिंह दहिया

भाग:2

आने वाले समय में गरीब और कमजोर तबकों , दलितों, युवाओं और  खासकर महिलाओं का अशक्तिकरण तथा इन तबकों का और भी हासिये पर धकेला  जाना साफ़ तौर पर उभरकर आ रहा है। इन तबकों का अपनी जमीं से उखड़ने ,उजड़ने व् तबाह होने का दौर शुरू हो चुका है और आने वाले समय में और तेज होने वाला है । हरियाणा में आज शिक्षित,अशिक्षित,और अर्धशिक्षित युवा लड़के व लड़कियां मरे मरे घूम रहे हैं । एक तरफ बेरोजगारी की मार है और दूसरी तरफ अंध उपभोग की लम्पट संस्कृति का अंधाधुंध प्रचार है । इनके बीच में घिरे ये युवक युवती लम्पटीकरण का शिकार तेजी से होते जा रहे हैं । स्थगित रचनात्मक उर्जा से भरे युवाओं को हफ्ता वसूली , नशाखोरी , अपराध और दलाली के फलते फूलते कारोबार अपनी और खिंच रहे हैं । बहुत छोटा सा हिस्सा भगत सिंह की विचार धारा से प्रभावित होकर सकारात्मक एजेंडे पर इन्हें लामबंद करने लगा है । ज्ञान विज्ञानं आन्दोलन ने भी अपनी जगह बनाई है ।

       प्रजातंत्र में विकास  का लक्ष्य सबको समान  सुविधाएँ और अवसर उपलब्ध करवाना होता है । विकास के विभिन्न सोपानों को पर करता हुआ संसार यदि एक हद तक विकसित हो गया है तो निश्चय ही उसका लाभ बिना किसी भेदभाव के पूरी दुनिया की पूरी आबादी को मिलना चाहिए परन्तु आज का यथार्थ ही यह है कि एस नहीं हुआ । आज के दौर में तीन खिलाड़ी नए उभर कर आये हैं (पहला डब्ल्यू टी ओ विश्व  व्यापर संगठन , दूसरा विश्व बैंक व तीसरा अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ), खुली बाजार व्यवस्था के ये हिम्मायती दुनिया के लए समानता की बात कभी नहीं करते बल्कि संसार में उपलब्ध महान अवसरों को पहचानने और उनका लाभ उठाने की बात करते हैं , गड़बड़ यहीं से शुरू होने लगती है । बहुराष्ट्रीय संस्थाओं का बाजार व्यवस्था पर दबदबा कायम है । आज छोटी बड़ी लगभग 67000 

बहुराष्ट्रीय संस्थाओं की 1,70,000 शाखाएं विश्व के कोने कोने में फ़ैली हुई हैं । ये संस्थाएं विभिन्न देशों की राजनैतिक , सामाजिक, सांस्कृतिक गतिविधियों पर भी हस्तक्षेप करने लगी हैं । ध्यान देने योग्य बात है कि इन सबके केन्द्रीय कार्यालय अमेरिका ,पश्चिम यूरोप या जापान में हैं । इनकी अपनी प्राथमिकतायें हैं । बाजार वयवस्था इनका मूल मन्त्र है । हरियाणा को भी इन कंपनियों ने अपने कार्यक्षेत्र के रूप में चुना  है । गुडगाँव एक जीता जागता उदाहरन  है । साइनिंग गुडगाँव तो सबको दिखाई देता है मगर सफरिंग गुडगाँव को देखने को हम तैयार ही नहीं हैं । 

       आज के दौर में बहार से महाबली बहुराष्ट्रीय निगम और उनका जगमगाता बाजार और भीतर से सांस्कृतिक फासीवादी ताकतें समाज को अपने अपने तरीकों से विकृत कर रही हैं । इस   बाजारवाद ,कट्टरवाद  की मिलीभगत जग जाहिर है । इनमें से एक ने हमारी लालच ,हमारी सफलताओं की निकृष्ट इच्छाओं को सार्वजनिक कर दिया है और दुसरे ने हमारे मनुष्य होने को और हमारे आत्मिक जीवन को दूषित करते हुए हमें एक हीन मनुष्य में तब्दील कर दिया है । यह ख़राब किया गया मनुष्य जगह जगह दिखाई देता है जिसमें धैर्य और सहिष्णुता बहुत कम है और जिसके भित्तर की उग्रता और आक्रामकता दुसरे को पीछे धकेल कर जल्दी से कुछ झपट लेने ,लूट लेने और कामयाब होकर खिलखिलाने की बेचैनी को बढ़ा  रही हैं ।  इस समय में समाज के गरीब नागरिकों को अनागरिक बनाकर अदृश्य हाशियों की ओर फैंका जा रहा है । उनके लिए नए नए रसातल खुलते जा रहे हैं जबकि समाज का एक छोटा सा मगर ताकतवर हिस्सा मौज मस्ती का परजीवी जीवन बिता रहा है । समाज के इस छोटे से हिस्से के अपने उत्सव मानते रहते हैं जो की एक कॉकटेल पार्टी की संस्कृति अख्तियार करते जा रहे हैं । बाकि हरियाणवी समाज की जर्जरता बढाने के साथ साथ इस तबके के राग रंग बढ़ते हैं क्योंकि संकट से बचे रहने का , मुसीबतों को दूर धकेलने का तात्कालिक उपाय यही है । यह लोग बाजार में उदारतावाद और संस्कृति में संकीर्णतावाद व  पुनरूत्थानवाद  के समर्थक हैं । आजकल प्रचलित हरियाणवी सीडियों में परोसे जा रहे वलगर गीत नाटकों को यही ताकतें बढ़ावा दे रही हैं । असल में हमारा समाज पाखंडों और झूठों पर टिका हुआ अनैतिक समाज है । इसलिए हमें जोर जोर से नैतिकता शब्द का उच्चारण करना जरूरी लगता है । वस्तुत हमारे समाज में लाख की चोरी करने वाला यदि न पकड़ा जाये तो पकडे जाने वाले एक रुपये की चोरी करने वाले की तुलना में महान  बना रह सकता है ।

बड़ी होशियारी से हमारे मन मस्तिष्क पर बाजारवाद का स्वप्न चढ़ाया जा रहा है । तमाम ठाठ बाठ के सपनों में उलझाकर बेखबरी में हमें जिधर धकेल जा रहा है हम उधर ही धिकते जा रहे हैं । इसीलिए आज यह प्रश्न अति गंभीर हु उठा है की जिस ग्लोबल विलेज की चर्चा की जा रही है वह आम आदमी और खासकर गरीबों के रहने लायक है भी या नहीं ? अब जबकि टेलीविजन के मध्यम से यह बाजार घर घर में प्रवेश कर चुका है तो भारत जैसे कृषि प्रधान देश में भी यह टेलीविजन बगैर परिश्रम किये ऐसो आराम परोसने का कम कर रहा  है अगर यकीं न हो तो जरा उन विज्ञापनों पर ध्यान दें जिसमें अमुक वस्तुओं को खरीदने पर कहीं कर तो कहीं सोना , कहीं टी वी , तो कहीं और कुछ दिलाने का सपना दिखा वस्तुओं का विक्रय बढाया जाता है । चंद मिनटों 

में करोडपति बन ने की उम्मीद जगाई जाती हैं । कुल मिलाकर किस्सा यह बनता है कि परिश्रम ,कर्तव्य , इमानदारी इत्यादि को घर के कूड़ा दान में फैंको ; खरीदो खरीदो और खरीदो और  मौज  करो । 

        रातों रात अमीरी  के सपने देखता युवा वर्ग इस अंधी दौड़ में तेजी से शामिल होता जा रहा है जिसमें सफलता के लिए कोई भी कीमत जायज हो सकती है । धन प्राप्ति के लिए जायज नाजायज कुछ भी किया जा सकता है । हमें जल्दी से जल्दी वो सरे ऐशो आराम एवम मस्ती चाहिए जो टी वी के द्वारा दिन रात परोसे जा रहे हैं । हमें बहकाया जा रहा है , निकम्मा बनाया जा रहा है । अश्लीलता को मौज मस्ती का पर्याय बता दिनोंदिन हमें अति उप भोग्तावाद की अंधी गली में धकेल जा रहा है जहाँ से बहार निकलना बहुत मुश्किल होता  है । अधनंगे वस्त्रों का फैशन शो अब महानगरों से निकल कर कस्बों व् गाँव तक पहुँच रहा है । युवा वर्ग लालायित हो उनकी नक़ल करने की होड़ में दौड़ रहा है । 

             मल्टीनेशनल मालामाल हो रहे हैं , भारतीय कारीगर भुखमरी की और जा रहे हैं । आज आसामी सिल्क, बा लूचेरी की कारीगरी , कतकी पोचमपल्ली या बोकई के कारीगरों को मल्टीनेशनल के होड़ में खड़ा कर दिया गया है। अब इस गैर  बराबरी की  होड़ में भारतीय कारीगर चाहे वह किसी भी क्षेत्र का हो , कैसे टिक पायेगा ? इम्पोर्टिड चीजों को प्रचारित कर उन्हें स्टेटस सिम्बल बनाया जा रहा है और भारतीय कशीदाकारी को तबाह किया जा रहा है । भारतीय बेहतर कालीनों को बाल मजदूरी के नाम पर पश्चिमी देश प्रतिबंधित कर रहे हैं ताकि भारतीय वास्तु वहां के बाजार में प्रवेश न कर पाए । मगर उनकी वस्तुएं हमारे बाजार पर छ जाएँ । 

हमारे भारतीय हुनर के लिए यह मौत का फरमान ही तो है । बाजारवाद की इस होड़ में मल्टीनेसनल के सामने 

हमारी कारीगरी ही नहीं भारतीय कम्पनियाँ भी कब तक टिक पाएंगी यह एक अहम् सवाल है। पूरे भारत के सभी दरवाजे उनके लिए खोल दिए गए हैं । 

              अब मैकडोनाल्ड को ही लिया जाये , यह महानगरों तक नहीं सिमित रहा । अब तो शहर शहर , गली गली में मैकडोनाल्ड , हमारे बच्चों को बर्गर ,पिज्जा फ्री के उपहार दे कर खाने की आदत डालेगा , रिझाएगा , फँसाएगा ताकि कल को वह पूरी , परांठा , इडली , डोसा भूल जाये और बर्गर ओइज्ज के बगैर रह ही नहीं पाए । आखिर बच्चे ही तो कल का भविष्य हैं जिसने उनको जीता उसी की तूती बोलेगी कल पूरे भारत देश में । पहले जैसे साम्राज्य स्थापित करने के लिए देश विशेष की संस्कृति , कारीगरी , हुनर, व्यवसाय एवं शिक्षा को नष्ट किया जाता था ताकि साम्राज्य की पकड़ देश विशेष पर और मजबूत हो । इसी प्रकार आज बाजार के लिए देश प्रदेश विशेष के हुनर , कारीगरी , व्यवसाय ,शिक्षा एवं संस्कृति पर ही हमला बोल जा रहा है और हमारे मीडिया इस मामले में मल्टीनेसनल की भरपूर सहायता कर रहे हैं । हरियाणा में अब गुनध्धा हुआ आट्टा , अंकुरित मूंग, चना आदि भी विदेशी कम्पनियाँ लाया करेंगी । कूकीज , चाकलेट व् केक हमारे घर की शोभा होंगे , जलेबी और रसगुल्ले अतीत की यादगार होंगे । भारतीय कुटीर ऊद्योग के साथ साथ अन्य कम्पनियाँ भी मल्टीनेसनल के पेट में चली जायेंगी ।  

      सवाल यही है कि क्या बिना किसी विचार के इतना अन्याय से भरा असमानताओं पर टिका समाज टिका रह सकता है ? यदि नहीं तो इसके ठीक उल्ट विचार भी अवश्य है जो एक समता पर टिके नयायपूर्ण समाज की परिकल्पना रखता है । उस विचार से नजदीक का सम्बन्ध बनाकर ही इस बेहतर समाज के निर्माण में हम अपना योगदान दे सकते हैं । इसके बनाने के सब साधन इसी दुनिया में इसी हरियाणा में मौजूद हैं । जरूरत है उस नजर को विक्दित करने की । आज मानवता के वजूद को खतरा है । यह इस विचारधारा का या उस विचारधारा का मसला नहीं है । यह एक देश का सवाल नहीं है यह एक प्रदेश का सवाल नहीं है यह पूरी दुनिया का सवाल है । जिस रस्ते पर दुनिया अब जा रही है इस रस्ते पर मानवता का विनाश निश्चित है । हरियाणा के विकास मॉडल में भी यह साफ़ प्रकट हो रहा है । नव वैश्वीकरण की प्रक्रिया से विनाश ही होगा विकास नहीं । मगर अब दुनिया यह सब समझ रही है । हरियानावासी भी समझ रहे हैं । मानवता अपनी गर्दन इस वैश्वीकरण की कुल्हाडी के नीचे नहीं रखेगी । मानवता का जिन्दा रहने का जज्बा और मनुष्य के विचार की शक्ति ऐसा होना असंभव कर देगी । हरियाणा में नव जागरण ने अपने पाँव रखे हैं । युवा लड़के लड़कियां , दलित, और महिलाएं इसके अगवा दस्ते होंगे और समाज सुधर का काम अपनी प्रगतिशील दिशा अवश्य पकड़ेगा|



Tuesday, December 3, 2024

*चुनाव परिणाम को लेकर प्रचार और हकीकत*

 हरियाणा

*चुनाव परिणाम को लेकर प्रचार और हकीकत*


हरियाणा विधानसभा के लिए हुए चुनाव परिणाम के अनुसार भाजपा 39.94% वोट लेकर 48 सीटें जीत गई है और कांग्रेस 39.09% यानी .85% कम वोट मिलने से 37 सीटें ही जीत पाई है। यदि जनादेश की नजर से देखें तो 60.06% लोगों ने भाजपा को पसंद नहीं किया है। इसके बावजूद जीत को बढ़ाचढ़ाकर पेश किया जा रहा है, क्योंकि चुनाव परिणाम अप्रत्याशित हैं। आमजन भावना, मीडिया सर्वे, एक्जिट पोल आदि में कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत मिलता दिखाया जा रहा था और परिणाम उसके विपरीत आया है। इसलिए सभी भाजपा को मिले पूर्ण बहुमत की अपने-अपने ढंग से व्याख्या कर रहे हैं। अनेक पत्रकारों, चुनाव विश्लेषकों और राजनीतिक कार्यकर्ताओं ने इसे जाति ध्रुवीकरण, सामाजिक मुद्दों के हावी होने अथवा जाट बनाम अन्य कहकर सरलीकृत करने का प्रयास किया है। ऐसा कहना तथ्यों से मेल भी नहीं खाता और ऐसे मिथ्या प्रचार से समाज में आपसी रिश्तों पर बुरा प्रभाव पड़ने की आशंका भी है। कुछ लोग जानबूझकर दलित मतदाताओं को भाजपा के पाले में गए दिखाकर उन्हें कांग्रेस से छिटकाने की भाजपा की चाल का शिकार हो गए हैं।


कांग्रेस पार्टी की सांगठनिक कमजोरी, गुटबाजी, जाटबहुल मतदाताओं के अति उत्साह से कुछ दलित वोटों का चुपचाप भाजपा के पाले में चले जाना, कुमारी शैलजा की टिकट वितरण को लेकर उपेक्षा और उनकी प्रतिक्रिया आदि अनेकों प्रश्न अपनी जगह सही और असरदार हो सकते हैं। इसके बावजूद डाले गए मतों के रूझान और ठोस साक्ष्य दिखाते हैं कि जाति ध्रुवीकरण या 35 : 1 के बीच ध्रुवीकरण दिखाना तथ्यात्मक रूप से ही गलत है। जाट बहुल इलाकों में कांग्रेस के बागी या इनेलो के उम्मीदवारों ने कई सीटों पर अच्छे वोट लिए हैं जिनके चलते कांग्रेस के उम्मीदवार हार गए। उन्हें मिले हुए अधिकतर वोट जाट समुदाय के हैं। वहाँ यदि कांग्रेस जीती है या मुकाबले में बनी रही है तो यह तभी संभव हो पाया है जब उसके पक्ष में दलितों व पिछड़ों समेत अन्य जातियों के लोगों ने वोट डाले हैं। उदाहरण के लिए नरवाना में कांग्रेस से बागी होकर इनेलो टिकट पर आई विद्या दनोदा को 46303 वोट मिले और भाजपा के कृष्ण बेदी 11499 मतों से विजयी रहे। क्या यह जाति ध्रुवीकरण को दिखाता है? नहीं, विद्या को मिले अधिकतर वोट बिनैण खाप से जाटों के हैं। उचाना देख लें - कांग्रेस से बागी होकर या चौधरी वीरेन्द्र सिंह के विरोध के लिए खड़े तीन उम्मीदवारों को 50 हजार से ज्यादा वोट मिले हैं। ये जाटों के ही हैं। इसका मतलब साफ है कि कांग्रेस के बृजेन्द्र सिंह को मिले वोटों में गैर जाट का भी बड़ा हिस्सा रहा है। वे केवल 32 मतों से हारे हैं। लोकसभा चुनाव के विपरीत जीन्द सीट पर विशेषकर कंडेला खाप के कुछ गांवों में कांग्रेस के महावीर गुप्ता को मिला कम समर्थन तथा बागी प्रदीप गिल को मिले छह हजार से ज्यादा वोट जाट मतदाताओं का विभाजन ही दिखाते हैं। सफीदों सीट पर निर्दलीय  जसबीर देसवाल को 20114 वोट मिले और सुभाष गांगोली 4037 मतों से हार गए।


सोनीपत जिले को देख लें। भले ही बरोदा सीट कांग्रेस जीत पाई लेकिन दूसरे स्थान पर रहे कपूर सिंह नरवाल के 48820 वोट जाट मतों के बंटवारे तथा इन्दुराज को छत्तीस बिरादरी के समर्थन का साक्ष्य हैं। गोहाना में कांग्रेस 10429 वोटों से हार गई। यहाँ कांग्रेस के बागी हर्ष छिक्कारा 14761 वोट ले गए। इनके अलावा रणवीर दहिया को 8824 मत पड़े। खरखौदा, राई, सोनीपत, गन्नौर सभी सीटों पर जाट मतों विभाजन इस बात का साक्षी है कि कांग्रेस उम्मीदवार गैर जाट समुदाय में अच्छी वोट ले पाए।  बाढड़ा, भिवानी, बरवाला, हाँसी,  इसराना, कलायत आदि सीटें भी यही रूझान दिखाती हैं कि जाट मतों का बंटवारा एकाधिक उम्मीदवारों के बीच हुआ और दलित वर्ग व अन्य तबकों के वोटों के सहारे कांग्रेस के उम्मीदवार जीते या अच्छी वोट ले पाए। एक और ठोस उदाहरण लाडवा सीट का है। नायब सिंह सैनी ने यह सीट 16054 मतों से जीती। यहाँ विक्रमजीत सिंह चीमा ने 11191 और सपना बड़शामी ने 7439 वोट लिए। इन दोनों के 18530 वोटों में से अधिकतर जाटों व जट्टसिक्खों के हैं। यदि कांग्रेस के मेवासिंह को अन्य जातियों का समर्थन नहीं मिला होता तो 54123 वोट कहाँ से मिलते? इस हल्के में जाट मतदाताओं की कुल संख्या ही लगभग 40 हजार है। यदि कम अन्तर से हारी या जीती हुई सीटों का विश्लेषण ठीक ढंग से किया जाए और एस सी के अलग बूथों पर पड़े वोटों को देखा जाए तो साफ दिखाई देता है कि जातिवादी ध्रुवीकरण उतना नहीं था जितना बताया जा रहा है। कुछ जगह सुप्रीम कोर्ट द्वारा एस सी में श्रेणीकरण सम्बन्धी फैसले का भाजपा को लाभ मिला है। निस्संदेह, सीटों के बंटवारे को लेकर उठी आपत्ति के बाद शैलजा के सम्बन्ध में नारनौंद क्षेत्र में की गई टिप्पणी और उसके बाद उनकी प्रतिक्रिया से कुछ मतदाताओं पर असर जरूर पड़ा होगा।


चुनाव परिणामों का अप्रत्याशित होने के पीछे कांग्रेस द्वारा सीटों के बंटवारे में गुणदोष या जिताऊ उम्मीदवार को चुनने की बजाए नेताओं के साथ सम्बन्ध के आधार पर टिकट देना भी कारण रहा है। उदाहरण के लिए बहादुरगढ़ सीट पर बागी राजेश जून 73191 वोट लेकर विजयी हुए और कांग्रेस यहाँ केवल 28955 वोटों के साथ तीसरे नंबर पर खिसक गई। अम्बाला कैंट में दूसरे नंबर पर रही बागी चित्रा सरवारा को 59858 वोट मिले और कांग्रेस के परविंदर परी को 14469. इसी तरह पुंडरी में सतबीर भाणा बागी होकर दूसरे नंबर पर रहे और कांग्रेस तीसरे स्थान पर खिसक गई। तिगांव में दूसरे नंबर पर रहे ललित नागर को टिकट दिया जाता तो जीतने की संभावना ज्यादा रहती। ऐसा ही बल्लभगढ़ सीट पर हुआ। शारदा राठौर दूसरे नंबर आई तो कांग्रेस की पराग शर्मा मात्र 8674 वोट ले पाई। कालका सीट मात्र 10883 मतों से हार गए जबकि निर्दलीय गोपाल सुक्खोमाजरी 31688 वोट ले गए। बवानीखेड़ा में भी बाहर से उम्मीदवार लाने के कारण कांग्रेस पिछड़ गई। उपयुक्त उम्मीदवार का चयन करने के लिए कोई एक नेता जिम्मेदार नहीं है। ऊपर गिनाए गए टिकटों में हुड्डा समर्थक भी हैं, शैलजा की पसंद के भी हैं और रणदीप के भी। दो-तीन टिकटें केन्द्रीय नेतृत्व के सीधे सम्बन्धों के कारण दी गई बताते हैं।


 कुछ तथ्य और समीक्षा के बिन्दु बाद तक भी आते रहेंगे लेकिन इतना साफ है कि कांग्रेस के पक्ष में बड़ी लहर नहीं थी और कुछ तबकों में सरकार के खिलाफ गुस्सा भी नहीं था। जिस सीमा तक गुस्सा था उसे कम करने में अथवा विभाजित करने में भाजपा की रणनीति सफल रही। उसका प्रचार तंत्र, कुछ हद तक जाति ध्रुवीकरण में सफलता, वोट काटू निर्दलीयों व छोटे दलों से पर्दे के पीछे सांठगांठ, बिना शोरगुल के वोट डालने वालों को सांगठनिक तंत्र के जरिए बूथ तक पहुंचाने में सफलता, धनबल से परोक्ष या प्रत्यक्ष ढंग से वोट  खरीदना और गरीबों के एक हिस्से में कथित दबंगों से बचने के लिए भाजपा के ढाल होने का नैरेटिव आदि अनेकों कारण हैं जिन्हें उसके प्रतिद्वंद्वी न तो भांप सके और इसीलिए न उनकी काट पेश कर सके।


चुनाव में ईवीएम को लेकर कुछ आपत्तियां सामने आई हैं। जैसे नरवाना, महेन्द्रगढ़, पानीपत के अनेक बूथों पर बैटरी चार्ज 99% दिखाया गया जो सामान्यतः तीन दिन बाद रहना संभव नहीं है। आरोप यह है कि इन मशीनों से बहुतायत वोट भाजपा के निकले। यह शिकायत भी मिली है कि मतगणना टीमों को सभी मशीनों की बैटरी अलग करने और वीवीपैट मशीन हटाने के आदेश दिए गए। ऐसा पहले कभी नहीं किया जाता था। इसके अलावा मशीनों में रिकॉर्ड किए गए मतों की संख्या में अंतर की रिपोर्ट भी सामने आई है। कांग्रेस पार्टी के डेलीगेशन ने इसकी शिकायत दर्ज करवाई है लेकिन चुनाव आयोग ने पहले ही सार्वजनिक बयान देकर उनके आरोपों को खारिज कर दिया है। अब उनसे निष्पक्ष ढंग जाँच करने की उम्मीद क्या रह जाती है?


यद्यपि भाजपा ने बिना पर्ची-खर्ची नौकरी के नैरेटिव का धुआंधार प्रचार किया, लेकिन यह हकीकत नहीं था। पेपर लीक के अलावा संगठित ढंग से पेपर्स में पास करवाना और इंटरव्यू के समय भर्ती से सम्बन्धित लोगों द्वारा लाखों रुपए बटोरने के मामले हैं। यदि बहुमत नहीं आता तो इनमें से कुछ लोग बोलते भी। इसके बावजूद कौशल रोजगार के मामूली वेतन पाने वाले भी स्वयं को शासक पार्टी के आभारी की तरह देख रहे थे। लक्षित समूहों को डिजिटल मोड से लाभ पहुंचाने का भी गरीब तबकों में प्रभाव है। भले ही इसकी वजह से धक्के खाने वालों व बार-बार कम्प्यूटर की दुकान पर पैसा खर्च करने वालों की भी उल्लेखनीय संख्या है। उदाहरण के लिए हैप्पीनेस कार्ड के जरिए सफर करने वालों की संख्या बहुत थोड़ी है लेकिन इसका प्रभाव समस्त गरीब लोगों पर देखा जा सकता है।


जनता की नजर से परिणाम को समझने की कोशिश करें तो भाजपा इस नतीजे पर पहुंच सकती है कि लोगों के मुद्दों पर ध्यान देना इतना जरूरी नहीं है जितना सोशल इंजीनियरिंग और लोगों को बांटे रखना। इसका परिणाम यह भी होगा कि आने वाले दौर में शिक्षा, स्वास्थ्य, नौकरी, कृषि, मनरेगा, पीडीएस आदि के लिए संघर्ष करने का ही विकल्प बचेगा। कांग्रेस पार्टी अपने भीतर मंथन करेगी या नहीं, यह तो निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता, लेकिन इतना तय है उसके लिए जनता से जुड़ने के साथ-साथ अपने संगठन को संभालना भी प्राथमिकता पर नहीं आया तो वह आगे और अधिक चुनौतियों से जूझ रही होगी। भाजपा से नजदीकी बनाने की वजह से कुलदीप बिश्नोई, चौधरी वीरेन्द्र सिंह, रणजीत सिंह, जजपा आदि को निराशा झेलनी पड़ी है। किरण चौधरी, धर्मवीर सिंह, राव इन्द्रजीत सिंह अभी बचे हुए हैं। इनेलो दो सीटें व 4.14% वोट लेकर जजपा की तुलना में खड़े रहने लायक है। शिक्षक, कर्मचारी, मजदूर, किसान, युवा, महिला आदि विभिन्न तबकों के लिए चुनौतियां पहले से भी बड़े आकार में मौजूद होंगी। पुरानी पेंशन, वेतन आयोग, सेवाएं पक्की करवाना और खाली पदों पर अकादमिक मेरिट से पक्की भर्ती करवाना बड़ा काम होगा। यद्यपि हमें अनेक दलों व नेताओं की सरकारों के समय काम करने का अनुभव है। बिना एकता और संघर्ष के हमारी न्यायोचित मांगें कभी पूरी नहीं हो पाई। यह भी याद रहे कि सब तरह तिकड़मों के बावजूद 60 प्रतिशत से अधिक लोग भाजपा से नाराज हैं। इन्हें जाति या साम्प्रदायिक विभाजन की नजर से देखना नादानी होगी। ये किसान हैं जो सन् 2020-21 में संघ, भाजपा और मोदी के गरूर को तोड़ चुके हैं और आज भी संघर्ष की राह पर हैं। ये खेतमजदूर और मजदूर हैं, स्कीम वर्कर्स हैं जो बहुसंख्य कामकाजी जनता का अभिन्न हिस्सा हैं। शिक्षित युवा व छात्र शिक्षा व रोजगार को हड़पने के चलते सरकार से खफा हैं। आपकी अग्निवीर व कौशल रोजगार तथा उम्र भर कम वेतन में शोषण का छलावा लम्बे काम नहीं करने वाला है। यहाँ कर्मचारी वर्ग अपने मुद्दों को लेकर केंद्र व राज्य की भाजपा सरकारों के प्रति आक्रोश में है। ऐसा लगता है कि भाजपा सरकार हनीमून काल क्षणभंगुर सपने की तरह साबित होने वाला है। आने वाली चुनौतियों के मध्यनजर लोग अपने संगठनों व संघर्षों की ओर अधिक ध्यान देते हुए संघर्ष के मैदान में उतरेंगे। वे भाजपा के छलावे और चुनावी जुमलों पर लम्बे समय तक भरोसा नहीं कर सकते।



            


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