Saturday, March 19, 2022

द कश्मीर फाइल्स

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*‘द कश्‍मीर फ़ाइल्‍स’: कश्‍मीरी पण्डितों की त्रासदी दिखाने की आड़ में मुस्लिमों और वामपन्थियों के ख़‍िलाफ़ नफ़रत को चरम पर ले जाने का हिन्‍दुत्‍ववादी हथकण्‍डा*
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✍🏾 आनन्द सिंह

उत्‍तर प्रदेश सहित 4 राज्‍यों के विधानसभा चुनावों में भाजपा की जीत के बाद संघ परिवार की समूची फ़‍ासिस्‍ट मशीनरी अब विवेक अग्निहोत्री की फ़‍िल्‍म ‘द कश्‍मीर फ़ाइल्‍स’ को प्रचारित करने में जुट गयी है। फ़‍िल्‍म रिलीज़ होने के अगले ही दिन प्रधानमंत्री मोदी ने फ़‍िल्‍म के निर्माता,निर्देशक और मुख्‍य कलाकारों से मुलाक़ात की। यही नहीं, फ़ि‍ल्‍म चर्चा में बनी रहे इसलिए मोदी ने भाजपा की एक बैठक में फ़‍िल्‍म को बदनाम करने की साज़‍िश का भी ज़‍िक्र किया। गृहमंत्री अमित शाह ने भी फ़‍िल्‍म की टीम से मुलाक़ात की। भाजपा शासित प्रदेशों ने फ़‍िल्‍म को टैक्‍स-फ्री कर दिया है ताकि फ़‍िल्‍म को ज्‍़यादा से ज्‍़यादा लोग देखें। तमाम शहरों के सिनेमा हॉलों में संघ परिवार के कार्यकर्ता और उसके लग्‍गू-भग्‍गू फ़‍िल्‍म प्रदर्शन को हिन्‍दुत्‍ववादी ज़हरीली नफ़रती राजनतिक प्रोपागैण्‍डा में तब्‍दील कर रहे हैं। स्‍पष्‍ट है कि यह सब एक सोची-समझी रणनीति के तहत किया जा रहा है जिसका समाज पर वैसा ही असर होने वाला है जैसा नाज़ी जर्मनी में ‘द इटर्नल ज्‍यू’ जैसी यहूदी-विरोधी प्रोपागैण्‍डा फ़‍िल्‍मों का हुआ था।
 
कश्‍मीर मसले के इतिहास के तमाम पहलुओं से वाक़‍िफ़ किसी भी व्‍यक्ति को यह आसानी से समझ में आ सकता है कि फ़‍िल्‍म में आधे सच और सफ़ेद झूठ का शातिराना ढंग से मिश्रण करते हुए कश्‍मीरी पण्डितों की हत्‍याओं और पलायन की त्रासदी को कश्‍मीर समस्‍या के पूरे सन्‍दर्भ से काटकर एक स्‍वतंत्र समस्‍या के रूप में पेश किया गया है। लेकिन इस फ़‍िल्‍म का सबसे ख़तरनाक पहलू यह है कि इसमें कश्‍मीरी पण्डितों की त्रासदी दिखाने की आड़ में संघ परिवार के मुस्लिम-विरोधी और कम्‍युनिज्‍़म-विरोधी एजेण्‍डा को बेहद नंगे और भोंडे रूप में सामने लाया गया है जो कम ऐतिहासिक व राजनीतिक चेतना के किसी भी व्‍यक्ति के भीतर कश्‍मीर समस्‍या के बारे में कोई विवेक पैदा करने की बजाय नफ़रत और ग़ुस्‍सा पैदा करने का काम करता है।

फ़‍िल्‍म को देखने के बाद सिनेमा हॉल से बाहर निकले लोगों की प्रतिक्रिया को भी सोशल मीडिया पर प्रचारित करके नफ़रत और ग़ुस्‍से को और ज्‍़यादा तूल दिया जा रहा है। ऐसी ज्‍़यादातर प्रतिक्रि‍याओं में लोगों को फ़ि‍ल्‍म देखने के बाद रोते हुए और भावनात्‍मक टिप्‍पणी करते हुए दिखाया जा रहा है। फ़‍िल्‍म का मक़सद ही यही है कि कश्‍मीरी पण्डितों की त्रासदी दिखाकर लोगों को नकारात्‍मक भावना और ग़ुस्‍से से भर दिया जाये। लेकिन अगर कोई व्‍यक्ति कश्‍मीरी पण्डितों की त्रासदी के कारणों को जानने की जिज्ञासा के साथ फ़‍िल्‍म देखने जाएगा तो उसे निराशा ही हाथ लगेगी। फ़‍िल्‍म में कश्‍मीरी पण्डितों की समस्‍या और त्रासदी को भारत की आज़ादी के बाद पैदा हुई कश्‍मीर समस्‍या और त्रासदी के एक अंग के रूप में दिखाने की बजाय उसे एक स्‍वतंत्र समस्‍या के रूप में पेश किया गया है। फ़‍िल्‍म में इसका कोई ज़‍िक्र नहीं मिलता कि किस प्रकार आज़ादी के बाद कश्‍मीरियों ने इस्‍लाम के आधार पर बने पाकिस्‍तान में न मिलने का फैसला किया था। कश्‍मीर में रायशुमारी कराने के वायदे से भारतीय राज्य के मुकरने, उसकी ज़ोर-ज़बर्दस्‍ती और ग़ैर-लोकतांत्रिक आचरण की वजह से कश्‍मीर समस्‍या लगातार उलझती चली गयी जिसका नतीजा कश्‍मीर घाटी की मुस्लिम आबादी में लगातार बढ़ते अलगाव के रूप में सामने आया। फ़‍िल्‍म में इसका भी कोई हवाला नहीं मिलता है कि कश्‍मीरी मुस्लिम आबादी के बीच भारत की राज्‍यसत्‍ता से बढ़ते अलगाव के बावजूद 1980 के दशक के उत्‍तरार्द्ध से पहले कश्‍मीरी पण्डित अल्‍पसंख्‍यक आबादी के ख़‍िलाफ़ पूर्वाग्रह भले ही हों लेकिन नफ़रत और हिंसा जैसे हालात नहीं थे। ऐसे हालात पैदा करने में 1980 के दशक में घटी कुछ अहम राष्‍ट्रीय और अन्‍तरराष्‍ट्रीय घटनाओं की भूमिका थी।

11 फ़रवरी 1984 को भारतीय और पाकिस्‍तानी क़ब्ज़े वाले समूचे कश्‍मीर की आज़ादी की माँग को लेकर सशस्‍त्र संघर्ष के हिमायती लोकप्रिय नेता मक़बूल बट को तिहाड़ जेल में फाँसी दे दी गयी थी जिसने कश्मीरी युवाओं में असंतोष बढ़ाने का काम किया। जुलाई 1984 में इंदिरा गाँधी ने फारूख़ अब्दुल्ला की सरकार को बरख़ास्‍त कर दिया जिससे घाटी में एक बार फिर असन्तोष बढ़ने लगा। श्रीनगर में 72 दिनों तक कर्फ्यू लगा रहा। लेकिन 1986 में फारूख अब्दुल्ला ने भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गाँधी के साथ समझौता किया और वे एक बार फिर मुख्यमंत्री बने। मार्च 1987 में जम्मू एवं कश्मीर विधानसभा का चुनाव सम्पन्न हुआ जिसमें नेशनल कान्फ्रेंस और कांग्रेस ने गठबन्धन बनाया। इन चुनावों में बड़े पैमाने पर धाँधली हुई। विपक्षी मुस्लिम यूनाइटेड फ्रंट (एमयूएफ) की कश्मीर घाटी में ज़बरदस्त लोकप्रियता होने के बावजूद चुनावी धाँधली की वजह से उसे विधानसभा में सीटें नहीं मिल पायीं। इन चुनावों में धाँधली के बाद कश्मीरी युवाओं की बड़ी आबादी को चुनावी प्रक्रिया से भरोसा उठ गया और बड़ी संख्या में युवाओं ने बन्दूकें थामी। इसके बाद से ही कश्मीर में सशस्त्र संघर्ष प्रभावी रूप में सामने आया। ग़ौरतलब है कि जिन नेताओं ने बाद में आतंकवाद की राह पर जाने का फैसला किया उनमें से अधिकांश ने 1987 के चुनावों में हिस्सा लिया था और चुनावी धाँधली की वजह से उनका मोहभंग हुआ। 1986 में गठित इस्लामिक स्टूडेंट्स लीग के चार प्रमुख सदस्यों – अब्दुल हमीद शेख, अश्फ़ाक माज़िद वानी, जावेद अहमद मीर और यासीन मलिक – जिन्हें हाजी ग्रुप कहा जाता था, ने एमयूएफ के समर्थन में चुनाव प्रचार किया था। यहाँ तक कि हिजबुल मुजाहिद्दीन का मुखिया सैयद सलाहुद्दीन जिसका असली नाम मोहम्मद यूसुफ शाह है, ने भी एमयूएफ़ के उम्मीदवार के रूप में 1987 के चुनाव में भागीदारी की थी। 1987 के चुनावों में भारी धाँधली के बाद कश्मीर में जो जनउभार देखने को आया उसके पीछे पिछले 40 सालों का कुशासन, आर्थिक बदहाली, बेरोज़गारी और भ्रष्टाचार भी प्रमुख कारण थे। 1988 में बिजली की दरों में वृद्धि के खि़लाफ़ प्रदर्शन के दमन से कश्मीर घाटी की जनता में ज़बरदस्त आक्रोश देखने को आया। उसी साल मकबूल बट की बरसी पर पुलिस ने कश्मीरी आज़ादी के समर्थकों पर अन्धाधुन्ध गोलियाँ चलायीं। यही वह दौर था जब पाकिस्तान ने अफ़गानिस्तान में अमेरिका की मदद से सोवियत संघ के ख़‍िलाफ़ लड़ाई में प्रशिक्षित मुजाहिद्दीनों को कश्मीर में जेहाद के लिए भेजना शुरू किया और कश्मीर की आज़ादी के संघर्ष को इस्लामिक कट्टरपन्थी रंग देने की कुटिल चाल चली जिसने कश्‍मीर की आज़ादी के संघर्ष को नुक़सान पहुँचाने के अलावा अल्‍पसंख्‍यक कश्‍मीरी पण्डितों के ख़‍िलाफ़ नफ़रत फैलाने में प्रमुख भूमिका अदा की।

इस सन्‍दर्भ के बिना 1989-90 में हुई कश्‍मीरी पण्डितों की हत्‍याओं और उसके बाद हुए उनके पलायन को समझा ही नहीं जा सकता है। लेकिन ‘द कश्‍मीर फ़ाइल्‍स’ का मक़सद यह समझाना नहीं बल्कि लोगों की रगों में नफ़रत का ज़हर फैलाना है। इसीलिए इस फ़‍िल्‍म में कश्‍मीर के इस समकालीन इतिहास को पूरी तरह से ग़ायब कर दिया गया और इतिहास के नाम पर चयनित ढंग से कश्‍मीर के प्राचीन इतिहास के गौरव और मध्‍यकालीन सामन्‍ती मुस्लिम शासकों की बर्बरता के क़‍िस्‍से सुनाये गये हैं जिनका वर्तमान कश्‍मीर समस्‍या और कश्‍मीरी पण्डितों के पलायन से कोई रिश्‍ता नहीं है और जो संघ की शाखाओं से उधार लिये गये हैं। यह पूरा ब्‍योरा संघ के ‘हिन्‍दू ख़तरे में है’ और ‘इस्‍लाम है ही कट्टर’ के प्रोपागैण्‍डा के अनुरूप है।     

फ़‍िल्‍म में समूची कश्‍मीरी मुस्लिम आबादी को एक एकाश्‍मी समूह के रूप में दिखाया गया है, सभी कश्‍मीरी मुस्लिम किरदार या तो कश्‍मीरी पण्डितों के ख़ून के प्‍यासे हैं या उनकी सम्‍पत्ति हड़पने के लिए लालायित हैं या उनकी महिलाओं पर बुरी नज़र रखते हैं। मुस्लिम बच्‍चे पाकिस्‍तान क्रिकेट टीम के समर्थक हैं, मुस्लिम महिलाएँ राशन डिपो पर पूरे अनाज पर क़ब्‍ज़ा कर लेती हैं ताकि पण्डितों को राशन न मिले। मुस्लिम पड़ोसी पण्डितों के भागने का इन्‍तज़ार करते हैं ताकि उनकी सम्‍पत्ति पर क़ब्‍ज़ा कर सकें। मौलवी की बुरी नज़र पण्डित महिलाओं पर रहती है। हालाँकि 1990 में जब पण्डितों के ख़‍िलाफ़ नफ़रत अपने चरम पर थी तब कश्‍मीरी मुस्लिम आबादी ऐसे लोगों की मौजूदगी और इस प्रकार की चन्‍द घटनाओं से इन्‍कार नहीं किया जा सकता है क्‍योंकि ऐसी घटनाओं के कुछ संस्‍मरण मौजूद हैं, लेकिन उस दौर के जितने भी संस्‍मरण, रिपोर्टें मौजूद हैं जिनमें कश्‍मीरी पण्डितों के भी संस्‍मरण शामिल हैं वे यह भी बताते हैं कि तमाम कश्‍मीरी मुस्लि‍मों ने पण्डितों को बचाया भी था और वे नहीं चाहते थे कि पण्डित घाटी छोड़कर जाएँ। लेकिन ‘द कश्‍मीर फ़ाइल्‍स’ में ऐसा एक भी मुस्लिम किरदार नहीं मौजूद है जो पण्डितों के पलायन से दुखी हो। कारण साफ़ है कि ऐसे किरदार के होने से नफ़रत का असर थोड़ा कम हो जाता।

फ़‍िल्‍म में निहायत ही शातिराना ढंग से यह सच्‍चाई भी पूरी तरह से छिपा दी गयी है कि जिस दौर में कश्‍मीरी पण्डितों पर हमले हो रहे थे उस समय तमाम कश्‍मीरी मुस्लिमों को भी निशाना बनाया गया था जिनमें नेशनल कांफ्रेंस और कांग्रेस के नेताओं के अलावा मीरवाइज़ मोहम्‍मद फ़ारूख़ जैसे कई नरमपन्‍थी अलगाववादी नेता और आम कश्‍मीरी मुस्लिम भी शामिल थे। पाकिस्‍तानपरस्‍त इस्‍लामिक कट्टरपन्थियों के निशाने पर वे सभी लोग थे कश्‍मीर के पाकिस्‍तान में मिलने मिलने का विरोध कर रहे थे, चाहे वो भारत के नज़रिये से विरोध कर रहे हों या कश्‍मीर की आज़ादी के नज़रिये से। आतंकवाद के दौर में कश्‍मीरी पण्डितों से कई गुना ज्‍़यादा कश्‍मीरी मुस्लिमों की मौतें हुईं। लेकिन अगर विवेक अग्निहोत्री इस सच्‍चाई को अगर दिखाने लग जाते तो मुस्लिमों के ख़‍िलाफ़ नफ़रत कैसे फैला पाते और कश्‍मीर समस्‍या को हिन्‍दू बनाम मुस्लिम की लड़ाई के रूप में कैसे दिखा पाते!

फ़‍िल्‍म के एक दृश्‍य में जेएनयू में जब प्रो. राधिका मेनन कश्‍मीर में भारतीय सेना द्वारा किये गये ज़ुल्‍म की चर्चा करते हुए कश्‍मीर में पायी गयी 7000 से भी ज्‍़यादा गुमनाम कब्रों का हवाला देती है तो फ़‍िल्‍म का मुख्‍य किरदार कृष्‍णा फौरन बोल पड़ता है कि ‘व्‍हाट अबाउट बट मज़ार’? जब प्रो. पूछती है कि बट मज़ार क्‍या है तो वह बताता है कि जहाँ एक लाख कश्‍मीरी हिन्‍दुओं का डल लेक में डुबोकर मार डाला गया। इतने लोग मरे कि सिर्फ़ उनके जनेऊ से ही 7 बड़े टीले बन गए थे। यह दृश्‍य व्‍हाटअबाउटरी की टिपिकल संघी शैली का उदाहरण है। इसमें बड़ी ही चालाकी से आज के कश्‍मीर में हुए ज़ुल्‍म के बरक्‍स मध्‍यकाल की किसी घटना को रख दिया जाता है और उसका समय जानबूझकर नहीं बताया जाता ताकि दर्शकों को ऐसा लगे कि आधुनिक कश्‍मीर में पण्डितों के साथ ऐसी घटना घटी हो और उनका दिल कश्‍मीरी मुस्लिमों के प्रति नफ़रत से भर उठे।   

फ़‍िल्‍म में धूर्ततापूर्ण तरीक़े से यह सच्‍चाई भी छिपायी गयी है कि जिस दौर में कश्‍मीरी पण्डितों के साथ सबसे घृणित अपराध हुए उस समय दिल्‍ली में वी.पी.सिंह की सरकार थी जो भाजपा के समर्थन के बिना एक दिन भी नहीं चल सकती थी। लेकिन भाजपा ने कश्‍मीरी पण्डितों पर होने वाले ज़ुल्‍मों के मुद्दे पर सरकार से समर्थन वापस नहीं लिया। फ़‍िल्‍म में उस दौर को कुछ इस तरह से प्रस्‍तुत किया गया है मानो उस समय राजीव गाँधी की कांग्रेसी सरकार हो। यह भी दिखाता है कि फ़‍िल्‍मकार का मक़सद सच दिखाना नहीं बल्कि संघ परिवार का प्रोपागैण्‍डा फैलाना है।

वी.पी. सिंह की सरकार 2 दिसम्‍बर 1989 में सत्‍ता में आयी थी और 8 दिसम्‍बर को कश्‍मीरी मिलिटेंट्स ने उस सरकार में गृहमंत्री मुफ़्ती मोहम्‍मद सईद की बेटी रूबिया सईद का अपहरण कर लिया था। भारत सरकार ने गृहमंत्री की बेटी को छोड़ने की एवज में 5 मिलिटेंट्स को रिहा किया था जिसके बाद से कश्मीर घाटी में मिलिटेंट्स का बोलबाला हो गया था और कश्‍मीरी पण्डितों की हत्‍याओं में तेज़ी से बढ़ोतरी हुई थी। 18 जनवरी 1990 को फ़ारूख़ अब्‍दुल्‍ला की सरकार इस्‍तीफ़ा देती है और कश्‍मीर में दूसरी बार राज्‍यपाल के पद पर कुख्‍यात जगमोहन को नियुक्‍त किया जाता है। कई कश्‍मीरी पण्डित समेत तमाम पत्रकारों और विश्‍लेषकों का यह मानना है कि जगमोहन ने स्‍वयं कश्‍मीरी पण्डितों को घाटी छोड़ने के लिए कहा और उनके पलायन के लिए गाड़‍ियाँ तक मुहैया करायीं ताकि उन्‍हें घाटी में निर्ममता से सुरक्षा बलों का इस्‍तेमाल करने का बहाना मिल जाये। हालाँकि यह व्‍याख्‍या विवादास्‍पद है लेकिन इतना तो तय है कि जगमोहन के कार्यकाल में कश्‍मीरी पण्डितों को सुरक्षित माहौल नहीं मिल पाया जिसकी वजह से पण्डितों को पलायन होने पर मजबूर होना पड़ा। उस समय जम्‍मू व कश्‍मीर में तैनात वरिष्‍ठ नौकरशाह वजाहत हबीबुल्‍लाह ने लिखा है कि घाटी के कई मुस्लिमों ने उनसे कश्‍मीरी पण्डितों के पलायन को रोकने की गुहार लगायी थी जिसके बाद उन्‍होंने जगमोहन से आग्रह किया था कि वे दूरदर्शन के प्रसारण के माध्‍यम से कश्‍मीरी पण्डितों को घाटी न छोड़ने के लिए कहें। लेकिन जगमोहन ने ऐसा करने की बजाय यह घोषणा की कि अगर कश्‍मीरी पण्डित घाटभ्‍ छोड़ते हैं तो उनका इन्‍तज़ाम शरणार्थी शिविर में किया जाएगा और सरकारी कर्मचारियों को उनकी तनख्‍़वाहें मिलती रहेंगी। फ़‍िल्‍म में पण्डितों को घाटी में सुरक्षा का आश्‍वासन देने की बजाय उनके पलायन को बढ़ावा देने में जगमोहन की भूमिका पर भी पूरी तरह से पर्दा डाला गया है। इसी तरह फ़‍िल्‍म में 19 जनवरी 1990 को श्रीनगर में कश्‍मीरी पण्डितों पर हुए हमलों और उनके ख़‍िलाफ़ नफ़रत से भरी नारेबाज़ी को विस्‍तार से दिखाया है लेकिन इस सच्‍चाई को छिपा दिया है कि उसके दो दिन बाद ही श्रीनगर के गौकदल पुल के पास सीआरपीएफ़ की अँधाधुँध गोलीबारी में 50 से अधिक कश्‍मीरियों की जान चली गयी थी जिसके बाद से घाटी का माहौल और ख़राब हो गया था।

मुस्लिमों के अलावा ‘द कश्‍मीर फ़ाइल्‍स’ द्वारा प्रसारित नफ़रत का दूसरा प्रमुख निशाना वामपन्थी हैं। फ़‍िल्‍म में पल्‍लवी जोशी ने जेएनयू की एक प्रो. राधिका मेनन का किरदार निभाया है। पल्‍लवी जोशी ने अपने एक इण्‍टरव्‍यू में कहा है कि इस किरदार को उन्‍होंने इस कदर निभाया है कि लोग उससे बेइन्‍तहाँ नफ़रत करें। इस प्रोफ़ेसर को देश के ख़‍िलाफ़ काम करने वाले एक कुटिल व्‍यक्ति के रूप में पेश किया गया है जो अपने छात्रों का ‘ब्रेनवाश’ करके उन्‍हें भारत के ख़‍िलाफ़ काम करने के लिए प्रेरित करती है। वह अपनी खुली कक्षा में कश्‍मीर की आज़ादी की बात करती है और उसके छात्र भारत के टुकड़े करने के नारे लगाते हैं। यह 2016 में जेएनयू प्रकरण का संघी कैरिकेचर है जिसे विवेक अग्निहोत्री ने बेशर्मी के साथ दिखाया है।

इतना ही नहीं फ़‍िल्‍म में संघ परिवार द्वारा फैलाये जा रहे ‘वामपन्‍थी-जेहादी गँठजोड़’ के फ़र्जी नरेटिव को भी हास्‍यास्‍पद ढंग से पेश किया है। प्रोफ़ेसर राधिका अपने छात्र कृष्‍णा को कश्‍मीरी आतंकी बिट्टा कराटे से मुलाक़ात करने के लिए भेजती है। बिट्टा के घर में एक तस्‍वीर दिखायी जाती है जिसमें बिट्टा राधिका का हाथ पकड़े हुए है। इस दृश्‍य की प्रेरणा कुछ साल पहले अरुन्‍धति रॉय और यासीन मलिक की एक तस्‍वीर से ली गयी है जिसे संघियों द्वारा बेशर्मी के साथ वायरल किया गया था। यह दृश्‍य विवेक अग्निहोत्री सहित समूचे संघ परिवार के के घोर स्‍त्री-विरोधी चरित्र को भी सामने लाता है। इसके ज़रिये दोनों के बेहद क़रीबी रिश्‍ते को दिखाया गया है ताकि दर्शक आज़ादी के बात करने वाले वामपन्थि‍यों से रोम-रोम तक नफ़रत करने लगें। बिट्टा कृष्‍णा को जेएनयू के प्रेसिडेंट का चुनाव लड़ने के लिए बधाई देता है और जाते समय उसे पिस्‍तौल थमाता है। जेएनयू के ज़रिये फ़‍िल्‍मकार समूचे वामपन्‍थ के प्रति लोगों में नफ़रत पैदा करने की कोशिश की है। दर्शकों के दिमाग़ में यह कनेक्‍शन बना रहे इसलिए जेएनयू के दृश्‍यों की पृष्‍ठभूमि में मार्क्‍स,लेनिन व माओ आदि की तस्‍वीरें प्रमुखता से उभारी गयी है।      

फ़‍िल्‍म में शातिराना ढंग से मुख्‍य किरदार में बिट्टा कराटे और यासीन मलिक के किरदारों को गड्डमड्ड कर दिया गया है ताकि दर्शक कश्‍मीरी अलगाववादियों को हद दर्जे का बर्बर और दोगले इन्‍सान समझकर उनसे बेइन्‍तहाँ नफ़रत करें। एक ओर बिट्टा 20 से ज्‍़यादा पण्डितों की हत्‍या की बात कबूलता है वहीं दूसरी ओर वह गाँधीवादी ढंग से स्‍वतंत्रता आन्‍दोलन छेड़ने की बात करता है और वामपन्थियों के साथ गँठजोड़ करके भारत के ख़‍िलाफ़ साज़‍िश रचता है। फ‍़‍िल्‍म में इतिहास के साथ ज्‍़यादती करते हुए 2003 में कश्‍मीर के पुलवामा ज़‍िले के नदीमार्ग में हुए कश्‍मीरी पण्डितों के क़त्‍लेआम को 1990 के दशक में कश्‍मीरियों के पलायन की निरन्‍तरता में दिखाया गया है और उसे भी जेकेएलफ़ के बिट्टा कराटे द्वारा अंजाम देते हुए दिखाया गया है। सच तो यह है कि नदीमार्ग क़त्‍लेआम जेकेएलएफ़ की नहीं बल्कि लश्‍करे तोइबा की कारगुज़ारी थी। इतिहास के साथ किये गये इस घालमेल के पीछे भी फ़‍िल्‍मकार का मक़सद कश्‍मीर की आज़ादी के लिए चल रहे संघर्ष करने वाले सभी संगठनों और सभी व्‍यक्तियों को हैवान बताकर दर्शकों के मन में नफ़रत पैदा करना है। फ़‍िल्‍म के अन्तिम दृश्‍य में नदीमार्ग गाँव के सभी कश्‍मीरी पण्डितों को लाइन में खड़ा करके उनमें से सभी को एक-एक करके गोली से मारने का वीभत्‍स दृश्‍य दिखाया गया है और सबसे अन्‍त में बर्बर ढंग से बच्‍चे को मारते हुए दिखाया गया है ताकि दर्शक फ़ि‍ल्‍म को देखकर समूची कश्‍मीरी मुस्लिम आबादी के ख़‍िलाफ़ बेइन्‍तहाँ नफ़रत की भावना लेकर बाहर निकलें।    

फ़‍िल्‍म में अनुपम खेर के किरदार की काफ़ी प्रशंसा की जा रही है। लेकिन इस किरदार के ज़रिये भी फ़‍िल्‍मकार ने चालाकी से नरेन्‍द्र मोदी को कश्‍मीरी पण्डितों के मसीहा बताने के संघी झूठ का एक नमूना पेश किया है। पुष्‍कर नाथ नामक यह किरदार घाटी से पलायन के बाद कश्‍मीर से धारा 370 को हटाने को अपने जीवन का एकमात्र उद्देश्‍य बना लेता है। ऐसा दिखाने का मक़सद दर्शकों के मन में यह भ्रान्ति पैदा करना है कि मोदी सरकार द्वारा कश्‍मीर से धारा 370 के हटाने से कश्‍मीरी पण्डितों को न्‍याय मिल गया है। सच तो यह है कि अनुपम खेर जै

चुनाव बारे

 1.

सर्वाधिक ग़रीब आबादी के लिए ख़ैराती कल्याणकारी नीतियों और हिन्दुत्व का घातक मिश्रण***
2.
ग़ैर-जाटव दलित और ग़ैर-यादव पिछड़ी जातियों के और आंशिक तौर पर जाटव दलित आबादी के वोट का बड़े पैमाने पर भाजपा को जाना कोई जातिगत परिघटना नहीं बल्कि वर्गीय परिघटना है***
3
भाजपा की जीत में बसपा की अहम भूमिका : आज के दौर में अम्बेडकरवादी व्यवहारवाद का तार्किक परिणाम***
4
झूठे प्रचार को अनन्त दुहराव के ज़रिए सच के तौर पर स्थापित करने की भाजपा की रणनीति***
5
उत्तर प्रदेश के कुलकों-धनी किसानों ने जमकर किया भाजपा का समर्थन**

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Will fail Fighting and not surrendering

I will rather die standing up, than live life on my knees:

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