अच्छे दिनों
की खातिर
देविंदर
शर्मा
कृषि
मामलों के विशेषज्ञ
लेख
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amar ujala
देश
की अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाने और वित्तीय सेहत सुधारने के लिए कड़े फैसले लेने की जरूरत संबंधी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की टिप्पणी राष्ट्रीय बहस का विषय बन गई है। केंद्रीय बजट से पहले इस टिप्पणी को गलती से पूंजी बाजार में अच्छे दिनों को स्थगित करने के प्रयास के रूप में देखा जा रहा है। कहा जा रहा है कि अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए सरकार को कुछ कठोर फैसले लेने होंगे, जिसके लिए आम आदमी को त्याग के लिए तैयार रहना चाहिए।
जब
भी त्याग की बात आती है, तो हमेशा आम आदमी से ही उसकी अपेक्षा की जाती है। इसलिए देश की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था की खातिर एक बार फिर आम लोगों को कमर कसने के लिए कहना नई बात नहीं है। इन वर्षों में उन्हें कुछ कथित लोकप्रिय आर्थिक फैसलों का खामियाजा चुपचाप सहना पड़ा है। अगर वे कर भुगतान के दायरे में नहीं भी आते हैं, तब भी उन्हें ऊंची मुद्रास्फीति दर के कारण परोक्ष रूप से भारी कर चुकाना पड़ता है। उनके पास त्याग के अलावा कोई दूसरा विकल्प भी नहीं है।
मैं
देश की आबादी के उन 95 फीसदी लोगों की बात कर रहा हूं, जो ग्रामीण क्षेत्रों में 2,886 रुपये और शहरी इलाकों में 6,383 रुपये प्रति माह खर्च करने में असमर्थ हैं। नेशनल सैंपल सर्वे संगठन (एनएसएसओ) के उपभोक्ता खर्च संबंधी 2011-12 के आंकड़ों के मुताबिक, केवल पांच फीसदी लोग ही इस कृत्रिम रूप से तैयार समृद्धि रेखा के ऊपर रहते हैं। बाकी 95 फीसदी (करीब 118 करोड़) लोगों के लिए जीवन बहुत कठिन है। विकास हो या नहीं, उनके जीवन में बदलाव नहीं आता। हर तरह से उन्हें ही खामियाजा भुगतना पड़ता है। लेकिन मीडिया का एक वर्ग जिस तरह के कठिन फैसलों की नरेंद्र मोदी से अपेक्षा करता है, वह बेहद चतुराई से असली मुद्दों से देश का ध्यान हटाने की कोशिश है। यह वास्तव में धनी एवं संपन्न लोगों के लिए और ज्यादा छूट की अपेक्षा है। यह सब वित्तीय घाटा और चालू खाता घाटा के नाम पर गरीबों और जरूरतमंदों के संसाधनों को दूसरी तरफ मोड़ने की कोशिश है। इसलिए यहां मैं उन कुछ कठिन कदमों का जिक्र कर रहा हूं, जिन्हें प्रधानमंत्री को जरूर उठाना चाहिए, ताकि न सिर्फ एक फीसदी लोगों के, बल्कि सबके चेहरे पर चमक आए।
वित्तीय
घाटा ः कॉरपोरेट जगत को दी जाने वाली कर रियायतों को खत्म करना एक ऐसा कड़ा फैसला है, जिसकी देश को सख्त जरूरत है। बजट दस्तावेजों में इसे ′पूर्वनिश्चित राजस्व′ की श्रेणी में रखा गया है। वर्ष 2014-15 के अंतरिम बजट में उद्योग जगत के लिए 5.73 लाख करोड़ के कर छूट का प्रावधान है। देश का वित्तीय घाटा 5.25 लाख करोड़ के आसपास है। उद्योग जगत के लिए निर्धारित इस अतिरिक्त कर छूट को खत्म कर देने से पूरे वित्तीय घाटे को खत्म किया जा सकता है। इससे प्रधानमंत्री को रसोई गैस, डीजल, खाद्य और उर्वरकों पर सब्सिडी खत्म करने और रेल किराया बढ़ाने की जरूरत नहीं पड़ेगी।
आर्थिक
प्रोत्साहन ः मानसून के सामान्य से कम रहने की आशंका है और सूखे की भविष्यवाणी की गई है। ऐसे में सूखा प्रभावित किसानों को आर्थिक प्रोत्साहन पैकेज देने का वक्त आ गया है। किसानों की आत्महत्या से परिलक्षित कृषि क्षेत्र के आर्थिक संकट को खत्म करने के लिए उसे आर्थिक सहायता देने की जरूरत है। कृषि सबसे बड़ा नियोक्ता है, जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से देश के 70 फीसदी लोगों को रोजगार देता है। इसलिए कृषि क्षेत्र को कम से कम एक लाख करोड़ रुपये का आर्थिक प्रोत्साहन पैकेज दिया जाना चाहिए। वर्ष 2008-09 की आर्थिक मंदी के दौर में देश के उद्योगों को तीन लाख करोड़ रुपये का आर्थिक प्रोत्साहन दिया ही गया था, जिसे कम से कम तीन वर्ष के लिए बढ़ाया गया।
इसके
अलावा, यह कृषि ऋण के दुरुपयोग को खत्म करने का भी वक्त है। वर्ष 2014-15 के अंतरिम बजट में चार फीसदी की रियायती ब्याज दर पर आठ लाख करोड़ रुपये कृषि ऋण के लिए उपलब्ध कराया गया है, जिसका फायदा मुख्य रूप से कृषि व्यवसाय में लगे उद्योग उठा रहे हैं। इसमें से मुश्किल से 60 हजार करोड़ रुपये किसानों के पास जा रहे हैं, जबकि बाकी 7.4 लाख करोड़ रुपये कृषि व्यवसाय में लगे उद्योग हड़प रहे हैं।
निवेश
का माहौल ः अभी निवेशकों का भरोसा जीतने की जरूरत है। बेशक हाल के वर्षों में निवेश घटा है, पर यह समझ से परे है कि भारतीय कंपनियां, जो भारी मुनाफा कमा रही हैं, क्यों नहीं देश के भीतर निवेश कर रही हैं? एक ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, 126 कंपनियां नकदी की जमाखोरी कर रही हैं। 2012 में भारतीय रिजर्व बैंक ने नकद अधिशेष के 9.3 लाख करोड़ के दायरे में होने का अनुमान लगाया था। यह कहना कि भारतीय कंपनियों के पास निवेश के लिए माहौल नहीं है, सही नहीं है। यदि विदेशी कंपनियां भारत में निवेश के लिए तैयार हो सकती हैं, जो अभी एफडीआई की मंजूरी का इंतजार कर रही हैं, तो भारतीय कंपनियों को देश में निवेश के लिए उपयुक्त माहौल कैसे नहीं मिल रहा है? इसलिए उद्योग जगत को देश में निवेश के लिए तैयार करने के लिए सरकार को थोड़ा सख्त होने की जरूरत है। भारतीय रिजर्व बैंक को भी अपने उन कानूनों की फिर से समीक्षा करनी चाहिए, जो कंपनियों को विदेशों में भारी निवेश की मंजूरी देते हैं।
नया
कर या उच्च कर ः कर रियायत को खत्म करने के अलावा आईटी कंपनियों पर आय कर लगाने के बारे में भी विचार करना चाहिए। इंफोसिस और विप्रो काफी मुनाफा कमाती हैं, लेकिन कर नहीं चुकाती हैं। उच्च कॉरपोरेट टैक्स और कोला व फ्रूट जूस जैसे मीठे पेय पर 20 फीसदी टैक्स लगाकर अतिरिक्त राजस्व जुटाया जा सकता है, जिससे सामान्य कर दाताओं को राहत दी जा सकती है।
प्रधानमंत्री से यह अपेक्षा है कि वह आम लोगों पर बोझ डालने के बजाय कॉरपोरेट जगत को दी जा रही रियायतों को कम करने जैसे कदम उठाएं, ताकि सिर्फ एक फीसदी नहीं, बल्कि सभी के चेहरों पर खुशी दौड़े।
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