अन्ध विष्वास के सामाजिक आधार
सुधा चौधरी
हंस में प्रकासित
पुणे में अंधविष्वास के खिलाफ बहुस्तरीय संघर्श कर रहे नरेन्द्र दाभोलकर की प्रतिक्रियावादी ताकतों द्वारा हत्या की घटना ने एक बार फिर आधुनिक समाज के वैचारिक एवं सामाजिक जीवन के बुनियादी अन्तर्विरोधों को सामने ला खड़ा किया है। डा. दाभोलकर की हत्या अंधविष्वास से ग्रस्त हमारे समाज की गैर-वैज्ञानिक सोच और उसके मानसिक पिछड़ेपन को दर्षाने भर तक सीमित नहीं है,इस बर्बर कृत्य के सामाजिक संदर्भ व निहितार्थ अंधविष्वास के दार्षनिक आधार ‘धर्म’ और उसकी ‘मानव मुक्ति से संबद्धता’ से लेकर अंधविष्वास की आर्थिक राजनैतिकी तक विस्तृत है।
विज्ञान आधारित विवेकषीलता का उदय मानव के वैचारिक जीवन की अहम घटना थी। अनुभव, बुद्धि, तर्क एवं विवेकप्रधान मानवीय सभ्यता ने एक बेहतर जीवन एवं दुनिया के निर्माण का सपना दिखाया। इस सभ्यता की तर्कपरक विष्वदृश्टि अपने स्वभावबोध में अंधविष्वास और उसकी तात्विक प्रस्थापनाओं पर निर्मम चोट करने वाली थी। उत्साहित मानवता ने यह उम्मीद लगाई कि वैज्ञानिक समझ के माध्यम से वह न केवल अंधविष्वास व तंत्र-मंत्र के कुहासे से बाहर निकल कर बेहतर ढंग से दुनिया को जानने और बनाने की क्षमता हासिल करेगी, बल्कि जीवन के तमाम क्षेत्रों में पसरे पांडित्यवाद, आस्थावाद और रहस्यवाद को भेदने में भी सक्षम होगी। ब्रहमांड और उसमें मनुश्य की नियति से लेकर संस्कृति और इतिहास जैसे मानविकी क्षेत्रों पर भी विज्ञानसम्मत व्याख्या का मार्ग प्रषस्त होगा।
किन्तु गणेष जी को दूध पिलाने , ईसा मषीह की प्रतिमा के पैर से जल निकलने और महिला को डाइन बताने जैसे अंधविष्वासोंके मकड़जाल जिस प्रकार हमारे रोजमर्रा के सामाजिक आचरण व जीवन का हिस्सा बने हुए हैं वे दिखाते हैं कि विज्ञान की खोजों एवं अनुसंधानों का भौतिक जीवन में भरपूर इस्तेमाल करने वाले समाज के वैचारिकवृत में तंत्र मंत्र ,भूत-पिसाच,झााड़ फंूक,धर्म-कर्म,जादू-टोनों जैसी रुढ़िवादी दुनियाका साम्राज्य किस कदर पसरा पड़ा है। अंधविष्वास का मूल कारण धर्म ही हमारे पूरे मनोजगत का निर्माण करता है।
सवाल यह है कि तमाम वैज्ञानिक प्रगति और उससे प्रदत सुविधाओं के उपयोग के बावजूद हमारे समाज एवं जीवन के स्थूल और सूक्षम आयामों में धार्मिक पाखंड की जकड़न और उसकी आक्रामकता इतनी सघन क्यों है? आकंठ भौतिकवादी सुविधाओं के इस्तेमाल में संलग्न समाज अपने अंतकरण में विज्ञान को झांकने की स्वीकृति क्यों नहीं देता? प्राद्योगिकीय उपलब्धियां हमारे जीवन की भौतिक सुख सुविधाओं के उपयोग से इतर हमारी वैज्ञानिक सोच का पोशण क्यों नहीं कर पा रही हैं? अंधविष्वास का विमर्ष वस्तुत धर्म के विमर्ष से नालबद्ध है। इस सत्य से अवगत वेद से लेकर नवजागरण तक के चिंतकों ने अपने बौद्धिक संवादों व सामाजिक संघर्शों में अन्ध विष्वास के सतामीमांसीय आणार धर्म को सैद्धान्तिक विमर्ष से परे क्यों रखा है ? जब भी धर्म पर बहस होती है तो धर्म एवं अध्यात्म में अनतर करने की षाब्दिक परिभाशाएं षुरु कर बहस के मूल मंतव्य को औझल करने की कोषिष क्यों रहती है? अंधविष्वास रोग नहीं उसका लक्ष्ण है। धर्मरुपी रोग को मानव होने की षर्त ओर उसके लक्षण अंधविष्वास को मानव के लिए षर्मनाक दिखाने की कवायद में निहित विरोधाभास के सतासूत्र कहां हैं? क्यों अकादमिक जगत व समाज सुधारकों की दिलचस्पी धर्म को पवित्र व चिंतनेतर मानकर उसे समाज सता निरपेक्ष दिखाने में रहती है ? क्यों पूरा तन्त्र अंधविष्वास को चमतकार कहकर रहस्यवाद को प्रष्नातीत बनाने के साक्ष्य जुटाने में लगा रहता है? सोच व समझ में तर्कषीलता एवं विवेकषीलता के पक्षधर लेखकों का जमावड़ा अपने अपने निजी जीवन में धर्म केन्द्रित विमर्ष पर तर्कषील आत्मसंवाद से परहेज क्यों करता है? हमारे जीवन, सोच एवं सामाजिक व्यवहार के इन विरोधाभाशों के वस्तुनिश्ठ आधार व कारण क्या हैं?
अंधविष्वास सामाजिक जीवन से परे कोई स्वायत परिघटना नहीं हैऔर न ही उनके उन्मूलन के लिए संघर्शरत नरेंन्द्र दाभोलकर की हत्या अचानक घटी कोई जघन्य घटना है। ये स्थितियां हमारे परस्पर विरोधी हित संबन्धों से संरचित दुनिया का स्वरुपगत चरित्र हैं। जहां एक वर्ग के लिए अंधविष्वासों को बनाए रखना अस्तित्वगत आवष्यकता है, वहीं दूसरे वर्ग के लिए नरेन्द्र दाभोलकर के प्रयासों को बढ़ाना जरुरी है। इसलिए इन प्रष्नों पर सही समझ बनाने व ईमानदार कोषिष करने के लिए ‘अंधविष्वास सभ्य समाज का कलंक है’, ‘हमारी सोच तार्किक होनी चाहिये’, ‘हमें वैाानिक सोच को विकसित करना चाहिये’, हमें धार्मिक बाबाओं , ‘तांत्रिकों व पाखण्डों से बचना चाहिये’ जैसी यूटोपियाई नैतिकताओं के प्रचार प्रसार में लगने से पहले उन सामाजिक दषाओं व सतासूत्रों की पड़ताल करने की दरकार है जिनके जरिये अंधविष्वास जैसी गैरवैज्ञानिक स्थितियों को सचेतन ढंग से पोशित -संरक्षित किया जाता है। ऐसा कोई ज्ञान, विचार या विष्वास नहीं जो सता सम्बन्धों की पूर्वपीठिका न रखता हो; इसलिए बढ़ते अंधविष्वासों के बुनियादी कारणों को स्वयं अंधविष्वास में तलाष करने के बजाय सामाजिक ढंाचे में खोजने की दृश्टि होनी चाहिए।
मानव विकास की सबसे प्राथमिक अवस्थाओं में धार्मिक विष्वासों की उत्पति जहां प्रकृति की षक्तियों के साथ संघर्श में मानव की असहाय स्थिति के गर्भ से हुई थी, वहीं सता सम्बन्धों वाले समाजों में उसको बनाए रखना ‘सता’ की विचाराधारात्मक जरुरत है। कायराना परजीवी सतावर्ग को असुरक्षा का भूत सताता है। वर्ग, लिंग, जाति, नस्ल, की भिन्नता आधारित विभाजन एवं खण्डित सामाजिक यथार्थ में व्यक्ति अपने व्यवस्थाजनित दमन, उत्पीड़न, असुरक्षा, अभाव, अज्ञानता एवं भय से उत्पन्न दुखों से छुटकारा पाने के लिए बाबाओं के चक्कर लगाता है, वहीं सामाजिक स्तर पर उन्हें बनाए रखना सता की बौद्धिक आवष्यकता है। ‘सतावर्ग’ को सांस्कृतिक स्तर पर एक ऐसी विचारधारा व चेतना की आवष्यकता रहती है जिससे उसकी सामाजिक श्रेश्ठता ,सर्वोच्चता, प्रभुता व विषेशाधिकारों को ब्रहमांड में स्थाई स्थान दिया जा सके और लोग गुलाम बने होने को अपनी नियति का लेखा जोखा मान लें तथा यह स्थिति स्वाभाविक लगने लग जाए। प्रकृति की ‘जैविकीय भिन्नता’
को ‘सामाजिक विशमता ’ में बदल अदल देने और मनुश्य- मनुश्य के बीच श्रेश्ठता- हीनता, उंच-नीच, स्वामी-दास वाले सामाजिक ढांचे ने एक ऐसी दुनिया का निर्माण किया है जिसमें एक वर्ग की‘मुक्ति’ दूसरे वर्ग की‘ गुलामी’ पर टिकी हुई है। इस स्थििति को बनाए रखने के लिए सतावर्ग को एक वैचारिक प्रभामण्डल और लिहाजा ऐसे परलोकवादी दर्षन की दरकार होती है जो संभ्रम पैदा कर यथास्थितिवाद का पोशण करता हो। सता की इस वैचारिक दरिद्रता की पूर्ति ‘ चेतना’ प्रधान धर्माधारित दर्षन, जिसकी एक अभिव्यक्ति अंणविष्वास है, कर सकता है। मानसिक तौर पर जनता को निहत्था करने वाला धर्म सता ,सुरक्षा व सुख का स्रोत भी है। पुर्नजन्म, भाग्यवाद, कर्मवाद
, मोक्ष जैसी धार्मिक स्वीकारोक्तियों के माध्यम से यह जीवनदृश्टि ही व्यक्ति को अपने दुखों एवं पीड़ाओं से त्राण के लिए तांत्रिकों की षरण में जाने की षिक्षा देती है। ऐसे आत्मवादी भावबोध के चलते लोग अपने तमाम किस्म के उत्पीड़न, षोशण एवं अभिषप्त स्थिति के सवाल व्यवस्था से करने की समझ विकसित नहीं कर पाते हैं। ऐसे अंर्तमुखी भावलोक में ये प्रष्न नेपथ्य में चले जाते हैं। सता के लिए यह आत्मवादी भावबोध संजीवनी का काम करता है, क्योंकि इस तरह के सामाजिक मनोविज्ञान के चलते ही षोशण-उत्पीड़न का दमन चक्र उन्मुक्त भाव से जारी रखा जा सकता है। यही सोच जनता को जीवन में तो संघर्श करने पर बल देती है लेकिन गैर बराबरी एवं असमानता से सामाजिक मुक्ति हेतु अलौकिक षक्ति की कृपा होने का विधान घढ़ती है। धर्म एवं उसका औरस पुत्र अंधविष्वास वैज्ञानिक दर्षन से डरते हैं। अनुभव के आंकड़ों के तर्क संगत विष्लेशण एवं उससे जनित विवेकाधारित विष्वदृश्टिकोण से भी वो भयभीत होते हैं,क्योंकि वो जानते हैं कि विज्ञान जिस द्वन्द्वात्मकएवं ऐतिहासिक विष्व दृश्टिकोण का पोशण करता है उससे उनके लिए अस्तित्वगत चुनौती खड़ी होती है। विज्ञान में लगातार जिस वैचारिक प्रगति का रुझान रहता हैवह प्रकृति , समाज एवं विचार के मूल में काम कर रहे आाधारभूत द्वंद्वात्मक नियमों को उद्घाटित कर जनता की मानसिक मुक्ति का मार्ग प्रषस्त करता है।
जारी....
वैज्ञानिक -भौतिकवादी दर्षन ही अंधविष्वास के छल -कपट को जन्म देने वाले धर्म का यथार्थ में उन्मूलन करने के चेतना सूत्र प्रदान करता है। प्रभु वर्ग को कोपरनिकस,बू्रनो, डार्विन नहीं मनु , जिन, मौलवी चाहियें जिसके लिए अंधविष्वास का मकड़जाल उर्वरा भूमि तैयार करता है। जादू टोने व अन्धविष्वास की दुनिया ही अपने सामाजिक चरित्र में सता के लिए सुरक्षा कवच का काम करती है।
यह अकारण नहीं है कि ब्राहमणवादी सामंती- तंत्र के पक्ष-पोशक
तथाकथित आचार्यों एवं श्रृशि मुनियों ने प्राचीन भारत के आयुर्वेदाचार्यों एवं चार्वाक दार्षनिकों को चाण्डाल, वितण्डतावादी, मलेच्छ कहकर जाति-बहिश्कृत किया और तर्क को गम्भीर अपराध की श्रेणी में उाल दिया। स्मृतिकारों की दृश्टि में चिकित्सकों की उपस्थिति मात्र से ही देवता और पूर्वज अप्रसन्न हो जाते हैं और उनके धार्मिक फल व्यर्थ हो जाते हैं। उधर आयुर्वेदाचार्यों के लिए मनुश्य को रोगों से छुटकारा दिलाने हेतु झाड-पूंक आधारित ़अंधविष्वासों को त्याग कर तर्काधारित दृश्टिकोण अपनाना जितना आवष्यक था उतना ही चातुर्वर्ण आधारित व्यवस्था के लिए उन्हें बनाए रखना भी। ब्राहमण को ब्रहम बना देने वाले वैचारिक हठी अंधविष्वासों से ग्रस्त सामाजिक स्थितियों में ही समाज को यह समझााने का प्रयत्न कर सकते हैं कि दास्ता जनित सामाजिक व्यवस्था जीवन का प्राकृतिक नियम व षाष्वत सत्य है। गीता से लेकर स्मृतियां,धर्मषास्त्र,संहिताएं एवं वेदांत जैसे जन की दासता के दस्तावेज सवणोर्ं्र के इसी बौद्धिक शडयन्त्र के आत्मिक अस्त्र हैं। दाभोलकर की हत्या करने वालों ने अपने इसी वर्गधर्म का निर्वाह किया है। ‘तर्क से घृणा एवं आस्था से प्रेम करना ’ विषेशाधिकार प्राप्त बर्ग की ऐतिहासिक बाध्यता है। आस्था का दरवाजा अंधविष्वास की ओर खुलता है। इसलिए मूल्यों, नैतिकता, सदाचार,संस्कार, संस्कृति के नाम पर गैर वैज्ञानिक विष्वदृश्टि को बनाए रखना ब्राहमणवादी परम्परा की चारित्रिक अभिलक्षणा है। ढ़ोंगियो एवं धार्मिक अपराधियों को सता का संश्रय व उनकी मित्रता का मर्म -उनका यही वर्गीय हित है। यह अनायास नहीं है कि सता के वैचारिक सिपाही अंधविष्वास को बनाए रखने के लिए कभी कुप्रथा कहकर तो कभी उसकी सामाजिक जड़ों से अलगाकर महज तर्क तक सीमाबद्ध कर देने का राग अलापते हैं। एकलव्य का अंगूठा लेने व राम द्वारा षम्बूक वध से लेकर अंधविष्वास के खिलाफ लड़ रहे नरेन्द्र दाभोलकर की हत्या तक के वृतांत इसी परंपरा के उदाहरण हैं।
आधुनिक पूंजीवादी व्यवस्था में अंधविष्वासों के फलने-फूलने के स्रोत उसकी विशम तथा गैर बराबरी पर टिकी दुनिया में हैं। उद्योग, प्रबन्धन,प्रगति,षक्ति,एवं प्रभुत्व के लिए प्राकृतिक विज्ञानों का विकास करना जहां उसकी ऐतिहासिक नियति हैवहीं सामाजिक जीवन में अंधविष्वास आाधारित भ्रामक विचारतंत्र का पोशण करना उसकी अस्तिवगत अनिवार्यता है।
जब तक षोशण-उत्पीड़नकारी सामाजिक ढांचे से मानव मुक्त नहीं होता तब तक कोई भी नैतिक प्रवचन,षैक्षिणिकपुस्तक या प्राद्योगिकी जनता के मस्तिश्क में दाभोलकर के प्रयासों की दिषा का पोशण नहीं करने वाली वैज्ञानिक चेतना को विकसित नहीं कर सकते। वेज्ञानिक चेतना वैाानिक संस्कृति की उत्पाद होती है और वेज्ञानिक संस्कृति का बीजसूत्र समतामूलक जनतांत्रिक सामाजिक व्यवस्था में है। दरअसल अंधविष्वासों को बढ़ावा देने वाले धार्मिक पाखण्डों, धूर्तताओं, आनुश्ठानिक मान्यताओं से संघर्श उस व्यवस्था के खिलाफ सैद्वांतिक संघर्श का हिस्सा है जिसको विवेक विरोधी तोत्रिक तंत्रजाल से वैचारिक सुरक्षा एवं सामाजिक वैधता मिलती है। वस्तुत ‘ दाभोलकर बनाम पगतिक्रियावादी तत्व’ और ‘तर्क बनाम अंधविष्वास’ का संघर्श अपने मूल स्वरुप में ‘ सता बनाम जनता’ के संघर्श का प्रतिबिम्ब है। इसलिए पूरा तंत्र अगर सामंती मूल्यों का पोशक है तो इस बात की पूरी संभावना है कि तांत्रिकों और ओझाओं द्वारा भूत उतारने, हवा बांधने,प्रेत बाधा से मुक्ति दिलाने, रोजगार दिलाने, बीमारी भगाने जैसे अंधविष्वासों में मानव अपनी मुक्ति की राहें खोजे और वो उसे सही लगते रहें। आज की हमारी इस वैचारिक विडम्बना के सूत्र इन्ही अभिषप्त दषाओं में हैं। मन्नतों की हमारी इस दुनिया की भौतिकता को देखने और समझने की दरकार है। इसके इतर किसी भी तरह की तार्किक सोच , बौद्विक प्रयास, वैज्ञानिक निश्ठा, विवेकपूर्ण व्यवहार इत्यादि सब कुछ सिरे से अनुपयोगी होगा और अपने तमाम प्रगतिषील वैज्ञानिक आवरण के भीतर ये कोषिषें मूलत दाभोलकर की हत्या करने की स्थितियों का ही पोशण करेंगी।
संपर्क- अध्यक्ष, दर्षन षास्त्र विभाग , मोहनलाल सुखाड़िया विष्वविद्यालय, उदयपुर।
सुधा चौधरी
हंस में प्रकासित
पुणे में अंधविष्वास के खिलाफ बहुस्तरीय संघर्श कर रहे नरेन्द्र दाभोलकर की प्रतिक्रियावादी ताकतों द्वारा हत्या की घटना ने एक बार फिर आधुनिक समाज के वैचारिक एवं सामाजिक जीवन के बुनियादी अन्तर्विरोधों को सामने ला खड़ा किया है। डा. दाभोलकर की हत्या अंधविष्वास से ग्रस्त हमारे समाज की गैर-वैज्ञानिक सोच और उसके मानसिक पिछड़ेपन को दर्षाने भर तक सीमित नहीं है,इस बर्बर कृत्य के सामाजिक संदर्भ व निहितार्थ अंधविष्वास के दार्षनिक आधार ‘धर्म’ और उसकी ‘मानव मुक्ति से संबद्धता’ से लेकर अंधविष्वास की आर्थिक राजनैतिकी तक विस्तृत है।
विज्ञान आधारित विवेकषीलता का उदय मानव के वैचारिक जीवन की अहम घटना थी। अनुभव, बुद्धि, तर्क एवं विवेकप्रधान मानवीय सभ्यता ने एक बेहतर जीवन एवं दुनिया के निर्माण का सपना दिखाया। इस सभ्यता की तर्कपरक विष्वदृश्टि अपने स्वभावबोध में अंधविष्वास और उसकी तात्विक प्रस्थापनाओं पर निर्मम चोट करने वाली थी। उत्साहित मानवता ने यह उम्मीद लगाई कि वैज्ञानिक समझ के माध्यम से वह न केवल अंधविष्वास व तंत्र-मंत्र के कुहासे से बाहर निकल कर बेहतर ढंग से दुनिया को जानने और बनाने की क्षमता हासिल करेगी, बल्कि जीवन के तमाम क्षेत्रों में पसरे पांडित्यवाद, आस्थावाद और रहस्यवाद को भेदने में भी सक्षम होगी। ब्रहमांड और उसमें मनुश्य की नियति से लेकर संस्कृति और इतिहास जैसे मानविकी क्षेत्रों पर भी विज्ञानसम्मत व्याख्या का मार्ग प्रषस्त होगा।
किन्तु गणेष जी को दूध पिलाने , ईसा मषीह की प्रतिमा के पैर से जल निकलने और महिला को डाइन बताने जैसे अंधविष्वासोंके मकड़जाल जिस प्रकार हमारे रोजमर्रा के सामाजिक आचरण व जीवन का हिस्सा बने हुए हैं वे दिखाते हैं कि विज्ञान की खोजों एवं अनुसंधानों का भौतिक जीवन में भरपूर इस्तेमाल करने वाले समाज के वैचारिकवृत में तंत्र मंत्र ,भूत-पिसाच,झााड़ फंूक,धर्म-कर्म,जादू-टोनों जैसी रुढ़िवादी दुनियाका साम्राज्य किस कदर पसरा पड़ा है। अंधविष्वास का मूल कारण धर्म ही हमारे पूरे मनोजगत का निर्माण करता है।
सवाल यह है कि तमाम वैज्ञानिक प्रगति और उससे प्रदत सुविधाओं के उपयोग के बावजूद हमारे समाज एवं जीवन के स्थूल और सूक्षम आयामों में धार्मिक पाखंड की जकड़न और उसकी आक्रामकता इतनी सघन क्यों है? आकंठ भौतिकवादी सुविधाओं के इस्तेमाल में संलग्न समाज अपने अंतकरण में विज्ञान को झांकने की स्वीकृति क्यों नहीं देता? प्राद्योगिकीय उपलब्धियां हमारे जीवन की भौतिक सुख सुविधाओं के उपयोग से इतर हमारी वैज्ञानिक सोच का पोशण क्यों नहीं कर पा रही हैं? अंधविष्वास का विमर्ष वस्तुत धर्म के विमर्ष से नालबद्ध है। इस सत्य से अवगत वेद से लेकर नवजागरण तक के चिंतकों ने अपने बौद्धिक संवादों व सामाजिक संघर्शों में अन्ध विष्वास के सतामीमांसीय आणार धर्म को सैद्धान्तिक विमर्ष से परे क्यों रखा है ? जब भी धर्म पर बहस होती है तो धर्म एवं अध्यात्म में अनतर करने की षाब्दिक परिभाशाएं षुरु कर बहस के मूल मंतव्य को औझल करने की कोषिष क्यों रहती है? अंधविष्वास रोग नहीं उसका लक्ष्ण है। धर्मरुपी रोग को मानव होने की षर्त ओर उसके लक्षण अंधविष्वास को मानव के लिए षर्मनाक दिखाने की कवायद में निहित विरोधाभास के सतासूत्र कहां हैं? क्यों अकादमिक जगत व समाज सुधारकों की दिलचस्पी धर्म को पवित्र व चिंतनेतर मानकर उसे समाज सता निरपेक्ष दिखाने में रहती है ? क्यों पूरा तन्त्र अंधविष्वास को चमतकार कहकर रहस्यवाद को प्रष्नातीत बनाने के साक्ष्य जुटाने में लगा रहता है? सोच व समझ में तर्कषीलता एवं विवेकषीलता के पक्षधर लेखकों का जमावड़ा अपने अपने निजी जीवन में धर्म केन्द्रित विमर्ष पर तर्कषील आत्मसंवाद से परहेज क्यों करता है? हमारे जीवन, सोच एवं सामाजिक व्यवहार के इन विरोधाभाशों के वस्तुनिश्ठ आधार व कारण क्या हैं?
अंधविष्वास सामाजिक जीवन से परे कोई स्वायत परिघटना नहीं हैऔर न ही उनके उन्मूलन के लिए संघर्शरत नरेंन्द्र दाभोलकर की हत्या अचानक घटी कोई जघन्य घटना है। ये स्थितियां हमारे परस्पर विरोधी हित संबन्धों से संरचित दुनिया का स्वरुपगत चरित्र हैं। जहां एक वर्ग के लिए अंधविष्वासों को बनाए रखना अस्तित्वगत आवष्यकता है, वहीं दूसरे वर्ग के लिए नरेन्द्र दाभोलकर के प्रयासों को बढ़ाना जरुरी है। इसलिए इन प्रष्नों पर सही समझ बनाने व ईमानदार कोषिष करने के लिए ‘अंधविष्वास सभ्य समाज का कलंक है’, ‘हमारी सोच तार्किक होनी चाहिये’, ‘हमें वैाानिक सोच को विकसित करना चाहिये’, हमें धार्मिक बाबाओं , ‘तांत्रिकों व पाखण्डों से बचना चाहिये’ जैसी यूटोपियाई नैतिकताओं के प्रचार प्रसार में लगने से पहले उन सामाजिक दषाओं व सतासूत्रों की पड़ताल करने की दरकार है जिनके जरिये अंधविष्वास जैसी गैरवैज्ञानिक स्थितियों को सचेतन ढंग से पोशित -संरक्षित किया जाता है। ऐसा कोई ज्ञान, विचार या विष्वास नहीं जो सता सम्बन्धों की पूर्वपीठिका न रखता हो; इसलिए बढ़ते अंधविष्वासों के बुनियादी कारणों को स्वयं अंधविष्वास में तलाष करने के बजाय सामाजिक ढंाचे में खोजने की दृश्टि होनी चाहिए।
मानव विकास की सबसे प्राथमिक अवस्थाओं में धार्मिक विष्वासों की उत्पति जहां प्रकृति की षक्तियों के साथ संघर्श में मानव की असहाय स्थिति के गर्भ से हुई थी, वहीं सता सम्बन्धों वाले समाजों में उसको बनाए रखना ‘सता’ की विचाराधारात्मक जरुरत है। कायराना परजीवी सतावर्ग को असुरक्षा का भूत सताता है। वर्ग, लिंग, जाति, नस्ल, की भिन्नता आधारित विभाजन एवं खण्डित सामाजिक यथार्थ में व्यक्ति अपने व्यवस्थाजनित दमन, उत्पीड़न, असुरक्षा, अभाव, अज्ञानता एवं भय से उत्पन्न दुखों से छुटकारा पाने के लिए बाबाओं के चक्कर लगाता है, वहीं सामाजिक स्तर पर उन्हें बनाए रखना सता की बौद्धिक आवष्यकता है। ‘सतावर्ग’ को सांस्कृतिक स्तर पर एक ऐसी विचारधारा व चेतना की आवष्यकता रहती है जिससे उसकी सामाजिक श्रेश्ठता ,सर्वोच्चता, प्रभुता व विषेशाधिकारों को ब्रहमांड में स्थाई स्थान दिया जा सके और लोग गुलाम बने होने को अपनी नियति का लेखा जोखा मान लें तथा यह स्थिति स्वाभाविक लगने लग जाए। प्रकृति की ‘जैविकीय भिन्नता’
को ‘सामाजिक विशमता ’ में बदल अदल देने और मनुश्य- मनुश्य के बीच श्रेश्ठता- हीनता, उंच-नीच, स्वामी-दास वाले सामाजिक ढांचे ने एक ऐसी दुनिया का निर्माण किया है जिसमें एक वर्ग की‘मुक्ति’ दूसरे वर्ग की‘ गुलामी’ पर टिकी हुई है। इस स्थििति को बनाए रखने के लिए सतावर्ग को एक वैचारिक प्रभामण्डल और लिहाजा ऐसे परलोकवादी दर्षन की दरकार होती है जो संभ्रम पैदा कर यथास्थितिवाद का पोशण करता हो। सता की इस वैचारिक दरिद्रता की पूर्ति ‘ चेतना’ प्रधान धर्माधारित दर्षन, जिसकी एक अभिव्यक्ति अंणविष्वास है, कर सकता है। मानसिक तौर पर जनता को निहत्था करने वाला धर्म सता ,सुरक्षा व सुख का स्रोत भी है। पुर्नजन्म, भाग्यवाद, कर्मवाद
, मोक्ष जैसी धार्मिक स्वीकारोक्तियों के माध्यम से यह जीवनदृश्टि ही व्यक्ति को अपने दुखों एवं पीड़ाओं से त्राण के लिए तांत्रिकों की षरण में जाने की षिक्षा देती है। ऐसे आत्मवादी भावबोध के चलते लोग अपने तमाम किस्म के उत्पीड़न, षोशण एवं अभिषप्त स्थिति के सवाल व्यवस्था से करने की समझ विकसित नहीं कर पाते हैं। ऐसे अंर्तमुखी भावलोक में ये प्रष्न नेपथ्य में चले जाते हैं। सता के लिए यह आत्मवादी भावबोध संजीवनी का काम करता है, क्योंकि इस तरह के सामाजिक मनोविज्ञान के चलते ही षोशण-उत्पीड़न का दमन चक्र उन्मुक्त भाव से जारी रखा जा सकता है। यही सोच जनता को जीवन में तो संघर्श करने पर बल देती है लेकिन गैर बराबरी एवं असमानता से सामाजिक मुक्ति हेतु अलौकिक षक्ति की कृपा होने का विधान घढ़ती है। धर्म एवं उसका औरस पुत्र अंधविष्वास वैज्ञानिक दर्षन से डरते हैं। अनुभव के आंकड़ों के तर्क संगत विष्लेशण एवं उससे जनित विवेकाधारित विष्वदृश्टिकोण से भी वो भयभीत होते हैं,क्योंकि वो जानते हैं कि विज्ञान जिस द्वन्द्वात्मकएवं ऐतिहासिक विष्व दृश्टिकोण का पोशण करता है उससे उनके लिए अस्तित्वगत चुनौती खड़ी होती है। विज्ञान में लगातार जिस वैचारिक प्रगति का रुझान रहता हैवह प्रकृति , समाज एवं विचार के मूल में काम कर रहे आाधारभूत द्वंद्वात्मक नियमों को उद्घाटित कर जनता की मानसिक मुक्ति का मार्ग प्रषस्त करता है।
जारी....
वैज्ञानिक -भौतिकवादी दर्षन ही अंधविष्वास के छल -कपट को जन्म देने वाले धर्म का यथार्थ में उन्मूलन करने के चेतना सूत्र प्रदान करता है। प्रभु वर्ग को कोपरनिकस,बू्रनो, डार्विन नहीं मनु , जिन, मौलवी चाहियें जिसके लिए अंधविष्वास का मकड़जाल उर्वरा भूमि तैयार करता है। जादू टोने व अन्धविष्वास की दुनिया ही अपने सामाजिक चरित्र में सता के लिए सुरक्षा कवच का काम करती है।
यह अकारण नहीं है कि ब्राहमणवादी सामंती- तंत्र के पक्ष-पोशक
तथाकथित आचार्यों एवं श्रृशि मुनियों ने प्राचीन भारत के आयुर्वेदाचार्यों एवं चार्वाक दार्षनिकों को चाण्डाल, वितण्डतावादी, मलेच्छ कहकर जाति-बहिश्कृत किया और तर्क को गम्भीर अपराध की श्रेणी में उाल दिया। स्मृतिकारों की दृश्टि में चिकित्सकों की उपस्थिति मात्र से ही देवता और पूर्वज अप्रसन्न हो जाते हैं और उनके धार्मिक फल व्यर्थ हो जाते हैं। उधर आयुर्वेदाचार्यों के लिए मनुश्य को रोगों से छुटकारा दिलाने हेतु झाड-पूंक आधारित ़अंधविष्वासों को त्याग कर तर्काधारित दृश्टिकोण अपनाना जितना आवष्यक था उतना ही चातुर्वर्ण आधारित व्यवस्था के लिए उन्हें बनाए रखना भी। ब्राहमण को ब्रहम बना देने वाले वैचारिक हठी अंधविष्वासों से ग्रस्त सामाजिक स्थितियों में ही समाज को यह समझााने का प्रयत्न कर सकते हैं कि दास्ता जनित सामाजिक व्यवस्था जीवन का प्राकृतिक नियम व षाष्वत सत्य है। गीता से लेकर स्मृतियां,धर्मषास्त्र,संहिताएं एवं वेदांत जैसे जन की दासता के दस्तावेज सवणोर्ं्र के इसी बौद्धिक शडयन्त्र के आत्मिक अस्त्र हैं। दाभोलकर की हत्या करने वालों ने अपने इसी वर्गधर्म का निर्वाह किया है। ‘तर्क से घृणा एवं आस्था से प्रेम करना ’ विषेशाधिकार प्राप्त बर्ग की ऐतिहासिक बाध्यता है। आस्था का दरवाजा अंधविष्वास की ओर खुलता है। इसलिए मूल्यों, नैतिकता, सदाचार,संस्कार, संस्कृति के नाम पर गैर वैज्ञानिक विष्वदृश्टि को बनाए रखना ब्राहमणवादी परम्परा की चारित्रिक अभिलक्षणा है। ढ़ोंगियो एवं धार्मिक अपराधियों को सता का संश्रय व उनकी मित्रता का मर्म -उनका यही वर्गीय हित है। यह अनायास नहीं है कि सता के वैचारिक सिपाही अंधविष्वास को बनाए रखने के लिए कभी कुप्रथा कहकर तो कभी उसकी सामाजिक जड़ों से अलगाकर महज तर्क तक सीमाबद्ध कर देने का राग अलापते हैं। एकलव्य का अंगूठा लेने व राम द्वारा षम्बूक वध से लेकर अंधविष्वास के खिलाफ लड़ रहे नरेन्द्र दाभोलकर की हत्या तक के वृतांत इसी परंपरा के उदाहरण हैं।
आधुनिक पूंजीवादी व्यवस्था में अंधविष्वासों के फलने-फूलने के स्रोत उसकी विशम तथा गैर बराबरी पर टिकी दुनिया में हैं। उद्योग, प्रबन्धन,प्रगति,षक्ति,एवं प्रभुत्व के लिए प्राकृतिक विज्ञानों का विकास करना जहां उसकी ऐतिहासिक नियति हैवहीं सामाजिक जीवन में अंधविष्वास आाधारित भ्रामक विचारतंत्र का पोशण करना उसकी अस्तिवगत अनिवार्यता है।
जब तक षोशण-उत्पीड़नकारी सामाजिक ढांचे से मानव मुक्त नहीं होता तब तक कोई भी नैतिक प्रवचन,षैक्षिणिकपुस्तक या प्राद्योगिकी जनता के मस्तिश्क में दाभोलकर के प्रयासों की दिषा का पोशण नहीं करने वाली वैज्ञानिक चेतना को विकसित नहीं कर सकते। वेज्ञानिक चेतना वैाानिक संस्कृति की उत्पाद होती है और वेज्ञानिक संस्कृति का बीजसूत्र समतामूलक जनतांत्रिक सामाजिक व्यवस्था में है। दरअसल अंधविष्वासों को बढ़ावा देने वाले धार्मिक पाखण्डों, धूर्तताओं, आनुश्ठानिक मान्यताओं से संघर्श उस व्यवस्था के खिलाफ सैद्वांतिक संघर्श का हिस्सा है जिसको विवेक विरोधी तोत्रिक तंत्रजाल से वैचारिक सुरक्षा एवं सामाजिक वैधता मिलती है। वस्तुत ‘ दाभोलकर बनाम पगतिक्रियावादी तत्व’ और ‘तर्क बनाम अंधविष्वास’ का संघर्श अपने मूल स्वरुप में ‘ सता बनाम जनता’ के संघर्श का प्रतिबिम्ब है। इसलिए पूरा तंत्र अगर सामंती मूल्यों का पोशक है तो इस बात की पूरी संभावना है कि तांत्रिकों और ओझाओं द्वारा भूत उतारने, हवा बांधने,प्रेत बाधा से मुक्ति दिलाने, रोजगार दिलाने, बीमारी भगाने जैसे अंधविष्वासों में मानव अपनी मुक्ति की राहें खोजे और वो उसे सही लगते रहें। आज की हमारी इस वैचारिक विडम्बना के सूत्र इन्ही अभिषप्त दषाओं में हैं। मन्नतों की हमारी इस दुनिया की भौतिकता को देखने और समझने की दरकार है। इसके इतर किसी भी तरह की तार्किक सोच , बौद्विक प्रयास, वैज्ञानिक निश्ठा, विवेकपूर्ण व्यवहार इत्यादि सब कुछ सिरे से अनुपयोगी होगा और अपने तमाम प्रगतिषील वैज्ञानिक आवरण के भीतर ये कोषिषें मूलत दाभोलकर की हत्या करने की स्थितियों का ही पोशण करेंगी।
संपर्क- अध्यक्ष, दर्षन षास्त्र विभाग , मोहनलाल सुखाड़िया विष्वविद्यालय, उदयपुर।
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