Sunday, June 15, 2014

स्त्रियों के काम

राजकिशोर
जनसत्ता 11 जून, 2014 : यह कहना अब विद्वत्ता की निशानी नहीं रही कि परिवार के भीतर जो काम स्त्रियों के माने जाते हैं, वे जब व्यावसायिक स्तर पर किए जाने लगते हैं, तब पुरुष स्त्रियों से वे काम छीन लेते हैं और खुद करने लगते हैं। रसोई को स्त्रियों का विशेषाधिकार माना जाता है। बैठके में पुरुष सुप्रीम तो रसोई घर में स्त्री का राज्य। लेकिन बैठका खुला होता है, जिसमें बाहर के लोग भी आते-जाते रहते हैं, पर रसोई घर एक बंद तहखाना होता है। वह स्त्रियों को मुक्त नहीं, कैद करता है। लेकिन जब यही खाना बनाना कमाऊ धंधा बन जाता है, तो पुरुष उसे हड़प लेते हैं। बादशाहों के बावर्चीखाने का नेतृत्व महिलाएं नहीं, बावर्ची किया करते थे। बड़े-बड़े होटलों में शेफ मर्द ही होते हैं, स्त्रियां नहीं। यानी जो काम स्त्रियों के लिए सेवा है, वही काम पुरुषों के लिए व्यवसाय है। इस वाक्य को जितना खींचेंगे, उतने ही नए-नए अर्थ खुलेंगे। 
इसी तरह, खाना बनाना, कपड़े धोना, सिलाई-बुनाई-कढ़ाई करना, पानी लाना आदि विभिन्न काम स्त्रियों के रहे हैं। पर यही काम जब व्यावसायिक स्तर पर किए जाते हैं, तब पुरुषों के हो जाते हैं। इससे पुरुषों को आमदनी होती है और आमदनी से प्रतिष्ठा बढ़ती है। दूसरी तरफ, स्त्रियों को धन्यवाद तक नहीं मिलता। माना जाता है कि यह तो उनका कर्तव्य है। स्त्रियां आखिर होती किसलिए हैं? आजकल तो थोड़ा कम, पहले सभी वैवाहिक विज्ञापनों में ऐसी वधू की मांग की जाती थी, जो चंद्रमुखी, मृगलोचनी आदि-आदि होने के साथ-साथ ‘गृहकार्य में दक्ष’ भी हो।
अब स्थितियां बदल रही हैं। पश्चिम में तो बदल ही चुकी हैं, भारत में भी उनकी आहट सुनाई दे रही है। किचन में अब स्त्री और पुरुष, दोनों दिखाई देते हैं। बरतन मांजने और कपड़े धोने का काम भी पुरुष कर लेते हैं। वे कमरों की साफ-सफाई से बचने की कोशिश नहीं करते। यानी घर अब वह नहीं रह गया है, जो स्त्री और पुरुष के कामों का कठोर बंटवारा कर देता था। परिवार के भीतर जनतंत्र सक्रिय हो उठा है। 
क्या इसका श्रेय पुरुषों के हृदय परिवर्तन को दिया जाना चाहिए? बेशक हृदय भी थोड़ा बदला है, लेकिन वह भी इसीलिए कि घरेलू काम की टेक्नोलॉजी में क्रांति आ गई है। मिट््टी के चूल्हे को गैस के चूल्हे ने अपदस्थ कर दिया है। बटलोई का स्थान प्रेशर कुकर ने ले लिया है। पानी किसी नदी या तालाब से लाना नहीं पड़ता, नल बाबा दे देते हैं। चक्की और सिलबट््टे के दिन लद गए। मिक्सर, ग्रिलर और इस तरह के अनेक बिजली-चालित यंत्रों ने रसोई के विभिन्न पहलुओं का सरलीकरण कर दिया है। चीजों को अधिक समय तक सड़ने

या बिगड़ने को रोकने का काम फ्रिज कर देता है। कपड़े धोने के लिए वाशिंग मशीन है, तो झाड़ू-बुहारू की जिम्मेदारी वैकुअम क्लीनर ने ले ली है। कह सकते हैं कि घरेलू काम अब पिकनिक की तरह हो गए हैं। 
जाहिर है, पुरुष तब तक घरेलू कामों से उदासीन था, जब तक ये काम थकाऊ और नीरस बने रहे। पुरुष भी कठिन परिश्रम करते थे, पर घर के बाहर। घर में प्रवेश करने के बाद वे बादशाह हो जाते थे, जिसकी सेवा करना परिवार के हर सदस्य का संवैधानिक कर्तव्य था। अब वह समीकरण बदल रहा है तो इसका एक मुख्य कारण घरेलू काम का नया रंग-रूप है, जो किसी को सताता नहीं है, न किसी का चेहरा या कपड़ा मलिन करता है। स्त्रियां भी अब शिक्षित और उच्च शिक्षित होने लगी हैं, जिन्हें न तो चूहे की तरह भागना आता है और न बिल्ली की तरह दुबकना। कोई-कोई तो शेर की तरह दहाड़ती भी है। पुरुषों की तानाशाही के लिए माहौल उपयुक्त नहीं रहा। लेकिन तीसरी दुनिया के देशों में यह क्रांति बीस-पचीस प्रतिशत घरों तक सीमित है। दिल्ली का सत्य जौनपुर या मालदा का सत्य नहीं है- जहां-जहां भी आर्थिक विकास नहीं हुआ है यानी पुराने तौर-तरीके चल रहे हैं, वहां स्त्री-पुरुष के कामों का पारंपरिक विभाजन अब भी यथावत मौजूद है। 
बताते हैं, मानव सभ्यता के निर्माण में स्त्रियों का ऐतिहासिक योगदान है। आदि काल में सूरज उगने पर पुरुष शिकार के लिए निकल जाते थे और स्त्रियां घर पर रह कर तमाम तरह के काम किया करती थीं, जिनसे संस्कृति का विकास हुआ। खेती का आविष्कार भी संभवत: स्त्रियों ने ही किया, जिसने बाद में पुरुष सत्ता की नींव डाली। स्त्रियों ने आसपास नजर टिकाने से जो सीखा- यानी बीज बोकर पौधे उगाना, वह उनकी सहज बुद्धि और तीक्ष्ण अवलोकन शक्ति का नतीजा था। पुरुष ने खेती को व्यावसायिक बना कर स्त्रियों से कहा कि अब तुम घर में ही समाई रहो- बाहर का सारा काम हम देख लेंगे। 

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