Sunday, October 24, 2021

कोर्ट में पेंडिंग केसेज

 जनता के साथ हो रहे अन्याय के लिए केवल सरकार जिम्मेदार ******†***************""****************" ,,,, मुनेश त्यागी भारतवर्ष में इस समय 4 करोड़ 600000 मुकदमे पेंडिंग हैं। निचली अदालतों में इनकी संख्या चार करोड़ 25060 है। कोविड-19 शुरुआत पर यह संख्या 3 करोड़ 20 लाख थी। तीन स्तरीय न्यायिक व्यवस्था सुप्रीम कोर्ट, 25 हाई कोर्ट और जिला न्यायालय में एक साल पहले यह संख्या 3 करोड़ 70 लाख थी जो अब अब बढ़कर चार करोड़ 60 लाख हो गई है। 15 सितंबर 2021 के टाइम्स ऑफ इंडिया के अनुसार मार्च 2020 से केसों की संख्या एक करोड़ केस बढ़ गए हैं। सुप्रीम कोर्ट में मार्च 2020 को यह संख्या 60, 000 थी, जो अब बढ़कर 70,000 हो गई है। मार्च 2020 में हाईकोर्ट में मुकदमों की संख्या 46 लाख 4,000 थी जो अब बढ़कर 56,04,000 हो गई है। लोअर कोर्ट में यह संख्या मार्च 2020 में 3 करोड़ 20 लाख थी जो अब बढ़कर 4 करोड हो गई है। इस प्रकार देश में कुल 4 करोड़ 60 लाख मुकदमे पेंडिंग है। केस बढ़ने का एक मुख्य कारण न्याय व्यवस्था में ई-फाइलिंग का नहीं होना है यानी की न्याय व्यवस्था आधुनिक तकनीक का सही प्रयोग करने में नाकाम रही है।न्यायपालिका के तीनों स्तरों पर इन तकनीकों का फायदा नहीं उठा रही है जिसमें केस फाइलिंग करना, कोर्ट फीस दाखिल करना और पक्षकारों को समन भेजना शामिल हैं। इसका मुख्य कारण वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग, ब्रॉडबैंड, हाई स्पीड इंटरनेट और पूरा कंप्यूटरकरण न होना भी है। अधिकांश अदालतें इस आधुनिकतम तकनीक का उपयोग नहीं कर पा रही हैं और पुराने तौर-तरीकों से ही चिपकी हुई है। जिस कारण वादों की समय से सुनवाई नहीं होती और वादों का निपटारा लंबा होता चला जाता है। अदालतों में केस निस्तारण का समय से निस्तारण न होने का मुख्य कारण है न्यायालयों में मुकदमों के अनुपात में जजों का ना होना। हमारी 25 हाई कोर्ट में लगभग 40 परसेंट और लोअर ज्यूडिशरी में लगभग 30 परसेंट जजिज के पद खाली पड़े हुए हैं, उन्हें समय से भरने की सरकार कोई जरूरत नहीं समझती और लगातार मांग करने पर भी उन्हें नहीं भरा जा रहा है। अदालतों में पर्याप्त संख्या में स्टेनो और प्रक्षिशित स्टाफ नहीं है, जहां पर वर्षों से उनकी कमी मौजूद है जिस कारण न्यायिक अधिकारी गण मुकदमों का समय से निस्तारण नहीं कर पा रहे हैं। कई बार तो यह देखा गया है की जज वर्षों तक काम करते रहते हैं मगर उनके पास स्टेनो नहीं हैं और इस प्रकार वे मुकदमों का निस्तारण नहीं कर पाते और पक्ष कार न्याय की उम्मीद करते करते हार जाते हैं। भारत का संविधान सस्ते, सुलभ और शीघ्र न्याय का उद्घघोष करता है मगर सरकार की नीतियों के कारण यह नारा खोखला ही बना हुआ है। आज भी वादकारियों को जिला स्थान से हाई कोर्ट जाने में 600 मील से भी दूर जाना पड़ता है जो जनता द्वारा वहनीय नहीं है और सरकार वादकारिर्यों और वकीलों द्वारा आंदोलन करने पर भी इस और ध्यान नहीं देती, उसे अनसुना कर देती है। भारत का संविधान भी जनता को सस्ते और सुलभ न्याय की वकालत करता है मगर हमारी सरकारें जिन्होंने न्याय विरोधी रुख अपना रखा है वह संविधान के मैंडेट को भी सुनना और लागू करना नहीं चाहती और जनता को सस्ता सुलभ और शीघ्र न्याय नहीं देना चाहती इस मामले में अधिकांश सरकारों ने न्याय विरोधी और संविधान विरोधी रुख अपना रखा है। इस मामले में सभी सरकार दोषी हैं। चाहे सरकार बीजेपी की है, कांग्रेस की रही है, चाहे बीएसपी की रही है,या समाजवादी पार्टी की रही है। वे सब जनता को सस्ता सुलभ और शीघ्र न्याय देने के पक्ष में नहीं रही हैं। यह मुद्दा कभी उनके एजेंडे में ही नहीं रहा है। न्यायपालिका का बजट लगातार कम किया जा रहा है जो वर्तमान में .०२ परसेंट है जबकि वास्तव में यह कम से कम जीडीपी का 3 परसेंट होना चाहिए। हम लोग यूएसए, यूके, जापान, कनाडा, आस्ट्रेलिया आदि देशों की बात करते हैं मगर उनसे कुछ सीखना नहीं चाहते। यूएसए में और यूके में जीडीपी का 3 परसेंट न्यायपालिका पर खर्च किया जाता है। उपरोक्त विवरण से यह आसानी से कहा जा सकता है कि सरकार के एजेंडे में न्याय व्यवस्था नहीं है। वह जनता को समय से सस्ता, सरल और शीघ्र न्याय उपलब्ध नहीं कराना चाहती, वह मुकदमों के अनुपात में जज और स्टाफ की नियुक्ति नहीं करना चाहती, वह बजट का समुचित परसेंट जो लगभग 3 परसेंट हो सकता है, न्याय व्यवस्था पर खर्च नहीं करना चाहती और न्याय सरकार के एजेंडे में नहीं है। इसके लिए किसी दूसरे पक्ष को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। इसके लिए वकीलों या जनता को जिम्मेदार नहीं ठहराया जा सकता। जनता को सस्ता, सुलभ और शीघ्र न्याय न देने के लिए केवल और केवल सरकारें जिम्मेदार हैं।

आशा मिश्रा जी

 भारत_में_शिक्षा ; #यूनेस्को_रिपोर्ट

🔴  ज्यों ज्यों दिन की बात की गयी, त्यों त्यों रात हुयी 
🔵 युनेस्को की 2021 की भारत में शिक्षा की स्थिति पर तीसरी रिपोर्ट अभी हाल में जारी हुयी। इसे 5 अक्टूबर विश्व शिक्षक दिवस पर जारी किया गया। रिपोर्ट में भारत में शिक्षा की स्थिति की हालत का इस रिपोर्ट के शीर्षक से ही पता चल जाता है। ‘‘शिक्षक नहीं - कक्षायें नहीं ’’ इसमें बिलकुल भी अतिरंजना नहीं है।  यह हमारे देश में शिक्षा की वास्तविक स्थिति है।  मुंबर्ह के टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के शोधकर्ताओं द्वारा यूनेस्को के दिशा निर्देश पर बनायी यह रिपोर्ट हमारे देश की शिक्षा की दयनीय स्थिति को उजागर करने वाली है। शिक्षा के अधिकार का कानून पारित करने के बावजूद इस स्थिति का होना खराब बात ही कहा जाएगा। 
🔵 इस रिपोर्ट के बाद यूनेस्को द्वारा दिये गये सुझाव गौरतलब हैं। यह रिपोर्ट बताती है कि आज भी इस देश में ग्रामीण और शहरी शिक्षा संस्थानों की गुणवत्ता में जमीन आसमान का अंतर है। मोदी सरकार की 2020 में पारित शिक्षा नीति की कड़ी आलोचना करते हुये यह रिपोर्ट कहती है कि आश्चर्य है कि जब सारे शिक्षा संस्थान कोरोना महामारी के चलते बंद थे तब यह नीति घोषित हुयी और स्कूलों-कॉलेजों के बंद रहते हुए ही इस साल उसका एक वर्ष मना भी लिया गया।
🔵 रिपोर्ट बताती है कि देश के 15 लाख 51 हजार स्कूलों में 96 लाख शिक्षक हैं। इनमें पचास प्रतिशत महिला शिक्षक हैं। मध्य प्रदेश में यही प्रतिशत 44 प्रतिशत है। 30 प्रतिशत से अधिक स्कूल शिक्षक उन निजी स्कूलों में हैं जिन्हे कोई सरकारी मदद नहीं मिलती है। केवल 50 प्रतिशत शिक्षक सरकारी स्कूलों में हैं।
🔵 मजेदार और सोचने वाली बात यह है कि शिक्षा जिसकी नींव पर पूरे समाज का ढांचा खडा होता है उसे निजी हाथों में देने की पैरवी करने वाली सरकार के आका अमरीका में भी सरकारी स्कूलों पर सबसे अधिक जोर दिया गया है और आज वहां पर सरकारी स्कूलों में पढ़ाने वाले शिक्षकों की संख्या 32 लाख और निजी स्कूलों के शिक्षकों की संख्या 4 लाख है।
🔵 रिपोर्ट के मुताबिक़ देश में एक लाख से अधिक स्कूल एक शिक्षक के भरोसे पर हैं। इसमें सबसे अधिक 21,077 स्कूल मध्य प्रदेश में हैं। यह कुल स्कूलों का 14 प्रतिशत का है। ये एक शिक्षक वाले 89 प्रतिशत स्कूल ग्रामीण इलाकों में हैं। और स्वाभाविक रूप से इन स्कूलों में किसी भी प्रकार की सुविधाओं के बारे में सोचा नहीं जा सकता है। यह इकलौते मास्साब भी स्कूल कितने दिन जा पाते होंगे क्योंकि उन्ही पर सरकारी योजनाओं के आंकड़े इकट्ठा करने से लेकर सारे कामकाज का बोझा भी लदा हुआ है। 
🔵 इस पूरी स्थिति वाले देश के मुकाबले केरल एकदम अलग दिखायी देता है जहां पर 88 प्रतिशत स्कूलों में जिसमें 80 प्रतिशत ग्रामीण स्कूल भी शामिल हैं इंटरनेट की सुविधा है, लाइब्रेरी है, 90 प्रतिशत से अधिक स्कूलों में मुफ्त किताबों का वितरण होता है। यहां पर 99 प्रतिशत में साफ पीने के पानी की सुविधा है, 98 प्रतिशत स्कूलों में लड़कियों के लिये अलग शौचालय है और 99 प्रतिशत स्कूलों में अबाध बिजली की सुविधा है। डिजिटल इंडिया का नारा देने वाली भाजपा के द्वारा शासित प्रदेशों के स्कूलों में इंटरनेट की स्थिति उनमें बिजली की उपलब्धता से देखी जा सकती है। मध्य प्रदेश के केवल 11 प्रतिशत स्कूलों में इंटरनेट की सुविधा है।
🔵 इस रिपोर्ट से देश की सरकार और शिक्षा मंत्रालय के कानों पर जूं भी नहीं रेेंगने वाली है क्योंकि एक अर्धशिक्षित और कुशिक्षित पीढ़ी तैयार करने का काम इस देश की भाजपा की सरकारें बड़ी तेजी से कर रही हैं। उनके लिए इसी तरह की जनता मुफीद है।  इनके विद्यालय व्हाट्स अप पर  हैं और भाजपा की आई टी सेल इनके शिक्षक हैं। इतिहास में झांकने से ऐसी पीढियां तैयार करने वाले दो देशों के भयानक उदाहरण देखे जा सकते हैं जर्मनी और जापान जिन्होने अपनी पूरी नौजवान पीढी को आज्ञाकारी, झूठ पर गर्व करने वाली नस्लवादी सोच की पीढ़ी के देशों में बदल कर रख दिया था और जो हुआ वह द्वितीय विश्वयुद्ध के रूप में हमारे सामने था।
🔵 शिक्षा की स्थिति पर युनेस्को की यह रिपोर्ट आंखें खोलने वाली है इसीलिये इतिहास की गलतियों से सबक लेकर इस दिशा में काम करना शुरू करना और स्थाई वैश्विक लक्ष्य 2030 हासिल करने की ओर बढना पूरे देश की जनता की जिम्मेदारी है।

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