Wednesday, September 17, 2025

रोहतक


रोहताशगढ़ से रोहतक एक बहुरंगी नगर

विषय सूची

1. संक्षिप्त परिचय

2. नाम

3. सीमाएं

4. जलवायु

5. वन्य प्राणी एवं पक्षी

6. निवासी एवं जातियां

7. संस्कृति एवं वेशभूषा

8. भाषा, शिक्षा एवं साहित्य और कला एवं भवन

9. खेल

10. पशुधन

11. लोक जीवन एवं मेले व त्यौहार

12. व्यापार

13. उद्योग एवं कल कारखाने

14. दर्शनीय स्थल

15. ऐतिहासिक स्थल

16 इतिहास पर एक नजर

17. प्रमुख संत एवं कवि

17. जनसंख्या एवं साक्षरता

18. राजनीति

19. व्यक्तित्व

20. इतिहास पर एक नजर

21. रोहतक के विद्रोह

22. प्रथम स्वाधीनता संघर्ष या जन विद्रोह अथवा 1857 की क्रांति

23. अकेला चलो रे

24. विद्रोह बनाम जागृति

25. रोहतक का स्वाधीनता संग्राम में योगदान

26. अस्थल बोहर मठ का स्वाधीनता संग्राम में योगदान

27. अधिकारी व सामान्य जन

28. रोहतक के स्वतंत्रता सेनानी

29. प्रशासन

30. जनसंख्या

31. साक्षरता

32. उपेक्षित समाज

33. एकतारे का भक्ति संगीत

34. सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

35. लेखक परिचय

36. लेखक परिचय
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संक्षिप्त रोहतक

रोहतक हरियाणा ही नहीं बल्कि भारत के महत्वपूर्ण जिलों में से एक है। भारतीय इतिहास में मील के पत्थर की तरह खड़े रामायण और महाभारत में वर्णित अनेक स्थानों में से यह भी एक है। महाभारत में इसका नाम रोहितक है। ऐसे महत्वपूर्ण स्थान की जानकारी अधिक से अधिक लोगों तक जाए, इसके लिए आवश्यक है कि इसके बारे में कोई पुस्तक लोगों के हाथ में हो। इसी विचार को पूरा करने के लिए तथा ज्यादा जानकारी उपलब्ध करवाने के लिए, एक असफल प्रयास किया गया है। प्रायः इतिहास की पुस्तकें अंग्रेजी में हैं, जिसके कारण आम जन तक उनकी पहुंच नहीं हो पाती। अतः इसकी भाषा हिन्दी रखी गई है। अनेक विद्वानों, इतिहासकारों की यह धारणा रही है कि भारत का इतिहास सही ढंग से नहीं लिखा गया है। हरियाणा के इतिहास पर तो काम बहुत ही कम हुआ है। हरियाणा के संदर्भ में तो खासतौर पर यह बात कह देनी चाहिए कि इतिहास में मिथक इतने ज्यादा मिल गए हैं कि उन्हें अलग से पहचाना भी नहीं जा रहा है। इसे यों भी कह सकते हैं कि मिथक ही इतिहास बन गया। इसलिए बहुत बार लेखक को इसी मिथकपूर्ण इतिहास पर आश्रित रहना पड़ता है। जब से अपने स्थान और अपने वंश को प्राचीन सिद्ध करने की होड़ लगी है, तब से ज्यादातर स्थानों को पुराना सिद्ध करने की एक परम्परा चल पड़ी है। स्थानों का जुड़ाव रामायण, महाभारत से जोड़ना और वंश परम्परा वहीं से निकालना, अपना संबंध पुराने ऋषि मुनियों या वीरों से जोड़ना मानव स्वभाव का अंग सा हो गया है।

प्राचीनता के संबंध में रोहतक का खोखराकोट, रोहतक, गोकर्ण तालाब, अस्थल बोहर और महम ही प्राचीन स्थान हैं। रोहतक के आसपास के बसने वाले गांवों का समय छठी सातवीं सदी से पूर्व का नहीं है। ज्यादातर तो बारह सौ

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के बाद के ही हैं। रोहतक के आसपास के गांव को कई-कई बार उजाड़ा गया तथा बसाया गया है। अब जो अवशेष हमें खण्डहरों के रूप में मिलते हैं, वे ऐसे ही गांव हैं। लाढौत जिसे महाभारतकालीन माना जाता है, एक टीले के अवशेष मात्र था, जो लोगों ने कब्जा कर लिया है। पहरावर जिसका संबंध महात्मा चौरंगीनाथ (पूर्णमल) से जोड़ा जाता है, सन् 1440 का है। जबकि चौरंगी नाथ जी का समय सातवीं सदी का अन्तिम भाग है। इसी प्रकार बलियाणा के बारे में प्राचलित है। भाटों की पोथियों के अनुसार रोहतक के पास घुसकानी (गोत्र हुड्डा) के बसने का समय लगभग 764 ईस्वी है। किलोई सन् 1224 एवं रूड़की सन् 1306 का बसा बताया गया है। कुछ गांव पहले उजाड़े गए फिर इधर-उधर बस गए। उनके पुराने अवशेष अब भी कहीं-कहीं बचे हैं। समचाना (खण्ड सांपला) और मोखरा (महम) ऐसे ही स्थान हैं। कुछ गांव महमूद गजनवी के उत्तराधिकारी मसूद ने उजाड़े और रही सही कसर पृथ्वीराज चौहान की हार के बाद शहाबुद्दीन गौरी ने पूरी कर दी। उसने मुख्य रूप से महम तथा रोहतक को लूटा और उजाड़ा। अतः रोहतक के पास का कोई भी गांव संभवतः बारह सौ साल से ज्यादा पुराना नहीं है।

पुराना रोहतक जिला काफी बड़ा था। अंग्रेजी राज व्यवस्था 1912 में होने पर सन् 1973 तक सोनीपत, झज्जर और कोसली इसी के भाग थे। उस काल के अनेक विद्वान, कवि और महान व्यक्तित्वों और आजादी के संघर्ष में अतुलनीय

योगदान देने वाले व्यक्तियों के गांव आज सन् 2012 में वर्तमान रोहतक के भाग नहीं रहे। इसी कारण अनेक नामों को छोड़ने की गलती के लिए क्षमा प्रार्थी हैं। पं. श्रीराम शर्मा (झज्जर), पं. भगवतदयाल शर्मा बेरी, पं नेकीराम शर्मा कलिंगा (भिवानी) का कार्यक्षेत्र रोहतक ही रहा है। पं. नेकीराम शर्मा तो पूरे हरियाणा के नररत्न थे। परमवीर चक्र विजेता मेजर होश्यार सिंह का गांव सीसाना जिला सोनीपत में चला गया। रोहतक के औद्योगिक क्षेत्र सोनीपत व बहादुरगढ़ अब इसमें नहीं रहे। हरियाणा के सूर्य कवि पं. लखमीचंद का गांव जांटी, बाजे भगत का गांव सीसाना, हरदेव व खीमचन्द का गांव गोरड़, आर्य शिक्षा का प्रचार प्रसार करने वाले गांव भैंसवाल, मटिण्डू और खानपुर कलां इसका भाग नहीं रहे।

पहलवानी में चमकने वाला डीघल, बरोदा और सिलानी आदि गांव अब रोहतक में नहीं हैं। इसके बाद भी विश्व प्रसिद्ध खोखराकोट, अस्थल बोहर का मठ, माजरा बोहर का किला, लाढौत की थेह इसी जिले के अंग हैं। पौराणिक स्थल जो अति उपेक्षित रहा है, गौकर्ण भी यहीं पर है। 1962 का सूरमा ब्रिगेडियर होश्यार सिंह का गांव सांखोल जिला झज्जर में चला गया। यह स्थान अनेक महान लोगों की कर्मस्थली रहा है। भारत के महान स्वतंत्रता सेनानी लाला लाजपतराय की प्रारम्भिक कार्यस्थली 1885-86 यहीं थी। दीनबन्धु सर छोटूराम, पं. श्रीराम शर्मा, पं. भगवतदयाल शर्मा, लाला शामलाल, चौ. लालचन्द, चौ. रणबीर सिंह हरियाणा केसरी पं. नेकीराम शर्मा और महान समाज सुधारक एवं आर्य समाज के प्रचारक पं. बसती राम आदि अनेक क्रांतिकारी और समाज सुधारक यहां पर रहे हैं।

इस पुस्तक में रोहतक का इतिहास संस्कृति और लोकजीवन वर्णन का विषय रहेगा। प्रयत्न यह रहा है कि वर्तमान रोहतक की भाषा, क्षेत्र, खानपान, मेले त्यौहार तथा दर्शनीय एवं ऐतिहासिक स्थलों का वर्णन हो। पूरा प्रयत्न यह था कि पूरी जानकारी जुटाई जाए यदि कोई त्रुटि रह गई है तो क्षमा प्रार्थी हैं। उसे अगले संस्करण में पूरा किया जाएगा। सुझावों के लिए निमंत्रण भी हैं और धन्यवाद भी।

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2044 क्रिकेट गग लेने वाली हॉकी खिलाड़ी कमला व का मैदान है। क्रिकेट के जोगेन्द्र शमां रोहत ममता खर्व रोहतक सैक्टर-तीर से हरिया करते रहते हैं। कि

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रोहतक को हरियाणा का दिल कहा जाए तो कोई अतिशयोक्ति नह

होगी। कभी-कभी इसे हरियाणा की राजनीतिक राजधानी भी कह दिया जाता है। यह हरियाणा के अति प्राचीन नगरों में से एक है। यह कितना पुराना है, इसका कोई ठोस प्रमाण अभी तक नहीं है। महाभारत में जब नकुल, राजसूय के समय विजय करता हुआ इधर आता है तो वह रोहतक को विजय करता है। इससे यह प्रमाणित होता है कि महाभारत काल में रोहतक का अस्तित्व था। कुछ लोगों का मानना है कि महाराज हरिशन्नद्र के पुत्र रोहताश ने पश्चिम विजय करते समय इसे बसाया था। यह स्थान पुष्पपुर (पेशावर) तथा शाकल (स्यालकोट) के रास्ते में पड़ता था। इसे रोहताश ने बसाया था। इसी कारण इसका नाम रोहताशगढ़ था, जो बाद में रोहतक हो गया। कुछ विद्वान इसे सही नहीं मानते । रोहतक जिले के गजेटियर के अनुसार यहां पर रोहेड़ा के पेड़ अधिक थे। रोहेड़ा को संस्कृत भाषा में रोहितक कहा जाता है। इसके आसपास रोहेड़ा के पेड़ों की अधिकता के कारण यह रोहितक कहलाया जो बाद में रोहतक हो गया। यही नाम आज तक चला आता है।

सीमाएं :

रोहतक जिले की सीमाएं प्रायः उन्हीं जिलों को ज्यादा छूटी हैं जो कभी इसके अंग थे। रोहतक के पूर्व व उत्तर में जिला सोनीपत है। दक्षिण व दक्षिण पूर्व में जिला झज्जर है। उत्तर पश्चिम में जींद जिला है। पश्चिम में हिसार तथा दक्षिण पश्चिम में इसे भिवानी जिले की सीमाएं छूती हैं। सोनीपत झज्जर व बहादुरगढ़ की सीमाएं शहर से बहुत ही कम दूरी पर हैं। झज्जर मार्ग पर करोंथा अन्तिम गांव रोहतक का है। सोनीपत मार्ग पर हमायूंपुर रोहतक का अन्तिम गांव है। पहुंच मार्ग पर मुंगाण और पोलंगी एवं रिठाल अन्तिम गांव है। पानीपत मार्ग

पर घिलौड़ कलां अन्तिम गांव हैं। ये सभी गांव रोहतक से पच्चीस से तीन मील की दूरी पर हैं। हिसार रोड पर कुछ लम्बाई है तथा महम के पास फरमाना थोड़ी दूरी का गांव है जो जिला मुख्यालय से ज्यादा दूर पड़ता है। भिवानी मार्ग पर कलानौर भी ज्यादा दूरी पर नहीं है। अतः कांट-छांट के चक्कर में रोहतक छोटा सा जिला रह गया है। इसमें लाखनमाजरा, सांपला, कलानौर, महम और रोहतक विकास खण्ड हैं।

जलवायु :

रोहतक का जलवायु प्रायः शुष्क है। पिछले कई वर्षों में आई बाढ़ ने जलवायु में कुछ परिवर्तन कर दिया है। यहां गर्मी में तेज गर्मी और सर्दी में दिसंबर-जनवरी में कड़ाके की ठण्ड होती है। वर्षा ऋतु में वर्षा होती है परन्तु ज्यादा नहीं। एक आध वर्ष वर्षा ज्यादा होती है। 1977-78 के बाद 1995 में ज्यादा वर्षा हुई थी उसके बाद ज्यादा वर्षा नहीं हुई। इस ज्यादा वर्षा ने जमीन पर ज्यादा प्रभाव डाला। 1995 की बाढ़ के बाद बलम्भा (महम) आदि गांव में नमी बढ़ गई। इसी प्रकार मायना, करोंथा व बोहर के पास भी जमीन में नमी बढ़ी है।

यहां का जमीनी पानी प्रायः खारा है। जिन गांव का पानी मृदु था, वह भी अब कठोर हो गया है। यमुना नदी में जल कम होने और कभी-कभी बिल्कुल न होने के कारण नहरों में पानी कम आता है।

महम के आसपास के टीब्बे में पानी का घोर अभाव है। रोहतक की जमीन प्रायः दो प्रकार की है (क) डाबरः यह जमीन सख्त है और गेहूं तथा ईंख व बाड़ी (कपास) के लिए उपयुक्त है। (ख) बालू वाली (रेगिस्तान) जो थली कहलाती है, यह बाजरा, ज्वार, ग्वार आदि के लिए उपयुक्त है। महम के गांव जिनकी सीमा भिवानी, हिसार और जींद से मिलती है प्रायः शुष्क प्रकार के गांव हैं। हिसार व भिवानी की ओर के गांव तो बिल्कुल रेगिस्तानी गांव हैं। सांपला, कलानौर, लाखन माजरा तथा रोहतक खण्ड के दो चार गांव को छोड़ कर प्रायः डाबर की जमीन के गांव हैं। सुनारियाँ, गरनावठी, हसनगढ़ व समचाना

तथा भैंसरू के पास की जमीन थली है। पानी तो लगभग सारी जमीन में लगता है। कृषि योग्य भूमि के लिए पानी का अभाव बना रहता है। वर्षा पर ज्यादा निर्भर रहना पड़ता है। रोहतक के पूर्व में बोहर के पास बड़ी नहर है तथा पश्चिम में बहु व खरकड़ा के पास बड़ी नहरे हैं। इन्हीं नहरों द्वारा सिंचाई होती है परन्तु पानी की कमी बनी रहती है।

वन्य प्राणी :

रोहतक के आसपास ज्यों-ज्यों आबादी का दबाव बढ़ा है, त्यों-त्यों इसका सबसे ज्यादा दुष्प्रभाव वन्य जीवन पर पड़ा है। कुछ समय पूर्व तक थली (रेगिस्तानी) भाग में भेड़िए, जरक मिल जाते थे परन्तु अब नहीं मिलते। भूमि पर पर्यावरण का दुष्प्रभाव जो जमीनी ानी पर भी पड़ा, उसने भी वन्य जीवन को प्रभावित किया है। कुछ दूसरे जानवर जो लुप्त हुए हैं, उनमें बिज्जू है। जंगलों में, खेतों में सियार, लोमड़ी अधिक मिलते हैं। खरगोश, चुहे, गहवेरा, सांप और पानी वाले सांप भी मिलते हैं। पानी में कछुवे और मछली भी मिलते हैं। छोटे जीवों में सेही नेवले और झाऊ चूहे मिलते हैं। पिछले कुछ समय से जब से शिकार पर प्रतिबन्ध लगा है, हिरण और नीलगाय बहुत पाए जाने लगे हैं। बन्दर भी बहुत हैं। नहरों के किनारे, पुलों पर तथा अब गांव व शहरों में इनकी संख्या बढ़ गई है। खेतों में जंगली बिलाव भी मिलती हैं। छिपकली, गिरगिट, गिलहरी मिलती हैं। वर्षा ऋतु आने पर हरियाली तीज (मखमली, गुलाबी, लाल) गिजाई, कानखजुरे मिलते हैं। कम सफाई की जगह बिच्छू भी मिल जाते हैं।

पक्षीः

जिन गांव के पास या खेतों में बड़े-बड़े पेड़ हैं वहां मोर-चील बाज और कुही ज्यादा मिलते हैं। तोते, चिड़िया, बटेर, कबूतर, काली चिड़िया मिलती हैं। चमगादड़, चकचुन्दर और उल्लू मिलते हैं। उल्लू जाति की कोतरी भी बहुत मिलती हैं। कौआ (काग) यहां पर सभी जगह उपलब्ध पक्षी हैं। कोयल और कबूतर भी उपलब्ध हैं परन्तु जब से घरों की छतें पक्की बनाई जाने लगी हैं।
चिड़िया कम होने लगी हैं।

निवासी एवं जातियां:

रोहतक में प्रायः सभी जातियाँ रहती हैं परन्तु जाट, ब्राह्मण और बनिया महाजन की संख्या अधिक है। रोहतक जिले के कुछ गांव तो ऐसे हैं जहां स्वर्ण जातियों में केवल ब्राह्मण ही हैं। ब्राह्मणवास, पहरावर और मसूदपुर आदि इसी प्रकार के गांव हैं। जाट इन उपरोक्त गाँव को छोड़कर सभी गांव में हैं। बनिया भी सभी गांव में हैं, भले ही अब इनकी संख्या कम हो गई है। पिछडे वर्ग की जातियाँ कुम्हार, नाई, खाती, लुहार, बैरागी, जोगी, छीपी, सुनार, मनियार लगभग सभी गांव में हैं। किसी-किसी गांव में एक-आध जाति ज्यादा कम है। जैसे माली, तेली, मिरासी, धेबी, झीमर किसी किसी गांव में मिल जाते हैं। वैसे माली रोहतक शहर और महम में अधिक हैं। ब्राह्मण वर्ग समाज का अगुआ रहा है और आज भी उसका पूरा सम्मान है। कोई भी धार्मिक व सांस्कृतिक काम उसकी उपस्थिति के बिना पूरा होना संभव नहीं है। कुछ गांव में राजपूत भी हैं।

अनुसूचित जातियों के चर्मकार धाणक व बाल्मीकि ज्यादा हैं। चर्मकारों की संख्या ज्यादा है। किसी-किसी गांव में खटीक भी हैं। कुछ गांव में यादव (अहीर) भी हैं। इनके पास जमीन भी हैं और अच्छे पद भी हैं। राबारी, हेड़ी भी गांव में हैं परन्तु सांसी, कंजर, पेरने, सिकलगर और ढेहें आदि शहर में ही रहते हैं। ब्राह्मणों में गौड़ व सारस्वत दोनों हैं, इन्हीं के साथ डाकौत व चमरूए ब्राह्मण भी हैं। रोहतक शहर में गाडिया लुहार भी रहते हैं। राजपूत कम हैं, पहले ये भूमि का बड़े स्वामी थे परन्तु अब जमीन कम रह गई है।

मोटे तौर पर जाति भेद है, परन्तु खानपान में अधिक भेदभाव नहीं है। यादव (अहीर) जाट खाती, लुहार, मनियार, बैरागी, जोगी, माली (सैनी), नाई, छीपी आदि जातियाँ हुक्का एक साथ पी लेती हैं। केवल विवाह को छोड़ कर सभी सामाजिक कार्य साथ-साथ कर लेते हैं। आजकल ब्राह्मण और बनिया सिगरेट का प्रयोग ज्यादा करते हैं। खानपान में कोई भेदभाव नहीं करते परन्तु अपनी पवित्रता का पूरा ध्यान रखते हैं। अपना हुक्का अलग रखते हैं। अनुसूचित जातियाँ मं परस्पर यह भेद-भाव कुछ ज्यादा ही है। वे जातियाँ अपना हुक्का भी प्रायः अलग-अलग ही रखती हैं।

राजपूत भी अब वैसा भेद-भाव नहीं करते। उनकी आबादी रोहतक में कम है। समरगोपालपुर, कान्ही तथा माड़ौदी, कलानौर आदि में ही है। रोहतक शहर में पिछले कुछ समय से आवागमन के कारण जनसंख्या में बेहताशा वृद्धि हुई है। स्वाधीनता प्राप्ति से पूर्व रोहतक के अनेक गांवों में मुसलमान थे परन्तु उनके जाने के बाद यहाँ हिन्दू आए। विभाजन से पूर्व काफी मुसलमान यहाँ महत्वपूर्ण स्थान रखते थे, आबादी में भी तथा अन्य स्थितियों में भी, उनके जाने के बाद मूलरूप से हरियाणवी मुसलमानों की संख्या बहुत कम हो गई है। उनके जाने के बाद आने वालों में अनुसूचित जाति के लोग कम हैं। ज्यादा संख्या सामान्य वर्ग के लोगों की थी। मुसलमान सामान्य वर्ग एवं अनुसूचित दोनों ही प्रकार के थे। कुछ गाँव में विभाजन से पूर्व मुसलमानों की संख्या ज्यादा थी। कलानौ, काहनौर, निगाना, आंवल, गढ़ी, बल्लम और माड़ौदी तथा महम, समर गोपालपुर, कान्ही और शहर मुसलमानी आबादी से भरपूर थे। रोहतक शहर में गांधी कैंप तथा बड़ा बाजार आज पाकिस्तान से आए हिन्दुओं से आबाद है। रोहतक शहर में काफी जातियों के व्यक्ति रहते हैं। उदाहरण स्वरूप कायस्थ रोहतक शहर में है, गांव में नहीं। एक मोहल्ला कायस्थ मोहल्ला है। रोहतक की दलित बस्तियों में सपेरे, बाजीगर, पेरने, ग्वारिया, सींगीकाट, नट रंगरेज आदि जातियाँ हैं। कुछ घर बावरिया और सोलगरों के भी हैं। कुछ घर नायक जाति के भी हैं। इन जातियों में सभी धर्मों के लोग बस्ते हैं जैसे हिन्दू, मुसलमान, सिक्ख जैन बौद्ध और ईसाई ।

राजपूतः

स्वाधीनता से बहुत पहले रोहतक के आसपास के कई गांव में राजपूत बसते थे। उनमें से काफी लोगों ने इस्लाम धर्म ग्रहण कर लिया था।। वे पाकिस्तान चले गए। अन्य जो यह बच गए उनकी संख्या बहुत कम है। इनके गोत्र प्रायः जाट, यादव (अहीर) तथा चर्मकार जाति से मिलते हैं जैसे तोमर, चौहान, परमार, पंवार, सोलंकी आदि एक समय तो यहाँ पर इनका बहुत जोर चलता था। ये लोग कृषि करते हैं। सेना में भी अधिक हैं दूसरी सरकारी नौकरियों में भी हैं।

जाटः

जनसंख्या की दृष्टि से इस जाति की संख्या ज्यादा है। यह जाति मुख्य रूप से कृषि कार्य करती है। पशुपालन दूसरा मुख्य धन्धा है। स्वाधीनता से पूर्व इनकी आर्थिक दशा अच्छी नहीं थी लेकिन अब काफी अच्छी है। कुछ विद्वानों का मत है कि इस जाति का प्राचीन निवास शिवालिक की पहाड़ियों में था। शिव+अलक से यह शिवालिक शब्द बना है। शिव इन पहाड़ियों का राजा था और यहां यह पहाड़ियाँ शिव की अलक अर्थात जटा थी। इसी से इन पहाड़ियों की जाति जाट कहलाई। कुछ विद्वानों के अनुसार शिव का सेनापति वीरभद्र इनका आदि पुरुष था। प्रायः जाट शिव के उपासक हैं। प्रायः इनके गांव के बाहर शिव का मन्दिर है जिसे शिवालय कहा जाता है। किलोई गांव का शिव मन्दिर उत्तर भारत के प्रसिद्ध मन्दिरों में से एक है।

कुछ विद्वानों का मानना है कि यह जाति भगवान श्रीकृष्ण की वंशज है जो अपने को यदु मानते हैं। यदु के वंशज यादव कहलाए और भाषा भेद होते-होते यदु से जदु और जदु से जाट हो गए। इस जाति का झुकाव आर्य समाज की ओर भी रहा है। ज्यादा जनसंख्या सनातनी विचारधारा की है। आर्य समाज के लिए रोहतक में लाला लाजपत राय का भी योगदान रहा है। इनका पंचायती संगठन मजबूत है। कभी रोहतक शहर में चौरासी गोतों की पंचायत होती थी। रोहतक का आकार छोटा होने के कारण कई गोत्रों के गांव दूसरे जिलों में चले गए। अभी भी यहां के गांव के संगठन उसी नाम से पुकारे जाते हैं। जैसे चौबीसी महम, हुड्डा का बाहरा, बोहर अठगामा तथा एक चौगामा, सुनारियाँ आदि का वाली ममता खब 192 prus LHAND HIL गड़ी यहां से

सतगामा आदि। महम के आसपास के चौबीस गांव कहे जाते हैं परन्तु कभी ये अस्सी यानि बीस × चार थे। यानि अस्सी गांव थे। महम के पास के गांव में सिवाच, रांगी, दांगी, मलिक, राठी, सहारण, अहलावत ज्यादा प्रमुख गोत्र हैं। एक-एक गांव में कई-कई गोत्र भी हैं। कुछ गांव प्रमुख गोत्रों के गढ़ भी हैं जैसे दलाल चिड़ि में, बोहर में नान्दल, हमायुंपुर और करोंथा में धनखड़, ईस्माइला में खत्री, भालौठ में फौगाट, धनखड़ बखेता, खोखर कंसाला में, बुधवार सुनारियाँ में, कुण्डू टिटौली में। कुछ लोगों ने गांव के प्रभाव के कारण अपने गोत्र बदल भी लिए हैं। हुड्डा गोत्र के गांव एक ही पंक्ति में पश्चिम से पूर्व की ओर हैं। इनका आदि गांव घुसकानी है। मलिकों के प्रमुख गांव मोखरा, खहरावर, और कारौर हैं। ढाका गोत्र सुण्डाना में हैं। जाट यादव (अहीर) गुर्जर तथा काफी पिछड़े वर्ग की जातियों में हुक्का-पानी का भाईचारा रखते हैं। स्वाधीनता के बाद जाट जाति ने काफी उन्नति की है। सरकारी नौकरियों में इनकी काफी संख्या है। शिक्षा की ओर अब इनका काफी ध्यान है। सेना में भी इनकी काफी संख्या है। सामाजिक रूप से सभी समान हैं। वर्तमान में महंगाई और बेरोजगारी की मार से लगभग इनकी आधी आबादी त्रस्त है।

ब्राह्मणः

रोहतक शहर एवं गाँवों में प्रायः गौड़ ब्राह्मण वास करते हैं। कुछ सारस्वत तथा दूसरे ब्राह्मण भी हैं। ये अपना उद्गम ऋषि मुनियों से मानते हैं। इनके गोत्र भी उन्हीं के नाम पर हैं जैसे अत्री, कौशिक, पाराशर, भारद्वाज, वशिष्ठ, शांडिल्य, हरीतश, जमदग्नि और मुगिल आदि। रोहतक के ब्राह्मण कृषि व पशुपालन पर आधारित हैं। पूर्व में यह जाति सम्पन्न रही है। विद्या की धनी रही है। आजकल आर्थिक रूप से कमजोर हो गई है। एक समय सम्पन्नता के साथ यह जाति समाज की नीति निर्धारक भी थी। आर्थिक दशा की कमजोरी से इस जाति ने अब विद्या पर ध्यान देना छोड़ दिया है। यह जाति संस्कृति एवं सभ्यता का केन्द्र भी रही है। एक समय तो रोहतक की राजनीति का आधार ही यह जाति थी। स्वाधीनता संग्राम के अग्रणी योद्धा एवं कांग्रेस के पुरोधा इसी जाति के गौरव थे। सभी ब्राह्मण अपने नाम के साथ शर्मा लगाते हैं। गोत्र कम होने के कारण शादी-ब्याह में शासन (निकास) पर ध्यान देते हैं।

पहले तो पूरा ब्राह्मण वर्ग ही पूजा पाठ पर, जजमानी पर निर्भर करता था। परन्तु अब पूजा पाठ का दायरा सिमट गया है और कृषि, पशुपालन एवं सरकारी नौकरी की ओर अधिक ध्यान है। अनेक ब्राह्मण स्वरोजगार भी करते हैं। कभी रोहतक के ब्राह्मण समाज की हरियाणा के प्रबुद्ध समाज में गणना होती थी। यहां का ब्राह्मण प्रायः सनातनी है परन्तु आर्य समाज के प्रभाव में भी एक बड़ा वर्ग रहा है। संस्कृत भाषा पर प्रायः इनका एकाधिकार रहा है। यह वर्ग प्रायः विष्णु, लक्ष्मी, राम, कृष्ण और शिव पार्वती का उपासक रहा है। विवाह, होम, हवन तथा मांगलिक कार्य इनके बिना संपन्न नहीं होते थे। विवाह में भण्डार की जिम्मेवारी भी प्रायः यही वर्ग निभाता था। एक समय यह वर्ग ज्ञान का सागर भी था। लेकिन आजकल समाज की धार्मिक आस्थाओं का उनके प्रति कम होना तथा इसकी आर्थिक अवस्था कमजोर होने पर एवं शिक्षा की ओर कम ध्यान देने के कारण पहले जैसी अवस्था नहीं रही। हरियाणा में ज्यादा साक्षर परिवर्तन होने से इस जाति के प्रति सम्मान में भी अन्तर आया है वरना आयु में छोटे व्यक्ति को भी दादा कह कर सम्मानित किया जाता था। इस वर्ग का जीवन बड़ा सात्विक रहा है। शराब, मांस तथा इस प्रकार की अन्य वस्तुओं से यह वर्ग प्रायः दूर ही रहा है। परन्तु अब इन्हें आधुनिकता की हवा लग गई है।

बनियाः

ये व्यापारी लोग हैं। इनकी जनसंख्या कम है। प्रत्येक गाँव में कुछ घर इनके अवश्य होते थे परन्तु जब से शहर में आने-जाने के साधन उपलब्ध होने लगे हैं तब से इनके व्यापार पर प्रभाव पड़ने लगा है और बनिया लोग गांव छोड़कर शहर की ओर आ गए हैं। व्यापार के लिए ये लोग हरियाणा से बाहर भी चले गए हैं। हरियाणा से बाहर इन्हें मारवाड़ी कह कर पुकारा जाता रहा है। यह वर्ग अपना उद्गम अग्रोहा (हिसार) से मानते हैं। रोहतक में प्रायः इनके सभी गोत्र मिलते हैं। रोहतक के अधिकतर बनिया सनातनी हैं। कुछ लोग जैन धर्म को भी मानते हैं। आर्थिक रूप से सभी बनिया प्रायः संपन्न ही हैं। कुछ एक लोग आर्थिक रूप से कमजोर हैं परन्तु अत्यधिक नहीं। स्वाधीनता से पूर्व एक समय तो ऐसा था कि रोहतक का रेलवे रोड और अनाज मंडी पर पूरा प्रभुत्व इन्हीं लोगों का था। पिछले कुछ समय से इनका प्रभाव कुछ कम हो गया है। यह जाति धार्मिक रही है। समाज सुधार, दान पुण्य में ये लोग अग्रणी रहते हैं। खान-पान में पवित्रता रखते हैं। अपना हुक्का किसी दूसरे को नहीं देते। स्वाधीनता के बाद ब्राह्मण वर्ग ने यद्यपि जातिवाद को सामाजिक रूप से कुछ तोड़ा है परन्तु बनिया में अभी स्वजातीय के प्रति श्रेष्ठता का भाव है। गांव में कहीं-कहीं इस वर्ग के पास जमीन भी है। वहाँ पर स्वयं कृषि कार्य न करके बटाई पर कृषि करवाते हैं। यह जाति एक गोत्र पर तो पूरा ध्यान देती है परन्तु शादी-ब्याह में कठोर नहीं है। पुराने समय में इसकी एक छवि यह भी रही है कि इन्हें खेतीहर वर्ग का शोषणकर्ता माना जाता था।

दुकानदारी और व्यापार के साथ-साथ सरकारी नौकरी में भी ये लोग बड़ी संख्या में है। खाना सात्विक व राजसी खाते हैं। शादी-ब्याह में खूब खर्च करते हैं। स्वाधीनता संग्राम में इसका महत्वपूर्ण योगदान रहा है। गांधी जी, मदन मोहन मालवीय, डॉ. राजेन्द्र प्रसाद तथा दूसरे राष्ट्रीय स्तर के कांग्रेसी नेता जब रोहतक आते थे तो लाला शामलाल के मेहमान बनते थे। स्वाधीनता पूर्व गांव में ब्याज का काम भी ये ही लोग करते थे परन्तु अब वैसी बात नहीं है। स्वाधीनता से पूर्व गाँव के बाहर बनवाए गए मन्दिर प्रायः इन्हीं लोगों द्वारा निर्मित हैं। अब इनकी ज्यादा जनसंख्या रोहतक शहर, सांपला और महम में है। प्रदेश की अर्थ व्यवस्था में इनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है।

अहीर (यादव):

रोहतक जिले में यादवों की जनसंख्या बहुत ही कम है। बलियाणा गांव

में एक पाना तथा महम में इनकी जनसंख्या है। रोहतक शहर में थोड़े से परिवार रहते हैं। इनका खानपान प्रायः जाटों जैसा ही है। यह जाति भगवान श्रीकृष्ण को अपना आदि पुरुष मानती है। यह जाति अपना उद्गम ययाति पुत्र यदु से जोड़ती है। गाँव में कृषि कार्य करते हैं। पिछले कुछ समय से सरकारी नौकरियों में भी हैं। कई व्यक्ति तो ज्यादा महत्वपूर्ण पदों पर भी हैं। यह जाति सनातनी हैं। कुछ-कुछ आर्य समाज के प्रभाव में भी है। ये जाटों की तरह तीन गोत्र छोड़कर विवाह करते हैं। इनके गोत्र प्रायः जाट एवं राजपूत जाति से मिलते-जुलते हैं जैसे डागर, लाम्बा आदि।

माली (सैनी):

यह कृषक जाति है परन्तु सब्जी और बागवानी इनका प्रमुख पेशा है। रोहतक शहर में सोनीपत स्टैंड के पीछे से सुखपुरा चौक तक की सारी आबादी सैनियों की ही थी। गांव में अब ये लोग कृषि या मजदूरी करते हैं। कृषि के साथ-साथ पशुपालन भी करते हैं। कुछ लोग कृषि व पशुपालन के कारण समृद्ध भी हैं। ये लोग तीन गोत्र छोड़कर विवाह करते हैं। रोहतक में इनकी अपनी शिक्षण संस्थाएँ भी हैं।

सुनारः

यह जाति पहले कुछ समृद्ध भी परन्तु जब से आभूषणों का सारा काम शहर में होने लगा है। यह अति गरीब हो गई हैं। गाँव में प्रायः इनकी संख्या कम ही रह गई है। कुछ शहर में आ गए हैं। कुछ लोगों ने पैतृक धंधा छोड़ कर कोई दूसरा व्यवसाय अपना लिया है। जो ऐसा न कर सके वे बेरोजगारी और गरीबी की मार झेल रहे हैं।

खाती (बढ़ई):

परम्परा से यह जाति श्रेष्ठ शिल्पकार, मूर्तिकार, भवन निर्माता रही है और राज मिस्त्री का काम करते हैं। लकड़ी का काम पहले केवल यही लोग करते थे। पशुपालन भी करते थे। अब काफी लोग सरकारी सेवा में भी हैं।
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आधुनिकता की दौड़ में यह जाति अपने आप को जांगिड़ (जांगड़ा) ब्राह्मण कहने लगी है। अपना उद्गम यह विश्वकर्मा से जोड़ते हैं। गाँव में इस जाति के बिना मकान बनाना असंभव सा है। मोटे तौर पर खाती सनातनी हैं। खाना सात्विक खाते हैं परन्तु नई पीढ़ी नशे की ओर चल पड़ी है। रोहतक शहर में इस जाति की शिक्षण संस्थाएं हैं। काठमंडी में इनका महत्वपूर्ण योगदान है। काठमंडी रोहतक में बड़े-बड़े लकड़ी के व्यापारी प्रायः खाती जाति से ही हैं। विवाह तीन गोत्र छोड़कर करते हैं। जाट अहीर के साथ हुक्का पी लेते हैं। इनके साथ शाही ब्याह में आना-जाना भी होता है। इन जातियों के साथ खाने-पीने में कोई परहेज नहीं है। गाँव में लकड़ी के कृषि औजार यह जाति तैयार करती है और एक हल के पीछे 70 किलोग्राम अनाज लेते हैं। कृषि कार्य बैलों की बजाय जब से ट्रैक्र से होने लगा है। इनकी आर्थिक दशा कमजोर हो गई है।

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लुहारः

गांव में लोहे का कार्य लुहार जाति ही करती है। कृषि कार्य में काम आने वाला लोहे का सारा सामान औजार आदि इन्हीं द्वारा तैयार होता है। हलका फाल (फाली) को तेज करने का काम इन्हीं द्वारा होता है। प्रत्येक हल के पीछे 70 किलोग्राम अनाज लेते हैं। परन्तु अब कृषि का मशीनीकरण हो गया है। अतः इनका आर्थिक जीवन भी कमजोर हो गया है। यह जाति अपने को पांचाल ब्राह्मण कहती है। तीन गोत्र छोड़कर विवाह करती है। इनकी आबादी प्रत्येक गांव में है। कई गांव के लुहार कृषि औजार बनाने के लिए ज्यादा प्रसिद्ध थे। रूड़की के कसोले और पाकस्मा की कस्सी ज्यादा प्रसिद्ध थी। टांगली जिसे जेली कहते हैं रूड़की व रोहतक अनाज मंडी के गेट के पास की ज्यादा बढ़िया मानी जाती थी। कहीं-कहीं कृषि का कार्य भी करते हैं। आर्थिक स्थिति कमजोर है। ज्यादातर जनसंख्या सनातनी हैं। एक अति मामूली सा हिस्सा सरकारी सेवा में भी है।

नाई:

हरियाणा के सामाजिक जीवन में इस जाति का बहुत महत्व रहा है। वैसे तो इस जाति का मुख्य कार्य सेवा रहा है। साथ-साथ पशुपालन भी करते हैं। यह जाति अपने को कुलीन ब्राह्मण कहने लगी है। गाँव में विवाह शादी गमी और सुख-दुख में इसका महत्वपूर्ण भाग था। प्रत्येक छह माही में प्रत्येक घर से अनाज लेते थे। अब जजमानी कम हो गई है। पैसों में बाल काटते हैं (हजामत) करते हैं। इन्होंने शहर की ओर पलायन किया है। कुछ-कुछ नौजवान सरकारी सेवा में भी हैं। आदर से इनको सैन भक्त कहा जाता है। ज्यादातर लोग सनातनी हैं। सेना पुलिस में भी इनका हिस्सा रहता रहा है। रोहतक जिले के प्रत्येक गाँव में इनकी आबादी है। पहले तो किसान वर्ग के शादी ब्याह तक यह जाति तय करती थी। सीसना जिला सोनीपत के प्रसिद्ध लोक कवि बाजे भगत इसी जाति के रत्न थे। लोक कवि श्री प्रभुदयाल गाँव आसन जिला रोहतक इसी जाति से संबंध रखते थे। वे श्री बाजे भगत के शिष्य थे। स्वाधीनता पूर्व जब यातायात के साधनों का अभाव था तो नातेदारियों में संदेशवाहक का काम नाई ही करते थे। इनके पास छोटे घोड़े जिन्हें टट्टू कहते हैं, होते थे, जो इनकी प्रसिद्ध सवारी थी। गाँव के प्रत्येक घर के बारे में कई पीढ़ी की जानकारी इस वर्ग के पास रहती थी। बड़े-बड़े साहूकार, जमींदार और बनिया, ब्राह्मण के घरों में महिलाओं का श्रृंगार प्रायः नाईन ही करती थी। अब इनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है परन्तु अत्याधिक खराब भी नहीं हैं। इन्हें लोक भाषा में ठाकर भी कहते हैं।

बैरागी, जोगी एवं स्वामी और गोस्वामीः

ये जातियाँ पिछड़े वर्ग में आती हैं। पहले कभी ये जातियाँ स्वर्ण बताई जाती हैं परन्तु कभी इन्होंने संन्यास ले लिया था और बाद में वापस गृहस्थ आश्रम ग्रहण कर लिया जैसे वैराग्य बैरागी, योगी जोगी आदि। इनकी दशा आर्थिक रूप से रोहतक जिले में बहुत कमजोर है। अब कुछ लोगों ने सरकारी सेवा में आकर तरक्की की है। अन्यथा मजदूरी ही इनके जीवन का मुख्य आधार

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है। इन जातियों के कुछ लोग भिक्षा का कार्य भी करते थे। पशुपालन में भी इनकी रूचि रही है। लोक जीवन में सांस्कृतिक कार्य इनके चारों ओर ही घुमता था। जोगी लोग सारंगी व तबला वादक होते थे। श्री हरदेवा स्वामी सांगी, श्री खेमचन्द सांगी, श्री सेवा राम सांगी बखेता इन्हीं जातियों के रत्न रहे हैं। प्राचीन इतिहास को बढ़ा-चढ़ा कर अतिश्योक्तिपूर्ण तरीके से गायन में कह देना इन्हें बहुत आता था। गांधरा (सांपला) व बलियाणा के जोगी दूर-दूर तक प्रचार करने जाते थे। शिव का विवाह, राजा सुलतान और जानी चोर के किस्से गाते रहते थे। लाखन माजरा के जोगी भी अच्छे प्रचारक थे। आल्हा, छन्द में कविता के ये माहिर थे। अमर सिंह राठौर, हीर रांझा, जयमल फता और निहालदे के किस्से बड़े चाव से गाते थे। राजस्थान में जो काम भाट व चारण करते थे, लगभग वैसा ही काम ये लोग करते थे। परन्तु अब इनकी आर्थिक दशा अति दयनीय हो गई है। वे लम्बे-लम्बे किस्से, सारंगी पर सुनाने वाले लोग आज संरक्षण की अपेक्षा रखते थे।

मनियारः

यह जाति चुड़ियाँ पहनाने का काम करती है। लगभग सभी गाँव में इनका एक या दो घर अवश्य है। इनकी आर्थिक स्थिति कमजोर है। जहाँ नौकरी है वहाँ स्थिति ठीक है। चुड़ी व्यवसाय अब पहले जैसा नहीं रहा है। चुड़ी को सौभाग्य का प्रतीक माना जाता था। उस जमाने में बारात की विदाई में मनियार के लिए चव्वनी दी जाती थी। आज सैकड़ों वर्षों बाद भी वही चक्वनी है। इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि अब इस जाति का महत्व कितना रह गया है। बड़े खेद का विषय है कि इतनी महंगाई बढ़ी, आजादी के समय (50) पचास रुपये पाने वाला कर्मचारी आज साठ हजार की कमाई वाला हो गया है परन्तु उसकी चव्वन्नी वहीं खड़ी है। शहरीकरण का सब से ज्यादा प्रभाव इसी जाति पर पड़ा है। दूसरी जाति की महिलाएं भी चुड़ी बेचने लगी हैं। बस अड्डे के आसपास इनकी विवशता के दर्शन होते हैं। यह जाति प्रायः सनातनी है।

छीपीः

गांव में इस जाति की आबादी ज्यादा नहीं थी। अब और भी कम हो गई है। इनका मुख्य व्यवसाय कपड़े सीना और रंगा करना था। गाँव में खद्दर के कपड़े की पूरी रंगाई यही करते थे। इनकी आर्थिक स्थिति अब अच्छी नहीं रही।

सरकारी सेवा वालों की स्थिति अच्छी है। रंगाई-छपाई का काम मिलों में होता है। सिलाई का स्तर ऊंचा उठ गया। पहले छोपी घर-घर जाकर सिलाई किया करते थे। बेटी जब दूसरी बार (दूसर) ससुराल जाती तो छीपी का कार्य महीनों तक चलता था। वहीं खाना होता था। घाघरी का पहनावा था और उसकी कलियाँ जोड़ने में काफी समय लगता था परन्तु अब घाघरी को कोई एक आध ही पहनती है। छीपी अपने आप को रोहिल्ला टांक क्षेत्रीय कहते हैं। गांव में कताई बुनाई के बिना रजाई कम रंगी जाती हैं।

इसके अतिरिक्त बसने वाले पिछड़े वर्ग की जातियों की संख्या कम है।

झीमर (धीवर) पानी भरकर और शहतूत की टोकरियाँ बना कर एवं पशुपालन से गुजारा करते हैं। बिल्कुल गरीब हैं। पिछड़े वर्ग की जातियाँ हाथ से काम करके गुजारा कर लेती हैं। बेरोजगारी चारों ओर छाई है जिसके कारण छात्रों का पढ़ाई की ओर ध्यान न देना इनकी आर्थिक स्थिति कमजोर होने का एक मुख्य कारण है। इन जातियों में बदलते परिवेश के अनुसार व अनेक संघर्षों का सामना करते हुए शिक्षा व प्रशिक्षण पा कर बेहतर नौकरी व अन्य कार्यों में लगे हुए हैं।

कुम्हारः

पिछडे वर्ग की प्रमुख जातियों में से कुम्हार एक है। इनका परम्परागत पेशा कुम्भ अर्थात् घड़ा (मटका) बनाना रहा है। कुम्हार शब्द भी कुम्भकार का तद्भव रूप ही है। इनकी जनसंख्या थोड़ी है परन्तु प्रत्येक गांव में इनकी आबादी है। रोहतक शहर में तो इनका पूरा मोहल्ला ही है। पहले जब मिट्टी सुलभ थी तो इन्हें मटकों से काफी आय हो जाती थी। गर्मियों में मटका फ्रिज का काम देता था। बाद के पानी व बढ़ती आबादी के प्रभाव ने अच्छी मिट्टी खराब कर दी है और अब अच्छे मटके बनाने के लिए अच्छी मिट्टी सुलभ नहीं रही है।

दीपावली पर दीपक का पूरा कारोबार इन्हीं के हाथों में था। होई अष्टमी के दिन छोटे मटके (कमोई) यही लोग देते थे। घी का बर्तन (बारा) दूध की कढ़ावनी (दूध गर्म करने का बर्तन) बिलोवनी (दूध मथने का बिलोने का बर्तन) इन्हीं के हाथों की करामात थी। कुम्हार जब कच्चे मटके बनाता था तो पत्नी मटके पर कारीगरी, चित्रकारी करती थी। झज्जरी का कमाल इनका हुनर था परन्तु जब से आधुनिकता के दौर में मशीनीरीकरण ने जोर पकड़ा है तब से सबसे ज्यादा मार इसी जाति पर पड़ी है। दीपावली की लड़ियों और फ्रिज ने इनको बेरोजगार बनाया है। आर्थिक रूप से यह जाति काफी पिछड़ गई है। शिक्षा का अभाव है। सरकारी सेवा में संख्या कम है यद्यपि अब कुछ नवयुवक आगे आए हैं। भालौठ के राजेश एच.सी.एस. हैं, श्रीकृष्ण अंग्रेजी के प्रवक्ता हैं। रूड़की के एक वकील भी हैं। व्यक्तिगत खर्च बहुत बढ़ गए हैं। नई पीढ़ी को नशे की बीमारी लग गई है। यह जाति मूलतः शाकाहारी है। सनातनी है परन्तु अब कुछ-कुछ लोग नशे व अन्य व्यसनों की ओर बढ़ रहे हैं। आर्य समाज के प्रभाव से कुछ लोग अब बुराइयों से दूर भी हो रहे हैं। सैनियों खातियों की तरह इस जाति का न तो कोई विद्यालय है और न ही कोई बड़ा संगठन है। रोहतक में यदि कोई संगठन है भी तो राजनीतिक बातें अधिक और समाज सुधार, शिक्षा तथा आर्थिक अवस्था सुधारने की बात कम करते हैं। अब कुछ लोग परम्परागत पेशे को छोड़कर दूसरी ओर मुड़ने लगे हैं। ये लोग भी तीन गोत्र छोड़कर ही विवाह करते हैं। कुछ कट्टरतावादी चार गोत्र छोड़कर भी विवाह करते हैं। इनके गोत्र राजपूत, जाट, नाई और झीमर (धीवर) में मिलते हैं।

चर्मकारः

यह जाति अनुसूचित जातियों में महत्वपूर्ण है। यह जाति रोहतक जिले के प्रत्येक गांव में है। पहले यह जाति चमड़े का कार्य करती थी। परन्तु अब लघु उद्योग की तरह जुतियाँ बनाना या ठीक करने का कार्य करते हैं। गाँव में पशुपालन का भी कार्य करते हैं। स्वरोजगार की ओर भी पूरा ध्यान है। प्रायः गाँव से बाहर जाकर कपड़ा बेचते हैं। मजदूरी भी करते हैं। स्वाधीनता के बाद शिक्षा की ओर अधिक ध्यान देने के कारण इस जाति ने बड़ी उन्नति की है। अनेक व्यक्ति सरकारी सेवा में उच्च पदों पर हैं तथा राजनीति में भी अच्छी पैठ रखते हैं। चौ. चांदराम केंद्र व राज्य सरकार में मंत्री भी रहे हैं। स्वाधीनता संग्राम में इस जाति ने बढ़-चढ़कर भाग लिया था। बोहर गाँव के श्री रतीराम 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में लाहौर में शहीद हो गए थे। आज भी अनेक व्यक्ति शिक्षा एवं जागृति के कारण महत्वपूर्ण पदों पर आसीन हैं। कई अधिकारी भारतीय प्रशासनिक सेवा में भी रहे हैं। श्री राम भगत लांग्यान शिक्षा विभाग में महत्वपूर्ण अधिकारी रहे हैं। मुख्य रूप से यह जाति सनातनी है। कहीं-कहीं आर्य समाज का भी प्रभाव दृष्टिगोचर होता है। आजकल यह जाति बाबा साहब डॉ. भीमराव अम्बेडकर की सिद्धान्तों की ओर ध्यान दे रही है। पढ़ा-लिखा वर्ग गाँव छोड़कर शहर की ओर पलायन कर गया है। इस वर्ग में महिला सशक्तिकरण एवं नारी शिक्षा की ओर ध्यान दिया है। इनकी समृद्धि का कारण शिक्षा है। यह जाति भी तीन गोत्र छोड़कर विवाह करती है। इनके गोत्र जाट, राजपूत, यादव आदि से मिलते हैं जैसे अहलावत, राठी, दहिया आदि।

धाणक :

इस जाति के लोग रोहतक जिले के लगभग हर गाँव में रहते हैं। पहले यह जाति कपड़ा बुनने का कार्य करती थी। गाँव में सूती कपड़े, मोटा खद्दर की बुनाई यही करते थे। भेड़, बकरी पालते, कभी-कभी गाय भी पाल लेते थे। आजकल भैंस भी रखते हैं। मुख्य रूप से इनका जीवन मजदूरी पर आधारित है। जागृति के अभाव में शिक्षा की ओर पर्याप्त ध्यान न देने के कारण यह जाति आधुनिकता की दौड़ में पिछड़ गई है। नौकरियों में इनकी भागेदारी कम है। प्रमुख रूप से यह जाति सनातनी है परन्तु कहीं-कहीं माता, मसानी पीर व जादू टोने में भी विश्वास रखते हैं। किसी-किसी गाँव में संगठन बना कर यह जाति स्वयं सहायता समुह या कमेटी भी चलाती हैं। इनमें से बहुत से लोग संगीत प्रेमी थी हैं, जो ग्रामीण क्षेत्रों में वाद्ययंत्र बजाते हैं तथा शहर में विवाह शादियों में भी वाद्ययंत्र बजाते हैं। खान-पान शाकाहारी व मांसाहारी दोनों का प्रयोग किया जाता है। शिक्षा के अभाव में अन्धविश्वासी हैं और जहाँ शिक्षा का प्रकाश फैला है वहाँ आर्थिक और सामाजिक विकास हुआ है। पहले कपड़ा बुनते थे, अतः अपने आप को महात्मा कबीर दास का शिष्य कहते हैं।

बाल्मीकिः

संख्या में ज्यादा होते हुए भी यह जाति आर्थिक एवं राजनीतिक रूप से काफी पिछड़ी हुई है। मुख्य रूप से यह जाति सफाई का काम करती है। शहर रोहतक तथा अन्य कस्बे, महम, कलानौर और सांपला की सफाई व्यवस्था इन्हीं पर निर्भर है। सफाई कर्मी की नौकरी स्थाई न होने के कारण दुखी हैं। इनमें साक्षरता की दर कम है। यह जाति शिक्षा की ओर अधिक ध्यान देती भी नहीं है। मेहनत मजदूरी करके ही गुजारा करते हैं। सफाई के साथ-साथ सुअर व मुर्गी पालन का व्यवसाय भी करते हैं। गूगा पीर भैरू (भैरों) की पूजा विशेष रूप से करते हैं। डेरू बजाने का कार्य मुख्य रूप से यही लोग करते हैं। खाने में प्रायः मांस का प्रयोग कर लेते हैं। रोहतक शहर में इनकी पर्याप्त आबादी है। एक आध गांव को छोड़कर रोहतक जिले के प्रत्येक गाँव में इनकी आबादी है। वहाँ भी सफाई ही इनका मुख्य पेशा है। अशिक्षा के कारण नौकरियों में इनकी संख्या कम है। नेतृत्व का भी अभाव है। दूसरे लोगों की तरह जातिगत संगठन मजबूत नहीं है। भगवान बाल्मीकि की पूजा करते हैं। अब इस वर्ग पर आधुनिकता का असर पड़ गया है। इस वर्ग के भी बहुत से लोग शहर उन्मुख हो गए हैं।

इन जातियों के अतिरिक्त पिछडे वर्ग एवं दलित समुदाय की कई और जातियाँ हैं जिनकी संख्या कम है। उनमें से कोई एक आध परिवार ठीक-ठाक अवस्था में भी है। रोहतक में रेलवे रोड पर भड़भूजे तथा हमायुंपुर के खटीक अच्छे खाते-पीते परिवार हैं। शेष तो आर्थिक विषमता झेल रहे हैं।
पंजाबी समुदायः

स्वाधीनता के बाद पाकिस्तान से भारत आए हिन्दू समुदाय को प्रायः पंजाबी समुदाय के नाम से पुकारा जाता है। इनमें जाति व्यवस्था कम और गोत्र व्यवस्था अधिक है। पंजाबी समुदाय में एक गोत्र छोड़कर विवाह करते हैं। ये कट्टर सनातनी हैं, कहीं-कहीं आर्य समाज का भी प्रभाव है। आर्य समाज का प्रभाव हवन तक ही सीमित है। पंजाबी समुदाय पाकिस्तान से आते ही मुसलमानों द्वारा खाली किए स्थानों पर बसाया गया था। यह समुदाय गाँव में भी बसा और रोहतक शहर में भी। रोहतक का गांधी कैंप और बड़ा बाजार इनका क्षेत्र था। गाँव में बसे लोगों के पास जमीनें थीं। अब ज्यादा लोगों ने गाँव की कृषि योग्य जमीन बेचकर शहर में रहना आरम्भ कर दिया है। यह समुदाय घोर परिश्रमी है। इनकी शादी खर्चीली होती है। सुन्दर भवन, मकानों में रहने के शौकीन हैं। 1947 में इन्होंने घोर गरीबी और कमजोर आर्थिक अवस्था देखी थी। परन्तु आजकल रोहतक के 40 प्रतिशत व्यापार पर इन्हीं का कब्जा है। पूरा किला रोड और शौरी क्लॉथ मार्केट पर इनका प्रबल प्रभाव है। वहाँ पर प्रतिदिन लाखों रुपये का लेन-देन होता है। सब्जी मंडी और अनाज मंडी में भी संख्या काफी है। रोहतक के दूध और खोए के व्यवसाय में इनकी 80 प्रतिशत भागेदारी है। रोहतक शहर और कलानौर में डेरी व्यवसाय में इनका महत्वपूर्ण योगदान है। यह समुदाय शिक्षा के प्रति सचेत है। यह वर्ग पूर्ण साक्षर समाज कहा जा सकता है। ज्ञान, विज्ञान, इतिहास समाज सुधार और शिक्षा के प्रचार-प्रसार में इस समाज का बहुत ज्यादा योगदान है। रोहतक के परम्परागत स्वभाव को बहुत प्रभावित किया है। खान-पान, रहन-सहन, भाषा, वेश भूषा और विवाह-शादी, हर क्षेत्र में घुल मिल गए हैं। पिछले कुछ समय से इस समाज में अलगाववाद, जातीयता की गंध आने लगी है। भाषावाद पर अधिक जोर दिया जा रहा है। व्यापार, सरकारी सेवाक्षेत्र, दुकानदारी, स्वरोजगार पर ज्यादा ध्यान है। गाँव में कहीं-कहीं कृषि कार्य भी कर लेते हैं। सेना व पुलिस में इस समुदाय की भागेदारी बहुत कम है। पुलिस में हैं भी, तो अधिकारी वर्ग ही है।

मुसलमानः

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यद्यपि स्वाधीनता के बाद मुसलमान रोहतक शहर से तो एक प्रकार से समाप्त से हो ही गए थे। कुछ-कुछ गाँव में कारीगर रह गए थे। आजकल भी मुसलमान लुहार रोहतक के कई गाँव में हैं। फरमाणा (महम) बहलवा (बल्लम्भा) भैणी मातो, धामड़, खरकड़ा, मदीना, गिरावट, अजायब, मोखरा, भैणी सुरजन, सिहसर, खेड़ी महम, बसाना, निन्दाना और लाखनमाजरा गाँव में मुसलमान हैं। पिछले कई वर्ष से रोहतक में बाहर से आकर मुसलमान बस गए हैं। अब इनकी आबादी काफी हो गई है। रोहतक में वक्फ बोर्ड का कार्यालय भी है। रोहतक की कई मस्जिदें प्रसिद्ध हैं। एक लाल मस्जिद कहलाती है। यह किला रोड के कोने पर है, दूसरी बड़ी मस्जिदें बड़े बाजार में हैं। एक मस्जिद शीशेवाली कहलाती है। एक दीनी मस्जिद है, जो सन् 1308 की बनी हुई है। इसे अलाऊद्दीन खिलजी ने बनवाया था। बताते हैं यहाँ पर पर पहले एक जैन मन्दिर था जिसे खिलजी ने तुड़वा कर इसका निर्माण करवाया था। रोहतक के मुसलमान गरीबी और विपन्नता में जीते हैं। जो मुसलमान काफी पहले से बसे हुए हैं और जिन्होंने शिक्षा की ओर ध्यान दिया था आजकल सरकारी सेवा में अच्छे पदों पर हैं। महम के एक प्राध्यापक को पिछले दिनों राज्य शिक्षक पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। मुसलमानों की बड़ी आबादी मजदूरी, फेरी और कारीगरी का काम करके गुजारा करती है। रोहतक के मुसलमानों के पास कृषि कार्य की जमीन तो है ही नहीं। आबादी भी ज्यादातर रोहतक के खोखरा कोट पर ही है।

सिक्खः

रोहतक शहर में सिक्खों की आबादी कम ही हैं। गाँव में न के बराबर है। रोहतक व कलानौर में ज्यादा हैं। सांपला, महम में सिक्ख कम हैं। रोहतक में गुरुद्वारे हैं। गुरु द्वारा बंगला साहब वह स्थान जहां नवम् गुरु बलिदान हेतु जाते समय ठहरे थे। सिक्खों में कुछ लोग तो सम्पन्न हैं, कुछ गरीबी में जीते हैं। गरीब व्यक्ति कारीगरी का काम करते हैं। सिकलीगर दलित वर्ग में आते हैं जबकि दूसरे लोग प्रायः सामान्य वर्ग (सवर्ण) से हैं। सिक्खों का समान्य वर्ग स्वरोजगार, व्यापार और सरकारी सेवा में हैं। रोहतक शहर में सरदार चाट वाला, सरदार मसाले वाला, सरदार अचार वाला बहुत प्रसिद्ध हैं।

संस्कृति एवं वेशभूषाः

रोहतक शहर एवं आसपास के गांव के लोगों की वेशभूषा लगभग समान है। पुरुष वर्ग धोती पहनता है, कमीज या कुर्ता और सिर पर साफा (पगड़ी), युवा वर्ग पैन्ट, पायजामा और बुशर्ट या कमीज पहनता है। लड़कियाँ सलवार, जम्फर पहनती हैं। प्रौढ़ महिलाएं साड़ी का भी प्रयोग कर लेती हैं। सरकारी सेवारत बड़े पदों पर तथा बनियाईन साड़ी ही डालती हैं। पंजाबी समुदाय ने वेशभूषा को इतना प्रभावित किया है कि यहाँ का स्थानीय पहनावा घाघरी (दामन) प्रायः समाप्त हो गया है। ब्राह्मण वर्ग की महिलाएँ शादी में साड़ियाँ पहनती हैं। गाँव में महिलाएँ प्रायः सलवार जम्फर या सलवार कमीज पहनती हैं। कमीज केवल प्रौढ़ या बुढ़ी डालती हैं जबकि युवती व मध्यम आयु की महिलाएँ बिना किसी जाति भेद में सलवार व जम्फर पहनती हैं। वेशभूषा के साथ एक बड़ा अन्तर बालों में आया है। पहले महिलाएँ जुड़ा बनाती थी और माथे पर लाती जो चुन्डा कहलाता था। अब यह रिवाज समाप्त सा हो गया है। सभी महिलाएँ, लड़कियाँ बालों को संवारती हैं और बीच में से मांग बनाती हैं। कुछ पढ़ी-लिखी महिलाएँ जूड़ा पीछे बनाती हैं। पुरुष वर्ग पहले मुंछे, वे भी बड़ी-बड़ी रखना गर्व की बात मानता था परन्तु अब यह रिवाज भी नहीं रहा। गाँव में तहमंद रिवाज भी न के बराबर है। जिन गाँव में पंजाबी समुदाय है तथा शहर में कहीं-कहीं तहमद दिखाई देता है।

कानों में कर्णफूल, झुमका-बुजनी, टापस आदि पहने जाते हैं। बुजनी का रिवाज बहुत कम हो गया है। टॉपस का प्रयोग ज्यादा होता है। पंजाबी समुदाय, बनिया तथा अमीर लोग नए-नए फैशन के आभूषण पहनने में गर्व महसूस करते हैं। हथफूल, कड़े, सोने की चुड़ियों का रिवाज बढ़ गया है। पुराने आभूषणों की ओर अब कम ध्यान है। सोने की माला, मंगलसूत्र, सोने का हार व जंजीर पर ज्यादा जोर है। चांदी के आभूषणों के पायजेब व चुटकी का ज्यादा प्रचलन है। माथे पर बोरला, कड़ी, छलकड़े अब नहीं रहे। पहले कानों में मुरकी एवं दांत पर चौंक का रिवाज था परन्तु अब यह रिवाज खत्म हो गया है। वैसे भी पुरुष वर्ग प्रायः आभूषण नहीं पहनता। कुछ अमीर लोग गले में सोने की चैन व अंगूठी पहनते हैं। महिलाएँ नाक में नत्थ या कोका, लोंग डालती हैं। पिछले थोड़े से समय से महिला पुरुष ताम्बे, चांदी के छल्ले या सोने की रत्न जड़ी अंगूठियां पहनने लगे हैं।

रोहतक की जनता परम्परागत रूप से सतानती रही है परन्तु आर्य समाज का प्रभाव भी कुछ कम नहीं रहा। इस ओर भी लोगों का झुकाव हुआ है। गुरुकुल सुन्दर पुर सिंहपुरा, गुरुकुल भैयापुर लाढौत और रोहतक का दयानन्द मठ आर्य समाज का केंद्र हैं। रोहतक की जनता धार्मिक प्रवृत्ति की रही है। गऊ ब्राह्मण और साधु की सेवा की ओर ध्यान रहा है। लगभग प्रत्येक गांव में साधुओं का एक डेरा है। कुछ डेरों (मठों) के पास कृषि योग्य जमीनें भी हैं। ज्यादातर गांव में नाथ सम्प्रदाय (पंथ) के साधुओं के डेरे हैं। कुछ-कुछ गांव में दूसरे सम्प्रदायों के साधुओं की भी रिहायश है। गौ भक्ति के प्रमाण तो यह हैं कि गांव खिड़वाली में हुड्डा गोत्र की गऊशाला संभवतः एशिया की सबसे बड़ी गऊशाला है।

रोहतक शहर में साधुओं का एक बहुत बड़ा डेरा है। यह पुरी सम्प्रदाय का है। कलानौर में भी एक गद्दी है। इसके अतिरिक्त और भी कई साधुओं के अखाड़े हैं। बोहर में नाथ पंथ का एक बहुत बड़ा मठ है। इसका वर्णन अलग से किया जाएगा। गांव के बाहर साधुओं के डेरे पर जो साधु रहते हैं, उनका जीवन भिक्षा पर चलता है।
बड़ी-बुढ़ी महिलाएँ अब और पहले भी कहीं-कहीं हुक्का पी लेती हैं। प्रायः महिलाएँ सादा जीवन जीती हैं और व्यसनों से दूर रहती हैं। कोई-कोई बुढ़ी नसवार का भी प्रयोग कर लेती है। यहाँ की महिलाएँ बहुत ही ज्यादा परिश्रमी हैं। खेत, खलिहान, घर-बाहर का सारा कार्य महिलाएं ही करती हैं। जो महिलाएं स्वावलम्बी नहीं हैं उनकी दुर्दशा है। पिछले कुछ समय से भ्रूण हत्या का जोर बढ़ने से महिलाओं की संख्या कम हो गई है। आज कल महिला की कमी के कारण महिलाएं बाहर से लाकर यहां पर बेची जाती हैं। अतः महिला की दशा कोई बहुत अच्छी नहीं है। पहले भी कोई अच्छी दशा नहीं रही।

गांव में चौपालें हैं, जिन पर चित्रकारी की गई है। पहले यहां के लोग सामुहिक कार्यों में बढ़-चढ़कर भाग लेते थे। पुराने समय में तालाब इसी सहयोग से खोदे गए। विद्यालय कुएं इसी सहयोग का परिणाम थे और भी छोटे-मोटे काम सहयोग से चलते थे। विवाह में निनथार डाला जाता था और गरीब से गरीब आदमी को भी इसका बड़ा सहारा था। बारात को डेरों में ठहरा दिया जाता था। निनथार (न्योन्दा) सहयोग प्रेम और मिलसार होने की प्रथा तो है परन्तु समाप्ति की ओर है।

तालाबों का फैलाव हो गया परन्तु अब खुदाई नहीं रही। विवाह गांव के गांव में समान गोत्र में नहीं होते हैं। दुल्हन तीन गोत्र दूर की किसी दूसरे गांव से होती है। बच्चे के जन्म के छह दिन बाद छठी मनाने और नौ या दस दिन बाद हवन (होम) करवाने का रिवाज है। बच्चा सवा महीना का होने के बाद महिला प्रसव स्थान से बाहर आकर घर का काम करने लगती है। प्रसव काल में महिला के खाने पर विशेष ध्यान दिया जाता है। गांव में दूध-घी पर ज्यादा जोर रहता है। शहर में दूध घी फल और सब्जी पर जोर रहता है। गांव में प्रसव प्रायः दाई द्वारा करवाया जाता है। दाई प्रायः दलित वर्ग की होती है। शहर में डॉक्टरी सुविधाएं उपलब्ध हैं। मेडिकल रोहतक में तो पूरा एक वार्ड ही जनाना है। इसके अतिरिक्त शहर में अनेक जच्चा-बच्चा केंद्र है। छोटे बच्चे की मृत्यु पर दफनाते हैं और थोड़ा बड़ा होने पर संस्कार करते हैं। संस्कार के तीसरे दिन फूल चुनते हैं। आर्य समाज से प्रभावित परिवार इन्हें गंगा हरिद्वार या गढ़ मुक्तेश्वर नहीं ले जाते शेष सभी इन्हें गंगा में प्रवाहित करते हैं। तेरह दिन तक पातक यानि अपवित्रता रहती है। तेरहवीं को हवन किया जाता है। पहले वार्षिक कार्यक्रम बरसोधी एक वर्ष बाद करते थे परन्तु आजकल सतरह दिनों में या अढाई मास में कर दिया जाता है।

विवाह पर परिवार की सभी लड़कियों को बुलाया जाता है तथा दक्षिणा भी दी जाती है। संतान पैदा होने पर भी सभी लड़कियों को उनकी ससुराल से बुलाया जाता है। बहिन के बेटे-बेटी के विवाह में भात देने का रिवाज है। यदि बहिन आर्थिक रूप से कमजोर है तो अधिक भात (अधिक आर्थिक सहायता) देने की कोशिश रहती है। भात देना (भरना) संस्कृति में एक महत्वपूर्ण व धार्मिक कार्य माना जाता है। यदि कोई भाई अपनी बहन को भात नहीं देता तो सामाजिक रूप से उसे हेय दृष्टि से देखा जाता है। यदि किसी लड़की के सगे भाई न हो तो दूसरे नजदीकी या पड़ोसी भात देते हैं। कभी-कभी पड़ोस गांव वाले भी भात दे देते थे। ऐसे लोगों को समाज में सम्मान का दर्जा प्राप्त था।

सगाई के समय वहां पर बैठे सभी लोगों का सम्मान किया जाता है। बरात विदा करते समय भी सम्मान किया जाता है। बारात अपने गांव की सभी लड़कियों का, जो उस गांव में ब्याही हुई हैं, सम्मान करती हैं। यहां लड़कियों की जाति आदि कुछ नहीं देखी जाती, गांव को देखा जाता है। कभी पूरे गोत्र की लड़की या कभी-कभी भानजी तक का सम्मान किया जाता है। जैसे हुड्डा गोत्र की बारात जाखड़ के किसी गांव में गई है तो वह उस गांव में शादी करके आई अपने गांव की सभी लड़कियों का सम्मान करेंगे भले ही वे किसी जाति की हों।

वृद्धजनों का समाज में आदरणीय स्थान है। यदि कोई पुत्र अपने माता-पिता की सेवा नहीं करता है तो उसे हेय दृष्टि से देखा जाता है। वैसे अब इस रिवाज में कुछ अन्तर आ गया है और वृद्ध कुछ कम आदर के पात्र हो गए लगते हैं। पहले पर्दे का पूरा रिवाज था। संभवतः यह बहुत प्राचीन प्रथा नहीं रही है। यह पूर्व मध्यकाल से कुछ पहले की प्रथा लगती है। परन्तु अब पर्दा प्रथा धीरे-धीरे कम होती जा रही है। विवाह शादी के लिए यहां यह कहावत प्रचलित है कि 'गोती भाई, बाकी सब असनाई'। मृतक संस्कार के बाद तेरह दिन तक लोग बिना किसी भेदभाव के सहानुभूति के लिए मृतक के परिवार को सांत्वना देने का काफी रिवाज है। संस्कार के समय मदद करना, लकड़ियां देना, चिता बनवाना अच्छा समझा जाता है। कहा जाता है कि जो व्यक्ति सौ मृतक संस्कारों में भाग ले लेता है, वह स्वर्ग में जाता है। जो आदमी सौ बारातों में भाग लेता है वह नरक में जाता है। शमशान भूमि में जाने पर वैसे भी संसार की असारता का आभास होता है और अपने पापों की परछाई दिखाई देती है। लोक कथाओं में भी जीवन-मृत्यु, लोक पर परलोक भारी रहता है। लड़का पैदा होने पर प्रियजन लड़के का एक-दो वस्त्र तथा कुछ रुपये दे देते हैं। इसे 'झुगला-टोपी' देना कहा जाता है। आजकल जन्मदिन मनाने तथा मृतक भोज करने का ज्यादा रिवाज चल पड़ा है। विवाह में यहां एक और रिवाज महत्वपूर्ण है जिसे बान देना कहते हैं। प्रायः लड़की को विवाह से पांच दिन पूर्व और लड़के को सात दिन पूर्व बान बिठा देते हैं और एक दादा-परदादा की संताने लड़के-लड़की के परिवार समेत पूरे कुटुम्ब को भोजन करवाते हैं। ऐसे भोजन में देशी घी के हलवे की प्रमुखता रहती हैं।

भाषा-शिक्षा-साहित्य और कलाः

रोहतक जिले की भाषा बांगरू है जिसे कुछ विद्वान कौरवी भी कहते हैं। यह भाषा खड़ी बोली या राष्ट्रभाषा हिन्दी की उपभाषा पश्चिमी हिन्दी की एक बोली हैं। पूरे जिले में यही भाषा बोली और समझी जाती है। भाषा की विभिन्न का ग्रामीण जन में भी आभास है जैसा कि इस लोकोक्ति से स्पष्ट है चार कोस पर बोली बदले और दस कोस पै पानी। परन्तु कहीं-कहीं मामूली सा अन्तर है। रोहतक शहर से पूर्व व उत्तर पूर्व में शब्दों को प्रायः बहुवचनांत कर देते हैं जैसे कुए पर जबकि पश्चिम व दक्षिण पश्चि में एक वचनांत बोलते हैं जैसे कुआ पर। इसी प्रकार मामूली सा भेद खाता-खान्दा, रोता-रोन्दा, सोता-सोन्दा। इसी प्रकार जांट को जांड, जांटी को जांडी, कचरी को काचर आदि बोलते हैं। वैसे ब्रज भाषा भी पश्चिमी हिन्दी की एक बोली ही है और इसी प्रकार अवधी भी एक बोली ही है। परन्तु उसमें रचित साहित्य का ज्यादा महत्व हो गया और उन्हें भाष ही कहा जाने लगा जबकि बांगरू का साहित्य उपेक्षित रहा और यह बोली ही बनी रही। इसका एक कारण यह भी है कि यह साहित्य मौखिक है। बांगरू का साहित्य वैसे समृद्धिशाली साहित्य है। रोहतक जिले में श्री धनपत सिंह निन्दाना से, श्री दयाचन्द मायना से, श्री जीयानन्द शर्मा ब्राह्मणवास से श्री घीसाराम शर्मा धामड़ से बांगरू के प्रसिद्ध कवि हुए हैं। श्री धनपत सिंह तो सांग (स्वांग) करते थे। उनके कई सांग बड़े प्रसिद्ध हुए। लीलो चमन सांग भारत-पाक विभाजन की त्रासदी पर प्रेम कथा है।

हिन्दी भाषा में भी रोहतक के कई बड़े विद्वान हुए हैं। श्री खुशीराम वशिष्ठ महम के रहने वाले थे। गुजरात के पूर्व राज्यपाल और दिल्ली विश्वविद्यालय के वी.सी. रहे श्री स्वरूप सिंह हुड्डा अंग्रेजी के प्रकांड विद्वान थे। डॉ. ओ.पी. मोहन भी अंग्रेजी के अच्छे प्रवक्ता थे। भाषा से कोई जाति नहीं पहचानी जाती फिर भी अनुसूचित जाति में बताऊं को भताऊं कहा जाता रहा है। बनिया की बोली गर्व रहित मीठास वाली होती है। ब्राह्मण और जाट आदि की बोली लगभग समान होती है। सामान्यतः बांगरू को कुछ-कुछ कठोर समझा जाता है। रोहतक में महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय बन जाने से अनेक हिन्दी के जाने-माने लेखक, कवि और चिंतक यहां पधारे हैं। डॉ. नरेश, डॉ. रामशरण पाण्डेय, डॉ. वैद्यनाथ सिंहल, डॉ. श्याम सखा 'श्याम' डॉ. मनमोहन, डॉ. रामसुजन पाण्डेय आदि इनमें प्रमुख हैं।

रोहतक परम्परा से रोहतक शिक्षा का केन्द्र रहा है। इसीलिए इसे एजूकेशन सीटी कहते हैं। यहां शिक्षा का पहले भी प्रचार-प्रसार रहा है। अब भी यहां एक स्वास्थ्य विश्वविद्यालय (हैल्थ यूनिवर्सिटी) है। एक महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय है। महाविद्यालय निम्न हैं-

राजकीय महिला महाविद्यालय, रोहतक। 1.

श्री नेकीराम शर्मा राजकीय महाविद्यालय। 2.

जाट महाविद्यालय, ए. आई. जे. एच. एम. कॉलेज । 3.

चौ. छोटूराम तकनीकी महाविद्यालय। 4.

चौ. छोटूराम प्रशिक्षण महाविद्यालय। 5.

6. श्री लालनाथ हिन्दू महाविद्यालय।

7. श्री लालनाथ हिन्दू कन्या महाविद्यालय।

8. वैश्य महाविद्यालय

9. वैश्य बहुतकनीकी संस्थान

10. वैश्य कन्या महाविद्यालय

सत जिंदा कल्याण महाविद्यालय, कलानौर। 11.

12. सैनी महाविद्यालय

13. गौड़ ब्राह्मण कॉलेज

14. गौड़ ब्राह्मण प्रशिक्षण महाविद्यालय

रोहतक शहर में पांच राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय हैं तथा दो मॉडल व.मा.वि. हैं। सैनी, वैश्य, जाट और विश्वकर्मा वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय भी हैं। इसके अतिरिक्त अनेक सरकारी व गैर सरकारी विद्यालय हैं। सांपला व लाखनमाजरा और महम में भी राजकीय महाविद्यालय हैं। प्रत्येक गांव में माध्यमिक या उच्च विद्यालय तो अवश्य ही हैं। प्रत्येक बड़े गांव में एक वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय है जो बड़े गांव हैं, वहां पर दो-दो वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय भी हैं।

रोहतक, हसनगढ़, महम व कलानौर में आई.टी.आई भी हैं। इसके अतिरिक्त प्राइवेट संस्थाओं की तो बाढ़ सी आ गई है। ब्राह्मणवास व अस्थल बोहर में आयुवेर्दिक डिग्री कॉलेज हैं।
पंजाबी समुदाय की भाषा पंजाबी है परन्तु उसमें हिन्दी का पुट बना रहता है। उनकी आपसी बातचीत तो पंजाबी में ही होती है परन्तु हिन्दी बोलते समय भी पंजाबी का लहजा बना रहता है। रोहतक शहर में कई प्राइवेट शिक्षण संस्थाएं काफी उन्नत हैं। डी.पी.एस., इंडस, डी.ए.वी. आदि कई विद्यालय हैं। गांव में भी प्राइवेट विद्यालय हैं। रोहतक में एक आई.एम.टी. एक फैशन टैक्नोलॉजी, फिल्म प्रशिक्षण आदि संस्थानों पर भी काम चालू है।

यहां के अने कलाकार आगे बढ़ रहे हैं। कुछ नवयुवक फिल्मों में भी अपना भाग्य आजमा रहे हैं। श्री रणदीप हुड्डा व सुमित्रा हुड्डा ऐसे ही नाम हैं। श्री देवी शंकर प्रभाकर भी इसमें अच्छी रूचि रखते थे। हरियाणवी फिल्मों के लिए उन्होंने काफी काम किया। रामेहर मलिक ने रोहतक में एक आर्ट गैलरी भी बनाई है। कला की रक्षा यहां रामलीला मंडली, सांग और भजन उपदेशों द्वारा होती है। कभी-कभी यहां कवि सम्मेलन भी होते हैं। मुशायरे भी करवा लिए जाते हैं। जोगी भी यहां सारंगी वादन कला को संरक्षण देते हैं। अब यह कार्य कम हो गया है अन्यथा चौमासे में जोगी रातों-रात गायन करते थे। गोरा बादल, जयमल फता, अमर सिंह राठौर और पन्ना धाय इनके वर्ण्य विषय होते थे। सांगों में अभी भी सारंगी व तबला जोगी ही बजाते हैं। प्रसिद्ध सांगी श्री सेवा राम जोगी जाति से ही हैं। सांग लोक कला की एक बहुत बड़ी विद्या है। सांग की प्रारम्भिक अवस्था रिवाड़ी व थोनश्वर में थी। लेकिन सांग विद्या को जन-जन तक पहुंचाने का कार्य पुराने रोहतक के सांग कलाकारों ने ही किया था। आज भी पंडित लखमीचन्द को सामान्य जन सोनीपत का मानने को तैयार नहीं हैं। दीपचन्द, हरदेवा बाजे भगत, पं. लखमीचन्द, पं. मांगेराम, खीमचन्द, सुलतान (रोहद), सुलतान (फरमाणा) सभी का संबंध पुराने रोहतक से ही है। सांग बड़ी सस्ती विद्या थी। गांव में मनोरंजन का यही एक साधन था। सबसे बड़ी बात यह थी कि यह हमारी प्राचीन संस्कृति, भाव, विचार और विरासत की संभाल करने वाली विद्या थी। लोक कलाकार जब गाते तो कभी भक्ति और धर्म तथा कभी करूण रस एवं कभी भंगार रस की गंगा बहा दिया करते थे। लोक व्यवहार और मुहावरे तथा लोकोक्तियां कविता में होते थे। लखमीचन्द के सत्यवादी हरिशचन्द्र और पूर्ण भगत के सांग में धर्म दर्शन और वैराग्य एवं आध्यात्मिकता के दर्शन होते हैं। मीराबाई भक्ति प्रधान सांग है। मांगे राम का ध्रुव भक्त और कृष्ण जन्म सुन्दर कविताई का नमूना है। सांगों में संसार की नश्वरता लोगों को प्रायः धर्म विमुख और अनैतिक होने से रोकती थी। रोहतक के लोक जीवन को जितना सांग ने प्रभावित किया उतना शायद ही किसी अन्य विद्या ने किया हो।

सांग का प्रचलन टी.वी. के प्रभाव से कम हो गया है परन्तु नाटक संस्थाएं अभी भी इस क्षेत्र में अग्रणी हैं। ज्ञान-विज्ञान समिति के कलाकार राष्ट्रीय नाट्य मंच से जुड़े हैं। वर्ष 2011 में दो बार पाकिस्तान के कलाकारों ने रोहतक की यात्रा की एवं महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय में अपनी प्रस्तुति दी थी जिसे कई हजार आदमियों ने देखा था।

भवनः

पहले पक्के मकान कम ही होते थे। रोहतक शहर में तथा कलानौर, सांपला, महम आदि में छोटी ईंटों के मकान थे। शेष आबादी के पास झोपड़ी ही थी। गांव में गांव से बाहर कच्ची ईटें बना, सुखा कर मकान बनते थे, शहरों में तो पहले से ही परन्तु अब स्वाधीनता प्राप्ति के बाद गांव में भी सभी मकान पक्के बन गए हैं। पहले शहर में डयोदी होती, फिर आंगन और पीछे बरामदा तथा उसके बाद बड़े कमरे (शाल) तथा उसके बाद सौपे होते थे। गांव में भी यही पद्धति भवन निर्माण की रही। फिर धीरे-धीरे यह तरीका बदला और गांव में पशुओं के लिए अलग, परिवार के लिए अलग और पुरुषों के लिए बैठक अलग बनाई जाने लगी। सौपे (कोठे) पर चौबारा बनाने का रिवाज भी रहा है। अब गांव में भी अनेक प्रकार की कोठियां बनने लगी हैं और शहर में तो आलीशान मकान, कोठियां अलग प्रकार की बनने लगी हैं।

खेलः

रोहतक खेल के क्षेत्र में पहले से ही काफी आगे है। प्राचीनकाल में तो खेल ही मनोरंजन का साधन थे। कुश्ती और कबड्डी बिना पैसे के खेल थे। पहलवानों पर गांव के गांव गर्व किया करते थे। एक समय तो रोहतक में यह कहावत प्रचलित हो गई थी कि ब्राह्मणवास जितने भजनी और जसिया जितने पहलवान कहीं नहीं हैं। रामकिशन पहलवान जसिया गांव के थे। उससे पहले उन्नसवीं सदी के प्रारम्भ में श्री मोटाराम हुड्डा रूड़की का एक अच्छा पहलवान बताया जाता है। यानि इस क्षेत्र में कुश्ती पर ज्यादा ध्यान था। अब कुछ समय से पहलवान के साथ-साथ बास्केट बाल, वालीवाल तथा हॉकी, क्रिकेट पर भी पूरा ध्यान है। रोहतक शहर में एक खेल परिसर है, एक स्टेडियम है। लाहली गांव में क्रिकेट का मैदान है। क्रिकेट के जोगेन्द्र शर्मा रोहतक के ही हैं। 1999 में एशियाई खेलों में बैंकाक में भाग लेने वाली हॉकी खिलाड़ी कमला व सुनीता चिड़ी गांव की थी। हॉकी की गोल्डन गर्ल कहलाने वाली ममता खर्ब रोहतक सैक्टर-तीन की निवासी हैं। अनेक पहलवान समय-समय पर रोहतक का नाम रोशन करते रहते हैं। किलोई गांव का बास्केट बॉल का खेल बहुत अच्छा है। प्रतिवर्ष कई खिलाड़ी यहां से हरियाणा की शान बढ़ाते हैं। विदेशों में भारतीय महिला खिलाड़ियों का नाम रोशन करने वाली जगमति सांगवान एम.डी.यू. रोहतक में ही कार्यरत हैं।

पशुधनः

रोहतक के क्षेत्र में मुख्य रूप से गाय, भैंस, घोड़ा, टट्टू, गधा, खच्चर, भेड़-बकरी और सुअर पाले जाते हैं। एक दो गांव में ऊंट भी रखते हैं। पालतू जानवरों में कुत्ता है। जब कृषि कार्य पूर्णतः बैलों पर आधारित था तो गाय का बहुत ही अधिक महत्व था। गाय थोड़े चारे में निर्वाह करने वाला निर्राह पशु है। संभवतः इसके महत्व को ही समझ कर इसे माता का दर्जा दिया गया है। कृषि कार्य में यह सबसे महत्त्वपूर्ण पशु था। रोहतक में गाय की नसल को हरियाणा नसल कहा जाता है। यह दुधारू भी है और इसके बैल भी अच्छे होते हैं। कृषि कार्य
आजकल मशीनों पर आधारित हो गया है। अतः गाय के स्थान पर भैंस का बहुत अधिक महत्व बढ़ गया है। यहां पाई जाने वाली भैंस महि नसल की हैं, जो सारे एशिया में प्रसिद्ध नसल है। घोड़ा लोग शौक से पालते थे परन्तु यह अब काफी महंगा है एवं सवारी के लिए कार का प्रयोग बढ़ गया है। गधा कुम्हार जाति का पशु है। यह मिट्टी उठाने और भार ढोने के काम आने वाला निरीह पशु है। यह भी गाय की तरह कम खर्च का पशु है। खच्चर भी प्रायः कुम्हार ही रखते हैं। खच्चर भार ढोने वाली रेहड़ी में जोता जाता है। यह काफी महंगा पशु है। भार ढोने के लिए बैल का भी प्रयोग किया जाता है। बैल खच्चर से सस्ता पड़ता है। परन्तु यह केवल शहर में ही भार ढोता है। शहर से बाहर का काम खच्चर से लिया जाता है। जहां ईंटों के भट्ठे हैं, वहां गधे के साथ-साथ छोटे घोड़े (टट्टू) काफी प्रयोग किया जाता है। गांव में खेती का भार ढोने के लिए बैल का प्रयोग किया जाता है। कमजोर वर्ग के लोग जो भैंस या गाय जैसे पशु नहीं रख पाते हैं। वे भेड़ बकरी और सुअर पालते हैं। भेड़ से उनकी आय होती है। सुअर भी कम खर्च का पशु है। यह स्वयं ही इधर-उधर घुम कर निर्वाह कर लेता है। मुर्राह नसल के भैंसें व हरियाणा नसल के सांड का भी काफी महत्व है। ये काफी ऊंची कीमत पर बेचे जाते हैं।

रोहतक में सांपला, महम व रोहतक में पशु मेलों का आयोजन होता है। यह मेला कार्यक्रम वर्ष भर इधर-उधर चलता रहता है। रोहतक के एक दो गांव

में जहां रैबारी जाति के लोग रहते हैं। ऊंट भी पाल लेते हैं। महम की ओर जहां थली हैं, वहां भी एक आध किसान ऊंट रख लेता है परन्तु ऐसे व्यक्ति कम हैं।

यहां के लोग गौ पूजक हैं। यहां कई गऊशालाएं हैं। इन गऊशालाओं में ज्यादा प्रसिद्ध गऊशाला खिडवाली की हैं। पुरानी गऊशालाओं में रोहतक व्यायामशाला वाली गऊशाला, गौकर्ण तालाब के पास गऊशाला और महम की गौशाला है।

बैंसी और पहरावर में भी गऊशाला हैं। गऊशाला अनाथाश्रम में दान देना यहां के लोग गर्व की बात मानते हैं। इससे इनके धार्मिक होने का पता चलता है।
        बंटवारे के समय

लोक जीवन में मेले व त्यौहारः

रोहतक में भी मेले त्यौहार वही हैं जो शेष उत्तरी भारत में हैं। होली, दीवाली, दशहरा, फाग, रक्षाबंधन और जन्माष्टमी ज्यादा प्रसिद्ध हैं। इनके अतिरिक्त स्थानीय स्तर पर भी उत्सव मेले हैं। कुछ उत्सव तो ऐसे हैं जो बाजारीकरण व धर्म का व्यापारीकरण होने से उभर गए हैं। कुछ व्रत एवं त्यौहार टी.वी. ने उछाल दिए हैं। कुछ समय पूर्व तक करवा चौथ का व्रत कोई विशेष महत्व नहीं रखता था। गांव में तो कुछ ब्राह्मण व बनिया ही इस त्यौहार को व्रत के रूप में मनाते थे। शेष जनता का इस ओर इतना ध्यान नहीं था परन्तु अब इस व्रत पर कई लाख का व्यापार होने लगा है। धनी, गरीब, दलित, पिछड़े सवर्ण और अगड़े सभी बड़े उत्साह से मनाते हैं। दीवाली से पूर्व धनतेरस पर भी ऐसा ही हाल है। पहले मिठाइयों का इतना रिवाज नहीं था। देशी घी का हलुआ और खीर या चूरमा बनता था। इससे बढ़िया कोई खाना नहीं था परन्तु आजकल मिठाइयों पर ज्यादा ध्यान दिया जा रहा है।

लगभग प्रत्येक गांव के बाहर एक मढ़ी या मन्दिर है, जहां वीरवार व मंगलवार, शनिवार को दीपक जलाते हैं। गांव में गूगानवमी का त्यौहार मनाया जाता है। कहीं-कहीं पीर की पूजा होती है। गूगानवमी जन्माष्टमी से अगले दिन मनाई जाती है। रोहतक के कई गांव में नागपंचमी के दिन पूजा होती है। इसके लिए सांपला खंड का गांव समाचाना ज्यादा प्रसिद्ध है। यहां पर लोग नाग देवता की पूजा करने दूर-दूर से आते हैं। रात को भजन, सत्संग और रागनियों का भी कार्यक्रम होता है। शिवरात्रि को कई गांव में कांवड़ चढ़ाई जाती है। किलोई का शिव मन्दिर ज्यादा प्रसद्धि है। कई गांव में अपने-अपने ढंग से स्थानीय स्तर पर मेला लगता है जैसे दादा बसादे और दादी भदा आदि।

लड़का पैदा होने पर छठी मनाई जाती है। भाईचारे एवं आसपास के घरों से दो-दो कटोरी गेहूं की डाली जाती हैं। जिसे 'केरा' कहते हैं। बच्चे के घर से उन्हें पहले तो चने की बाकली (उबले चने) दी जाती थी। आजकल खील या बंटवारे आदि सहयोग

पतासे दिए जाते हैं। नौंवें दिन नामकरण संस्कार और हवन होता है। विवाह के अवसर पर विवाह से संबंधित गीत गाए जाते हैं। विवाह के गीतों में हिन्दू, मुसलमान का कोई भेद-भाव नहीं है। गीतों में सैयद की पूजा भी शामिल है।

'पांच पतासे पान्ना का बीड़ा ले सैयद पै जाइयो जी, जिस डाली म्हारा सैयद बैठा वा डाली झुक जाइयो जी।'

विहाह में फेरों के समय भी इसी तरह के गीत गाए जाते हैं। विवाह से पूर्व के दिन वर की घुड़चढ़ी करवाई जाती है तथा इसी बहाने गांव के सभी देव स्थानों की पूजा हो जाती है। विवाह में फेरों के समय धार्मिक व मनोरंजन दोनों प्रकार के गीत गाए जाते हैं।

'आर्यों की वेद किताब मेरे मन बसगी हे' धर्म की ओर संकेत है जबकि बारातियों की ओर ईशारा करते हुए महिला, लड़कियां कहती हैं 'हमनै बुलाए पट्ठां आले, गंजे-गंजे आए री पैंसरे ढाई सेरे री। हमनै बुलाए पैंटां आले धोतियां आले आए री पैंसेरे ढाई सेरे री।' जब कोई बाराती शरारत कर देता है तो महिलाएं ठिठौली करती हैं 'चूंचां चप तन्नै हंसण की के बाण सै, अदल पिछाण सै- तन्नै लखाण (देखण) की के बाण सै, अदल पिछाण सै चूं चां चप, तन्नै इशारे करण की के बाण सै, अदल पिछाण सै चूं चां चप' इसके बाद बाराती शर्म के पानी-पानी हो जाता है। फेरों के समय वधू पक्ष की महिलाएं वर पक्ष की महिला व पुरुषों पर खूब व्यंग्य करती हैं।

कच्चे घर में मोख-ए-मोख, बनड़े की बेबे के लोग-ए-लोग

तथा बड़ने की बेबे रूसी जा आदि।

सुन मेरे मौसा सुणी के नां, रोहतक में सुन्ना (सोना) मिला के ना।

सुन मेरे मौसा सुणी के नां मेरी मौसी गहण धरी के ना।

इस बातों का कोई बुरा नहीं मानता बल्कि सभी हंसते हैं। इसी से प्रभावित होकर वृन्द कवि ने कहा है कि मौके के अनुसार बात की जानी चाहिए, वही बात सही एवं उचित होती है। जैसे विवाह में गाली देने पर भी कोई बुरा नहीं मानता। अगले दिन ससुराल जाने पर भी अनेक धार्मिक व सामाजिक रस्में की जाती हैं, जैसे गांव के सभी देव स्थानों पर पूजा (धौक) कांगना खेलना आदि।

गांव में तीन महीने महिलाओं की प्रसन्नता के होते हैं। सावन, कार्तिक और फाल्गुन/सावन के महीने में सावन की तर्ज पर गीत गाए जाते हैं। जैसे 'झूलण ज्यांगी हे मां मेरी बांगां म्हं' या 'कड़वी कचरी कचकरी री कोय कड़वे सासड़ के बोल, बहुत दुहेला हे मां मेरी सासरा री।'

इसी लय (तर्ज) पर सांगी और भजनीको ने अनेक गीत और रागनी बनाई हैं। तीज का त्यौहार आने से कई दिन पहले मोहल्ले की औरतें इकट्ठी होकर रात को देर तक गाती हैं। दूसरा महीना कार्तिक है, जब प्रातः उठकर लड़कियां स्नान करती हैं और ईश्वर भक्ति के गीत गाती हैं। शाम को भी गीत गाती हैं। अन्यथा प्रातः सूर्य उदय होने से पूर्व गीत गाती हैं। कार्तिक के गीत भक्ति-भाव लिए होते हैं।

'राम अर लछमन दशरथ के बेटे दोनों बनखण्ड जाएं-

री कोय राम मिले भगवान।'

इस लय (तर्ज) पर अनेक गीत हैं। इस प्रसिद्ध गीत में सीता त्याग के बाद

की दशा का करूण वर्णन है।

फाल्गुन में महिलाएं, लड़कियां, प्रौढ़ा और कभी-कभी बुढ़ी भी शाम से देर रात तक गीत गाती हैं और प्रहसन, नाटक आदि करती हैं। सावन के महीने में जहां मायके के, संस्कृति के, पिया मिलन के गीत होते हैं। कार्तिक महीने के गीतों में ईश्वर भक्ति की प्राधनता होती है। वहीं फाल्गुन का महीना मस्ती का महीना होता है। श्रृंगार रस प्रधान गीतों का बाहुल्य होता है। मस्ती के गीतों में।

'दैल गेल्यां (साथ) जांगी, बाजण दे मेरा नाड़ा

या

दामण मंगवा दे हो ननदी के बीरा।'
या

बुढ़ी सी लुगाई मस्ताई फागण में।

गांव के बाहर ग्राम देवता की पूजा होती है। इन्हीं ग्राम देवताओं पर मैले लगते हैं। ज्यादातर गांव में नाथ सम्प्रदाय के डेरे हैं। बोहर गांव के पास अस्थल बोहर का मठ है। रूड़की में दुलियानाथ और गेंडानाथ, मुंगाण में सरस्वती नाथ की समाधियां हैं। बहलवा (बल्लंभा) और खरकड़ा में नाथ सम्प्रदाय के डेरे हैं। सांघी में भाऊनाथ (सदाशिव राव भाऊ मराठों का सेनापति जो पानीपत की तीसरी लड़ाई 1761 में किसी प्रकार बच गया और घायल अवस्था में यहां रहा) का डेरा है। भालौठ में जमनादास, पोलंगी, किलोई में नागरदास और कंसाला, बलियाणा में दादा बसादे की पूजा होती है। महम के पास सैमाण व आसपास चोंड बाबा व श्याम बाबा की पूजा होती है। मोखरा में भी एक देव स्थान है। हुड्डा गोत्र के लोग दादी भदा की पूजा करते हैं। चौदस (शुक्ल चतुदर्शी) पर इस पर ज्योत लगाई जाती है। कई गांव में पीर और सैयद की भी पूजा होती है। मदीना में सैयद का मजार हिसार-रोहतक मार्ग बस अड्डे पर ही है। रोहतक शहर में पीर और सैयद के स्थान (थान) की पूजा होती है। इसकी एक कमेटी भी बनी हुई है। इस कमेटी का प्रधान एक हिन्दू है। महम के पास भैणी भैरों में पीर बधारी की पूजा होती है। इसका पुजारी एक हिन्दू बाबा है, जो नाथ सम्प्रदाय का है।

रोहतक ऐतिहासिक धार्मिक और पौराणिक शहर है। यहां पर पौराणिक कथा के अनुसार गोकर्ण महात्मा का आश्रम था। उस स्थान पर आजकल गोकर्ण तालाब है। इसके पास ही हनुमान का मन्दिर है। इसके एक किनारे पर पुरी सम्प्रदाय का डेरा है। गांव के बाहर तो सन्यासियों के डेरे हैं ही कहीं-कहीं गांव से दूर भी मंदिर आदि हैं। किलोई गांव का शिव मन्दिर और सुनारियां गांव का शिखर कला बाबा का मन्दिर इसी प्रकार के मन्दिर हैं।

नई बहू आने पर कई खेलों में से एक खेल देवर को गोद में बिठाना होता है। लोक जीवन का बड़ा त्यौहार हरियाली तीज होता है। जब नई नवेली के लिए सिंधारा लाया जाता है तो सामान्य तौर पर इस दिन भाई या भतीजे अपनी बहन एवं बुआ को कुछ न कुछ अवश्य देते हैं। इस प्रकार का त्यौहार सकरांत (संक्रान्ति) भी होता है। यह त्यौहार जनवरी महीने की चौदह तारीख को मनाया जाता है। इस दिन नई बहू अपने बड़े छोटों को दान देती है। इसे मनाणा कहा जाता है। बड़ों को कम्बल व छोटों को चदर भेंट की जाती है।

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गांव के भोजन और शहर के भोजन में स्पष्ट अन्तर था परन्तु अब ऐसी बात नहीं रही। पहले तो हरियाणा के खाने के लिए प्रसिद्ध वाक्य था 'देसां में देस हरियाणा, जित दूध दही का खाणा' ऐसी स्थिति आजकल नहीं रही। गांव में शाम के भोजन में दलिया खिचड़ी और राबड़ी प्रमुख थी। यह भोजन अब कम हो गया है। गांव में घीया, तोरी चने की दाल, मसूर, मूंग और मोठ की दाल पर जोर रहता था परन्तु अब मोठ मसूर पर कम ध्यान है या बिल्कुल ही नहीं है। प्रातः लस्सी व दही ज्यादा खाई पी जाती थी। रोटी प्रायः मिस्सी होती थी। परन्तु अब धीरे-धीरे शहर का प्रभाव बढ़ने से आलू गोभी गाजर भिंडी और अरबी का जोर होने लगा है। गेहूं की रोटी पर ज्यादा ध्यान है। बाजरे की रोटी सर्दी में कभी-कभी बनाते हैं। मक्के की रोटी कोई ही बनाता है। वह भी शहर में। पहले घी बेचने का रिवाज तो था परन्तू दूध प्रायः नहीं बेचते थे। गांव में कहावत था 'दूध बेच दिया, ऐसा पूत बेच दिया' परन्तु अब दूध की बिक्री व्यापक स्तर पर है बल्कि दूध का बेचना तो पूरा व्यवसाय बन गया है। गांव के गरीब व्यक्ति तो दूध बेच कर ही निर्वाह कर रहा है।

शहर में लोग तरह-तरह की सब्जी तथा भिन्न-भिन्न प्रकार के अन्य पदार्थ खाते हैं। मोटे अनाज खाना ज्यादा सभ्य नहीं माना जाता। अतः सरसों का साग और बाजरे की रोटी लोग होटलों में खाने जाते हैं। वैसे तो रोहतक में गांव व शहर दोनों ही जगह के निवासी प्रायः शाकाहारी ही हैं फिर भी कुछ लोग मांस खा लेते हैं। अब मांस का कुछ फैशन भी हो गया है। ज्यादातर लोग मांस होटल पर खाते हैं। घरों में मांस प्रायः कुछ ही घरों में पकाया जाता है। कुछ लोग चाहे मांस खा लेते हैं परन्तु घरों में नहीं पकता। वैसे भी महिलाएं मांस बहुत ही कम खाती हैं। हुक्के का चलन सभी जातियों में है। कुछ जातियां अपना हुक्का अलग रखती हैं। ब्राह्मण, बनिया और राजपूत अपना हुक्का दूसरे को नहीं देते परन्तु जाट, खाती, लुहार, यादव, मनियार, सुनार, कुम्हार आदि हुक्का इकट्ठा कर लेते हैं। अनुसूचित जाति वर्ग की जातियां अपने हुक्के अलग-अलग ही रखती हैं। गरीब लोगों के लिए चटनी मोहन भोग रही है। अब कुछ लोग चटनी को स्वादिष्ट बनाते हैं। अब लोग उतने गरीब नहीं रहे जितने स्वाधीनता से पहले थे। सम्पन्नता तो आई है, साथ ही अनेक बुराई ले कर आई है। फास्ट फूड, जिंक फूड ज्यादा मिर्च मसाले तथा तले हुए पदार्थ जिन्हें डॉक्टर खाने से मना करते हैं, खाने पर ज्यादा जोर है। रोहतक शहर में समोसे, भटूरे तथा कुल्फी के कई प्रसिद्ध होटल हैं। समोसे-भटूरे की चलती दुकानें भी बहुत आमदनी करती हैं। चाऊमीन, बर्गर का रिवाज गांव तक जा पहुंचा है। सम्पन्नता की बुराइयों से शराब सब से बड़ी बुराई है। कुछ लोग अफीम भी खा लेते हैं। चरसी भी है, चरस पीते हैं। दूसरे महंगे नशों की ओर कम ध्यान है। गांव में शराब के एक ठेके की एक दिन की औसत आमदनी (बिक्री) लगभग दस हजार रुपये है। इसी से अनुमान होता है कि शराब का कितना प्रचार हो गया है। विवाह-शादी तथा अन्य खुशी के अवसरों पर भी शराब का प्रचलन गांव व शहर में खूब बढ़ गया है। नवयुवकों में यह प्रवृत्ति अधिक नहीं है। काफी युवा अभी भी इस बीमारी से दूर हैं। गांव में भजन, सांग आदि की ओर अब उतना ध्यान नहीं रह गया है। टी.वी. घर-घर में पहुंच गया है। अब तो रेडियो की ओर भी ध्यान कम हो गया है।

व्यापारः

रोहतक शहर में सभी प्रकार के व्यापारी हैं, व्यापार का ज्यादा कार्य पंजाबी समुदाय व बनिया वर्ग के हाथ में है। अब गांव में व्यापार न के बराबर हो गया है। कुछ लोग गेहूं व सरसों की खरीदारी करते हैं और दिल्ली के बवाना, नरेला व नजफगढ़ की अनाज मंडियों में बेच देते हैं। रोहतक शहर में कपड़े का काफी बड़ा व्यापार है। आसपास के कस्बे व शहरों में कपड़ा यहीं से जाता है। गुड़गांव में आबादी बढ़ने से महंगाई भी बढ़ गई है। अतः कपड़े के लिए उधर से आम आदमी विवाह शादी के कपड़ों के लिए इधर ही आता है। पिछले दिनों सरकार ने नई अनाज मंडी, चारा मंडी और सब्जी मंडी का निर्माण करवाया है। हरिभूमि समाचार पत्र का प्रकाश भी यहीं से होता है। भैंसों का व्यापार भी यहां से काफी होता है। मुर्राह नसल का भैंसा तथा हरियाणा नसल की गाय व सांड यहां से बाहर भेजे जाते हैं। इसी प्रकार दूसरे भी कई प्रकार के व्यापार यहां से हो रहे हैं। कलानौर दूध और खोए के व्यापार के लिए प्रसिद्ध है।

उद्योगः

औद्योगिक क्षेत्र में रोहतक जिला पिछड़ गया है। पहले ज्यादा उद्योग सोनीपत में थे। वह 1973 में अलग हो गया फिर बहादुरगढ़ में उद्योग थे, वह झज्जर जिले में चला गया। अतः यहां बड़े स्तर के उद्योग धंधों का अभाव ही रहा है। रोहतक शहर में एक सहकारी चीनी मिल काफी पुराना था जो आजकल भाली आनन्दपुर गांव में लग गया है। नवभारत के नाम से एक बहुत बड़ा संयंत्र रोहतक में हिसार रोड पर स्थित है। इसी के आसपास अनेक छोटे-छोटे कारखाने हैं। एक दवाइयों की फैक्टरी मोखरा गांव में भी है। एक अन्य फैक्टरी खरावर गांव के पास भी है। अब इस ओर ध्यान दिया गया है। रोहतक में कई बड़ी फैक्ट्रियों के प्लांट लग रहे हैं जहां पर अनेक लोगों को रोजगार के साथ-साथ काफी कुछ मिलेगा।

मिट्टी खराब हो जोने के कारण मटका झज्जरी के उद्योग पर काफी दुष्प्रभाव पड़ा है। पाकस्मा गांव के मिट्टी के हुक्के बहुत प्रसिद्ध रहे हैं। रोहतक शहर की सब्जी मंडी के गेट के पास लुहारों के लोहे के औजार ज्यादा प्रसिद्ध हैं। सर्दियों में कई गांव में करेसर पर गुड़ व खण्डसारी बनाने का काम भी होता है। लोहे के औजार सांपला में भी बनाए जाते हैं। रोहतक शहर में गोहाना मार्ग पर एक वीटा दूध का संयंत्र भी है। वहां पर लस्सी, दही और घी (वीटा) बनाया जाता है। 
रोहतक के बहुत से गांव में ईंटें बनाने का काम जोरों पर है। इस उद्योग को भट्टा उद्योग कहा जाता है। इस पर काम करने वाले ज्यादा मजदूर बाहरी ही हैं।

हरियाणा का मजदूर भट्टे पर प्रायः काम कम ही करता है।

दर्शनीय स्थान :

रोहतक में अनेक दर्शनीय स्थल हैं। उनमें से कुछ ऐतिहासिक हैं। रोहतक का दुर्गाभवन मंदिर, शीशे वाली मस्जिद, गोकर्ण तालाब, पुरी संन्यासियों का डेरा, पी.जी.आई., इन्दिरा झील (तिलियार) और अस्थल बोहर का मठ ऐसे ही स्थान हैं। लाहली में खेल स्टेडियम है। खेल परिसर एवं बाबा राम स्वरूपनाथ का समाधि स्थल किलोई पोलंगी व रूड़की की सीमा पर है जिसे मढाक धाम कहा जाता है। महम की बावड़ी व अन्य भी कई स्थल दर्शनीय हैं। ऐतिहासिक स्थलों का वर्णन आगे है।

ऐतिहासिक स्थल :

रोहतक के ऐतिहासिक स्थल खोखरा कोट, अस्थल बोहर मठ, माजरा (बोहर), लाढौत, महम, सैमाण, तथा किलोई और दक्ष खेड़ा (फरमाणा) तथा ट्रीला गिरावड़ हैं।

खोखरा कोटः

यह स्थान प्राचीन रोहतक कहलाता है। इस स्थान की खुदाई भी हुई थी। यहां से निकले प्राचीन सिक्के, गुरुकुल झज्जर के संग्रहालय में संग्रहित है। यहां मटके, ईंट आदि अनेक वस्तुएं प्राचीन महत्व की प्राप्त हुई हैं। यह स्थान कितना पुराना था, इसका कोई ठोस प्रमाण उपलब्ध नहीं है। इतिहासकार भी एक मत नहीं हैं। ऐसा माना जाता है कि यहां के लोगों की शासन पद्धति गणतंत्रात्मक थी। इसके नष्ट होने के समय इसका शासक संभवतः खोखर गोत्र का रहा होगा शायद इसी से इसका नाम खोखरा कोट अर्थात् खोखरों का किला है। इसके खण्डहर जींद मार्ग व गोहाना मार्ग के बीच व सुख पुरा चौक से जींद बाईपास के बीच एवं माता दरवाजे के पीछे पड़े हैं। यह स्थान ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण है। परन्तु सरकार व प्रशासन की उपेक्षा और भ्रष्टाचार व लोभ लालच का शिकार हो गया है। लोभ लालच व भ्रष्टाचार के कारण आजकल यहां पर अवैध कब्जों की भरमार हो गई है। वोटों की राजनीति के कारण अब सरकार भी इस ऐतिहासिक स्थल को बचाने में असमर्थ है।

माजरा बोहरः

यह स्थान अस्थल बोहर के पास रोहतक दिल्ली मार्ग पर मुख्य मार्ग से थोड़ा सा हट कर है। यहाँ पुराने किले के अवशेष एवं प्राचीन टीला है। ऐसा भी माना जाता है कि यह स्थान जैन धर्म का केन्द्र था। पहरावर गांव यहीं से बसा बताया जाता है। इस गांव के बसने का समय सन् 1440 के आसपास माना जाता है। इस स्थान को खोखरा कोट से जोड़ कर भी देखा जाता है। प्रशासन की ढिलाई संस्कृति व इतिहास की ओर सरकार की बेरुखी के कारण लोगों ने यहां अवैध खुदाई कर डाली। यदि विश्वविद्यालय एवं सरकार इस ओर ध्यान देते तो इतिहास की कई महत्वपूर्ण गुत्थियां सुलझती ।

किलोई मन्दिरः

किलोई गांव से तीन-चार कि.मी. की दूरी पर लाढ़ौत मार्ग पर एक प्राचीन शिव मंदिर है। इस मंदिर की विशेषता यह है कि एक तो यहां शिवलिंग नहीं है, शिव की प्रतिमा (मूर्ति) है। प्रायः पाँचवीं छठी सदी के बाद के मन्दिरों में ऐसा कम है। यह प्रतिमा कहीं बाहर से नहीं लाई गई है। यहीं से प्राप्त हुई थी, इसी पर मन्दिर निर्माण करवा दिया गया है। मंदिर के आसपास पक्की ईंटों के टुकड़े बिखरे पड़े हैं, जो इसकी प्राचीनता तथा विध्वंश की कहानी कहते हैं। यहां इतिहास की ओर ध्यान न देकर धार्मिकता पर ज्यादा जोर रहा है। सावन व फाल्गुन की शिव रात्रियों को यहां बड़े मेले लगते हैं। अनेक व्यक्ति हरिद्वार व गंगोत्री से कांवड़ लाकर यहीं चढ़ाते हैं। धार्मिकता की दृष्टि से यह मंदिर हरियाणा में काफी प्रसिद्ध है। ज्यों-ज्यों अब धर्म पर ज्यादा जोर रहने लगा है तब से यहां प्रत्येक सोमवार को भी एक छोटा सा मेला लग जाता है।
दक्ष खेड़ा:

यह स्थल फरमाणा (महम) के पास है। यहां पिछले दिनों बड़ौदा विश्वविद्यालय गुजरात तथा एम. डी. विश्वविद्यालय रोहतक एवं जापान के एक विश्वविद्यालय के संयुक्त नेतृत्व में यहां खुदाई का कार्य किया गया है। उत्खनन में अनेक महत्वपूर्ण बिन्दु निकले हैं। इस का समय लगभग पचपन सौ वर्ष माना गया यानि ईसा से पैंतीस सौ वर्ष पुराना। यह समय सिन्धु घाटी की सभ्यता पांच हजार वर्ष से भी ज्यादा पुराना है। यहाँ पर उस काल में शव को जलाया नहीं जाता बल्कि दफनाया जाता था। इस क्रिया के लिए यहां पूरी जगह मिली है।

लाढ़ौतः

इस गांव में एक प्राचीन टीला है, जिस पर लोगों ने अवैध कब्जे जमा लिए हैं। इस गांव का गोत्र देशवाल है। यह गांव सम्भवतः इस क्षेत्र का सबसे प्राचीन गांव है। वर्तमान आबादी तो बाद की हो सकती है। परन्तु यह टीला तो तो महाभारतकालीन यानि रोहतक जितना ही प्राचीन है। यहां उत्खनन का अभाव रहा है। यहां ऐसा प्रचलित है कि जब कुरुक्षेत्र में युद्ध हो रहा था तब यहां के लोग आनन्द से थे। हरियाणा के देशवाल गोत्र का निकास यहीं से माना जाता है। बलियाणा यहीं से जाकर बसा था। बलियाणा से देशवाल के दूसरे गांव बसे जैसे दहकौरा आदि।

अस्थल बोहरः

यह स्थान दिल्ली-रोहतक मार्ग पर रोहतक से लगभग पांच कि.मी. की दूरी पर है। यह स्थान कितना पुराना है। इसका कोई ठोस प्रमाण हमारे पास नहीं है। परन्तु शिलालेख, पाषाण प्रतिमाओं आदि की प्राप्ति पर ऐसा लगता है कि यह स्थान महात्मा बुद्ध यानि इतिहास काल से पूर्व का है। यहाँ बौद्ध धर्म की ज्यादा मूर्तियाँ मिली हैं। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि इस का सम्बन्ध बौद्ध धर्म से जरूर रहा है। यह भी संभव है कि खोखरा कोट का धार्मिक स्थल सही स्थान रहा हो। खोखरा कोट की सुरक्षा का किला, माजरा (बोहर) भी इसके पास ही है। सातवीं सदी तक यहां बौद्ध धर्म का बोलबाला था। कुछ मूर्तियां जैन धर्म की भी मिली हैं। इससे यह अनुमान लगाना भी आसान है कि यह स्थान बौद्ध धर्म से पूर्व जैन धर्म से भी संबंधित रहा हो। सातवीं सदी तक आते-आते बौद्ध धर्म की कई शाखाएं हो गई थी और श्रमण (भिक्षु) लोगों का जीवन लोगों को आकर्षित करने वाला नहीं रह गया था। इन्हीं दिनों समाज सुधार और बौद्ध धर्म में आई खामियों को दूर करने के लिए नाथ सम्प्रदाय ने ज्यादा जोर दिया। इसी काल में सयालकोट (पाकिस्तान) के राजकुमार पूर्णमल जो नाथ सम्प्रदाय में दीक्षित हो कर चौरंगी नाथ कहलाए यहां आ गए। महात्मा चौरंगीनाथ की तपस्या और त्यागमय जीवन से प्रभावित स्थानीय जनता का पूर्ण सहयोग मिला। तब से यह स्थान नाथ सम्प्रदाय का प्रसिद्ध स्थान बन गया। तभी से यहाँ नाथ पंथ का डेरा या मठ है। सातवीं सदी से आज तक यह स्थान महत्वपूर्ण बना हुआ है। चौरंगी नाथ जी की समाधि यहां आज तक बनी हुई है। चौरंगी नाथ के बाद लम्बे समय तक यह मठ अस्त-व्यस्त ही रहा। अठाहरवीं सदी में इसका उद्धार योगीराज महात्मा मस्तनाथ ने किया। उसके बाद तो यह स्थान निरंतर प्रगति के पथ पर है। मस्तनाथ जी के बाद यहां लगभग यहां सात महन्त हुए हैं। यह उत्तर भारत में नाथ पंथ का प्रमुख केंद्र है। स्वाधीनता से पूर्व जब अकाल ज्यादा पड़ते थे तो महात्मा चेतनाथ जी ने यहां सदाव्रत आरम्भ किया था। अब यहां फाल्गुन की नवमी को बड़ा भारी मेला लगता है। आजकल यहां मठ की ओर से एक धर्मार्थ अस्पताल है। आँखों का मुफ्त इलाज किया जाता है। एक आयुर्वेदिक प्रशिक्षण कॉलेज है जहां अनेक छात्र बी.डी. एस. करते हैं। महात्मा चौरंगी नाथ और योगीराज महात्मा मस्तनाथ की समाधियों पर दिनरात घी की ज्योति प्रज्वलित रहती है।

सामाणः

यह गांव महम तहसील में पड़ता है। वर्तमान गांव तो ज्यादा पुराना नहीं है परन्तु आसपास के गांव के इतिहास को प्रभावित करता है। लगभग हजार वर्ष पूर्व यह गांव चाबा चोण्ड एवं श्याम जी के आशीर्वाद से बसा था। यहां गाँव जहां पर था वहां पर चार पांच गांवों की सीमा थी। आजकल वहां खेत हैं तथा रीले की खुदाई लोगों ने अवैध रूप से कर डाली, उसे बढी सैमाण कहते हैं।

दन्तकथाओं में ऐसा कहा जाता है कि बैंसी मुस्लिम बाहुल्य गांव इस सैमाण से उगाही (टैक्स) लेता था। उगाही न देने पर पूरे गांव कोनष्ट कर दिया गया केवल एक गर्भवती महिला अपने मायके गांव बहलवा (बल्लम्भा) गई हुई थी जिसका नाम चन्द्रो था। उसके एक पुत्र उत्पन्न हुआ। नाना उसे लेकर महम के दरबार में पेश हुआ, जिस पर नबाब ने उसे काफी जमीन दे दी। उसने अपनी माता के नाम पर भैणी चन्द्रपाल नाम के गांव बसाया। यहां से ही आकर बाबा जी ने डेरे के पास दाबारा सैमाण गांव बसा। बाद में कुछ लोग भैणी सुरजन से भी आकर बस गए। यह सिवाच गोत्र के प्रमुख गांव में से एक है। यहां से थोड़ी दूरी पर चोण्ड बाबा का मन्दिर है तथा गांव के बीच में श्याम बाबा का मन्दिर एवं समाधि है। इस मन्दिर के पास काफी जमीन है। लगभग उन सभी गांव में, जिन का संबंध सैमाण गांव से है। मन्दिर के महन्त आजकल श्री सतीश दास जी एक पढ़े-लिखे (बी.ए. पास) एवं विद्वान व्यक्ति हैं। इस गांव के बाहर कुएं प्राचीनता के दर्शन कराते हैं।

सांघीः

यह गांव लगभग आठ सौ नौ सौ वर्ष पुराना गांव है। गांव का गोत्र हुड्डा है। सन् सतरह सौ इकसठ (1761) में पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठों की हार के बाद मराठों का सेनापति सदाशिव राव भाऊ घायल अवस्था में यहां रहा था। उसने वापिस महाराष्ट्र न जाकरयहां नाथ सम्प्रदाय में दीक्षा ले ली और भाऊ नाथ के नाम से यहां रहा आजकल इस स्थान को भाऊ नाथ का डेरा कहते हैं। यद्यपि काफी विद्वान इसे स्वीकार करने में संकोच करते हैं परन्तु समाधियां झूठी नहीं हो सकती। डेरे में भाऊ की समाधि बनी हुई हैं। जब से टी.वी. पर 'दी ग्रेट मराठा' सीरियल चला तब से यह स्थान काफी चर्चा में रहा क्योंकि इतिहासकारों

ने भाऊ को पानीपत की लड़ाई में हीमरा दिखाया है। शिक्षा के क्षेत्र एवं समाज सुधार में यह गांव काफी आगे रहा है। आर्य समाज की रोहतक में स्थापना होने पर लाला लाजपत राय के कंधे से कंधा मिलाकर काम करने वाले चौ. मातूराम हुड्डा व चौ. रामजीलाल हुड्डा इसी गांव के थे। जब लाला जी हिसार गए तो चौ रामजीलाल उनके साथ हिसार चले गए परन्तु चौ मातुराम हुड्डा यहीं रह कर शिक्षा व समाज सुधार की अलख जगाते रहे। गांव में शिक्षा का प्रचार होने के कारण ही अंग्रेजी भाषा के विद्वान, दिल्ली विश्वविद्यालय के उपकुलपति एवं गुजरात के पूर्व राज्यपाल डॉ. स्वरूप सिंह हुड्डा इतने उच्च पदों पर रहे। इसी गांव के थे। पूर्व विधायक (पंजाब) चौ. बदलू राम इसी गांव के थे। स्वाधीनता संग्राम में भी इस गांव ने बढ़-चढ़कर भाग लिया था। चौ. रणबीर सिंह इसी गांव के थे, जिन्होंने देश की आजादी की लड़ाई में बढ़-चढ़ भाग लिया। वर्तमान में हरियाणा के मुख्यमंत्री कर्मयोगी चौ. भूपेंद्र सिंह हुड्डा इसी गांव के हैं। वे चौ. मातूराम हुड्डा के पौत्र और स्वाधीनता सेनानी चौ. रणबीर सिंह के सुपुत्र हैं। किलोई, पोलंगी, धामड़ और आसन गांव का निकास यहीं से है।

खिड़वालीः

यह गांव लगभग एक हजार या नौ वर्ष वर्ष पुराना गांव है। यह हुड्डा गोत्र का गांव है। हुड्डा गोत्र का प्रधान प्रायः इसी गांव से रहा है। प्रथम स्वाधीनता संघर्ष में इस गांव के लगभग आठ व्यक्तियों को अंग्रेजों ने फांसी की सजा दी थी। यह वीरता से जीने वाला विद्रोही गांव रहा है। चौ. टीकाराम हुड्डा व चौ. रामस्वरूप हुड्डा इसी गांव के थे। इस गांव से निकलने वाले गांव भी क्रांतिकारी गांव रहे हैं। शासन के साथ उनका तालमेल कम बैठा है। जसिया, रूड़की, चमारियां और मुंगाणऐसे ही गांव हैं। सांघी के गांव शिक्षा प्रधान गांव रहे हैं। किलोई गांव के चौधरी रामधन सिंह हुड्डा प्रसिद्ध कृषि वैज्ञानिक इसके प्रमाण हैं।

मोखराः यह भी प्राचीन गांव है। तराइन की दूसरी लड़ाई से पूर्व यहां पर आबादी थी। जिसका एक टीला पिछले कुछ समय तक मौजूद था परन्तु अब हो रहे अवैध कब्जों का शिकार हो गया है। वर्तमान गांव की स्थापना शहाबुद्दीन गौरी के दूसरे आक्रमण के बाद हुई है। यहां कीएक मढी को राजा मानसिंह की समाधि भी कहा जाता रहा है जो संभवतः सही नहीं है परन्तु लोक मान्यता ऐसी बन गई है। इस गांव में दादा मालदेव की पूजा होती है।

बलियाणाः

नाथ सम्प्रदाय एवं बलियाणा वासियों का ऐसा मानना है कि चौरगी नाथ (पूर्णमल) जी की इस क्षेत्र में प्रारंभिक तप स्थली यही गांव रहा है। अस्थल बोहर तो महात्मा जी बाद में गए हैं। महात्मा चौरंगी नाथ जी ने जहां तपस्या की थी, उस स्थान पर दादा 'बसादे' के नाम से एक मंदिर बना है। महात्मा चौरंगी नाथ की बनजारे की खाण्ड वाली घटना इसी स्थान से संबंधित बताई जाती है। जिस से प्रभावित होकर बंजारे ने एक तालाब (जोहड़) खुदवाया था। यह जोहड़ बलियाणा में आज भी है जिसे ढोहकर वाला कहते हैं। यद्यपि यह अब उतना बड़ा नहीं रह गया है। लोगों ने इस पर अवैध कब्जे कर रखे हैं। ऐसा माना जाता है कि लाढ़ौत गांव में पानी की कमी थी और उन्हें एक भीगे हुए भैंसे को देख कर आसपास पानी का आभास हुआ और लाढ़ौत से आकर कुछ घर ढोहकर तालाब के किनारे बस गए। जो आजकल बलियाणा गांव कहलाता है। लोगों का ऐसा मानना है कि बलियाणा में चौरंगी नाथ जी की तप स्थली को अस्थल बोहर के महन्त आज भी महत्व देते हैं। चौरंगी नाथ जी के बलियाणा से जाने पर अस्थल बोहर के मठ का महत्व बढ़ गया। जैन व बौद्ध धर्म का प्रभाव कम होने लगा व हिन्दू धर्म आगे बढ़ने लगा। इस पर बलियाणा कम महत्व का रह गया और श्रद्धा का केन्द्र अस्थल बोहर हो गया। अस्थल का महन्त आज भी बलियाणा का धार्मिक व बड़प्पन का महत्व समझता है। उसे जब भी बलियाणा आना होता है तो अस्थल बोहर से सीधा नहीं आता बल्कि वह पहले खेड़ी साध या बोहर

गांव में जाता है फिर बलियाणा आता है। बताते हैं जब महन्त हाथी रखते थे और हाथी पर आते-जाते थे तो एक बार महन्त हाथी पर सवार होकर अस्थल बोहर सेसीधा बलियाणा आया परन्तु बलियाणा की सीमा पर आकर हाथी ठहर गया और पीलवान के बार-बार प्रयास के बाद भी आगे नहीं बढ़ा। इस घटना को महात्मा चौरगी नाथकी पूर्व तपस्थली बलियाणा के महत्व से जोड़ दिया गया और तब से उपरोक्त वर्णित घटना के अनुसार अस्थल बोहर से महन्त का सीधा बलियाणा न आने की एक परम्परा सी पड़ गई है। बलियाणा के साथ लगते गाव नौनन्द और खेड़ी साध सिन्धु गोत्र के गांव हैं। ऐसा माना जाता है कि चौरंगी नाथ जी के संन्यासी होने से पूर्व (पूर्णमल) उनका गोत्र सिन्धु ही था। उसी की समानता में ये गांव यहां बस गए हैं। चौरंगी नाथ जी से आत्मीयता मानते हुए खेड़ी साध और नौनंद और बलियाणा अस्थल बोहर से उतनी ही आत्मीयता रखते हैं जितनी कि बोहर गांव के वासी। चौरंगी नाथ जी ने गांधरा गांव में भी तपस्या की बताते हैं।

दीनी मस्जिदः

यह स्थान संभवतः खड़े ढांचों के रोहतक का प्राचीनतम स्थान है। यहां पर एक मस्जिद का ढांचा खड़ा है। यह सन् तेरह सौ आठ (1308) का बतया जाता है। इसे दिल्ली के सुलतान अलाऊद्दीन खिलजी ने जैन धर्म के एक मन्दिर को तोड़कर बनवाया बताते हैं। सम्भवतः इसके निर्माण में बाहर से सामग्री कम ही लाई गई थी। पुराने मन्दिर के मलबे से इसका निर्माण करवा दिया गया है। वर्तमान में इसमें मन्दिर बनाया गया है। यह पुराने रोहतक (बड़ा बाजार) में स्थित है। इसमें पहले एक तहखाना भी था, जिसे आजकल बन्द कर दिया गया है।

गौकर्णः

यह स्थान एक पौराणिक व धार्मिक स्थल है। पुराणों के अनुसार गौकर्ण एक ऋषि हुए हैं। उनके कान लम्बे थे। अतः गौकर्ण (गऊ जैसे कान) के नाम से उन्हें गौकर्ण पुकारा गया है। यहीं रह कर उन्होंने तपस्या की थी। यहां पर ऋषि जी के नाम पर एक काफी बड़ा व प्राचीन तालाब था, जिसे सौन्दर्गीकरण के नाम पर छोटा सा कर दिया गया है। इसी तालाब के साथ पुरी सम्प्रदाय के साधुओं का एक डेरा है। इस तालाब के धार्मिक महत्व को स्वीकार करते हुए अंग्रेज सरकार ने सन् 1896-97 में यहां पर शिकार करने पर पाबन्दी लगा दी थी। निषेधाज्ञा का यह पत्थर वहां आज भी देखा जा सकता है।

इस तालाब के किनारे से थोड़ा हट कर एक पुराना मकबरा है। यह मकबरा बहुत ही उपेक्षित है। इसकी निर्माण शैली को देख कर लगता है कि यहां पर आने जाने वाले किसी वीर योद्धा की याद में यह मकबरा है। इसकी जानकारी कम है। प्रशासन की घोर उपेक्षा का शिकार यह मकबरा अपनी बदहाली पर आंसू बहाता रहता है।

महमः

महम कस्बा कितना पुराना है इसका कुछ भी ठोस सबूत नहीं है परन्तु इसे महाभारतकालीन माना जाता है। महाभारत के सभा पर्व में राजसूय यज्ञ में जब नकुल विजय करता हुआ पश्चिम की ओर आता है तो मेहत्थम को विजय करने का वर्णन मिलता है। यही मेहत्थम आज का हमारा महम है। इस कसबे ने भी रोहतक की तरह अनेक उतार-चढ़ाव देखे हैं। परन्तु एक बड़ा अन्तर है, रोहतक एक स्थान से उजड़कर दूसरे स्थान पर बसा है परन्तु महम बार-बार उजड़कर भी बसा उसी टीले पर बसा जबकि रोहतक पहले गोकर्ण या फिर खोखरा कोट बना फिर वर्तमान रोहतक (पुराना बाजार, बड़ा बाजार, किला रोड) बसा। महम पर प्रायः उसी आदमी का शासन रहा जिसका रोहतक पर शासन रहा है। ऐतिहासिक स्थल, कब्र मकबरे महम में रोहतक से ज्यादा है। यहां का पंचायती संगठन ज्यादा मजबूत है। अठारह सौ सतावन की क्रांति में यहां के लोगों ने बढ़-चढ़कर भाग लिया था। महम के आजाद चौक पर लगभग एक सौ सतावन लोगों को फांसी दी गई थी। लोगों ने अपने लोगों के, संबंधियों के शव डर के कारण स्वीकार नहीं किए तो उनका सामूहिक संस्कार कर दिया गया था। जहां उन शहीदों का संस्कार किया गया था, उस स्थान पर आजकल चौबीसी का चबुतरा बना है। महम हलके से चुने गए विधायक हरियाणा के मुख्यमंत्री भी रहे। महम में बावड़ी, मस्जिदों और मकबरों के अतिरिक्त एक प्राचीन मन्दिर भी है। सतियों के स्मारक महम के पास खेड़ी गांव में हैं। महम की ऐतिहासिकता प्रशासन की घोर उपेक्षा का शिकार है। महम का इतिहास में बहुत महत्व है परन्तु इस महत्व को न तो विभिन्न सरकारों ने समझा और न आम जनता ने। प्रायः इतिहास और संस्कृति की जो उपेक्षा होती है उसी का शिकार महम है। महाभारतकालीन नगरों पर जो शोध हो रहे हैं, जिनका महिमा मंडित किया जाता है वैसा-वैसा महम का वर्णन नहीं है।

महाभारतकाल के बाद लम्बे समय तक महम का ज्यादा वर्णन नहीं है। ग्यारहवीं सदी में महमूद गजनवी ने इसे उजाड़ दिया था। इसे लूटा गया था। उसके बाद भी यह उजाड़ा जाता रहा। बारह सौ चौबीस में पिशोरा सेठ ने इसे पुनः बसाया। कहा जाता है मान सिंह ने इसे फिर उजाड़ा था। किसी मुगल सरदार मुहम्मद ने महमदाबाद के नाम से दोबारा बसाया। परन्तु इसका नाम महम ही रहा। अकबर के काल में रोहतक के शासक शाहबाजखान पठान का शासन महम पर भी रहा। मुगलकाल में यहां खांड की मण्डी बताई जाती है। यहां के सूती वस्त्र दूर-दूर तक जाते थे। इसी काल में सौलह सौ सतावन-अठावन में महम के चौबदार सदू कलाल ने पानी की समस्या से निजात पाने के लिए यहां एक बावड़ी का निर्माण करवाया। इस बावड़ी में ऊपर से नीचे पानी तक एक सौ एक पौड़ी बताते हैं। कुछ लोग इसका संबंध जानी चोर से भी जोड़ते हैं परन्तु इसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण उपलब्ध नहीं है। पानी के नीचे सुरंग भी बताई जाती है। उतर मध्यकाल में महम पर हिन्दू पठान और मुगलों का शासन रहा। सतरह सौ चौरानवे से अठारह सौ दो (1974-1802) तक आयरिश वीर जार्ज टॉमस का शासन भी यहां रहा। बाद में मराठे अंग्रेज शासक रहे।
महम के इतिहास की घोर उपेक्षा हुई है। यहां कम से कम दस ऐसे स्थान हैं जो इतिहास की धरोहर हैं। उस धरोहर को सहेजकर नहीं रखा गया है। महम कीबावड़ी तक जाने तक पक्का रास्ता भी नहीं है। एक दीवार टूट गई है परन्तु ठीक करवाने का समय किसी के पास नहीं है। किले की कहीं-कहीं दीवार नजर आती है वह भी प्रतिदिन ढह रही है। शिव मंदिर, राधा कृष्ण मंदिर नगर के बीच में है परन्तु संभाल का अभाव है। सतियों के स्मारक जो खेडी महम के पास हैं उनकी कुछ सम्भाल है परन्तु सूचना पट्टों का यहां भी अभाव है। जामा मस्जिद सन् पन्द्रह सौ इक्कतीस की है (1531) पीर जादा मस्जिद जिसका निर्माण शेख यूसूफ ने (1526-30) करवाया था, की ओर ध्यान नहीं है। कुतुबुद्दीन ऐबक का मकबरा किस हाल में है, इसकी जानकारी नगण्य है। पीरजादा हुसैन औलिया मकबरे की कोई संभाल नहीं है। सैदू कलाल का मकबरा, जो बावड़ी का निर्माता था, बावड़ी के पास उस के मकबरे में किसी ने भूसा (तूड़ा) भर रखा है। महम चौबीसी का चबुतरा जो शहीदों की शहादत का मान मन्दिर है, वहां शहीदों की कोई सूची नहीं है। शहीदों को अग्नि देने से पूर्व जहां उन्हें स्नान कराया था, वह तालाब चबुतरे के पास है परन्तु इसमें पानी की उचित व्यवस्था भी नहीं हो पाती है। महम के रख-रखाव की ओर ज्यादा ध्यान देने की जरूरत है।

दर्शनीय स्थलः

यों तो रोहतक के कई दर्शनीय स्थल हैं परन्तु यहां उन्हें दिया जा रहा है जिनके साथ कुछ इतिहास भी जुड़ा है। यहां कई मन्दिर हवेलियां, मस्जिद तथा तालाब आदि दर्शनीय हैं। कुछ स्थानों से इतिहास या दूसरे प्रकार की मान्यताएं जुड़ गई हैं। प्रत्येक गांव में एक दो मढ़ी या समाधि है। महात्माओं की समाधियां प्रायः नाथ सम्प्रदाय की हैं। इनका निकास अस्थल बोहर के डेरे से हैं। बलम्भा का डेरा ऐसे डेरों में व्यवस्थित है। बाबा श्योतनाथ भी प्रसिद्ध है।

रोहतक के मन्दिर व मस्जिदः

रोहतक शहर में कई मंदिर व मस्जिदें दर्शनीय हैं। किला रोड पर लाल मस्जिद, किला रोड पर अन्दर एक और मस्जिद, बड़ा बाजार में शीशे वाली मस्जिद, बड़े बाजार में ही वक्फ बोर्ड वाली मस्जिद तथा दीनी मस्जिद भी बड़ा बाजार में ही हैं। पीर बहाऊद्दीन की समाधि गोहाना मार्ग पर है। कुछ लोग इस पीर को बाहरवीं सदी का बताते हैं। बहाऊद्दीन शहाबुद्दीन गौरी के साथ भारत में आया था। कई मस्जिदें अब खण्डहर होने की ओर चल रही हैं। इनकी संभाल कोई नहीं कर रहा है। कई गांव में अब भी धार्मिक स्थलों का निर्माण कार्य चलता रहता है। रोहतक के किला रोड के सामने से कोने पर रोहतक की एक विशिष्ट पहचान प्रदान करने वाली शहर के बीच में एक सुन्दर मस्जिद है, जो लाल मस्जिद के नाम से जानी जाती है। इसे 1939 में हाजी आशिक अली ने बनवाया था। मस्जिद के द्वार पर उर्दू में लिखा है-

हुआ एक हाजी आशिक अली पर बना मस्जिद तोड़ बिल्डिंग को, बना बेहतर दी। तौफीक हक ने तो तक मील कर दी, जो हुक्म था मौला का, तामिल कर दी।

यों तो रोहतक शहर में कई मन्दिर हैं परन्तु ज्यादा प्रसिद्ध मन्दिर दुर्गा भवन शहर के बीच में है। माता दरवाजा में माता का मन्दिर जींद मार्ग पर है। हनुमान मन्दिर गोकर्ण तालाब के साथ है।

गिरजाघरः

रोहतक में दो गिरिजाघर हैं। एक तो पुराना है वह डी.सी. निवास के समीप मॉडल स्कूल के पास है। दूसरा प्रभात दिल्ली रोड पर फाटक के पास है।

अस्थल बोहरः

यह मठ (डेरा) रोहतक की संस्कृति, इतिहास और धार्मिक विचारों का प्रतीक है। यहां पर पहले जैन और बौद्ध धर्म का बोलबाला रहा है। सातवीं सदी के अन्तिम दिनों में यहां पर नाथ सम्प्रदाय का बोलबाला हो गया। तभी से यह स्थान यहां के इतिहास, संस्कृति, समाज सेवा और देश भक्ति के भावों को लिए  हुए है। यहां से बौद्धकालीन मूर्तियां तथा शिलालेख प्राप्त हुए हैं। भक्त पूर्णमल यानि महात्मा चौरंगनाथ की समाधि स्थल यहीं पर है। बाबा मस्तनाथ की समाधि पर दिन-रात देशी घी की अखण्ड ज्योति जलती रहती है। डॉक्टरी का अध्ययन कर रहे छात्रों के लिए बनाई गई प्रयोगशाला दर्शनीय है। यहां के मन्दिर प्राचीन भारतीय शैली पर निर्मित हैं।

गुरुद्वारेः

रोहतक शहर में दो-तीन भव्य गुरुद्वारे हैं वैसे तो जहां गुरु ग्रन्थ साहब का प्रकाश होता है, वहीं गुरुद्वारा है, तो शहर में कई गुरुद्वारा हैं परन्तु दो तीन गुरुद्वारे ऐतिहासिक हैं। गुरुद्वारा बंगला साहब वह गुरुद्वारा है जहां नवम् गुरु शहीदी हेतु दिल्ली जाते हुए कुछ दिन यहां ठकर कर यहां की जनता को अपनी अमृत वाणी का पान करा गए थे। यह गुरुद्वारा छोटा तो है परन्तु बहुत ही भव्य है। दूसरा गुरुद्वारा लाखन माजरा में गुरुद्वारा मंजी साहब है। यह भी नवम् गुरु तेग बहादुर जी से ही जुड़ा है वे यहां बलिदान हेतु जाते समय चौदह दिन तक ठहरे थे। इनके समय का एक कुआं यहां पर है। शहर में एक गुरुद्वारा टीकाणा साहब और हैं।

गुरु साहब जहां ठहरे थे, उन दिनों यह स्थान शहर से लगभग बाहर था वे उपदेश देने शहर में भी गए जिसे आजकल पुराना बाजार कहते हैं। वहां उन्होंने उपदेश दिए उक्त स्थान पर माई वाला मन्दिर के नाम से प्रसिद्ध है। गुरुद्वारा बंगला साहब में एक पेड़ उसी काल का है। तालाब भी उसी काल का है।

भाऊ की समाधिः

यह स्थान गांव सांघी में है। भाऊ (सदाशिव राव भाऊ) पानीपत की तीसरी लड़ाई में मराठों का सेनापति था। लड़ाई में वह घायल हो गया वह ज्यादा घायल हो गया था और हार के बाद मची अफरा-तफरी में उसे मृत मान लिया लेकिन वह मरा नहीं था। घायल अवस्था में वह किसी प्रकार सांघी पहुंच गया। यहां आकर उसने महाराष्ट्र जाने का विचार त्याग दिया और नाथ सम्प्रदाय में दीक्षित होकर भाऊ नाथ बन गया। यहां पर एक छोटा सा मेला भी लगता है।
समाधि के साथ ही उस काल की एक सुरंग भी है। भाऊ के बाद जितने महन्त हुए हैं, उन सबकी भी समाधियां यहां बनी हुई हैं। मराठे जब लड़ाई हेतु पानीपत जा रहे थे तो उन्होंने स्थानीय निवासियों के साथ बढ़िया व्यवहार नहीं किया था। जिस गांव में विरोध हुआ था, उस गांव को मराठे सबक भी सिखाते चल रहे थे। मराठों को सांधी गांव ने अच्छी टक्कर दी थी और वीरता का परिचय दिया था। भाऊ के मन पर उनकी वीरता की धाक बैठ गई। संभवतः घायल अवस्था में उसने यही स्थल चुना था।

बनियानीः

इस गांव में भी वीरों की कुछ समाधियां हैं परन्तु रख-रखाव के अभाव एवं इतिहास की उपेक्षा के कारण इस ओर अधिक ध्यान नहीं है। इनके बारे में पक्के प्रमाण भी उपलब्ध नहीं हैं।

दक्षखेड़ा (फरमाणा):

रोहतक के आसपास के गांव की वर्तमान आबादी तो एक हजार वर्ष से अधिक पुरानी नहीं है परन्तु कुछ स्थल ऐसे हैं जो बहुत पुराने हैं। फरमाणा (महम) में खुदाई हुई है, उसका वर्णन पीछे दिया जा चुका है। यहां पर खुदाई के लिए चिन्हित दो स्थान हैं। यह पता नहीं है कि कौन सा स्थल ज्यादा पुराना है। अभी एक टीले की खुदाई का काम शेष है। फरमाणा गांव बसने से पूर्व किस टीले के स्थान पर आबादी थी यह अभी अज्ञात है परन्तु वर्तमान में सबसे पहले यहां मदेरणा (जाट) गोत्र आ कर बसा था। बाद में सहारण भी आ गए। दोनों गोत्र इस क्षेत्र के लिए नए एवं अकेले हैं क्योंकि यहां इन गोत्रों के और गांव नहीं हैं। गिरोड़ी खेड़े की खुदाई अभी शेष है।
पीर बहौदी..शहाबुद्दीन
तिलियार झील या इन्दिरा झीलः

यह पर्यटक केन्द्र है। यह स्थान अस्थल बोहर के पास है। यहां पर एक छोटा चिड़ियाघर भी है। झील में नौकायन की सुविधा भी है। आसपास के गांव के छात्र/छात्राएं तथा शहर से पर्यटक प्रायः यहां आते रहते हैं। यहां हरियाणा का  पर्यटक विभाग का स्थल भी है। ऐसा ही एक स्थल रोहतक शहर में भी है। इसे मैना पर्यटन केन्द्र कहा जाता है।

समचानाः

यह शब्द सर्प+आना से गिड़ कर बना है। यहां नागपंचमी को नाग देवता की पूजा होती है। सर्प की घटना को महाभारत युद्ध में अर्जुन व कर्ण से जोड़ा जाता है। यहीं एक प्राचीन टीला भी है जिसकी खुदाई की आशा की जाती रही है। यह गांव एक साथ न वस कर धीरे-धीरे बसा है। इस कारण यहां सत्ररह गोत्र हैं।

धार्मिक आस्था का केन्द्रः

प्राचीन काल से ही रोहतक विभिन्न धर्मों का केन्द्र रहा है। एक हजार वर्ष पूर्व रोहतक क्षेत्र में जैन धर्म का प्रभुत्व रहा है व बौद्ध धर्म के केन्द्र के रूप में अस्थल बोहर था। हर्ष के काल में बौद्ध धर्म का प्रभुत्व बढ़ गया था। जैन धर्म के कई विद्वानों का सम्बन्ध रोहतक से रहा है। परन्तु उनकी तथ्यात्मक जानकारी का अभाव है। कुछ संतों की जानकारी लोककथाओं के माध्यम से प्राप्त होती है।

महात्मा चौरंगीनाथ (पूर्णमल भक्त) चौरंगीनाथ का जन्म सियालकोट (वर्तमान पाकिस्तान) में छठी सदी के उत्तरार्द्ध में सियालकोट में राजा सुलेमान के घर हुआ बताते हैं। उनकी विमाता नूना देवी (नूणादे) ने उन पर झूठा आरोप लगा कर पूर्णमल को मरवाने का षड्यंत्र रचा परन्तु आम जनता व हत्यारों की सहानुभूति से वह बच गया और सांसारिक बंधनों को तोड़कर नाथ पंथ में साधु बन गया। संन्यासी बनने पर उसका नाम चौरंगीनाथ रखा गया। उसने रोहतक के आसपास रह कर योग साधना एवं तपस्या की। पहले महात्मा जी घुसकनी गांधरा व बलियाणा में रहे बाद में उन्होंने अस्थल बोहर में रहकर तपस्या की तथा यहीं पर समाधि ली। नाथ सम्प्रदाय एवं आदिकाल से पूर्व के हिन्दी साहित्य में हमें इन की रचनाएं भी मिलती हैं। उन रचनाओं में हमें भक्ति व ज्ञान के दर्शन होते हैं। उसकाल भी भाषा जो वर्तमान हिन्दी की जननी है, का भी हमें पता चलता है।

नाथ सम्प्रदाय में इन महात्मा जी का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है। साधु रूप में भक्ति तथा कवि के रूप में इनका बड़ा आदर है।

सन्त गरीबदासः

सन्त गरीबदास जिनका गांव करोंथा था परन्तु उनके पिता जी छुड़ानी गांव जिला झज्जर में अपनी ससुराल जा कर बस गए थे, भक्त एवं समाज सुधारक हुए हैं। उन्होंने भक्ति के साथ-साथ काव्य सृजन भी किया है। उनकी रचनाओं के वर्ण्य विषय प्रायः कबीर के समान हैं। अतः उन्हें हरियाणा का कबीर भी कहा जाता है। इनकी रचनाओं को अब हरियाणा के विश्वविद्यालयों में पाठ्यक्रम में स्थान दिया गया है। संतों की जीवनियां कम प्राप्त हैं और उनके नाम के साथ जुड़ी चमत्कारिक घटनाओं का ज्यादा वर्णन हुआ है। उनके बारे में दन्तकथाएं आगे से आगे पीढ़ी दर पीढ़ी मिर्च मसाले के साथ चली आती हैं। वैसे भी सन्त महात्माओं का ध्यान भक्ति की ओर ज्यादा रहा है। योगीराज महात्मा मस्तनाथ जी अस्थल बोहर, महात्मा नागरदास जी मढ़ाक धाम, महात्मा जमनादास दी भालौठ, बाबा हरिदास कंसाला तथा महात्मा श्री सतगुरु जी सैमाण और बाबा श्योतनाथ ज्यादा प्रसिद्ध हैं।

इनके अतिरिक्त बहुत से अन्य संत-महन्त, पीर, फकीर सूफी व महात्माओं की भी जानकारी मिलती है। परन्तु उनके बारे में विस्तार से जानकारी उपलब्ध नहीं है। सांग व भजनों के मामले में जनमानस की धारणा एक वृहद रोहतक की है। कुछ स्थान जिनका संबंध लोककवियों से रहा है अब कट-छंट कर दूसरे पानी जिलों का भाग बन गए हैं।

श्री धनपत सिंहः

श्री धनपत सिंह गांव निन्दाणा के निवासी थे। श्री धनपत सुनारियां गांव के श्री जमुआ मीर के शिष्य थे। धनपत सिंह को सुर ताल का पूरा ज्ञान था। वे पूरे कवि थे। उनकी कविता भी अन्य हरियाणवी कवियों की तरह ज्ञान, वैराग्य, भक्ति एवं संसार की असारता की ओर संकेत करती है। उनका सांग गोपीचंद नाथ सम्प्रदाय से प्रभावित है एवं लीलो चमन स्वाधीनता प्राप्ति के समय की एक प्रेम कथा पर आधारित है। बताते हैं जब लीलों-चमन को पता चला कि उनकी प्रेम कहानी पर किसी कवि ने सांग तैयार किया है तो वे स्वयं सांग देखने आए और सांग देख कर अभिभूत हो गए।

महाशय दयाचन्दः

दयाचन्द जी मायना गांव के थे तथा दलित वर्ग से थे। उनकी रचनाएं भी ज्ञान-भक्ति की हैं। प्रसंग के अनुसार श्रृंगार रस का भी वर्णन है।

सेवा रामः

श्री सेवाराम गांव बखेता के निवासी थे। सेवा राम श्री हुकमचन्द के शिष्य हैं तथा जोगी जाति से संबंध रखते हैं।

प्रभु दयालः

श्री प्रभु गांव आसन के निवासी थे तथा प्रसिद्ध सांगी श्री बाजे भगत के प्रिय शिष्य थे। इनका ज्यादा समय श्री खीमचन्द के साथ व्यतीत हुआ।

पं. घीसारामः

ये गांव धामड़ के निवासी थे। इनकी कविताई सादगी पूर्ण है। बाद की रचनाओं में इनका रामायण अनुवाद जो हरियाणवी में काव्य के रूप में है ज्यादा पठनीय है।

'तुम भी केवट में भी केवट दोनों जणे एक सार प्रभु, तू भवसागर तैं पार करै, मैं करूं गंगा से पार प्रभु ।।'

पंः जीयानन्द शर्माः

जीयानन्द शर्मा ब्राह्मणवास के निवासी थे एवं श्री रूपचन्द भजनीक के शिष्य थे। उन्होंने पौराणिक कथाओं पर काव्य की रचना ज्यादा की है। सत्यवान सावित्री और सत्यवादी हरीशचन्द्र ज्यादा प्रसिद्ध हैं। अमर सिंह राठौर और राजबाला अजीत सिंह ऐतिहासिक रचनाएं हैं। इनकी रचनाओं में भक्ति भावना व लोक व्यवहार की प्रधानता है। लोक कहावतें और लोकोक्तियां कविता में नगीने की तरह पिरोया है।

'आटे में घुण पीसा करै त्यों चढ़िए गेडै मतना।

खोटा बेटा, खोटा पीस्सा काम बखत पै आब नहीं बणाणा चाहिए शेर सर्प और छतरी (क्षेत्रीय) कहैं सूता नहीं जगाणा चाहिए

तौं मन्नै मूसी रही समझ बाड़ की या तेरी भूल गहरी सै'

उपरोक्त उनकी कविता का एक उदाहरण मात्र है।

पं. टीकारामः

पंडित जी का गांव टिटौली था। वे संस्कृत के प्रकांड विद्वान थे। हरियाणा के महान लोककवि लखमीचन्द ने उन्हें अपने साथ रखा था। लखमी चन्द को लखमीचन्द सामान्य से हरियाणा का सूर्य कवि बनाने में पंडित का बड़ा योगदान था। उन्होंने ही लखमीचन्द को पुराण आदि सुना-सुना कर हरियाणा के लोक साहित्य को ज्ञान से भरपूर करवाया। इस प्रकार से इन्हें कवि लखमीचन्द का शिक्षक कहा जा सकता है।

पं. जगन्नाथः

पंडित जी गांव समचाणा (सांपला खंड) निवासी हैं। अच्छे कवि हैं इन्होंने लोक साहित्य में लोक धुनों की बजाय फिल्मी धुनों पर ज्यादा जोर दिया। जिसका प्रचलन आजकल हम डी.जे. पर देखते हैं। इन कवियों के अतिरिक्त अनेक सांगी व भजनीक भी हैं परन्तु यहां रचनाओं को महत्व दिया है। कुछ रचनाकार भी अवश्य ही छूट गए हैं। लोककवियों के अतिरिक्त गांधरा, ईस्माइला, बलियाणा और लाखनमाजरा गांव के जोगी सारंगी वादक रहे हैं। सारंगी पर इन गांव के जोगियों की बड़ी गाढ़ी पकड़ थी। यद्यपि आज नए-नए वाद्य यंत्र आने से सारंगी की वैसी कद्र नहीं रही गई है। इस सबके बावजूद भी सारंगी हमारी प्राचीन संस्कृति का एक अच्छा प्रतीक है।

राजनीतिः

वैदिक युग के सुदास, रामायण के काल व महाभारत के योद्धा हरियाणा के हैं परन्तु रोहतक का कोई विशेष नाम नहीं रहा है। यों तो रोहतक सम्राट हर्ष के राज्य का ही भाग था। मिहिर भोज का भी यहा शासन रहा है। अठारह सौ सतावन की क्रांति जनक्रांति थी। अनेक व्यक्तियों ने भाग लिया था। रोहतक के क्रांतिकारियों का नेतृत्व कलानौर का बाबार खान कर रहा था। जब से हम राजनीति की बात करने लगे हैं, तब से यहां सर्व प्रथम नाम लाला लाजपत राय का आता है। पंजाब केसरी लाला लाजपतराय के पिता जी यहा जिला बोर्ड के स्कूल में अध्यापक थे। अतः लाला जी का यहां से संबंध होना स्वाभाविक ही था। लाला जी प्रारम्भ में आर्य समाज का कार्य यहीं से आरम्भ किया। यहां से वकालत आरम्भ की फिर वे यहां से हिसार गए थे। हिसार से फिर लाला जी लाहौर चले गए।

स्वाधीनता सेनानी चौधरी रणबीर सिंह और चौधरी भरत सिंह का संबंध ग्रामीण क्षेत्र से रहा है। श्री रतीराम गांव बोहर के निवासी थे, जो अगस्त क्रांति सन् उन्नीस सौ बियालिस में लाहौर में बलि पथ पर चले गए थे।

पं. नेकीराम शर्मा, पं. श्रीराम शर्मा, पं. भगवतदयाल शर्मा, लाला श्याम लाल गुप्ता प्रमुख व्यक्ति थे जिन्होंने स्वाधीनता संग्राम के दौरान राजनीति में बढ़-चढ़कर भाग लिया। 1930 के नमक सत्याग्रह की प्रमुख नेत्री श्रीमती विद्यावती थी, जिन्होंने नमक कानून को तोड़ा था। वैद्य लेखराम जी यहां वैद्यक की दुकान चलाते थे। क्रांतिकारी यशपाल उन्हीं के पास रहते थे। कामरेड लक्ष्मण दास भी यहीं के निवासी थे। लाला दौलतराम गुप्ता भी यहीं के थे। चौ. रामसिंह (रिठाल) एक प्रमुख स्वाधीनता सेनानी थे। श्री राम सिंह जाखड़ का जन्म रोहतक जिला (परन्तु वर्तमान में झज्जर) में हुआ था परन्तु उनका कार्यक्षेत्र रोहतक ही रहा था। उनका निवास स्थान भी यहीं है। वे प्रसिद्ध स्वाधीनता सेनानी एवं एक अच्छे लेखक थे। उन्होंने स्वाधीनता संघर्ष तथा हरियाणा के स्वाधीनता संग्राम में योगदान पर महत्वपूर्ण जानकारियां इकट्ठी की हैं। चौधरी रणबीर सिंह हुड्डा का भारत के स्वाधीनता संग्राम में अतुलनीय योगदान था। वे भारतीय संविधान सभा के सदस्य भी थे

दीनबन्धु सर छोटूरामः

दीनबन्धु हरियाणा की शान थे। रोहतक के लाल थे। उनका जन्म सांपला के पास गढ़ी गांव में हुआ था। वे घोर गरीबी में पले और बढ़े, पढ़े। उनके मन में किसान व मजदूर के प्रति गहरी सहानुभूति थी। वे सन् उन्नसी सौ बीस तक रोहतक जिला कांग्रेस के प्रधान भी रहे। असहयोग आंदोलन में किसानों की कुछ बातों को लेकर उनका महात्मा गांधी जी से कुछ मतभेद हो गया और उन्होंने कांग्रेस से अलग होकर अपना एक नया राजनैतिक दल बना लिया। इस दल की बुनियाद किसान व हिन्दू-मुस्लिम एकता थी। इन्होंने किसानों के हित के लिए कई महत्वपूर्ण कार्य किए। वे आजादी से पूर्व संयुक्त पंजाब में शिक्षा मंत्री व माल मंत्री रहे। वे देश के बंटवारे के घोर विरोधी थे। उनके जीते यहां मुस्लिम लीग का प्रभाव कुछ न था। वे सन् उन्नीस सौ पैंतालिस (1945) पें स्वर्ग सिधार गए।

पं. श्रीराम शर्माः

पंडित जी का जन्म एक जनवरी सन् अठारह सौ निनानवें को श्री विश्वम्बर दयाल जी के घर माता चांदरानी की कोख से हुआ। जब पंडित युवा हुए तो उन पर देशभक्ति का रंग चढ़ने लगा। उन पर लोकामन्य बालगंगाधर तिलक का गहरा प्रभाव था। पंडित श्री राम शर्मा तिलक जी को अपना राजनैतिक गुरु मानते थे। वे कांग्रेस से 1919 से जुड़े और 1921 से 1923 तक प्रथम बार जेल यात्रा की। वे कुल मिलाकर लगभग साढ़े सात साल जेलों में रहे। 15 जनवरी 1922 को उन्होंने झज्जर में अंग्रेजी झंडा यूनियन जैक उतर कर तिरंगा फरा दिया था। 1920 से 1946 तक कांग्रेस के प्रत्येक आंदोलन में उनकी सक्रिय भागीदारी थी। शर्मा जी संयुक्त पंजाब में मंत्री भी रहे। वे लंबे समय तक पंजाब विधान सभा के सदस्य भी रहे। शर्मा जी संविधान सभा के सदस्य भी चुने गए थे परन्तु डेढ वर्ष बाद त्याग पत्र दे दिया था। शर्मा जी अच्छे लेखक थे और हिन्दी भाषा के प्रबल समर्थक भी थे। उन्होंने 1957 के हिन्दी आआंदोलन में भाग लिया था। राजनीति में बढ़ते भ्रष्टाचार से वे समझौता न कर सके और सक्रिय राजनीति से अलग होकर सेवा आश्रम वैश्य कॉलेज रोड रोहतक में रहने लगे थे। शर्मा जी जैसे सिद्धान्तवादी ईमानदार और देशभक्त नेता कम ही होते हैं। राजनैतिक ईमानदार दो ही व्यक्ति प्रमुख हैं एक हैं पं श्रीराम शर्मा व दूसरे हैं चौ रणबीर सिं हुड्डा।

चौ. मातूराम हुड्डाः

चौधरी साहब रोहतक जिले में गणमान्य व्यक्तियों में प्रमुख स्थान रखते हैं। इनका जन्म गांव सांघी में 1865 में हुआ था। चौधरी साहब आर्य समाज के समाज सुधार कार्यक्रम से बहुत प्रभावित थे। उस समय यहां की जनता अन्धविश्वास, टोने-टोटके, झाड़े-झपटे आदि में जकड़ी हुई थी। सन् 1885 में रोहतक में लाला लाजपतराय के साथ इन्होंने कंधे से कंधा मिला कर समाज सुधार का कार्य किया। बाद में लाला जी तो हिसार और उसके बाद लाहौर चले गए तब यहां का समाज सुधार का सारा कार्य चौधरी मातुराम के कंधों पर आ गया। इन्होंने शिक्षा, समाज सुधार, दलितोंद्धार और नारी उत्थान का कार्य तन-मन-धन से किया। उस समय यहां सनातनी अंधविश्वास कितने जोरों पर था, इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि आपके यज्ञोपवित (जनेऊ) धारण करने पर इनके सजातीय सनातनी भाइयों ने पंचायत बुलाकर दबाव डाला कि यज्ञोपवित

को उतार दें।

इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि समाज सुधार का कार्य करने वालों को कितने दबावों को सहना पड़ता है। परन्तु यह कर्मठ कर्मवीर कल्याण मार्ग पर अडिग रहा। रोहतक में जब भी समाज सुधार और देशभक्ति का वर्णन होगा तो इनका नाम अवश्य ही लिया जाएगा।

चौधरी रणबीर सिंहः

चौधरी रणबीर सिंह का जन्म 26 जनवरी, 1914 को गांव सांघी में चौधरी मातुराम के घर पर हुआ। देशभक्त परिवार के कारण बचपन से ही इन पर में

देशभक्ति का रंग चढ़ा था। गांधी जी के आंदोलन से प्रभावित होकर इन्होंने 1930 के नमक सत्याग्रह से लेकर आजादी प्राप्ति तक के प्रत्येक आंदोलन में भाग लिया। इन्होंने स्वाधीनता प्राप्ति के लिए अनेक बार जेल यात्राएं भी की। चौधरी साहब संविधान सभा के सदस्य भी थे। संविधान सभा के जीवित सदस्यों में संभवतः ये सबसे अन्तिम थे। चौधरी साहब लोकसभा व राज्यसभा दोनों सदस्यों के सदस्य थे। वे पंजाब विधानसभा के सदस्य भी रहे। वे पंजाब के मंत्रीमडल में मंत्री भी रहे। वे हरियाणा विधानसभा के सदस्य भी रहे। उनका जीवन भ्रष्टाचार से दूर और आदर्श गांधीवादी का जीवन था। जब से राजनीति में भ्रष्टाचार व हेराफेरी आई उन्होंने सक्रिय राजनीति से अलग होने का निर्णय लिया। एक फरवरी 2009 को वे पंचतत्व में विलीन हो गए।

कृषि वैज्ञानिक डॉ. रामधन सिंह हुड्डाः

विभाजन से पूर्व भी कृषि विज्ञान के क्षेत्र में रोहतक की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। कृषि वैज्ञानिक श्री रामधन सिंह आजादी से पूर्व कृषि के क्षेत्र में बहुत ही महत्वपूर्ण खोजें की थी। गेहूं की कई किस्मों की खोज उन्हीं की देन है। इनका जन्म किलोई गांव में हुआ था। इनके नाम पर वहां एक खेल क्लब है। कृषि विश्वविद्यालय हिसार में रामधन सिंह हाउस इन्हीं के नाम से है।

इतिहास एक नजर में:

रोहतक का नाम करण पहले दिया जा चुका है। महाभारत की लड़ाई के बाद यहां कुछ कबीलों ने एक संगठन बनाया और संगठन के वीरों अर्थात् योद्धाओं का संगठन होने के कारण योधेयों का संगठन कहलाया। योधेयों का लम्बे समय तक रोहतक पर शासन रहा। इनकी शासन प्रणाली गणतंत्रात्मक थी। इनका राजकीय चिन्ह मोर था। कुछ विद्वानों का मानना है कि ये लोग शिव के उपासक थे। शिव का बड़ा पुत्र कार्तिकेय इनके सेनापति माने गए हैं। उन्हीं से उनका वाहन मोर इन्होंने अपना राजकीय चिह्न बना लिया। रोहतक पर हूण शक और कुषाणों आदि के आक्रमणों के कारण कुछ हिला परन्तु राजधानी बदलने के अतिरिक्त कुछ नहीं किया। इन्होंने अपनी राजधानी प्राकृतनगर बनाई, जो बामला के पास आजकल भिवानी जिले में है। इनके धर्म का केन्द्र संभवतः अस्थल बोहर का मठ था। उन दिनों यहां बौद्ध व जैन धर्म का जोर था। यहां से खुदाई में जैन धर्म के तीथकर पार्श्वनाथ की मूर्ति प्राप्त हुई है। बौद्ध धर्म की अनेक मूर्तियां यहां से प्राप्त हुई हैं। योधेयों का गणराज्य कई बार लड़खड़ाया और कई बार संभला। मौर्यकाल के बारे में यहां की जानकारी न के बराबर है। पहले पहल हमें इसकी प्रामाणिक जानकारी गुजरात के क्षत्रप रूद्रदमन के एक शिलालेख से प्राप्त होती है। यह शिलालेख ईस्वी सन् एक सौ पचास का है। रूद्रदमन के साथ लड़ाई में योधेयों की हार होती है। गुप्तकाल में यहां प्रायः शान्ति रही। यहां के लोग संग्रीत प्रेमी थे। एक ऐसा वर्णन मिलता है कि इनकी संगीत प्रियता की चर्चा उज्जैन में भी होती थी।

इस राज्य के नष्ट होने का कोई ठोस प्रमाण और निश्चित समय प्राप्त नहीं है। इस जनपद के खण्डहर खोखराकोट कहलाते हैं। संभवतः यहां का अंतिम शासक खोखर था। (वर्तमान में एक जाट गोत्र)। खोखरों का किला (कोट) संभवतः इसीलिए पुकारा जाता है। खोखराकोट के विध्वंश के बाद रोहतक को पुनः आबाद करने वाला पंवार वंश का शासक रोहताश था, जिसने रोहताशगढ़ बनवाया था। इसका नाम भी रोहताशगढ़ रखा गया परन्तु यह रोहतक ही रहा। यह स्थान आजकल किला रोड व बड़ा बाजार से माता दरवाजे तक है। हर्ष के राज्यकाल में रोहतक उसके राज्य का एक भाग था। हर्ष की मृत्यु के बाद कन्नौज के शासक यशोवर्मा का यहां शासन रहा। बाद में कश्मीर के शासक कार्कोट वंश के मुक्तापीड़ ने यशोवर्मा को हराकर यहां पर कब्जा कर लिया। यह घटना सात सौ तीस ईस्वी के आसपास की बताई जाती है। इस क्षेत्र में जंगल अधिक थे और कृषि योग्य भूमि कम थी। अतः पशुपालन पर अधिक ध्यान दिया गया। सदानीरा नदी भी यहां कोई नहीं थी। इसलिए भी कृषि कार्य वर्षा पर निर्भर करता था। लोग बहुत खुशहाल तो शायद नहीं थे परन्तु कुछ-कुछ सम्पन्न

रहे होंगे।

कुछ समय बाद यहां पर गुर्जर प्रतिहार वंश का शासन स्थापित हुआ। मिहिर भोज इस वंश के प्रतापी राजा थे। इसका शासन काल आठ सौ छत्तीस ईस्वी से आठ सौ पच्चासी ईस्वी तक माना जाता है। इसी काल में रोहतक के आसपास बस्ती आरम्भ हुई। घुसकानी गांव इससे कुछ ही समय पूर्व का है। भोज लोकप्रिय शासक था। आज भी भोज यहां की लोक कथाओं के नायक हैं। बोहर गांव में नान्दल गोत्र बसने से पूर्व शायद गुर्जर ही रहते थे क्योंकि बोहर गांव की जमीन की एक पट्टी आज भी गुजर वाली ही कहलाती है। इसी काल में अस्थल बोहर के मठ में चौरंगी नाथ का आगमन हुआ और रोहतक में गौकर्ण पर पूजापाठ बढ़ी। एक हजार सैंतीस ईस्वी में अफगान शासक मसूद ने यहां हमला किया। दिल्ली घर तोमरों का शासन होने पर यहां पर भी तोमर छा गए। यह स्थिति सन् ग्यारह सौ उनतालिस तक बनी रही। दिल्ली के राजा के लिए यह जरूरी था कि रोहतक पर भी कब्जा रखे क्योंकि हांसी से आने वाला आक्रमण कारी पहले महम पर आक्रमण करता फिर रोहतक पर और आगे दिल्ली थी। रोहतक हाथ से जाने का अर्थ था कि दिल्ली का कमजोर होना। करनाल, पानीपत से आने वाला आक्रमणकारी सोनीपत पर आक्रमण करके दिल्ली जाता था। अतः उधर के आक्रमणकारी का रोहतक को ज्यादा डर नहीं था। संभवत महम का दुर्ग रोहतक से ज्यादा मजबूत था। मसूद ने आक्रमण करके रोहतक के किले को जो क्षति पहुंचाई थी, उसे पृथ्वीराज चौहान ने गयारह सौ साठ में पुन मरम्मत करवा कर सही करवा दिया। इसी काल में यहां पर आज के पुराने गांव की आबादी बढ़ने लगी थी। समतल जमीन में कृषि कार्य किया जाने लगा था। इस काल से कुछ पहले बौद्ध धर्म हास की ओर चला परन्तु जैन धर्म रोहतक में फल-फूला। रोहतक में जैन धर्म के कई विद्वान पैदा हुए हैं। पुष्पदन्त जिन्हें ईस्वी सन् नौ सौ दो के पास माना जाता है तथा एक अन्य विद्वान हेमचन्द्र को यहीं का माना जाता है।
          बदक पदार्थ सेवन (मुख्य रूप से शराब) का विरोध किया।

मे। यद्यपि आर्य समाज

ग्यारह सौ बानवे में जब पृथ्वीराज चौहान शहाबुद्दीन गौरी से तराईन की दूसरी लड़ाई में हार गया तो गौरी ने महम, मोखरा और रोहतक को जी भर कर लूटा। चौहान की सेना में रोहतक को काफी सैनिक थे। इससे गौरी को रोहतक से बड़ी चिढ़ थी। दिल्ली के सुलतानों का कोपभाजन रोहतक को उस समय बनना पड़ा जब बलबन के पोते कैसुख को, जो कि सुल्तान कैकूबाद का प्रतिद्वन्द्वी था, यहां के निवासियों ने मार डाला। इस घटना से दिल्ली के सुलतान चौकन्ने हो गए। उन्होंने अपना राज्य दृढ़ करने के लिए यहां के प्रमुख लोगों पर जिनके पास जमीनें थी, दबाव डाल कर धर्म परिवर्तन करवा दिया। धर्म परिवर्तन प्रायः राजपूत या ब्राह्मण को करना पड़ा। जो सामान्य या कमजोर वर्ग था, उन पर दबाव नहीं डाला गया। अलाऊद्दीन खिलजी ने किसानों पर कर का भार बढ़ाया एवं रोहतक में जैन धर्म की आस्था के केन्द्र एक मंदिर को तुड़वा कर एक मस्जिद का निर्माण सन् तेरह सौ आठ के आसपास करवाया। यह मस्जिद संभवतः रोहतक की सबसे पुरानी ईमारत है। इसे दीनी मस्जिद कहा जाता है। यह रोहतक के बड़े बाजार के बीचों-बीच स्थित है।

चौदह सौ दस में यहां पर काजिर खान पठान ने कब्जा कर लिया। लोधी व बाबर ने रोहतक को दिल्ली के साथ रखा परन्तु हमायूं ने इसे हिसार के साथ जोड़ दिया। उसने इस क्षेत्र को अपने भाई कामरान को दे दिया। इसके बाद अकबर का शासन आने पर उसने इसे शाहबाज खान अफगान को दे दिया। इसके बाद काफी समय तक रोहतक व महम दिल्ली से जुड़े रहे। शाहजहां के शासन काल में महम का चौबदार सैदूकलाल था। ओरंगजेब के शासन काल में यहां सामान्य सी हलचल रही। गुरु तेग बहादुर जब बलिदान हेतु दिल्ली जा रहे थे तो लाखनमाजरा और रोहतक में रुके थे तो लाखमाजरा और रोहतक में रुके थे। लाखनमाजरा में गुरुद्वारा मंजी साहब और रोहतक में गुरुद्वारा बंगला साहब आज भी नवम् पातशाही की याद ताजा करते रहते हैं। गुरु गोबिन्द्र सिंह जी ने जब बन्दा बैरागी को इधर भेजा तो उसने खरखौदा के पास सेहरी-खांडा गांव में 
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आशीष कुमार ने बताया कि जिला रोहतक के गांव दतौड़, गांधरा, ईस्माईला, कुल्ताना, चुलियाणा, खेड़ी सांपला, सुनारिया कलां, गढ़ी-सांपला, लाहली, निंदाना, मोरखेड़ी, सुंडाना, बनियानी, काहनौर, लाखन माजरा, हसनगढ़ और सांघी सामुदायिक केंद्रों के अंतर्गत आने वाले गांवों का लिंगानुपात पिछले कुछ माह से 900 से कम रहा है। इन गांवों के लोगों को जागरूक करने के लिए मोबाइल वैन को रवाना किया गया है। इस मौके पर महिला एवं बाल विकास विभाग रोहतक से डब्ल्यूसीडीपीओ डिंपल, मंजू यादव, कमलेश, बिजेंद्र, सहायक तथा सुनील लिपिक मौजूद रहे।




In Haryana, Mahendragarh had the lowest sex ratio at birth in a recent report, with a sex ratio of 824, according to The Tribune. Following closely were Kaithal (826), Rohtak (829), and Panipat (847). These figures indicate a concerning trend in the state, despite efforts like the "Beti Bachao, Beti Padhao" campaign. 

Key points about the situation:

Overall trend:

Haryana's sex ratio at birth has been a cause for concern, with some districts showing significant drops in the number of girls born, according to Drishti IAS. 

Mahendragarh's situation:

The district has been identified as having a particularly low sex ratio, with over 100 villages recording a sex ratio below 800, according to The Tribune. 

Government response:

The Haryana government is taking the situation seriously and has launched targeted awareness campaigns and increased enforcement of laws related to female foeticide, according to The Haryana Story. 

Deep-rooted issues:

The problem is linked to deeply entrenched gender bias and societal preferences for sons, according to The Haryana Story. 





रोहतक जिले का 2025 के तीन महीनों का लिंगानुपात (प्रति 1000 पुरुषों पर महिलाओं की संख्या) 880 है. यह 2024 के पहले 10 महीनों के 905 से कम है. 2023 में, रोहतक जिले के 54 गांवों में जन्म के समय लिंगानुपात 800 से कम था, जो 2022 में 42 गांवों की तुलना में 28% अधिक था. 

2025 में, रोहतक शहर की औसत साक्षरता दर 85.70% है, जिसमें पुरुष साक्षरता 90.39% और महिला साक्षरता 80.48% है. रोहतक शहर का लिंगानुपात 1000 पुरुषों पर 888 है. बाल लिंगानुपात 1000 लड़कों पर 815 लड़कियां है. 

रोहतक जिला हरियाणा के दक्षिण-पूर्व और दिल्ली के उत्तर-पश्चिम में स्थित है. इसके उत्तर में जींद और सोनीपत जिले, पूर्व में झज्जर और सोनीपत जिले, और पश्चिम में हिसार, चरखी दादरी और भिवानी जिले हैं. 
17 villages in Rohtak record sex ratio below 600

Health officials tighten vigil on midwives, workers


Sunit Dhawan

Tribune News Service

Rohtak, Updated At : 09:23 AM Jan 25, 2025 IST


Alarmingly low sex ratios have been recorded in 17 villages of Rohtak district in 2024, prompting health authorities to intensify efforts to address the issue. Official data revealed that 10 of these villages registered a sex ratio of 500 or below, with 53 villages recording a ratio below 800.

Shockingly, Singhpura Khurd reported the lowest sex ratio at 200, while Ganganagar, Gugaheri and Bedwa recorded 333.33. Other villages such as Garhi (388.89), Kharak Jatan (464.29) and Gaddi Kheri (481.48) also reported grim figures.

This is a matter of grave concern and we are taking all possible steps to reverse the trend,” said Dr Ramesh Chander, Civil Surgeon, Rohtak. “We have launched an intensive drive to dismantle illegal sex-determination networks, with special focus on villages showing low sex ratios. Registration of all pregnant women at an early stage is being ensured to track their progress and Panchayati Raj Institutions are being roped in for this effort.”

The role of midwives and health workers, including auxiliary nurse midwives (ANMs), anganwadi workers and accredited social health activists (ASHAs), is under scrutiny. “We are gathering information from the grassroots level and strict legal action will be taken against anyone found involved in sex-determination rackets,” warned Dr Vishvjeet Rathee, Nodal Officer (PC and PNDT), Rohtak.

Dr Rathee also disclosed that in less than two months, the district team conducted three major raids under the PC and PNDT Act, MTP Act and Drugs and Cosmetics Act. These raids unearthed two interstate sex-determination rackets, leading to the arrest of touts, doctors, a chemist and a supplier, with FIRs registered against them.






 Haryana : 2024 में रोहतक जिले के 17 गांवों में चिंताजनक रूप से कम लिंगानुपात दर्ज किया गया है, जिससे स्वास्थ्य अधिकारियों को इस मुद्दे के समाधान के लिए प्रयास तेज करने पड़े हैं। आधिकारिक आंकड़ों से पता चला है कि इनमें से 10 गांवों में लिंगानुपात 500 या उससे कम दर्ज किया गया है, जबकि 53 गांवों में यह अनुपात 800 से कम दर्ज किया गया है। चौंकाने वाली बात यह है कि सिंघपुरा खुर्द में सबसे कम 200 लिंगानुपात दर्ज किया गया, जबकि गंगानगर, गुगाहेरी और बेदवा में 333.33 दर्ज किया गया। गढ़ी (388.89), खरक जाटान (464.29) और गद्दी खेरी (481.48) जैसे अन्य गांवों में भी गंभीर आंकड़े दर्ज किए गए। रोहतक के सिविल सर्जन डॉ रमेश चंदर ने कहा, "यह गंभीर चिंता का विषय है और हम इस प्रवृत्ति को उलटने के लिए हर संभव कदम उठा रहे हैं।" सभी गर्भवती महिलाओं का प्रारंभिक चरण में पंजीकरण सुनिश्चित किया जा रहा है ताकि उनकी प्रगति पर नज़र रखी जा सके और इस प्रयास के लिए पंचायती राज संस्थाओं को शामिल किया जा रहा है।

सहायक नर्स दाइयों (एएनएम), आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं और मान्यता प्राप्त सामाजिक स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं (आशा) सहित दाइयों और स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं की भूमिका की जांच की जा रही है। रोहतक के नोडल अधिकारी (पीसी और पीएनडीटी) डॉ. विश्वजीत राठी ने चेतावनी दी, "हम जमीनी स्तर से जानकारी एकत्र कर रहे हैं और लिंग निर्धारण रैकेट में शामिल पाए जाने वाले किसी भी व्यक्ति के खिलाफ सख्त कानूनी कार्रवाई की जाएगी।" डॉ. राठी ने यह भी खुलासा किया कि दो महीने से भी कम समय में, जिला टीम ने पीसी और पीएनडीटी अधिनियम, एमटीपी अधिनियम और ड्रग्स एंड कॉस्मेटिक्स अधिनियम के तहत तीन बड़े छापे मारे। इन छापों में दो अंतरराज्यीय लिंग निर्धारण रैकेट का पता चला, जिसके परिणामस्वरूप दलालों, डॉक्टरों, एक केमिस्ट और एक आपूर्तिकर्ता को गिरफ्तार किया गया और उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज की गई। चिंताजनक आंकड़ों के बावजूद, अधिकारी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा 2015 में बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ (बीबीबीपी) अभियान की शुरुआत के बाद से हुई प्रगति पर प्रकाश डालते हैं। अधिकारियों ने कहा, "रोहतक में लिंगानुपात 2015 में 859 से बढ़कर 2024 में 888 हो गया है, जो 29 अंकों की वृद्धि दर्शाता है।"

सेक्स रेशो हरियाणा का 

जनवरी 2025 918/1000

फ़रवरी 2025 - 880/1000

मार्च 2025-883/1000

अप्रैल 2025- 885/1000

मई 2025-883/1000

जून 2025- 886/1000
Sunit Dhawan

Tribune News Service

Rohtak, Updated At : 09:23 AM Jan 25, 2025 IST

beer's shared items

Will fail Fighting and not surrendering

I will rather die standing up, than live life on my knees:

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