Tuesday, October 11, 2022

पुरानी यादें

 रिटायरमेंट

2014 अगस्त में रिटायरमेंट के टाइम पूरी यूनिट के डॉक्टर एक साथ अपनी पुरानी यादें, पुराने दुख सुख के दिन जो यूनिट में गुजरे थे उन्हें अपने अपने ढंग से याद कर रहे थे। एक सीनियर एस आर ने बताया कि एक बार एक unkown मरीज एक्सीडेंट के साथ आया । उसके पेट में चोट थी। उसको ऑपरेट करने की जरूरत थी मगर उसके ग्रुप का खून ब्लड बैंक में नहीं था । बताया कि सर आपका o पॉजिटिव ब्लड है जो पॉजिटिव दूसरे सभी ग्रुप्स को दिया जा सकता है। आप ब्लड बैंक गए वहां एक यूनिट ब्लड unkown मरीज के लिए दिया और वापिस आकर उसका आपरेशन किया। मरीज बचा लिया गया।
मैने बहुत कोशिश की पुरानी याद को याद करने की । मगर जब डेट आदि बताई तो मुझे भी यकीन हुआ कि ऐसा कुछ हुआ था।
और भी कई ना भुलाई जाने वाली पुरानी यादें साझा की गई। अब थोड़ा उम्र का असर होने लगा है तो सोचा सांझा कर लूँ सभी के साथ। मौके पर लिया गया फैंसला यदि एक ज्यान को भी बचा पाता है एक डॉक्टर के जीवन में तो एक एहसास और विश्वास बढ़ता है डॉक्टर का।
मेरे साथ के हमसफ़र सभी डॉक्टरों को याद करते हुए | मुझे गर्व है अपनी यूनिट के उन सभी डॉक्टरों पर जो मरीजों की सेवा में लग्न हैं।
डॉ रणबीर

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पुरानी यादें --मेरे बॉस डॉ सेखों
1976 -1977 का दौर
मेरी पोस्टिंग spm deptt की तरफ से सिविल अस्पताल बेरी में कर दी गई। सिविल अस्पताल के अलावा लेडीज का विंग भी था बाजार के अंदर जा कर । उसमें एक बुजुर्ग महिला फार्मासिस्ट की पोस्टिंग थी। designation दूसरा भी हो सकता है । वहां से सन्देश आया शाम के वक्त कि एक मुश्किल डिलीवरी है और डॉक्टर साहब को बुलाया है। मैं सोचता जा रहा था कि डेढ़ महीने की  maternity ड्यूटी में 5 या 6 डिलीवरी देखी थी। सोचते सोचते पहुंच कर देखा कि breech डिलीवरी थी। monaster था। चार टांगे , चार बाजू , धड़ एक और दो सिर वाला। चारों टांगे और दो बाजू डिलीवर हो चुकी थी। देख कर पसीने छूट गए। एक मिनट सोचा कि मेडिकल भेज दिया जाए। फिर सोचा इस हालत में कैसे भेजेंगे? अगले ही पल सोचा कोशिश करते हैं । मन ही मन Dr GS Sekhon मेरे बॉस याद आ गए। वे कहते थे कि कितना भी मुश्किल मामला हो अपनी कॉमन सैंस को मत भूलो और पक्के निश्चय के साथ शांत भाव से जुट जाओ । जुट गया । जल्दी लोकल लगाकर  episiotomy incision दिया और निरीक्षण किया। महिला का हौंसला बढ़ाया। बाकी के दो बाजू डिलीवर करने में 15 मिन्ट लगे । पसीने छूट रहे थे । खैर फिर मुश्किल से एक सिर और डिलीवर करवाया। फिर भी कुछ बाकी था । देखा अच्छी तरह तो एक सिर अभी बाकी था और पहले वाले सिर से कुछ बड़ा था । कोशिश की । episiotomy incision को extend किया । 15 से 20 मिन्ट की मश्शक्त के बाद दूसरा सिर भी डिलीवर हो गया । monaster था डेथ हो चुकी थी। मगर हम महिला को बचा पाए। पता लगता गया कि दो सिर चार बाजू चार टांगो वाला बच्चा पैदा हुआ है । कौतूहल वश बहुत लोग इकट्ठे हो गए थे। 6 महीने के बाद वापिस spm deptt में आ गया । 2-3 साल के बाद एक हैंड प्रोलैप्स का केस रेफ़ेर हुआ मेडिकल के लिए । रहडू पर लिटा कर बाजार के बीच से ले जा रहे थे तो किसी ने पूछा के बात कहां ले जा रहे हो। बताया कि एक हाथ बाहर आ गया । मेडिकल ले जा रहे हैं । तो अनजाने में उस बुजुर्ग ने कहा - एक बख्त वो था जिब चार चार हाथां आले की डिलीवरी करवा दी थी, आज एक हाथ काबू कोनी आया। किसी ने बताया था जब वह मरीज मेरे पास 6 वार्ड में दाखिल था । मेरे को मेरे बॉस Dr सेखों एक बार फिर याद आये। बहुत अलग किस्म की इंसानियत के धनी थे Dr सेखों।
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भुली बिसरी यादें 1956
सन 1956 की बात है की मेरे पिताजी चौधरी जागे राम सिरसा से बतोर इंस्पेक्टर एग्रीकल्चर की पोस्ट से  बतौर फार्म मैनेजर सरकारी एग्रीकल्चर फार्म रोहतक में तबादला हो कर आए। यह फार्म 100 एकड़ जमीन में बना सरकारी एग्रीकल्चर फार्म था , जिसमें हर तरह की खेती की जाती थी । चार जोड़ी हट्टे कट्टे बैल थे जो खेती करने में  बहुत कारगर रूप से इस्तेमाल किए जाते थे ।  पिताजी 1966 तक यहां पर रहे और यहीं से रिटायर हो गए।  आने वाले दिनों में यह फार्म नहीं रहा और जमीन कुछ बेच दी गई कुछ पर सरकारी दफ्तर खुलते गए और सरकारी अफसरों के रहने के लिये कोठियां और मकान बनते गए। सिरफ़ एग्रीकल्चर फार्म का मेन गेट बचा है जो कमिश्नर के  रेजिडेंस और दफ्तर दोनों यहां हैं, तक जाता है बाकि एग्रो मॉल इसकी जमीन में बना और कई कॉलोनी भी बन गई । बहुत से मकान हैं । दो पीपल के पेड़ आज भी पहचाने जा सकते हैं जो हमारे घर के सामने मौजूद थे। भूली बिसरी यादें हैं पूरे फॉर्म में घूमते थे। पिताजी बहुत सख्त मिजाज थे और फार्म के खेत से चूसने के लिए गन्ने भी नहीं लाने देते थे। बोहर वालों के खेतों से लेकर आते थे।  और चीजों का तो मतलब ही नहीं । यहीं से मैं बिल्कुल साथ लगता जाट स्कूल है वहां पर पढ़ने जाने लगा । पहले प्राइमरी स्कूल में पढ़ा  और फिर हाई स्कूल में छठी क्लास से हायर सेकेंडरी किया । बहुत सी यादें हैं उस दौर की जिन्हें याद करना इतना आसान नहीं है आज एक बार  कोशिश है उन पुरानी यादों को याद करने की।
प्राइमरी स्कूल में पहले एक ही टीचर थे मास्टर फतेह सिंह दलाल। तीसरी में हुए तो सूरजमुखी बहिनजी ने भी ज्वाइन कर लिया। पांचवी तक पहुंचे तो मास्टर दलजीत सिंह राठी जी भी क्लास लेने लगे।
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समस्त कर्मचारी व छात्र पीजीआईएमएस रोहतक द्वारा बाबा साहेब भीम राव अम्बेडकर के 131वें जन्म दिवस पर आयोजित कार्यक्रम ।
पीजीआईएमएस,रोहतक लेक्चर थिएटर -1 में।
इस 1 थियेटर में कभी 1967से 1971के  दौर में अपने गुरुओं से पढ़ा और बहुत कुछ सीखा और फिर 1983 से 2014 तक पढ़ाया भी। बहुत सी पुरानी यादें ताजा हो गयी। (42 साल का सफर) 14 अप्रैल, 2022।
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पुरानी यादें
24 -25 साल पहले की बात है । नार्थ जोन सर्जन कांफ्रेंस जम्मू में आयोजित की गई थी । रोहतक से 25-30 डॉक्टर थे । एक दिन सभी का मन वैष्णो देवी मंदिर की यात्रा का बना। मैने मना किया तो सभी ने अनुरोध किया कि चलें । हम चल दिये ।
       अर्ध कन्वारी से कुछ पहले 4-5 महिलाएं और 5-6 पुरुष परेशान से दिखाई दे रहे थे। हमारे में से किसी ने पूछा-क्या बात है क्या हुआ।
बताया- उनके एक बुजुर्ग पेशाब करने बैठे थे और वे नीचे खाई में लुढ़क गए हैं । उन्हें देखने गए हैं।
       हमने भी बुजुर्ग को ढूंढने की इच्छा बनाई और 5-6 डॉक्टर हम नीचे उतरते चले गए । 150 गज के करीब नीचे उतरने के बाद हमने आवाज लगाई कि क्या बुजुर्ग मिल गए। और नीचे से आवाज आई- हाँ मिल गए। हमने पूछा- कैसी तबियत है? जवाब आया- ठीक हैं। उप्पर रास्ते में खड़े लोगों ने सुना तो कुछ जय माता की बोलते चले गए।
         हमने फिर पूछा कि हम डॉक्टर हैं कोई चोट है तो हम आ जाते हैं मदद करने । बताओ कहाँ पर हो।
फिर आवाज आई थोड़ी धीमी - वो तो चल बसे । इतनी देर में हम भी वहां पहुंच गए थे। पूछा- पहले ठीक क्यों कहा ? जवाब था कि ऊपर वाले रिश्तेदारों में से किसी को सदमा न लग जाये इसलिए ।
        कुछ लोगों को तो लगा कि माता ने उस बुजुर्ग को बचा लिया। मगर सच्चाई यही थी कि माता उस बुजुर्ग को नहीं बचा पाई।
      मैने सभी डॉक्टर सहयोगियों से पूछा -- यदि बुजुर्ग जिंदा होते और चोटिल होते तो हम क्या फर्स्ट एड कर सकते थे । सब ने अपने अपने ढंग से बात रखी। मैने फिर कहा- बिना इमरजेंसी किट के शायद हम ज्यादा फर्स्ट एड करने की हालत में नहीं होते।
         हम सबने तय किया कि जब इस तरह के ग्रुप में कहीं जाएंगे तो इमरजेंसी किट जरूर साथ लेकर चलेंगे ।
बाकियों का तो पता नहीं मैने एक किट जरूर बना ली ।
तीन साल बाद वही कांफ्रेंस पी जी आई चंडीगढ़ में थी। कालेज की बस में गए थे हम सब । वापसी पर अम्बाला पहुंचने से पहले हमारे सामने ट्रैक्टर सड़क के किनारे पलट गया। हमने गाड़ी रुकवाई ।
    ड्राइवर ट्रैक्टर के पहिये के नीचे दबा था । हमने सबने मिलकर उसको निकाला और देखा तो वह शॉक में था । मैं ने इमरजेंसी किट से उसे मेफेंटीन इंजेक्शन दिया और एक वोवरान का inj दिया । कुछ संम्भल गया मरीज । हमने उसे अपनी गाड़ी में लिटाया और उसे अम्बाला सिविल अस्पताल में दाखिल करवाया । इलाज शुरू हुआ तो मरीज और इम्प्रूव हुआ ।
   3 साल तक लगता था यह किट खामखा उठाये फिरता हूँ मगर उस रोज लगा कि खामखा नहीं उठाई किट ।
शायद जो डॉक्टर साथी इन दोनों मौकों पर थे उनको याद हों ये दोनों घटनाएं ।
रणबीर दहिया
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वार्ड  6-- भूली बिसरी यादें
एक बार की बात की झरौट के बुजुर्ग अपनी घरवाली को लेकर आये । उसकी एक टांग में गैंग्रीन हो गई बायीं या दायीं याद नहीं। हमने सभी concerned विभागों की राय ली और यह तय हुआ कि amputation करनी होगी । ताऊ को समझाया। कटने की बात सुनकर दोनों घबरा गए । ताऊ मेरे कमरे में आया और हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया। मैने बिठाया और उसकी और देखा। " काटनी ए पड़ैगी डॉ साहब। और कोए राह कोण्या इसकी ज्यान नै खतरा करदेगी या गैंग्रीन -- मैंने जवाब दिया बहुत धीमे से। ताऊ बोल्या-- न्यों कहवै सैं अक गुड़गांव मैं शीतला माता की धोक मारकै ठीक होज्यां हैं। मैंने कहा-- मेरी जानकारी में नहीं। ताऊ-- एक बार जाना चाहवैं सैं। फेर आपके डॉ न्यों बोले-- LAMA होज्या । छुट्टी कोण्या देवें । और फिर हमारे वार्ड में दाखिला नहीं हो सकता। चाहूँ सू आप के वार्ड मैं इलाज करवाना। मैने कहा एक शर्त है-- जै इसकी टांग धोक मारकै ठीक होज्या तो भी लियाईये और नहीं ठीक हो तो भी। ठीक होगी तो मैं बाकी के इसे मरीज भी वहीं गुड़गांव भेज दिया करूंगा और ठीक न हो तो आप ये सारी बात एक पर्चे में लिखकर बांटना कि वहां मेरी घरवाली ठीक नहीं हुई। हम ने discharge on request कर दिया । दो दिन बाद वापिस आ गया । महिला की हालत ज्यादा खराब हुई थी। खैर amputation ortho विभाग  के सहयोग से की और महिला ठीक होकर चली गयी । बुजुर्ग जाने से पहले आया कमरे में और कहने लगा-- पर्चा छापना चाहूँ सूँ फेर गांव वाले कह रहे हैं शीतला माता
के खिलाफ पर्चा। बहोत दबाव सै मेरे पै डॉ साहब । पैरों की तरफ हाथ किये । मैने बुजुर्ग को छाती से लगा लिया और आशीर्वाद देने को कहा।

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भूली बिसरी यादें
1978 में pgims Rohtak mein 98 days ki hadtaal hui ..उन दिनों चौधरी हरद्वारी लाल वाईस चांसलर थे। मेरे जीवन में बड़ा टर्निंग पॉइंट साबित हुई यह हड़ताल
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1978 में Haryana State Rural Medical Teachers Association बनी थी 98 दिन की डॉक्टर्स की हड़ताल के दौरान Haryana State Medical Teachers Association के सामने । इसका क्या हुआ आज है या नहीं कोई बता सके तो !!!
इसको revive न किया जाए । हालात बनाये जा रहे हैं । decisions मेरिट बेस्ड ही इस संकट को गहराने से रोक सकते हैं । मेरा अंदाज गलत हो सकता है मगर human एप्रोच वाले प्रशासको और डॉक्टरों को गंभीरता से विचार करना चाहिए वरना वक्त 1978 को दोहराने से नहीं चूकेगा भले ही किसी और भेष में ।
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Sunday, October 9, 2022

NEP 2020

 नई शिक्षा नीति 2020

समकालीन भारत में केंद्र सरकार उन सभी प्रकार की नीतियों को बुलडोजर कर रहा है जो विविधताओं, संघवाद के बारे हैं। नवउदार कॉर्पोरेट निकायों के नुस्खे का पालन करने के लिए वह जनता की अज्ञानता का, बड़े बहुमत  का , रीति-रिवाजों और विश्वास प्रणालियों का चतुराई से उपयोग कर रहा है। नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 पैकेज की ऐसी ही एक नीति है। इसकी कार्यान्वयन रणनीति भी चतुराई से तैयार की गई है क्योंकि  यह राज्य से दूसरे राज्य में भिन्न होती है। जब तक बड़े पैमाने पर प्रतिरोध का निर्माण नहीं किया जाता, तब तक एनईपी 2020 सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली का टर्मिनेटर बन जाएगा।
          आंध्र प्रदेश ने पहले ही एनईपी 2020 में सुझाए गए संरचनात्मक परिवर्तनों को लागू करना शुरू कर दिया है। कई राज्य सरकारों ने स्कूलों को विलय या बंद करके स्कूली शिक्षा सुविधाओं को कम करना शुरू कर दिया, जो अंततः बच्चों के पड़ोस के स्कूलों से सीखने के अधिकार को प्रभावित करता है। कई राज्यों ने पहले ही पाठ्य पुस्तकों से छेड़छाड़ करके सांप्रदायिक तत्वों को बढ़ावा देने की बात कही है और इस प्रकार सामग्री भार को कम करने के नाम पर सभी प्रगतिशील, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक सामग्री को समाप्त कर दिया है।
         कर्नाटक प्रतिरोध आंदोलनों ने साबित कर दिया कि हम राज्य को अपनी जनविरोधी स्थिति को वापस लेने के लिए मजबूर कर सकते हैं यदि हम मुद्दों पर आधारित समूहों को जुटाने और विकसित करने में सफल होते हैं और उन्हें सरकारी पदों और तदर्थ और मनमाने फैसलों के खिलाफ रैली करते हैं।
            हमें अपनी चिंताओं को लोगों की चिंताओं में बदलना होगा। हमें सभी समान विचारधारा वाले धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक आंदोलनों को एक साथ लाना और सुनिश्चित करना है और प्रतिरोध के लिए साझा मंच बनाना है।
             निम्नलिखित कार्यक्रम में स्वयं को लैस करने और संगठनों और समुदाय को संगठित करने की संभावनाएं हैं।
     1 उन संगठनों की भागीदारी सुनिश्चित करके राज्य स्तरीय कार्यशालाओं या सम्मेलनों का आयोजन करना, जो एनईपी के खिलाफ प्रतिरोधी कदम में सहयोग कर सकते हैं।
     2 सभी राज्यों में एक प्रेस नोट का विमोचन।
     3 एनईपी के कार्यान्वयन के संबंध में राज्य के भीतर वास्तविकताओं को उजागर करने वाले शिक्षा बुलेटिन / तथ्य पत्रक जारी करें।
   4 प्रेस कांफ्रेंस एनईपी के संबंध में केंद्र सरकार और राज्य विशिष्ट कार्यों के प्रतिगामी उपायों पर प्रकाश डालते हुए की जाएं।
5 छोटे समूहों के टाउनशिप में विरोध प्रदर्शन। 6 मुद्दे आधारित साझा मंच बनाने की संभावनाओं का पता लगाएं और इसे उस मंच का एक प्रमुख एजेंडा बनाएं।
7 इसे एक लोकप्रिय एजेंडा के रूप में बदलने के लिए  सेमिनार और संवाद।
8 सोशल मीडिया अभियान की संभावना का प्रयास करें।
9 जन प्रतिनिधियों को पत्र लिखें।
10 कोई अन्य संयुक्त कार्रवाई जो जनता का ध्यान आकर्षित कर सकती है।
11 संबंधित राज्यों में एनईपी के कार्यान्वयन के प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तरीके की निगरानी के लिए प्रत्येक राज्य में एक छोटी टीम का गठन किया जाना है।
12 दीवार और पोस्टर लेखन की भी संभावनाएं हैं।
13 एनईपी या जनविरोधी नीतियों के खिलाफ लड़ने के लिए बनाए गए बड़े मंचों में हमारी भागीदारी सुनिश्चित करें।
14 लोगों की शिक्षा सभा: संयुक्त मंच की मदद से हमें पीपुल्स एजुकेशन असेंबली को डिजाइन, योजना और निष्पादित करना है, जो लोगों, राय बनाने वालों, शिक्षाविदों, छात्रों आदि के साथ बातचीत के लिए एक व्यापक योजना में परिवर्तित हो सकती है। हम कार्यक्रम की योजना बना सकते हैं 2022 सितंबर 5 से 2023 26 जनवरी स्वतंत्रता के 75 वें वर्ष की हमारी गतिविधि योजना के साथ मिलकर। लोगों की शिक्षा सभा को हमें सावधानीपूर्वक योजना बनानी होगी।
15 एक नोट तैयार कर जनरल सेक्रेटरी को प्रस्तुत कर दिया गया है। संपादकीय टीम इसे अंतिम रूप देकर राज्यों को भेज सकती है। राज्य विशिष्ट मुद्दों को जोड़ने के लिए राज्य नोट को संशोधित कर सकते हैं।
16 राज्य विभिन्न स्तरों पर आयोजित होने वाली शिक्षा सभाओं की अवधारणा और योजना बनाने और शिक्षा नोट में राज्य विशिष्ट मुद्दों को शामिल करने के लिए दो दिवसीय कार्यशाला की योजना बना सकते हैं।
          एआईपीएसएन की कार्यकारिणी ने लोगों से बातचीत करने का फैसला किया। और लोक शिक्षा सभा का सुझाव दिया ताकि स्थानीय स्तर या ग्राम स्तर की आवाज को राष्ट्रीय स्तर पर रखा जा सके। इस तरह के संवाद के लिए जमीन बनाने या माहौल बनाने के लिए सभी राज्य संगठनों को इसकी बड़े पैमाने पर जनसंपर्क कार्यक्रम की योजना बनानी होगी या खुद को तैयार करना होगा।
            हमें अपनी चिंताओं को लोगों की चिंताओं में बदलना होगा। हमें सभी समान विचारधारा वाले धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक आंदोलनों को एक साथ लाना और सुनिश्चित करना है और प्रतिरोध के लिए साझा मंच बनाना है।
         प्रत्येक संगठन अभियान शुरू करने के लिए नीचे दी गई संभावनाओं का पता लगा सकता है। निम्नलिखित कार्यक्रम के माध्यम से स्वयं को लैस करने और संगठनों और समुदाय को संगठित करने की संभावनाएं हैं।
   
          संभावित कार्यक्रम
ग्राम स्तर- 25 अक्टूबर से पहले
पंचायत स्तर -14 नवंबर से पहले
ब्लॉक स्तर - 30 नवंबर से पहले
जिला स्तर - 30 दिसंबर से पहले
राज्य स्तर- 30 दिसंबर से पहले
राष्ट्रीय स्तर- 2023 के बीच 26 जनवरी या 30 तारीख - आयोजन स्थल तय करना।

    • राज्यों में जो हो रहा है, उसके आसपास सामूहिक अभियान और मैदान पर लगातार निगरानी की योजना राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर बनाई जानी चाहिए। इस प्रयोजन के लिए टिप्पणियों, साक्ष्यों और आंकड़ों का मिलान किया जाना चाहिए।
  • जहां तक ​​संभव हो हमें समान विचारधारा वाले संगठनों के बड़े मंचों का हिस्सा बनने का प्रयास करना होगा।
• बड़े अभियानों की योजना बनाने के लिए हमें राज्य स्तरीय सम्मेलन आयोजित करने होंगे। यहां फिर से हमें समान विचारधारा वाले संगठनों को संगठित करने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करना होगा।
• उच्च शिक्षा के लिए हमें संस्थागत शिक्षा सभाओं के बारे में सोचना होगा।
• और छात्र सभाएं भी।
• शिक्षा के लिए गोलमेज सम्मेलन।
        एनईपी के लिए एक निगरानी दल या अभियान दल का गठन
       इसलिए इसे व्यापक टीम वर्क की जरूरत है। एक एकल डेस्क एनईपी के संबंध में गतिविधियों की निगरानी नहीं कर सका। हमें स्कूली शिक्षा, उच्च शिक्षा डेस्क, संस्कृति डेस्क और अन्य डेस्क के बीच उचित समन्वय सुनिश्चित करना है, एक संगठनात्मक निगरानी मंदिर भी अनिवार्य है। संगठन को भी अभियान के कार्यान्वयन में अग्रणी भूमिका निभानी चाहिए।
   अभियान दल सुझाव:
1. राष्ट्रपति
2. महासचिव
3. कोषाध्यक्ष
4.संयुक्त सचिव
5.डॉ. D.रघुनंदनन
6.डॉ. एस कृष्णास्वामी
7. प्रो. अनीता रामपाली
8.कमला मेनन
9. बिप्लब घोष
10 डॉ काशीनाथ चटर्जी
11.संयोजक संस्कृति डेस्क
12. संयोजक उच्च शिक्षा डेस्क
13.सह-संयोजक उच्च शिक्षा डेस्क
14.सह-संयोजक स्कूल शिक्षा डेस्क 15.संयोजक स्कूल शिक्षा डेस्क
     हमें अभियान दल के लिए एक समन्वयक तय करना होगा

    

Thursday, October 6, 2022

2020 नई शिक्षा नीति

 राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 : कुछ विसंगतियां

- प्रमोद गौरी

राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 देश-भर में लागू करने की घोषणा हो चुकी है। नीति पर शिक्षाविदों, बुद्धिजीवियों, शिक्षक यूनियनों ने अनेक प्रश्न खड़े किए हैं। साथ ही सकारात्मक सुझाव भी पेश किए हैं। इन सवालों तथा सुझावों की ओर ध्यान न देकर नीति को लागू करने के लिए अनेक तरह के आयोजन/प्रायोजन किए जा रहे हैं। ऑनलाइन सेमिनार, व्याख्यान आदि के ज़रिये नीति का महिमा-मंडन किया जा रहा है। सवालों और सुझावों की जगह बहुत पहले से ही खत्म कर दी गई है। इस बात का प्रमाण यह है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 को संसद में पेश ही नहीं किया गया है। देश की संसद वह स्थान है जहां नीति के पक्ष और विपक्ष में बहस होने से देशभर में स्थिति स्पष्ट हो जाती है। शिक्षा-जगत में उठ रहे सवालों पर भी एक हद तक सम्बोधन हो जाता है लेकिन इस पूरी प्रक्रिया की अनदेखी कर दी गई है। ऐसी स्थिति में बुद्धिजीवी जगत की जि़म्मेदारी बढ़ जाती है। इस जि़म्मेदारी के तहत हमें नीति दस्तावेज़ को पूरी तरह से समझने की ज़रूरत है और इसमें कही गई बातों को लागू करने की रणनीति की छानबीन बहुत बारीकी से करना ज़रूरी है।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति के बारे में यह कहा गया है कि 21वीं सदी के भारत की ज़रूरतों को ध्यान में रखकर इस नीति को बनाया गया है। इतना ही नहीं, नीति दस्तावेज़ के पृष्ठ 3 पर पैरा 2 में यह भी कहा गया है कि 2015 में भारत ने संयुक्त राष्ट्र संघ के सतत विकास कार्यक्रम-2030 को अपनाया था जिसके लक्ष्य 4 में कहा गया है कि विश्वभर में 2030 तक सभी के लिए समावेशी और समान गुणवत्तायुक्त शिक्षा सुनिश्चित करने और जीवनपर्यन्त शिक्षा के अवसरों को बढ़ावा दिए जाने का लक्ष्य है। इस महान लक्ष्य को स्वीकार करने के पश्चात् इसे हासिल करने की ठोस रणनीति का न केवल अभाव है बल्कि कई प्रावधान ऐसे हैं जो लक्ष्य के विपरीत जाते हुए प्रतीत होते हैं, जैसे - निजी स्कूलों को फलने-फूलने में और अधिक मदद की जाएगी। निजी स्कूलों को शिक्षा व्यवस्था का हिस्सा बनाने का अनुभव हमारे देश के पास बहुत अधिक है। इसका साफ निष्कर्ष है कि निजी स्कूल तो गरीब आबादियों को शिक्षा से बाहर रखकर ही चलते हैं। फिर समावेशी और समान गुणवत्ता वाली शिक्षा का लक्ष्य कैसे पूरा किया जा सकता है? शिक्षा नीति में ही गरीब बच्चों को शिक्षा प्रदान करने के दोयम दर्जे के उपाय सुझाए गए हैं। इतना ही नहीं, राष्ट्रीय शिक्षा नीति में स्पष्ट कहा गया है कि 6-17 आयु-वर्ग के 3.22 करोड़ बच्चे स्कूली शिक्षा से बाहर हैं और प्राथमिक विद्यालय में 5 करोड़ से अधिक बच्चों का स्तर बहुत कमज़ोर है। ज़ाहिर है यह असमानता पर आधारित शिक्षा-व्यवस्था का परिणाम है और अब भी निम्न वर्गों से आने वाले बच्चों के लिए कभी भी, कहीं भी (पृष्ठ 15 पैरा 3 पढ़ें ) जैसे कार्यक्रम सुझाए जा रहे हैं, न कि सभी बच्चों के लिए स्कूलों की व्यवस्था करने की प्रतिबद्धता दिखाई जा रही है। इतना ही नहीं, नीति में साफ तौर पर कहा गया है कि कम संख्या वाले स्कूलों को बंद किया जाएगा। इन प्रावधानों के चलते पृष्ठ 3 के पैरा 2 में कही गई बात लगभग निरर्थक हो जाती है जिसमें समावेशी और समान गुणवत्ता वाली शिक्षा के प्रति प्रतिबद्धता दर्शाई गई है।

इसी तरह की बात पृष्ठ संख्या 4 पर पैरा 2 में फिर से दोहराई गई है कि ''सीखने के परिणामों की वर्तमान स्थिति और वांछनीय स्थिति के बीच बड़ी खाई है। इस खाई को पाटने के लिए बाल्यावस्था देखभाल और शिक्षा में उच्चतम गुणवत्ता, इक्विटी और सिस्टम में अखंडता लाने वाले सुधार किए जाने चाहिए। इस पैरा में पुन: स्वीकार किया गया है कि सीखने के परिणामों की वर्तमान स्थिति खराब है, अर्थात् विद्यार्थियों का शैक्षणिक स्तर बेहद कमज़ोर है। अब इस कमज़ोरी को दूर करने के लिए बाल्यावस्था में देखभाल, उच्चतर शिक्षा में गुणवत्ता वृद्धि तथा समेकित शिक्षण व्यवस्था की ज़रूरत रेखांकित की गई है। लेकिन अगले पृष्ठों में जब इन पहलुओं के क्रियान्वयन की योजना प्रस्तुत की जाती है तो बाल्यावस्था को आंगनवाड़ी वर्करों के हवाले छोड़ने और उच्चतर शिक्षा में एक साल, दो साल या तीन साल लगाने के पश्चात् वहां तक का डिप्लोमा या प्रमाण पत्र देकर बच्चों को बीच में ही पढ़ाई छोड़ देने के लिए उन्मुक्त कर दिया गया है। ज़ाहिर है इस तरह की व्यवस्था से समतामूलक शिक्षा और अखंड ज्ञान अर्जित नहीं किए जा सकते हैं। स्पष्ट है कि जिन वांछनीय लक्ष्यों को नीति में दर्ज किया जा रहा है, उनकी गंभीरता क्रियान्वयन के स्तर पर बेहद कमज़ोर बना दी गई है। ऐसी स्थिति में रखे गए उच्च लक्ष्य विश्वसनीय प्रतीत नहीं होते हैं।

इसी तरह का एक और विरोधाभास अथवा अधूरापन तब सामने आता है जब हम पृष्ठ संख्या 4 पर ही पैरा 5 का अवलोकन करते हैं। इसमें कहा गया है कि प्राचीन और सनातन भारतीय ज्ञान और विचार में शिक्षा का लक्ष्य सांसारिक जीवन अथवा स्कूल के बाद के जीवन की तैयारी के रूप में ज्ञान-अर्जन नहीं बल्कि पूर्ण आत्म-ज्ञान और मुक्ति के रूप में माना गया था। यहां प्रश्न उठता है कि शिक्षा जगत में कार्यरत विशाल मानव संसाधन 'प्राचीन और सनातन भारतीय ज्ञान और विचार' को किस तरह समझता है और परिभाषित करता है। फिर पूर्ण आत्मज्ञान और मुक्ति को जीवन लक्ष्यों के रूप में किस प्रकार व्याख्यायित करता है क्योंकि जैसा कहा गया है कि यह नीति भारत की समृद्ध परंपरा के आलोक में तैयार की गई है तो वहां पूर्ण आत्म-ज्ञान और मुक्ति के मायने क्या थे और अब क्या होंगे। यह विरोधाभास तब और जटिल हो जाता है जब हम पृष्ठ 4 के पैरा 4 में कही गई बात को देखते हैं कि यह नीति भारत की परंपरा और सांस्कृतिक मूल्यों के आधार को बरकरार रखते हुए, 21वीं सदी की शिक्षा के लिए आकांक्षात्मक लक्ष्यों के संयोजन में शिक्षा व्यवस्था के पुनर्गठन का प्रस्ताव रखती है। इस तथ्य से साफ है कि भारतीय शिक्षा व्यवस्था को पुनर्गठित किए जाने का मन्तव्य रखा गया है परन्तु 21वीं सदी की शिक्षा के आकांक्षात्मक लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए कौनसी ''भारतीय  सांस्कृतिक मूल्य व्यवस्था" को बरकरार रखा जाएगा। पिछले 2500 वर्षों से भारत में अगर कोई अवधारणा विवादास्पद और बहस का विषय रही है तो वह यही है। भारतीय सांस्कृतिक मूल्य व्यवस्था किस को माना जाएगा; क्या ये आधुनिक भारत के संविधान में इंगित मूल्य होंगे;  या प्राचीन संस्कृति के मूल्य होंगे? आरंभिक पृष्ठों से लेकर राष्ट्रीय शिक्षा नीति के दस्तावेज़ में आखिर तक यह अस्पष्टता बनी ही रहती है जिसके चलते यह नीति कई प्रकार के अन्तर्विरोधों को परिलक्षित करती है।

इसी निरन्तरता में पृष्ठ 5 पर पैरा 1 में स्पष्ट कहा गया है कि भारतीय संस्कृति और दर्शन का विश्व में बड़ा प्रभाव रहा है। वैश्विक महत्त्व की इस समृद्ध विरासत को आने वाली पीढ़ियों के लिए सहेज कर संरक्षित रखने की ज़रूरत है बल्कि हमारी शिक्षा-व्यवस्था द्वारा उन पर शोध कार्य होने चाहिए और उसे समृद्ध किया जाना चाहिए तथा नए-नए उपयोग भी सोचे जाने चाहिए।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति में प्राचीन सांस्कृतिक विरासत का महत्त्व उजागर करके उसे सहेजने और समृद्ध बनाने का संकल्प दर्शाया गया है। इस कार्य का महत्त्व हो सकता है परन्तु आज के परिवेश में सांझी सांस्कृतिक विरासत (जो भारत में मध्यकाल में बनी) का कहीं भी जि़क्र नहीं है। इस रिक्तता से हम वर्तमान पीढ़ी के लिए भारत के इतिहास के अत्यंत महत्त्वपूर्ण अध्यायों के प्रति अपेक्षाकृत कम ध्यान देने की गुंजाइश बना रहे होंगे। इसका परिणाम यह होगा कि भविष्य की पीढ़ियों में समग्र दृष्टिकोण ही विकसित नहीं हो पाएगा। पृष्ठ 8 के आरम्भ में कहा गया है कि शिक्षा एक सार्वजनिक सेवा है, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तक पहुंच को प्रत्येक बच्चे का मौलिक अधिकार माना जाना चाहिए।  इस बात को कहने के मायने क्या हैं, यह समझना ज़रूरी है। संविधान में 6-14 आयु-वर्ग के सभी बच्चों को शिक्षा का मौलिक अधिकार प्रदान किया जा चुका है जिसे विस्तार देने, मज़बूती से क्रियान्वित करने आदि के संकल्प दर्शाने की बजाय इसे एक सि$फारिश की तरह से रख दिया गया है, जैसे - इसे भविष्य में दिया जाना चाहिए, जबकि मांग यह है कि पहले से ही उपलब्ध अधिकार को 4-14 आयु-वर्ग से आगे बढ़ाते हुए 3-18 आयु-वर्ग के सभी बच्चों को देने का संकल्प प्रस्तुत किया जाए। वहीं, (पृष्ठ 8 के आरम्भ में ही) शिक्षा को सार्वजनिक सेवा बताकर, सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली में पर्याप्त निवेश की बात कहने के साथ ही निजी और सामुदायिक भागीदारी को प्रोत्साहन और सुविधा देने का संकल्प दोहराया गया है।

उल्लेखनीय है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 ऐसे समय में लागू की जा रही है जब स्कूली शिक्षा व्यवस्था में निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी पहले 50त्न से भी अधिक ही हो चुकी है और पुन: उसे ही और अधिक प्रोत्साहन एवं सुविधा देने का संकल्प दर्शाना यही इंगित करता है कि भविष्य में निजी क्षेत्र का निवेश बढ़ता ही जाएगा। नीति दस्तावेज़ में निजी क्षेत्र को 'सच्चे परोपकारी' निवेशकर्ता के रूप में प्रस्तुत करना इस मन्तव्य को स्पष्ट उजागर करता है जबकि पूरी दुनिया जानती है कि निजी क्षेत्र लाभ कमाने के उद्देश्य से ही निवेश करता है। दरअसल, नीति दस्तावेज़ में अनेक विरोधाभास हैं। एक ओर समतामूलक, समावेशी, गुणवत्तायुक्त शिक्षा सभी को देने की सैद्धान्तिक मान्यता है (जिसके लिए अन्तरराष्ट्रीय संस्थाओं के साथ किए गए करार का हवाला है) और दूसरी ओर निजी संस्थानों, ऑनलाइन कार्यक्रमों, ओपन लर्निंग स्कूल व्यवस्था, स्वयंसेवी संस्थाओं, पूर्व छात्रों, समुदायों के सदस्यों, भूतपूर्व कर्मचारियों आदि की सहायता से कमज़ोर बच्चों, मज़दूर वर्ग के बच्चों, दिव्यांग बच्चों आदि के लिए 'तथाकथित' विशेष प्रावधान हैं जो न तो नए हैं और न ही समान गुणवत्ता वाली शिक्षा व्यवस्था के लिए किसी तरह से भी उपयुक्त हैं। इन विसंगतियों, विरोधाभासों और रिक्तियों को देखते हुए यह स्पष्ट है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 किसी भी तरह से भारतीय शिक्षा व्यवस्था में विद्यमान कमज़ोरियों को दूर करके बेहतर विकल्प प्रस्तुत करने का दस्तावेज़ नहीं है बल्कि कुछ अर्थों में तो यह पहले से चली आ रही कमज़ोरियों में और कमियों को जोड़ने का कार्य ही कर रही है।    

(लेखक राजकीय महिला महाविद्यालय, रोहतक में ऐसोसिएट प्रोफेसर तथा हरियाणा ज्ञान विज्ञान समिति के राज्य सचिव हैंं।)


पंडित जवाहरलाल नेहरू: वैज्ञानिक मानसिकता के धनी

- वेदप्रिय

पंडित नेहरू आधुनिक भारत के नवनिर्माताओं में से एक थे। द्वितीय विश्वयुद्ध की त्रासदी के तुरंत बाद सदियों की गुलामी, पुरातनपंथी जकड़न, आपसी फूट आदि ने देश को खोखला कर दिया था। जातिवाद, छुआछूत, आर्थिक विपन्नता एवं सांस्कृतिक पिछड़ापन यहां हावी था। विभाजन की त्रासदी के चलते विभिन्नताओं में एकता बनाए रखना कोई कम चुनौतीपूर्ण नहीं था। राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन ने एक नई ऊर्जा का संचार ज़रूर किया था जिसके कारण हमने आज़ादी तो पा ली थी लेकिन राष्ट्र के पुनर्निर्माण का एक बड़ा कार्य हमारे सामने था। एक बड़े दूरद्रष्टा की ज़रूरत थी। नेहरू के रूप में हमें एक महान व्यक्तित्व का नेतृत्व मिला। 

इन्होंने विश्व की सभी महान सभ्यताओं का अध्ययन किया हुआ था। 'द डिस्कवरी ऑ$फ इंडियाÓ (1946) तथा 'Glimpses of World History ' (1934) जैसी विश्व प्रसिद्ध पुस्तकें कोई ऐसे ही थोड़े लिख सकता है। इन्होंने न केवल विश्व इतिहास को पढ़ा था अपितु विश्व के प्राचीन और समकालीन महापुरुषों का बारीक अध्ययन भी किया था। इन्होंने इनकी जीवनियों पर भी लिखा था। आप एक विश्व प्रसिद्ध राजनेता रहे हैं, इसमें कोई शक नहीं है। लेकिन एक बात और खास है जो इनके व्यक्तित्व में दर्ज है, जो इन्हें एक विशेष मुकाम हासिल करवाती है। वह है इनकी वैज्ञानिक दृष्टि। कुछ विरले ही राजनीतिक दिग्गज रहे होंगे जो इस प्रकार वैज्ञानिक सोच रखते हों। 

इन्होंने सन् 1907 में कैंब्रिज विश्वविद्यालय में दाखिला लिया था। इनके विषय थे भौतिकी, रसायन शास्त्र ,वनस्पतिशास्त्र एवं भूगर्भविज्ञान। ये गणित में ज़्यादा निपुण नहीं थे। उन्होंने सन् 1910 में विश्वविद्यालय में द्वितीय स्थान प्राप्त किया था और इन विषयों में ऑनर्स की डिग्री हासिल की थी। आप औपचारिक वैज्ञानिक शोधों की ओर जा सकते थे लेकिन नहीं गए। उनके पिताजी श्री मोतीलाल नेहरू एक प्रतिष्ठित वकील थे। इसलिए इनका पारिवारिक तकाज़ा और ज़रूरत थी कि ये कानून पढ़ें और अपने पिताजी की विरासत को आगे बढ़ाएं। इसलिए इन्होंने सन् 1910 में कानून की पढ़ाई शुरू की और 1912 में ये बैरिस्टर बन गए। यहां इंग्लैंड में पढ़ते हुए ये $फेबियन समाजवादियों से बहुत प्रभावित थे। $फेबियन समाजवादी ग्रुप वह ग्रुप था जो संसदीय प्रणाली में लोकतांत्रिक तरीके से सुधारों के ज़रिए समाजवाद की हिमायत करता था। युवा नेहरू के मस्तिष्क पर इन दो विचारों (वैज्ञानिकता एवं समाजवाद) की गहरी छाप पड़ी। आप यह भी समझते थे कि Science is a natural agent of Socialism .  यहां भारत में लौटने पर इनकी प्राथमिकताएं कुछ और बन गईं। यह ज़रूरी भी था। इन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में बढ़-चढ़कर भाग लिया। सन् 1927 में ये अक्तूबर क्रांति की दसवीं वर्षगांठ के अवसर पर यूएसएसआर गए। यहां ये जॉन रीड की पुस्तक 'दस दिन जब दुनिया हिल उठीÓ से बहुत प्रभावित हुए। इन्होंने यहां की व्यवस्था का भी बारीकी से अध्ययन किया। यहां इन्होंने समझा कि वैज्ञानिक दृष्टि सामाजिक जीवन के साथ-साथ व्यक्तिगत जीवन के लिए भी महत्त्वपूर्ण है।  वैज्ञानिक दृष्टि से इनका आग्रह था कि It is a temper of a free man. उन्होंने इस वैज्ञानिकता को विश्व शांति के साथ भी जोड़ा।

  इनका पूरा विश्वास था कि बिना विज्ञान के अनुप्रयोगों के किसी राष्ट्र का उत्थान संभव नहीं। सन् 1938 में तत्कालीन भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष श्री सुभाष चंद्र बोस द्वारा स्थापित राष्ट्रीय योजना कमेटी के चेयरमैन बने। इस योजना कमेटी के निर्माण में अंतरिक्ष वैज्ञानिक मेघनाथ साहा का बड़ा हाथ था। पंडित नेहरू ने इस कमेटी के 15 प्रमुख व्यक्तियों में पांच प्रमुख वैज्ञानिकों को शामिल किया। वैसे यह कमेटी कोई ज़्यादा नहीं चल पाई, लेकिन पंडित नेहरू ने अपने इरादे स्पष्ट कर दिए थे।

 सन् 1946 में इन्होंने 'द डिस्कवरी ऑ$फ इंडियाÓ नाम की प्रसिद्ध पुस्तक लिखी। इसमें इन्होंने शब्द साइंटि$िफक टेंपर का प्रयोग किया है। बहुत से लोगों का कहना है कि प्रथम बार यह शब्द गढ़ा गया है। इससे पूर्व हमारे पास scientific attitude और scientific outlook जैसे शब्द थे। लेकिन scientific temperशब्द पहली बार शब्दकोश का हिस्सा बना था। एक छानबीन यह भी कहती है की यह शब्द 'साइंटि$िफक टेम्परÓ पहली बार शब्दकोश का हिस्सा अक्तूबर 1907 में बना था। यह उस समय ब्रिटिश मेडिकल जर्नल में पहली बार छपा था। लेकिन उस समय यह शब्द किन्हीं अन्य अर्थों में सामने आया था। हम देखते हैं कि बहुत बार ऐसा होता है जब किसी वैज्ञानिक के कार्य को स्वीकृति नहीं मिलती या उनके काम को उस अहमियत के अनुसार नहीं सराहा जाता जितना अच्छा कि वह काम होता है। इसलिए उस वैज्ञानिक में रोष या गुस्सा होना स्वाभाविक है। इस गुस्से के इज़हार के रूप में यह शब्द सन् 1907 में पहली बार सामने आया था। विज्ञान के इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण है जहां वैज्ञानिकों के काम को तुरंत सराहना नहीं मिली। हम जानते हैं कि प्रसिद्ध वैज्ञानिक बोल्ट्ज़मैन को जब अपनी शोधों के लिए सही सलूक नहीं मिला तो उन्होंने आत्महत्या तक कर ली थी।

पंडित नेहरू ने इस शब्द साइंटिफिक टेंपर को भिन्न अर्थों में प्रयोग किया है। यह भी सही है कि स्वयं पंडित नेहरू ने इस शब्द की व्याख्या नहीं दी, एक ऐसी व्याख्या जिससे हम आज परिचित हैं। इसकी व्याख्या कई पड़ावों से होकर गुज़री है। पंडित नेहरू के विचारों से कुछ अंदाज़ा लगाया जा सकता है। पंडित नेहरू ने विज्ञान को (1) एक दार्शनिक पहलू में सच का पीछा करने वाली सबसे बड़ी कवायद माना है; (2) ज्ञान का एक उच्च स्तरीय आधिकारिक रूप माना है, (3) सामाजिक ज़रूरतों को समझने वाला (मसलन स्वास्थ्य, गरीबी, रोज़गार आदि) एवम् इनसे पार पाने में सक्षम माना है।

इन मान्यताओं के चलते पंडित नेहरू को मुश्किलों का सामना भी कम नहीं करना पड़ा। इसका एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण है सन् 1934 में बिहार में आया भूकंप। नेहरू जी वहां भूकंप पीड़ितों की सहायता के लिए जा रहे थे। नेहरू जी के मैंटर गांधी जी ने यहां तक कह दिया की भूकंप तो पापों के लिए दी गई ईश्वरीय सज़ा है। अब नेहरू जी करें भी तो क्या? लेकिन वे अपने स्टैंड पर रहे। एक दूसरा उदाहरण भी हमें ध्यान में रखना चाहिए कि स्वतंत्रता उपरांत उठे सोमनाथ प्रकरण पर महात्मा गांधी ने ही नेहरू जी का सबसे ज़्यादा साथ दिया था। जब यह तय हो गया कि भारत को आज़ादी मिलने वाली है और संविधान निर्माण की बात आ गई तो आप पूरे मन से चाहते थे कि वैज्ञानिक मानसिकता, समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता हमारे संविधान का हिस्सा रहें परंतु यह सब हो नहीं पाया। लेकिन उन्होंने इस बात को स्वीकारा कि ''मेरी राजनीतिक ज़रूरत बेशक मुझे अर्थतंत्र की ओर खींच ले गई है लेकिन मैं पूरी तरह आश्वस्त हूं कि भूख, गरीबी एवं रूढ़िवाद के खिला$फ लड़ाई विज्ञान के बिना नहीं लड़ी जा सकती।ÓÓ (सन् 1938 में इंडियन साइंस कांग्रेस में दिया गया भाषण)।

आज़ादी के बाद देश की बागडोर इनके हाथ में आ गई। ये अपने किसी भी महत्त्वपूर्ण भाषण में विज्ञान का हवाला दिए बिना नहीं रहते थे। सन् 1950 में नेशनल $िफजि़कल लैबोरेट्री के उद्घाटन के अवसर पर बोलते हुए उन्होंने कहा, Science is something more.It is a way of training the mind to look at life and the whole structure of society. So I stress the need  for the development of a scientific mind and temper which is more important than actual discovery and it is out of this temper and method that many more discoveries will come. सन् 1955 में इन्हें एक बार फिर यूएसएसआर जाने का अवसर मिला। विज्ञान एवं समाजवाद के प्रति इनके विचार और पुख्ता हुए। वापस लौटते ही आपने देश के लिए विज्ञान नीति पर विचार करना शुरू किया। इन्हीं के प्रयासों से साइंस पॉलिसी रेज़ोल्यूशन 4 मार्च 1958 को लागू हुआ। उनका कहना था, ''The key to National prosperity apart from the spirit of the people, lies in the modern age in the effective combination of three factors: technology, raw material and capital,of which first is perhaps the most important. इस नीति में इनका ज़ोर इसी बात पर था की वैज्ञानिक नज़रिए, विज्ञान की विधि तथा वैज्ञानिक ज्ञान के ज़रिए ही देश को रीज़नेबल सेवाएं मिल सकती हैं। 

सन् 1959 की एक घटना है। 13 जुलाई को इनके पास श्री रामस्वरूप शर्मा, ज्योतिषाचार्य का एक पत्र आया। पत्र में आग्रह था कि वे ज्योतिष पर लिखी अपनी पुस्तक श्री नेहरू को समर्पित करना चाहते हैं। तुरंत पंडित नेहरू ने इस पत्र के जवाब में 16 जुलाई को एक पत्र लिखकर कहा (ड्ड) इस प्रकार मुझे पुस्तक का सम्मान मिलना वैज्ञानिक मानसिकता के विरुद्ध जाएगा। (ड्ढ)मैं  खगोल एवं ज्योतिष में अंतर समझता हूं। (ष्) ज्योतिष में विश्वास रखने की बजाय मेरा विश्वास वैज्ञानिक विधि के प्रयोग में है ।

पंडित नेहरू वैज्ञानिकों का बड़ा सम्मान करते थे। वे मेघनाथ साहा से बहुत प्रभावित थे। यह और बात है कि श्री मेघनाद साहा का शोधपत्र चार बार नोबेल कमेटी के पास जाकर वापस लौट आया था और पुरस्कार नहीं मिला। आपने एक बार अपने सारे प्रोटोकॉल तोड़कर डॉक्टर भाभा की कद्र की थी। इन के सम्मान में आप स्वयं अपनी कुर्सी से उठ कर उनके पास गए थे। उल्लेखनीय है कि जब प्रसिद्ध वैज्ञानिक Neils Bohr भारत आए थे (सन् 1960) तो नेहरू जी ने अपने अन्य कार्यक्रम स्थगित कर दिए और इनके साथ-साथ रहे थे। आपने इनका सत्कार एक राज्य अध्यक्ष की तरह किया था। नोबेल पुरस्कार प्राप्त प्रसिद्ध वैज्ञानिक जेबीएस हाल्देन अपने जीवन के अंतिम वर्ष भारत में बिताने आए थे। उनका यहां रहना पंडित नेहरू के विज्ञान प्रेम के साथ जुड़ा हुआ था। सीएसआईआर की स्थापना में इन दोनों का ही बड़ा योगदान था।

हम जानते हैं कि नेहरू जी के ये विचार उनके जीते जी संवैधानिक दर्जा प्राप्त नहीं कर सके। यह तो 42 वें संविधान संशोधन (1976) के बाद पार्ट 4 ए आर्टिकल 51ए द्वारा ही संभव हुआ कि उनके विचार औपचारिक रूप में हमारे संविधान का हिस्सा बने। जैसे ही शब्द साइंटि$िफक टेंपर आधिकारिक रूप में सामने आया, इस पर सार्वजनिक बहस शुरू हो गई एवम् इसकी व्याख्याओं की बात उठी। अक्तूबर 1980 में कून्नूर में एक चार दिवसीय कार्यशाला चली। इसमें उस समय के जाने-माने विचारकों एवं वैज्ञानिक मनीषियों ने भाग लिया। इन्हीं बहसों के आधार पर जुलाई 1981 में 'नेहरू केंद्र, मुंबईÓ द्वारा वैज्ञानिक मानसिकता पर एक आधिकारिक कथन जारी किया गया। इसका आमुख नेहरू के प्रशंसक रहे श्री पी.एन. हक्सर  ने लिखा है। यह कथन पढ़ने लायक है।

प्रतिगामी ताकतों द्वारा साइंटि$िफक टेम्पर एवं नेहरू जी आज सर्वाधिक निशाने पर हैं जिन्हें बचाना आज हमारी जि़म्मेदारी बनती है।

(लेखक रा.व.मा.वि. पटीकरा से सेवानिवृत्त प्राचार्य और ह.वि.ज्ञा.स. के राज्य कार्यकारिणी सदस्य हैं।)



कोविड महामारी और राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के विभिन्न पहलुओं

पर जि़ला कन्वेंशनों के ज़रिए जारी है जागरूकता अभियान

- पवन कुमार

हरियाणा विद्यालय अध्यापक संघ और हरियाणा ज्ञान-विज्ञान समिति के संयुक्त तत्त्वावधान में गत अप्रैल माह से शिक्षा पर जि़ला स्तरीय कन्वेंशनों का आयोजन जारी है। कैथल जि़ले की $फीजि़कल उपस्थिति के साथ और दादरी, नूंह, पलवल, $फरीदाबाद, रेवाड़ी, महेंद्रगढ़, करनाल, भिवानी आदि जि़लों की ऑनलाइन कन्वेंशनों का सफल आयोजन किया जा चुका है। इन जि़लों के अध्यापकों, बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं की हाजि़री का$फी उत्साहवर्धक रही है। उक्त कन्वेंशनों की शुरुआत मार्च महीने में जींद में हुई राज्य स्तरीय कन्वेंशन के बाद दोनों संगठनों के राज्य नेतृत्व की साझा पहल पर की गई थी। इन कन्वेंशनों में  मुख्य विषय के तौर पर 'कोविड महामारी और राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020Ó तथा 'स्कूली शिक्षा की ढांचागत स्थितिÓ रहे हैं। उक्त विषयों के मुख्य वक्ताओं के रूप में क्रमश: ज्ञान-विज्ञान समिति के राज्य सचिव प्रो$फेसर प्रमोद गौरी एवं राज्य कमेटी सदस्य वेदप्रिय तथा हरियाणा विद्यालय अध्यापक संघ के पूर्व राज्य प्रधान मास्टर वजीर सिंह एवं राज्य कार्यकारिणी सदस्य बूटा सिंह रहे हैं जबकि कन्वेंशनों का संचालन अध्यापक संघ के राज्य महासचिव मास्टर जगरोशन ने किया।

उपरोक्त  सभी वक्ताओं द्वारा स्कूली शिक्षा पर राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के पड़ने वाले प्रभावों पर विस्तारपूर्वक व्याख्यान दिया गया है जिन पर प्रश्नोत्तर काल में अध्यापकों एवम् अन्य लोगों ने भी नई शिक्षा नीति से छात्रों, अध्यापकों और समाज पर पड़ने वाले कुप्रभावों से जुड़े अनेक सवाल, प्रतिक्रियाएं एवम् अनुभव साझा किए। राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर वर्तमान में लगातार किए जा रहे व्यापक विमर्श से ऐसा लग रहा है कि अब से पूर्व में आई विभिन्न शिक्षा नीतियों के समय में शायद हरियाणा में इतनी व्यापक चर्चा कभी नहीं हुई होगी। कोरोना काल में राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 जैसे महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर समाज के जागरूक तबकों का चिंतन और उसके विभिन्न पहलुओं पर चर्चा वास्तव में समय की ज़रूरत है। वैसे तो सभी जि़लों से प्रतिभागियों की संख्या का$फी अच्छी रही है परंतु अब तक करनाल और भिवानी जि़लों में प्रतिभागियों की संख्या सर्वाधिक रही है। अधिकतर कन्वेंशनों में महिलाओं की भागीदारी उम्मीद से कम थी। मगर करनाल जि़ले की कन्वेंशन में सर्वाधिक 30 महिलाओं ने भाग लिया जो कि अच्छा संकेत है। ऐसे में अन्य जि़लों की अगली कन्वेंशनों में महिलाओं की भागीदारी बढ़ाने पर गम्भीर विचार किया जाना चाहिए।

कोविड महामारी एवं शिक्षा नीति के सामाजिक-सांस्कृतिक पक्षों पर प्रो. प्रमोद गौरी ने विस्तार से चर्चा की। उनके द्वारा कोविड से बचाव को लेकर भारत की वैश्विक स्थिति, छात्र-छात्राओं की मानसिक एवं सामाजिक स्थिति, महिलाओं एवं आम समाज पर पड़ने वाले प्रभावों आदि पर विशेष रूप से प्रकाश डाला गया। उन्होंने ठोस आंकड़ों के ज़रिए बताया कि देश भर के 29 करोड़ छात्रों और 3 करोड़ शिक्षकों एवं गैर शिक्षण स्टा$फ, यानी 32 करोड़ लोगों, को इस महामारी से बचाव में कोई जि़म्मेदारी देने की बजाय घरों में बंधक बनाकर रखा गया। ऑनलाइन शिक्षा व्यवस्था पर बोलते हुए वेदप्रिय जी ने कहा कि ऑनलाइन एजुकेशन संसाधनों के अभाव में एक आम गरीब विद्यार्थी तक नहीं पहुंच रही है जिसके कारण साधन-संपन्न और निम्न आर्थिक स्थिति वाले लोगों के बीच की खाई गहरी होना गंभीर  चिंता का विषय है। ऑनलाइन एजुकेशन से छात्रों का भावनात्मक विकास रुका है तथा छात्रों के नैतिक मूल्यों में गिरावट आई है। उन्होंने कहा कि सब कुछ सामान्य होने पर भी ऑनलाइन एजुकेशन सामान्य शिक्षा प्रणाली का अभिन्न अंग रहेगी परंतु इसकी सर्वसुलभता सुनिश्चित करने के लिए संसाधनों, जैसे - इंटरनेट आदि, के समुचित प्रबंधों का होना अनिवार्य है। मास्टर वजीर सिंह ने स्कूली शिक्षा के संदर्भ  में राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 पर प्रकाश डालते हुए कहा कि प्ले स्कूलों को सामान्य स्कूलों के साथ  जोड़ना अध्यापक संघ की लंबे समय से मांग रही है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में इसका प्रावधान होना स्वागत योग्य कदम है। परंतु इसके लिए  आंगनवाड़ी की जगह का प्रयोग और अप्रशिक्षित स्टा$फ को बच्चे सौंपना बिल्कुल भी उचित नहीं है। मास्टर वजीर सिंह ने आगे कहा कि विद्यार्थियों का कामगारों के साथ प्रशिक्षण कार्यक्रम बालमन को भटकाव की ओर ले जाएगा। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में प्रस्तावित कॉम्प्लेक्स स्कूलों की सरंचना का प्रस्ताव न तो शिक्षकों, न ही छात्रों के हित में है। ऐसा होने पर सार्वजनिक सेवाओं की दुर्गति होगी और शिक्षकों के पदों में कमी आएगी जिसके फलस्वरूप सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था का ढांचा चरमरा जाएगा। हरियाणा में मॉडल स्कूलों का प्रावधान और उनमें भारी भरकम $फीस लागू करना अनिवार्य एवं नि:शुल्क शिक्षा का उल्लंघन है। बूटा सिंह ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 और भाषा के सवाल पर बोलते हुए कहा कि इस शिक्षा नीति में भाषाओं को उचित महत्त्व नहीं दिया गया जबकि भाषा किसी भी संस्कृति और सभ्यता के इतिहास को समझने जानने का सशक्त माध्यम  है। 

उपरोक्त संगठनों द्वारा महामारी के संकट के इस दौर में भी ऐसे संवेदनशील मुद्दों पर अपनी बातें लोगों तक पहुंचाने का प्रयास करना एक सामान्य घटनाक्रम नहीं है बल्कि भावी पीढ़ियों के लिए बेहतर रास्तों की तलाश करना भी है। आधुनिक तकनीक के माध्यम से इन संगठनों द्वारा समाज में अपनी संवेदनशीलता का जो परिचय दिया जा रहा है वो काबिल-ए-तारी$फ है। भविष्य की योजनाओं की अगर बात करें तो शेष बचे हुए जि़लों में भी ऐसी कन्वेंशनें समुचित तैयारियों के साथ आयोजित की जानी चाहिए। साथ ही जिन जि़लों में यह कन्वेंशन हो चुकी हैं, उन्हें ब्लॉक और गांव स्तर पर ऐसी कन्वेंशनों को आयोजित करना चाहिए ताकि हमारा समाज ऐसे संवेदनशील मुद्दों पर अपनी राय दे सके। 

सभी कार्यक्रमों को सफल बनाने में मुख्य रूप से हरियाणा विद्यालय अध्यापक संघ की संबंधित जि़लों की जि़ला कमेटियों ने मुख्य भूमिका निभाई साथ ही हरियाणा ज्ञान-विज्ञान समिति ने भी सक्रिय सहयोग किया। 

(लेखक स्कूल कैडर में करनाल में रसायन विज्ञान के प्रवक्ता हैं।)


स्वास्थ्य सेवाएं और ग्रामीण हरियाणा

- रणबीर सिंह दहिया

हरियाणा में ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं की स्थिति सरकार के मानकों के अनुसार बहुत दयनीय है। भारत में 5000 की आबादी पर एक उप स्वास्थ्य केंद्र होना चाहिए। 30,000 की आबादी के लिए एक प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) की आवश्यकता है । 

यह अनुशंसा की जाती है कि एक सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र (सीएचसी) होना चाहिए (80000 की पहाड़ी आबादी के लिए और 1,20000 मैदानी आबादी के लिए )। 

वर्तमान में हरियाणा ग्रामीण स्वास्थ्य सेवाओं का ढांचा मार्च-जून 2020 के अनुसार  जितना होना चाहिए, उतना नहीं है और जितना है उसमें भी स्पेशलिस्ट डॉक्टरों, मेडिकल अ$फसरों, नर्सों, रेडियोग्रा$फरों, $फार्मासिस्टों तथा लैब तकनीशियनों की भारी कमी है। आज 2667 उप स्वास्थ्य केंद्र हैं, 532 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र हैं और 119 सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र हैं। 

आज की जनसंख्या की ज़रूरतों के हिसाब से हमारे पास 972 उप स्वास्थ्य केंद्रों की कमी है, 74 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों की कमी है और 32 सामुदायिक केंद्रों की कमी है। इसी प्रकार से स्टा$फ के बारे में देखें तो वर्तमान ग्रामीण प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों में 491 मेडिकल अ$फसर हैं जबकि होने 1064 मेडिकल अफसर चाहिए। एक ग्रामीण सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में 6 विशेषज्ञ (एक सर्जन, एक स्त्री रोग विशेषज्ञ, एक $िफज़ीशियन, एक शिशु रोग विशेषज्ञ, एक हड्डी रोग विशेषज्ञ और एक बेहोशी देने वाला विशेषज्ञ) होने चाहिए। इसके हिसाब से आज वर्तमान सामुदायिक केंद्रों में 714 स्पेशलिस्ट होने चाहिए जबकि आज के दिन 27 स्पेशलिस्ट ही मौजूद हैं ।

पीएचसी और सीएचसी में नर्सिंग स्टा$फ 

हरियाणा की ग्रामीण जनसंख्या के संबंध में पीएचसी और सीएचसी में आवश्यक नर्सें मार्च-जून 2020 के आंकड़ों के (2011 की जनगणना 1.65 करोड़ के अनुसार) हिसाब से  2333 होनी चाहिए। ''हरियाणा की अनुमानित जनसंख्या के संबंध में पीएचसी और सीएचसी में आवश्यक नर्स 2571 होनी चाहिएÓÓ। मार्च-जून 2020 में स्टा$फ नर्सों की वर्तमान/वास्तविक स्थिति 2193 है जो वर्तमान मौजूद  ढांचे के लिए ठीक है लेकिन  वर्ष 2021 में हरियाणा की अनुमानित ग्रामीण जनसंख्या 1.81 करोड़ के सापेक्ष 378 नर्सों की कमी रहेगी। आज के दिन सीएचसी में एक रेडियोग्रा$फर की पोस्ट है। आज इनकी संख्या 38 है जबकि ज़रूरत 119 की है, 81 रेडियोग्रा$फर्स की कमी है।        

इसी प्रकार आज के दिन पीएचसी में एक और सीएचसी दो $फार्मासिस्ट्स की पोस्ट हैं। आज ज़रूरत है 770 $फार्मासिस्ट्स कि जबकि मौजूद हैं 405 $फार्मासिस्ट। आज की ज़रूरत के हिसाब से 365 $फार्मासिस्ट्स की कमी है। यदि लैब टेक्नीशियन का जायज़ा लें तो 770 लैब तकनीशियनों की ज़रूरत है।

(लेखक पीजीआईएमएस से सेवानिवृत सर्जन और ह.ज्ञा.वि.स. के राज्याध्यक्ष हैं।)


स्मृति शेष

दौलत राम चौधरी उर्फ डी.आर. चौधरी उर्फ डी. आर.

- वी.बी. अबरोल

डी. आर. से अपनी पहली मुलाकात की याद आज भी हंसाती है। वह भी जब मिलते, उस घटना को याद कर हम खूब हंसते। बात कोई 50 साल पुरानी है। शहर से तकरीबन 20 किलोमीटर दूर एक साथी के खेत में बने चौबारे में कुछ लोग आम आदमी के नज़रिए से समाज व्यवस्था के विभिन्न पहलुओं को समझने की कवायद कर रहे थे। शाम हुई तो हुड्डा साहब ने कहा, 'तू बाबू साब है, रात को यहां तंग होगा। इसलिए शहर चला जा। सुबह दिल्ली से डी. आर. आएंगे, उनको मेरे घर से लेकर आ जाना।Ó

लिहाज़ा अगले दिन सुबह जब मैं हुड्डा साहब के घर गया तो वहां स$फेद धोती-कुर्ते में एक सज्जन बैठे थे जो तुरंत उठ खड़े हुए और बोले 'चलोÓ, मानो पहली बार नहीं मिल रहे हों बल्कि पुरानी जान-पहचान हो। रास्ते में बातचीत के ज़रिए मेरे और गांव में चल रही हमारी कार्यशाला के बारे में जानने लायक सब जानकारी उन्होंने बड़ी सहज बातचीत के ज़रिए मुझसे हासिल कर ली। इतनी देर में हमारा टेंपो भी उस जगह पहुंच गया जहां उतरकर हमें पैदल चौबारे तक जाना था। जब चौबारा दिखाई देने लगा तो वह बोले, 'चलो पहले आसपास कहीं पेशाब कर लेते हैं।Ó उन्होंने धोती बांध रखी थी इसलिए एक पेड़ की ओर मुंह कर बैठ गए। मैंने पतलून पहन रखी थी इसलिए इधर-उधर नज़र डालकर कि कोई आसपास तो नहीं है, मैं भी रास्ते की तर$फ पीठ कर एक दूसरे पेड़ के पास खड़ा हो गया। इतने में एक आदमी जो मानो घात लगाए ही बैठा हो, न जाने कहां से निकल आया और  'आच्छा, लखावे था?Ó कहते हुए मेरी गर्दन पकड़कर 2-4 घूंसे जड़ते हुए उसने आवाज़ दी और आसपास खेतों से कुछ और लोग भी लाठियां लेकर निकल आए। सच तो यह है कि दूर-दूर तक कोई महिला नहीं थी और 'लखानेÓ वाला आरोप एकदम मनघड़ंत था। पर उन लोगों के हाथ में लाठियां देखकर मौके की नज़ाकत को तुरंत भांपते हुए डी. आर. 'बचाओ, बचाओÓ चिल्लाते हुए चौबारे की तर$फ दौड़े। आवाज़ सुनकर अंदर से भी लोग निकल आए। हमारे पक्ष में इतने लोगों को देखकर लाठियों वाले दुम दबाकर सटक लिए और जो दो-चार पीछे रह गए थे, उनको चेतावनी देकर मामला र$फा-द$फा हुआ। बाद में डी. आर. ने मुझे अलग से समझाया कि लोगों में काम करने के लिए सबसे पहले उनका विश्वास जीतना ज़रूरी है। इसके लिए हमारा पहनावा भी ऐसा हो कि ओपरा न लगे। बरसों बाद भी जब हम इस घटना को याद करते तो उनका दिया यह सबक भी मुझे याद आ जाता।

मैं अपने भाई-बहनों में सबसे छोटा हूं। मैंने एम. ए. कर लिया। घर से दूर आकर नौकरी करने लगा पर अपने से बड़ों के लाड़-प्यार की, उनकी उंगली पकड़कर रास्ता तलाशने की आदत बनी रही। पिछले 50 साल से डी. आर. के साथ भी मेरा यही रिश्ता था। वह उन लोगों में से आखिरी थे जिन्होंने मुझे स्वस्थ जीवन मूल्य दिए, जिनसे मैं कभी भी किसी भी विषय पर मशवरा कर सकता था। रोहतक छोड़ने का सबसे बड़ा नुकसान मुझे यही हुआ कि उन सबसे एक भौतिक दूरी बन गई। वह सुविधा नहीं रह गई कि जब चाहूं उनसे बात कर सकूं। इस दौर में डी. आर. से बातचीत का मौका अधिक मिला। उन दिनों कमला और महेश (उनके बेटी-दामाद) करनाल में थे और डी. आर. जीटी रोड से गुज़रते हुए जब उनके पास रुकते तो कभी-कभी मुझे भी उनसे मिलने का मौका मिल जाता। कमला-महेश के करनाल छोड़ने के बाद भी यदा-कदा डी. आर. मेरे यहां आ जाते। वक्त के अनुसार चाय या खाने की जैसी ज़रूरत हो, पूरे अपनेपन के साथ अनु (मेरी पत्नी) से कह देते। उनके साथ औपचारिकता की कोई जगह नहीं थी।

एक बार मैंने उनसे पूछ लिया कि कमला का बेटा जो आईआईटी में था, क्या कर रहा है। वह कहने लगे, 'भई, जब 21-22 साल के बच्चे को कैंपस पर ही 25-30 लाख का पैकेज ऑ$फर हो जाए तो उसे और कुछ करने की क्या ज़रूरत?Ó और कोई होता तो बच्चे की इस 'उपलब्धिÓ पर बगलें बजाता घूमता! 

करनाल में जब हमने डेमोक्रेटिक $फोरम चलाना शुरू किया तो हरियाणा के पूर्व मंत्री और बहुत ही सम्मानित स्वतंत्रता सेनानी भी उससे जुड़ गए। बाद में दुर्भाग्यपूर्ण हालात में उनके पोते की पत्नी ने आत्महत्या कर ली। वह इससे बहुत मर्माहत हुए पर कानूनी कार्यवाही में उनको भी लपेटने की कोशिश की गई। वह कोशिश तो कामयाब नहीं हुई पर बदनामी तो हो गई! कुछ अरसा बाद उनकी मृत्यु भी हो गई। डेमोक्रेटिक $फोरम से उनके जो संबंध थे उसके कारण $फोरम ने उनकी याद में एक भाषण का आयोजन किया। भाषण के बाद होने वाली बातचीत में कुछ लोगों ने आत्महत्या की घटना में उनके शामिल होने का आरोप लगाया। डी. आर. भी उन बुज़ुर्ग के अच्छे परिचितों में थे। मैंने उनसे राय मांगी कि क्या $फोरम को इस मेमोरियल लेक्चर को वार्षिक रूप देना चाहिए। उन्होंने मुझसे उलट सवाल किया कि $फोरम क्यों चलाते हो। मैंने कहा कि लोगों में सामाजिक महत्त्व के मुद्दों पर लोकतांत्रिक चेतना विकसित करने के लिए। डी. आर. का जवाब था कि अपने इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए लोगों का $फोरम  के साथ जुड़ना महत्त्वपूर्ण है। आपको ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए जिससे लोग आपसे छिटकें। मेमोरियल लेक्चर जारी रखना है या नहीं, यह फ़ैसला इस पैमाने पर रखकर खुद करें।

डी. आर. पब्लिक सर्विस कमीशन के चेयर पर्सन रहे, एडमिनिस्ट्रेटिव रिफ़ॉर्म्स कमीशन के सदस्य रहे, शिक्षा पद्धति में सुधार के लिए उनसे राय मांगी गई, उन्होंने 'पींगÓ अखबार चलाया, उन्होंने पुस्तकें लिखीं जो 'नेशनल बुक ट्रस्टÓ ने प्रकाशित कीं, प्रतिष्ठित अंग्रेज़ी दैनिकों में उनके लेख प्रमुखता से छपते थे आदि बातें सब जानते भी हैं और कई बार दोहराई जा चुकी हैं। उनके आलोचक - वह अजातशत्रु तो थे नहीं - उन पर आरोप लगाते हैं कि अलग-अलग समय पर वह हरियाणा के मशहूर तीनों लालों के का$फी निकट थे। मेरे अनुसार आरोप यह तब बनता जब इस निकटता से उन्होंने कोई व्यक्तिगत लाभ उठाया होता बल्कि हुआ नुकसान! वह चौटाला गांव से थे और चौधरी देवी लाल से अच्छे व्यक्तिगत संबंध थे। कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में नए वी.सी. की नियुक्ति होनी थी। विश्वविद्यालय के कुछ शिक्षकों का प्रतिनिधिमंडल उस समय मुख्यमंत्री चौधरी देवीलाल से मिला और उनसे कहा कि नए वाइस चांसलर में ऐसी योग्यताएं होनी चाहिए। मुख्यमंत्री हंसकर बोले, 'अब उसका नाम भी ले देते पर मैं उसे बनाऊंगा नहीं!Ó स्पष्ट था कि उनका इशारा डी.आर. की ओर था।

मेरे अनुसार डी. आर. की आलोचना इस तरह की जा सकती है कि वह प्रभावशाली संपर्क अपने व्यक्तिगत लाभ के लिए नहीं बल्कि अपने प्रभाव द्वारा नीतियों को जनहित की ओर मोड़ने के लिए बनाते थे। वे जीवन-भर वैज्ञानिक समाजवाद की विचारधारा के प्रति प्रतिबद्ध रहे पर जनहित सुनिश्चित करने के उतावलेपन में यह हरियाणवी कहावत भूल गए कि 'तावल़ में वार होया करैÓ। इसे अंग्रेज़ी में कहें तो 'ञ्जद्धद्गह्म्द्ग ड्डह्म्द्ग ठ्ठश ह्यद्धशह्म्ह्लष्ह्वह्लह्य द्बठ्ठ द्यद्बद्घद्ग.Ó जनहितकारी नीतियां व्यक्तिगत प्रभाव से नहीं बल्कि जन आंदोलनों के दबाव से ही सुनिश्चित की जा सकती हैं। यह डी. आर. के उपलब्धियों-भरे जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी है कि उन्होंने अपनी अदम्य ऊर्जा ग्रासरूट स्तर पर लोगों को संगठित करने में लगाने की बजाय व्यक्तिगत प्रभाव द्वारा ऊपर से दबाव बनाने की कोशिश में लगाई। इसमें असफल होना ही था और इस असफलता ने उनको जीवन के अंतिम कुछ वर्षों में मायूसी का शिकार बनाया। अलविदा, छल-कपट से सदा दूर रहे मेरे जीवन के आदर्श पुरुष!

(लेखक हरियाणा के प्रगतिशील आंदोलन से 50 से भी अधिक बरस से जुड़े हुए हैं और ज्ञान-विज्ञान आंदोलन में इनका उल्लेखनीय योगदान है।)


स्मृति शेष

अग्रिम मोर्चे का सैनिक

- महेंद्र सिंह

सन् 1986 में कुरुक्षेत्र यूनिवर्सिटी, हरियाणा में नॉन-टीचिंग स्टा$फ आंदोलन पर था। अभूतपूर्व सफल हड़ताल के बावज़ूद तत्कालीन हरियाणा सरकार और विश्वविद्यालय प्रशासन हठधर्मिता पर उतर आए थे और दमनचक्रचलाकर आंदोलन को कुचलने की कोशिश कर रहे थे। इनके समर्थन में हरियाणा के सभी विभागों के कर्मचारी एकत्र हुए और कर्मचारी हितों की रक्षा के लिए एक साझा संगठन बनाने की सहमति बनी जिससे सर्व कर्मचारी संघ का जन्म हुआ। सर्व कर्मचारी संघ  की जि़ला भिवानी की इकाई का गठन करने के लिए कर्मचारी यूनियनों में सक्रिय लोग इक_ा हुए। सरकार के शोषण और दमनचक्र के रवैए को देखते हुए किसी ऐसे आदमी को नेतत्ृव देने पर सहमति बनी जो साहसी हो, निडर हो, ट्रेड यूनियन का जानकार हो और ईमानदार हो। विचार-विमर्श के बाद सब की नज़र टिकी मिल्क प्लांट कर्मचारी यूनियन के नेता           श्री कुलभूषण आर्य पर जिन्होंने कुछ समय पहले मिल्क प्लांट में लंबी हड़ताल का नेतृत्व किया था। इसी आंदोलन के दौरान 15 दिन की भूख हड़ताल भी की थी। इस तरह भिवानी में कर्मचारी आंदोलन के नेतृत्व की जि़म्मेदारी श्री कुलभूषण आर्य को मिली। उसके बाद हरियाणा में ऐतिहासिक आंदोलन की शुरुआत हुई और सरकार की तानाशाही का मुकाबला करते हुए जिस सूझ-बूझ, निडरता और समर्पण से श्री कुलभषूण आर्य ने भिवानी में आंदोलन का नेतृत्व किया वह अपने आप में एक मिसाल है जिसकी चर्चा कर्मचारियों में अब भी चलती है। उस समय सर्व कर्मचारी संघ फला-फूला और त्याग से सींचा गया वह पौधा, विशाल पेड़ बन गया जो हमेशा लहलहाता रहेगा। सरकार के आगे न झुकने और न डिगने के परिणामस्वरूप इन्हें नौकरी से भी हाथ धोना पड़ा। इसके बाद भी वह समाज हित के रास्ते से नहीं डिगे और अपने आप को जनहित के कामों में पूर्णत: समर्पित कर दिया। 

उन्हीं दिनों देश में केरल के एक जि़ला एर्णाकुलम् में पूर्ण साक्षरता का लक्ष्य हासिल करने की का$फी चर्चा थी। भिवानी में कुछ बुद्धिजीवियों ने भी जि़ले को पूर्ण साक्षर करने का बीड़ा उठाया, प्रोजेक्ट तैयार किया गया और भिवानी साक्षरता समिति का गठन किया। यह भिवानी की जनता के लिए चुनौती-भरा और गौरव का काम था जिसके लिए एक कुशल नेतृत्व की ज़रूरत थी। सभी की नज़र फिर से श्री कुलभषूण आर्य के नाम पर आकर ठहर गई। विचार-विमर्श के बाद यह भार भी उनके कंधों पर डाल दिया गया। उस अभियान में हज़ारों निरक्षरों को साक्षर किया गया, अंधविश्वास के खिला$फ बड़ी गतिविधियां की गईं। सैकड़ों नौजवानों को सकारात्मक अभियान में काम करने का एक प्लेट$फॉर्म मिल गया था। जनता में वह अभियान जागरूकता की आंधी का रूप ले ही रहा था कि सरकार ने भिवानी साक्षरता समिति को भंग कर दिया जिस कारण वह महत्त्वपूर्ण अभियान अल्पायु में दम तोड़ गया वरना वैज्ञानिक दृष्टिकोण की दिशा में भिवानी बहुत आगे जा चुका होता। 

इसके बाद 1996 में मज़दूरों द्वारा सीआईटीयू का जि़ला अध्यक्ष भी उन्हें चुना गया। 1998 में चौकीदार यूनियन में काम करते हुए चौकीदारों को संगठित करके अधिकारों के प्रति जागरूक किया। कई साल मज़दूरों के बीच काम करने के बाद 2005 में अखिल भारतीय किसान सभा के जि़ला अध्यक्ष की जि़म्मेदारी भी निभाई। किसानों के बीच काम करते हुए उस समय मंडयाली में हुए गोलीकांड में किसान मारे गए, जिसका विरोध करने के कारण सरकार ने उनको गिर$फ्तार करके जेल में डाल दिया। उन्होंने 2011 से 2013 तक जन संघर्ष समिति, भिवानी के  संयोजक का कार्यभार भी संभाला और शहर में हो रही जन समस्याओं को लेकर कई आंदोलन करने के साथ-साथ राष्ट्रीय स्तर के मुद्दों पर बहुत सारे सेमिनार एवं चर्चाएं आयोजित करवाए। इन्हीं दिनों कई सालों से निष्क्रिय पड़ी हरियाणा ज्ञान-विज्ञान समिति, भिवानी को फिर से सक्रिय करने की ज़रूरत महसूस की गई तो इसका नेतत्ृव भी उन्हीं को दिया गया। कमज़ोर संगठन होते हुए भी इस संगठन के द्वारा वैज्ञानिक मानसिकता को बढ़ावा देने के लिए बड़े पैमाने पर अभियान चलाए गए, सेमिनार और अन्य कार्यक्रमों का आयोजन किया गया तथा प्रांतीय सम्मेलन का आयोजन भी भिवानी में किया गया। 

एक दिन अचानक अच्छे स्वास्थ्य, मज़बूत इच्छाशक्ति के धनी, अग्रिम मोर्चे के इस सैनिक के कोविड से संक्रमित होने की खबर मिली। सभी कार्यकर्ता यही मान रहे थे कि इस हौसलेमंद के सामने कोरोना वायरस नहीं ठहर पाएगा लेकिन 25 मई को अप्रत्याशित और अनहोनी खबर आई कि वे हमारे बीच नहीं रहे। कार्यकर्ताओं के लिए यह घटना किसी सदमे से कम नहीं थी।

महम से 5 किलोमीटर दूर भैणी सुरजन गांव में स्वर्गीय श्री जगत राम आर्य एवं श्रीमती छोटो देवी के घर 13 अगस्त 1948 को जन्म लेने वाले इस शख्स के पिता आर्य समाज के बड़े नेता, स्वतंत्रता सेनानी व समाजसेवी थे। जिससे इनमें समाज हित के संस्कार बचपन से ही पड़ गए थे। इनका विवाह 14 जून 1969 को श्रीमती उर्मिला देवी के साथ हुआ। 1972 में मिल्क प्लांट हरियाणा में उन्होंने नौकरी जॉइन की। यह अपने पीछे परिवार में चार पुत्रियां व एक पुत्र छोड़कर गए हैं जो सब शादीशुदा हैं। बाहर के कामों में ज़्यादा व्यस्त रहने के कारण पत्नी श्रीमती उर्मिला देवी के ऊपर घर की जि़म्मेदारी ज़्यादा रही जो इन्होंने बखूबी निभाई। इस मामले में उर्मिला जी का त्याग एवं सहयोग भी अविस्मरणीय है। 

संगठनों को नेतत्ृव देने के साथ-साथ ये $फील्ड में जाकर लोगों के साथ संपर्क करने को बहुत महत्त्व देते थे। इनके चरित्र में पारदर्शिता, सादगी और अपने को विशिष्ट न समझना इस तरह रचे-बसे हुए थे कि छोटे से छोटा कार्यकर्ता भी इनके साथ काम करते हुए बड़ा ही सहज महसूस करता था। उन्होंने कभी भी अपनी स्थिति का प्रयोग निजी हित के लिए प्रयोग नहीं किया। 

इतना व्यस्त रहने के बावजूद साहित्य में भी इनकी खूब रुचि थी। उन्होंने जन समस्याओं के ऊपर अनेक रागनियां लिखीं। क्षेत्र में जब भी किसी प्रकार का सामाजिक सद्भाव बिगाड़ने की कोशिश की गई, उन्होंने आगे बढ़कर सामाजिक सद्भाव को कायम रखने में अहम योगदान दिया। बेशक उनका इस तरह जाना जन आंदंोलनों के लिए भारी क्षति है, फिर भी जन संघर्ष के रास्ते पर थामी गई उनकी मशाल कभी मद्धम नहीं पड़ेगी और अपने उद्देश्य को प्राप्त करेगी। 

(लेखक ह.ज्ञा.वि.स. भिवानी के पूर्व सचिव और वर्तमान में जि़ला 

कार्यकारिणी सदस्य हैं।)



वर्तमान समय में जनतंत्र के समक्ष चुनौतियां

- अपूर्वानंद

इस वक्त जनतंत्र के बारे में बात करते हुए इसे ध्यान में रखना ज़रूरी है कि जैसे कभी कहा जाता था कि समाजवाद को अगर सफल होना है तो उसे पूरी दुनिया में सफल होना होगा, उसी तरह जनतंत्र की चुनौतियों का सामना अगर हमें  करना है तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसका सामना करना पड़ेगा। हम यह नहीं कह सकते कि सि$र्फ अपने-अपने देश की चारदीवारी में, अपनी सीमाओं के भीतर जनतांत्रिक लड़ाई लड़ेंगे और दुनिया के दूसरे हिस्सों में जो जनतांत्रिक संघर्ष हो रहे हैं उन जनतांत्रिक संघर्षों से हम नहीं जुड़ेंगे। दुनिया के किसी हिस्से में भी किसी भी रूप में अगर जनतंत्र कमज़ोर होता है तो हमारे देश में भी उसके कमज़ोर होने की संभावना बढ़ जाती है। आश्चर्य नहीं है कि इस वक्त यूरोप, एशिया, मध्यपूर्व और दूसरी तमाम जगहों पर, इस धरती पर तानाशाहियों के मज़बूत होने का खतरा बढ़ रहा है। इसका अर्थ क्या है? इसका अर्थ यह है कि जनतंत्र के लिए हमें अंतरराष्ट्रीय एकजुटता और संघर्ष के निर्माण करने की आवश्यकता है। वह एकजुटता अभी नहीं है, लेकिन यह इस वक्त की $फौरी ज़रूरत है।

गाज़ा पट्टी पर इज़राइल की जो बमबारी रुकी और उसे युद्ध-विराम कहा जा रहा है, वह पूरी दुनिया के दबाव के बिना संभव नहीं था। इज़राइल ने अपना हमला रोका (जिसे वह कह रहा है कि वह उसकी जीत है)। यह जो $िफलिस्तीन पर इज़राइल के हमले का प्रश्न है और $िफलिस्तीन को जो आत्म-निर्णय का अधिकार न देने का प्रश्न है, यह सि$र्फ $िफलिस्तीन का प्रश्न नहीं है। यह प्रश्न एक जनतांत्रिक प्रश्न है और पूरी दुनिया का प्रश्न है, यानी अगर इज़राइल में नस्लभेद जारी रहेगा, अगर इज़राइल का उपनिवेशवाद $िफलिस्तीन पर जारी रहेगा, अगर $िफलिस्तीन एक स्वतंत्र और संप्रभु राज्य नहीं बन सकेगा और अगर $िफलिस्तीनियों को उनके तमाम अधिकार (जो एक स्वतंत्र आबादी के अधिकार होते हैं) प्राप्त नहीं होंगे, अगर वे इज़राइली उपनिवेशवाद से मुक्त नहीं हो सकेंगे तो भारतीय स्वतंत्रता और दुनिया के किसी भी हिस्से की स्वतंत्रता सीमित रहेगी। इस बात को ध्यान रखना हम लोगों के लिए बहुत ही आवश्यक है। 

अब इसके दूसरे बिंदु पर आते हैं। वह यह है कि पूरी दुनिया में इस समय जनतंत्र के सामने सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वह अपनी-अपनी जगह पर अल्पसंख्यकों के अधिकारों की कितनी हि$फाज़त कर सकता है। अल्पसंख्यकों के अधिकार का (या यूरोप में जिसे अप्रवासियों का प्रश्न कहते हैं) प्रश्न इस वक्त सबसे प्रमुख है। फ्रांस में इसको लेकर एक बहस चल रही है। फ्रांस इसे राष्ट्रीय सिद्धांत की रक्षा बताता है - धर्मनिरपेक्षता के  सिद्धांत की रक्षा। हम फ्रांस की पूरी बहस से यह समझ सकते हैं कि कैसे आप धर्मनिरपेक्षता के नाम पर अपने देश की एक बहुत बड़ी आबादी को प्रताड़ित कर सकते हैं। फ्रांस कह रहा है कि यह उसका सबसे बुनियादी जनतांत्रिक सिद्धांत है। यह आधुनिक सिद्धांत है और इसको नहीं मानने वाले बड़े पिछड़े लोग हैं। यह कहकर वह अपने मुसलमानों के साथ जो कर रहा है उस विषय पर हम लोगों को बात करने की आवश्यकता होगी। इसलिए अल्पसंख्यकों के अधिकारों का प्रश्न एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न है। वह इसलिए कि यह बात अक्सर बहुसंख्यक नहीं समझते। उन्हें ऐसा लगता है कि उनके अधिकार और अल्पसंख्यक के अधिकार तुलनीय अधिकार हैं। लेकिन जो बहुसंख्यक हैं, यानी इज़राइल में जो यहूदी हैं, यूरोप में जो श्वेत हैं, अमेरिका में जो श्वेत हैं, भारत में जो हिंदू हैं, पाकिस्तान में जो मुसलमान हैं, श्रीलंका या म्यांमार में जो बौद्ध हैं उन सबको अपने सांस्कृतिक अधिकारों को हासिल करने के लिए अलग से किसी प्रयास की आवश्यकता नहीं होती।

यह बात अक्सर समझ में नहीं आती है लेकिन इस बात को बार-बार कहने की आवश्यकता है। उनके सांस्कृतिक अधिकारों को लागू करने के लिए किसी अतिरिक्त प्रयास की आवश्यकता नहीं है क्योंकि यही माना जाता है कि वे ही सांस्कृतिक अधिकार सार्वभौम सांस्कृतिक अधिकार हैं और सार्वभौम सांस्कृतिक नियम हैं। इसलिए भारतवर्ष में वह चाहे कर्मकांड हों, चाहे रीति-रिवाज़ हो, सब बहुसंख्यक हिंदू रंग में रंगे हुए रीति-रिवाज़ और संस्कार होते हैं, यहां तक कि राजकीय संस्कार भी ऐसे ही होते हैं। और जब ऐसा होता है तो यह समझना बहुत आवश्यक है कि देश की एक बड़ी आबादी - वह मुसलमानों की आबादी होगी या वह आदिवासियों की आबादी होगी या बौद्धों की आबादी होगी - वह अपने आप को शामिल नहीं पाती। उसे शामिल करने के लिए आपको अतिरिक्त प्रयास करने होंगे। इंग्लैंड में जब आप इंग्लैंड के प्रधानमंत्री को दीप जलाते हुए देखते हैं या जब आप अमेरिका के राष्ट्रपति को व्हाइट हाउस में दीपोत्सव करते हुए देखते हैं या कनाडा के प्रधानमंत्री जब सिखों को बधाई देते हुए दिखलाई पड़ते हैं तो हमें बहुत अटपटा नहीं लगता है, हमें बहुत खुशी होती है। हमें लगता है कि यह तो कितनी अच्छी बात है  कि वे गैर-ईसाइयों की भी इज़्ज़त कर रहे हैं। लेकिन भारतवर्ष में यदि अलग से ईद की बधाई दी जाए या यदि भारतवर्ष के किसी राज्य का मंत्री एक ऐसा पहनावा पहन ले जिसे आप कहेंगे कि यह मुसलमानों जैसा दिखता है या सिखों जैसा दिखता है तो कहा जाता है कि यह अनुचित है और उन्हें तुष्ट करने के लिए किया जा रहा है।

हमें यह समझने की आवश्यकता है कि क्यों व्हाइट हाउस में दीपावली अच्छी चीज़ है और उसी तरह क्यों भारतवर्ष में राष्ट्रपति के यहां इ$फ्तार भी अच्छी चीज़ है। सांस्कृतिक अधिकार के इस प्रश्न को और अल्पसंख्यकों के सांस्कृतिक अधिकार के इस प्रश्न को खास तौर से जनतंत्र के मूल प्रश्न के साथ जोड़कर देखना होगा। यह विविधता को सुनिश्चित करता है और विविधता जनतंत्र को सुनिश्चित करती है। 

एक और दूसरी चीज़ जो जनतंत्र को जनतंत्र बनाती है, वह है अस्थायीत्व। यह बात कुछ लोगों को अटपटी लग सकती है लेकिन जनतंत्र जीवित ही नहीं रह सकता अगर अस्थायीत्व न हो, जहां आपने चिरस्थायीत्व प्राप्त कर लिया, जहां आपने कहा कि अंतिम उत्तर मिल चुका है और स्थायी अवस्था प्राप्त कर ली गई है, वहां जनतंत्र समाप्त हो जाता है। इसलिए जनतंत्र में चिरंतन अस्थायीत्व अर्थात् एक प्रकार के परिवर्तन की संभावना बनी रहनी चाहिए। इसका अर्थ संसदीय जनतंत्र के प्रसंग में समझने की आवश्यकता है जिसमें हर एक निश्चित अवधि के बाद लोग अपना मत व्यक्त करते हैं और उसके आधार पर सरकार चुनी जाती है, संसद चुनी जाती है और उससे यह जनतंत्र चलता है। मूल धारणा यह है कि यह जो मत है, यह परिवर्तित होता रहेगा, यह स्थायी नहीं हो जाएगा। इस मत में परिवर्तनशीलता या तरलता है, यानी मुझे अपने मत में परिवर्तन करने का अधिकार है।

ज़ाहिर है कि मेरे कुछ बुनियादी मूल्य हैं और वे हैं संविधान के बुनियादी मूल्य। उनके साथ समझौता करके मेरे मत में परिवर्तन नहीं होगा। वे बुनियादी मूल्य संविधान की प्रस्तावना में हैं। जिसे आप हर तरह की आज़ादी कहते हैं, हर तरह की बराबरी कहते हैं, हर तरह का इंसा$फ कहते हैं, बंधुत्व कहते हैं, ये चारों मूल्य हमारे संविधान की प्रस्तावना में दिए गए हैं। इन चार मूल्यों के साथ समझौता किए बिना (मेरे मत में) अस्थायीत्व रह सकता है। इसीलिए जो बहुमत बनेगा वह बहुमत भी स्थायी नहीं होगा, वह हर 5 वर्ष में परिवर्तित होने वाला हो सकता है। 

जनतंत्र में बहुमत को स्थायी बना दिए जाने का खतरा है। बहुमत को स्थायी करने का सबसे आसान तरीका यह होता है कि आप उस पहचान का उद्बोधन करने की कोशिश करें या उस पहचान को उकसाने की कोशिश करें जिसके आधार पर आप लोगों को आसानी से इकठ्ठा कर लें और वह पहचान आपके देश में बहुतायत में पाई जाती हो। पाकिस्तान में वह मुसलमान पहचान होगी, म्यांमार में वह पहचान बौद्ध पहचान होगी भारतवर्ष में वह पहचान हिंदू पहचान होगी। अगर आप इसके आधार पर बहुमत बनाने की कोशिश करेंगे तो यह स्थायी बहुमत बन जाएगा। इसे हम बहुसंख्यकवादी बहुमत कह सकते हैं। इसमें भ्रम तो होगा कि यह बहुमत ही है और जनतांत्रिक है लेकिन बहुसंख्यकवादी है और इस में परिवर्तन नहीं होगा और इसमें दूसरे मत शामिल नहीं होंगे। तो जनतंत्र में जो बहुमत बनेगा उसका विविधतापूर्ण होना और उसमें सभी प्रकार के लोगों का शामिल होना एक शर्त हो। यह एक बहुत ही आवश्यक शर्त हो सकती है। 

जनतंत्र की दूसरी शर्त (जो अलग-अलग तरह के आंदोलनों के लिए भी एक शर्त है) है - मित्रता की शर्त, खुलेपन की शर्त। वैज्ञानिक चेतना जनतंत्र का आधार है। मुझे वेंकी रामकृष्ण का वह वक्तव्य याद आता है जिसमें उन्होंने कहा था कि विज्ञान तब फलता-फूलता है जब असल में हमारे पास विचार की स्वतंत्रता हो और उसमें कम से कम विचारधारात्मक हस्तक्षेप हो। तो विचार का खुलापन, विचार रखने की स्वतंत्रता का मतलब ही है जनतंत्र। हमारे संविधान की प्रस्तावना में आज़ादी का उल्लेख है, हर तरह की आज़ादी - सोचने की आज़ादी, एक दूसरे से मिलने की आज़ादी, संगठन बनाने की आज़ादी अर्थात् हर प्रकार की आज़ादी, हर प्रकार का इंसा$फ, हर प्रकार की समानता। 

जनतंत्र के लिए चौथी ज़रूरी बात है बंधुत्व। अमर्त्य सेन ने कहा कि बंधुत्व से विज्ञान संभव होता है। बंधुत्व का अर्थ है हम एक दूसरे की सीमा को पहचानते हैं। हमारी सरहदें हैं, हम उन्हें जानते हैं। हम एक-दूसरे की सरहद को तोड़ना नहीं चाहते हैं लेकिन हम सरहद के आर-पार हाथ बढ़ाकर हाथ मिलाना चाहते हैं। मैं आपकी पहचान को नष्ट नहीं कर देना चाहता हूं लेकिन मेरी पहचान में आपकी पहचान शामिल हो, आपकी पहचान में मेरी पहचान शामिल हो, यह मैं चाहता हूं। यही बंधुत्व है, बंधुत्व में आपका स्वीकार और मेरा स्वीकार है।

इस बंधुत्व से विज्ञान का विकास भी संभव है क्योंकि अगर आप सरहदों में विज्ञान को बांध देंगे तो विज्ञान विकसित नहीं होगा। इस वैश्विक महामारी में फिर से समझ आया कि जितने भी शोध कार्य हो रहे हैं वे शोध कार्य अंतरराष्ट्रीय साझेदारी के साथ हो रहे हैं, स्थानीय विशेषताओं को ध्यान में रखते हुए लेकिन अंतरराष्ट्रीय साझेदारों के साथ। अगर यह अंतरराष्ट्रीय साझेदारियां नहीं हों, अगर मैं अपनी जानकारी आपके साथ साझा न करूं, अगर अमेरिका अपनी जानकारी मुझसे साझा न करे, अगर चीन न करे, मैं साझा न करूं तो इस महामारी को, इस संक्रमण को समझना ही बहुत मुश्किल हो जाएगा।

इसीलिए जनतंत्र के जो मूल तथ्य हैं - अनिश्चितता, अस्थायीत्व - जटिल हैं। इन सारे तथ्यों को समझना बहुत आवश्यक है। हमें हर चीज़ को सरल नहीं कर देना चाहिए। हमें समझना चाहिए कि हम, आप खुद भी, बहुत ही जटिल संरचना हैं, पृथ्वी बहुत जटिल संरचना है और उस जटिल संरचना को समझना आवश्यक है। लेकिन उसके साथ-साथ हमें यह भी समझना चाहिए कि इस जटिलता को इस तरह से अराजक नहीं बना देना चाहिए कि फिर कोई साझेदारी ही संभव न हो। एक साझा ज़मीन खोजने की भी आवश्यकता है जिसमें हम सब एक-दूसरे से सहमत भी हो सकें, हम सब एक निष्कर्ष पर भी पहुंच सकें। अगर ऐसा नहीं होगा तो फिर हम रुचि के अनुसार समूह बना लेंगे और हर समूह कहेगा कि मेरा विचार ही अंतिम विचार है और मैं आपके विचार से सहमत नहीं हूं क्योंकि आप अलग समूह के व्यक्ति हैं, अलग व्यक्ति हैं। हम जटिलता के नाम पर, हो सकता है, साझेदारी को ही समाप्त कर दें। विविधता और साझेदारी की एक साझा ज़मीन खोजने का संघर्ष ज्ञान का संघर्ष है। हम हमेशा इस बात के लिए तैयार रहते हैं कि अगर हमें कोई ऐसा प्रमाण दिया जाए कि जो निष्कर्ष हमने अभी हासिल किया है, उस निष्कर्ष की फिर से परीक्षा करें तो हम उसके लिए खुले हैं। इस प्रकार विज्ञान आगे बढ़ता चला जाता है।

विज्ञान कभी भी यह नहीं कहता कि मैं अंतिम बिंदु पर हूं और इसी तरह जनतंत्र कभी भी अंतिम बिंदु पर नहीं पहुंचता है, स्थायीत्व के बिंदु पर नहीं पहुंचता है। वह एक अस्थायीत्व बनाए रखता है। हम सभी लोग इन बातों को यहां आज याद रखें। ये ऐसी बातें हैं जिनमें विश्वास करने वाले, जिन पर अमल करने वाले खतरा उठाते हैं। रिश्ता बनाना खतरनाक काम है। नताशा नरवाल और देवांगना कलिता ने मुसलमान औरतों से रिश्ता बनाने की एक कोशिश की, उमर खालिद ने भी यह कोशिश की, बाकी तमाम लोगों ने भी यह कोशिश की। इसी कोशिश की वजह से गौतम नवलखा हों या अनिल तेलतुंबड़े हों या सुधा भारद्वाज हों (जो छत्तीसगढ़ के आदिवासियों के साथ रिश्ता बनाने की कोशिश करती रहीं, वह जानती हैं कि वह आदिवासी नहीं हैं, कभी भी उन्हें आदिवासी नहीं माना जाएगा, वह यह भ्रम पैदा नहीं करना चाहती हैं), वे यह कह रहे हैं कि बंधुत्व संभव है। बंधुत्व का अर्थ है नाइंसा$फी के खिला$फ लड़ना। हम सारे लोगों (जो इस जनतंत्र से जुड़े हुए इन तमाम सवालों को महसूस कर रहे हैं, समझ रहे हैं, इसकी कीमत अदा कर रहे हैं, जो इत्ते$फाक से इस वक्त जेलों में नहीं हैं) का काम इस ज़मीन को और बड़ा करना है और प्रयास करना है कि विविधता, साझेदारी और अस्थायीत्व, जटिलता और सरलता सब में एक संतुलन कायम हो सके।

कई बार यह प्रश्न किया जाता है कि आम लोगों तक ले जाने के सरल तरीके क्या हैं, इसका जवाब है-अलग-अलग जगह अलग-अलग तरह के तरीके होंगे। तरीके में दो हिस्से होंगे। एक उसका माध्यम, जैसे - इंटरनेट और छपाई। दूसरे माध्यम भी हो सकते हैं। और दूसरे, उसकी भाषा, उसका प्रस्तुतिकरण, आप कैसे उसकी व्याख्या कर रहे हैं। संविधान दरअसल लोगों के जीवन के संदर्भ में ही समझ में आता है और जब तक लोग उस तरह से उसकी व्याख्या नहीं करते हैं तो संविधान एक किताब लगती है जो कानूनों का पुलिंदा हो और जिसकी व्याख्या सि$र्फ कानूनदां लोग कर सकते हैं, विशेषज्ञ कर सकते हैं। संविधान रोज़मर्रा की चीज़ है। सबसे अच्छा शब्द जो समझा सकता है कि संविधान क्यों हमारे जीने के तरीके का मामला है, वह शब्द उर्दू में चलता है 'दस्तूरÓ। हमने जब भारत राज्य बनाया तो हमने जीने का नया दस्तूर बनाया। उस दस्तूर के 4 खंभे जो प्रस्तावना में दिए गए हैं, इनको समझना और समझाना बहुत आवश्यक है कि यह एक स$फर है, यह एक यात्रा है, एक ऐसा समाज है जो बहुत सारे स्तरों में बंटा हुआ है, जिसमें भेदभाव है (जो हमारे स्वभाव में है, सामाजिक संरचना में है, हर जगह है)। बिना एक-दूसरे के साथ मिले-जुले हर प्रकार की समानता, हर प्रकार के न्याय, हर प्रकार की आज़ादी के लिए संघर्ष नहीं हो सकता। सि$र्फ दलित अपना संघर्ष नहीं कर सकते, सि$र्फ औरतें अपना संघर्ष नहीं कर सकतीं, सि$र्फ मज़दूर अपना संघर्ष नहीं कर सकते, सि$र्फ किसान अपना संघर्ष नहीं कर सकते। जब तक हम इस बात को स्वीकार करना शुरू नहीं करते, तब तक संविधान एक दूर की चीज़ मालूम पड़ेगा और लोगों को यह लगेगा कि संविधान में सरकार को परिवर्तन करने का अधिकार है। उसने नागरिकता का नया कानून बनाया, यह तो संसद में संख्या के आधार पर ही किया गया और यह ठीक है। लेकिन हमें इस औपचारिकता से बाहर निकलकर अपने सामाजिक स्वभाव के संदर्भ में इसकी व्याख्या करने की आवश्यकता है। यह काम हम लोगों ने बहुत कम किया है। हमने इसे छोड़ दिया, यह सोचकर कि जो राजकीय संस्थाएं हैं, वे अपना-अपना काम करती रहेंगी और संविधान लागू होता रहेगा। लेकिन संविधान एक दर्शन है, एक तरह की संस्कृति है। वह संस्कृति हमें बनानी होगी। संवैधानिक चेतना संविधान का ही एक हिस्सा है यानी वैज्ञानिक चेतना को हासिल करना, उसका निर्माण करना, उसको अपने स्वभाव का अंग बनाना -  यह संवैधानिक दायित्व है। इसका अर्थ क्या है, लोगों को समझ में नहीं आता। इसको भी समझाने की आवश्यकता है, यानी यह सि$र्फ अमूर्त दस्तावेज़ न हो, अमूर्तताओं का पुलिंदा न हो, सि$र्फ कानूनों का पुलिंदा न हो बल्कि यह हमारे जीने के तरीके में शामिल हो सके। यह काम भारत ज्ञान-विज्ञान समिति ने, ज्ञान-विज्ञान आंदोलन ने किया है लेकिन अभी भी इसे बहुत ज़्यादा विस्तृत करने की आवश्यकता है।


(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग में प्रोफेसर एवं स्तंभकार हैं। शिक्षा, संस्कृति, सांप्रदायिकता, हिंसा, मानवाधिकार पर हिंदी और अंग्रेज़ी में नियमित लेखन करते हैं।)



कॉपरनिकस की पुण्यतिथि (24 मई) पर उन्हें याद करते हुए

- अशोक पाण्डे 

ब्लैक डैथ एक ऐसी महामारी थी जिसने यूरोप की आधी आबादी का स$फाया कर दिया था। 14वीं शताब्दी के इस त्रासद दौर के बाद अगले तीन सौ बरस तक यूरोप ने अपना पुनर्निर्माण किया। ग्रीक और रोमन सभ्यताओं के ज्ञान को दोबारा से खोजा गया। कला और विज्ञान के प्रति लोगों में नई दिलचस्पी जागी और पढ़े-लिखे लोगों ने इस सिद्धांत का प्रचार-प्रसार किया कि आदमी के विचारों की क्षमता असीम है और एक जीवन में वह जितना चाहे उतना ज्ञान बटोर कर सभ्यता को आगे बढ़ाने में महत्त्वपूर्ण योगदान कर सकता है। तीन सौ बरस का यह सुनहरा अंतराल रेनेसां, यानी पुनर्जागरण कहलाया।

रेनेसां के मॉडल के तौर पर अक्सर पोलैंड के निकोलस कॉपरनिकस का नाम लिया जाता है। गणितज्ञ और खगोलशास्त्री कॉपरनिकस चर्च के कानूनों के ज्ञाता, चिकित्सक, अनुवादक, चित्रकार, गवर्नर, कूटनीतिज्ञ और अर्थशास्त्री भी थे। उनके पास वकालत में डॉक्टरेट की डिग्री थी और वह पोलिश, जर्मन, लैटिन, ग्रीक और इटैलियन भाषाओं के विद्वान थे। 19 $फरवरी 1473 को तांबे का व्यापार करने वाले परिवार में जन्मे कॉपरनिकस चार भाई-बहनों में सबसे छोटे थे। दस के थे जब माता-पिता दोनों का देहांत हो गया। आगे की परवरिश मामा ने की। 

मामा ने ही उन्हें क्राकाव यूनिवर्सिटी पढ़ने भेजा जहां उन्होंने गणित, ग्रीक और इस्लामी खगोलशास्त्र का अध्ययन किया। वहां से लौटने के बाद मामा ने आगे की पढ़ाई के लिए अपने काबिल भांजे को इटली भेजने का मन बनाया। यातायात के साधन दुर्लभ थे और दो महीनों की लम्बी पैदल यात्रा के बाद कॉपरनिकस किसी तरह इटली पहुंचे जहां अगले छ: साल तक यूरोप के सबसे प्राचीन और सर्वश्रेष्ठ दो अलग-अलग विश्वविद्यालयों - बोलोना और पाडुआ - में उनकी पढ़ाई हुई। यहीं उन्होंने उन सारी चीज़ों पर सवाल करना शुरू किया जो उनके अध्यापक कक्षाओं में पढ़ाया करते थे। ब्रह्माण्ड की संरचना के बारे में अरस्तू और टॉल्मी के सिद्धान्तों में उन्हें घनघोर विसंगतियां नज़र आईं। 

1503 में जब वे वापस घर लौटे उनकी उम्र तीस की हो चुकी थी। मामा प्रभावशाली आदमी थे और उनकी सि$फारिश पर उन्हें स्थानीय चर्च में कैनन की नौकरी मिल गई। इस पेशे में उन्हें नक्शे बनाने के अलावा टैक्स इकठ्ठा करना और चर्च के बही-खातों को देखना होता था। आराम की नौकरी थी। 1510 में मामा सिधार गए। 

कॉपरनिकस ने अपना अलग घर बनाया और अपने खगोलीय अध्ययन के वास्ते एक टॉवर बनवाई। उस समय तक टेलिस्कोप का आविष्कार नहीं हुआ था। लकड़ियों और धातु के पाइपों की मदद से वे नक्षत्रों की गति का अध्ययन किया करते। 1514 में उन्होंने एक वैज्ञानिक रपट लिख कर अपने दोस्तों को बांटी। भौतिक विज्ञान के इतिहास में इस रपट को अब 'द लिटल कमेंट्रीÓ के नाम से जाना जाता जाता है। कॉपरनिकस ने दावा किया कि धरती सूरज के चारों ओर घूमती है, न कि सूरज धरती के, जैसा कि धर्मशास्त्रों में लिखा था। इस सिद्धांत से अरस्तू और टॉल्मी के सिद्धान्तों की दिक्कतें दूर हो जाती थीं। इस शुरुआती काम के बाद अगले दो दशक गहन अध्ययन के थे।  

1532 के आते-आते कॉपरनिकस अपने सिद्धांतों को एक पांडुलिपि का रूप दे चुके थे। इसका प्रकाशन उन्होंने जानबूझ कर रोके रखा क्योंकि उन्हें आशा थी वे कुछ और सामग्री जुटा सकेंगे। इसके अलावा उन्हें यह भय भी था कि पादरी लोग भगवान के नाम पर बड़ा बखेड़ा खड़ा करेंगे। कुछ सालों बाद जर्मनी से एक नामी गणितज्ञ जॉर्ज रेटिकस उनके साथ काम करने पोलैंड आए। कॉपरनिकस अड़सठ के हो चुके थे जब उनकी सहमति से संशोधित पांडुलिपि को लेकर जॉर्ज रेटिकस नूरेमबर्ग पहुंचे जहां योहान पेट्रियस नाम के प्रिंटर ने उसे 'ऑन द रेवोल्यूशंस ऑ$फ द हेवनली स्$फीयर्सÓ नामक क्रांतिकारी किताब की शक्ल दी। 

किताब की शुरुआत में कॉपरनिकस ने एक रेखाचित्र के माध्यम से ब्रह्माण्ड के आकार के बारे में बताया। इसमें सूर्य को केंद्र में रख उन्होंने उसके चारों तर$फ अलग-अलग कक्षाओं में परिक्रमा करने वाले सभी ग्रहों को दिखाया था। जटिल गणनाओं के बाद उन्होंने यह भी बताया था कि इनमें से हर ग्रह को सूर्य का एक फेरा लगाने में कितना समय लगता है। आज के उन्नत खगोलविज्ञान और उसकी तकनीकों की मदद से ग्रहों की परिक्रमा का जो समय निकलता है, कॉपरनिकस की गणना आश्चर्यजनक रूप से उसके बहुत करीब है। किताब छपकर नहीं आई थी और लम्बे समय से बीमार कॉपरनिकस कोमा में जा चुके थे। बताते हैं कि जब पहली प्रति उनके पास पहुंचाई गई वे बेहोशी से उठ बैठे और लम्बे समय तक आंखें मूंदे किताब को थामे रहे। कुछ दिनों बाद उनकी मौत हो गई। वे यह देखने को जीवित नहीं बचे कि कैसे उनकी महान क्रांतिकारी रचना ने पादरियों और धर्मगुरुओं के बनाए संसार को उसकी धुरी से रपटा दिया था। 

ज़ाहिर है कॉपरनिकस की किताब ने धर्म के कारोबारियों को बौखला दिया। चर्च का आधिकारिक बयान आया जिसमें किताब को 'झूठा और पवित्र धर्मशास्त्र की खिला$फत करने वालाÓ बताया गया। कोई 60 साल बाद इटली के ब्रूनो को सि$र्फ इसलिए जि़ंदा जलाए जाने की सज़ा दी गई कि उसने कॉपरनिकस के सिद्धांत का प्रचार-प्रसार किया। इसी अपराध के लिए गैलीलियो को जि़ंदा तो नहीं जलाया गया अलबत्ता उसके समूचे जीवन को अपमान और तिरस्कार से भर दिया गया। 

आज जब आदमी मंगल पर घर बनाने की कल्पना कर रहा है, हमें कॉपरनिकस को याद रखना चाहिए, समूचे अन्तरिक्षविज्ञान की बुनियाद में जिसकी चालीस-पचास सालों की साधना चिनी हुई है। कॉपरनिकस का जीवन बताता है सच्चाई की खोज कभी निष्फल नहीं जाती और उसकी रोशनी सदियों बाद तक आदमी के रास्ते को आलोकित करती रहती है। 1543 में 24 मई को कॉपरनिकस की देह की मृत्यु हुई। उनकी आत्मा दुनिया-भर की प्रयोगशालाओं में जीवित है।

(लेखक कवि, चित्रकार एवं अनुवादक हैं। कई प्रमुख विश्वकवियों का हिंदी में अनुवाद। शमशेर बहादुर सिंह और वीरेंद्र डंगवाल की कविताओं का अंग्रेज़ी में भी अनुवाद।)



बेहतरीन विज्ञान अध्यापक,एक चलती-फिरती प्रयोगशाला एवं लाइब्रेरी

- बूटा सिंह

सेवानिवृत्त मुख्याध्यापक भारतभूषण जी का जन्म मूलत: मोगा (पंजाब) में हुआ था। वे 90 के दशक में शिक्षा विभाग हरियाणा में विज्ञान अध्यापक के पद पर नियुक्त हुए और सिरसा में रहने लगे। उसके बाद 2013 में मौलिक मुख्याध्यापक के पद पर पदोन्नत हुए तथा 31 मई 2017 को सेवानिवृत्त हो गए थे। उन्हें भी इस कोविड महामारी ने असमय ही परिवार से छीन लिया। भारतभूषण जी जैसे विज्ञान अध्यापक बहुत ही कम होते हैं! उनका विज्ञान पढ़ाने का तरीका बहुत ही सरल एवं रोचक था। विज्ञान जैसे विषय को बच्चों के रोज़ाना जीवन से जोड़कर पढ़ाते थे। सबसे बड़ी बात यह कि जिस तरह हमारी शिक्षा व्यवस्था सवालों को मारने वाली तथा रट्टा-आधारित है तो अधिकतर लोग इसी व्यवस्था के अनुसार पढ़ाते हैं। जब निजी प्रकाशकों की बहुत सारी सहायक पुस्तकें, गेस् पेपर उपलब्ध हैं और पाठ्य पुस्तकें सुनियोजित तरीके से बाईपास कर दी गई हैं, इस दौर में भी भारतभूषण जी ने इस परंपरागत तरीके की बजाय पढ़ाने का अलग रास्ता चुना और बच्चों के सवालों को खत्म नहीं होने दिया। उन्होंने अपने पढ़ाने के तरीके में इतना स्पेस पैदा किया कि कक्षा में बच्चे बिना किसी हिचक के सवाल पूछ सकें।

वे का$फी समय तक राजकीय उच्च विद्यालय फूलकां में कार्यरत रहे। इसी दौरान वे हरियाणा विज्ञान मंच की तर$फ से शुरू की गई बाल विज्ञान कांग्रेस के पहले जि़ला संयोजक बने। उनके नेतृत्व में विज्ञान अध्यापकों द्वारा कितने ही बाल वैज्ञानिकों से विज्ञान के प्रोजेक्ट तैयार करवाए गए और जि़ला, राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर प्रस्तुत किए गए। विज्ञान की पाठ्य पुस्तक के कुछ पाठ जैसे कि 'जन्तुओं में जननÓ और 'किशोरावस्था की ओरÓ पाठ अक्सर ही बहुत से अध्यापक कक्षा में नहीं पढ़ाते लेकिन भारतभूषण जी कहते थे कि इन पाठों को तो ज़्यादा तैयारी एवं गंभीरता के साथ पढ़ाने की ज़रूरत है ताकि बच्चों को अपने शरीर के बारे में सही ज्ञान प्राप्त हो सके। यदि हम इन पाठों को छोड़ेंगे तो बच्चे अपने आप ज़रूर पढ़ेंगे तथा कहीं न कहीं से गलत जानकारी प्राप्त करेंगे। फूलकां में अपने कार्यकाल के दौरान वे हरियाणा विद्यालय अध्यापक संघ से जुड़े। सिरसा खंड में कई वर्षों से ब्लॉक कमेटी नहीं थी। वे सिरसा ब्लॉक के तीन वर्ष तक प्रधान रहे एवं खंड से बहुत सारे नए साथियों को अध्यापक संघ से जोड़ा। सिरसा ब्लॉक को चलाने में उनका बहुत बड़ा योगदान रहा। अध्यापक संघ की मीटिंगों में वे पूरी गंभीरता से बातों को सुनते और बहुत कम बोलते लेकिन जब बोलते तो बिल्कुल संक्षिप्त शब्दों में तथ्यों सहित अपनी बात रखते। सभी साथी उनकी इस गंभीरता के कायल थे।

मुख्याध्यापक पदोन्नत होने के बाद वे राजकीय माध्यमिक विद्यालय, ढाबां (खंड बड़ा गुढ़ा) में आए। इस स्कूल में बच्चों की संख्या बहुत ही कम थी। उन्होंने अपने स्टा$फ के साथ एक टीम के रूप में कार्य करते हुए डोर टू डोर अभियान चलाकर विद्यालय में बच्चों का दाखिला बढ़ाया। उनके बच्चे खेल एवम् अन्य गतिविधियों में जि़ला स्तर तक विद्यालय का नाम रोशन करते रहे।

सेवानिवृत्त होने के बाद भी भारत भूषण जी घर नहीं बैठे। उसके बाद वे हरियाणा ज्ञान-विज्ञान समिति से जुड़े और बड़ा गुढ़ा में ज्ञान-विज्ञान समिति की इकाई का गठन किया तथा सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को लेकर एक बड़ी विचार गोष्ठी करवाई गई। हरियाणा में सार्वजनिक शिक्षा को मज़बूत करने के लिए जब जन शिक्षा अधिकार मंच का गठन किया गया। उसमें सभी जि़लों में सेवानिवृत्त अध्यापक (जो अध्यापक संघ में काम करते रहे थे) उन्होंने ही जि़म्मेदारी संभाली। सिरसा में भारतभूषण जी ने जि़ला संयोजक की जि़म्मेदारी संभाली। कई गांवों में जन शिक्षा अधिकार मंच की तर$फ से अभिभावकों के साथ विचार-विमर्श किया गया। लेकिन उन्होंने अपना अध्यापन का कार्य नहीं छोड़ा।

उनके मित्रों का दायरा बहुत ही बड़ा था और जिस भी अध्यापक मित्र के स्कूल में विज्ञान का पद खाली था वहां भारतभूषण जी  स्वेच्छा से विज्ञान पढ़ाने जाते, विशेषकर माध्यमिक विद्यालय, भादड़ा और उच्च विद्यालय, वैदवाला में का$फी समय तक विज्ञान पढ़ने जाते रहे। उच्च विद्यालय, करंगावाली में भी कई बार वह बच्चों को विज्ञान पढ़ाने के लिए आए। सब से अच्छी बात थी कि वह प्रयोग करते हुए विज्ञान को पढ़ाते और प्रयोग भी विज्ञान प्रयोगशाला के सामान से नहीं करते थे बल्कि अपने पास थैले में दवाइयों वाली खाली वायल (शीशियां), खाली री$िफल, मोमबत्ती और साइकिल के वॉल्व वाली ट्यूब रखते। खाली शीशी ही वुल्$फ बोतल होती थी, खाली री$िफल नली, कांच का गिलास बीकर एवं मोमबत्ती ही उनका स्प्रिट लैंप थी। पोटैशियम परमैंगनेट (लाल दवाई) को खाली शीशी में रखकर मोमबत्ती के ऊपर गर्म करते और कांच के गिलास में पानी भरकर साइकिल के बाल्व वाली ट्यूब पानी में छोड़ते तो उस पानी में जब बुलबुले उठते तो बच्चों को बताते की यह ऑक्सीजन गैस बन रही है। इसी प्रकार अन्य प्रयोग करवाते और यह सारा काम बच्चों के बीच में बैठकर उन्हीं से करवाते थे। उसके बाद वे बच्चों को अपने घर में प्रयोग करने और कक्षा में सवाल पूछने के लिए प्रोत्साहित करते। उनका मुख्य उद्देश्य बच्चों में वैज्ञानिक दृष्टिकोण विकसित करना होता था। वे पीपल के वृक्ष द्वारा रात को ऑक्सीजन छोड़ने, हवन करने से ऑक्सीजन पैदा होने एवं मूत्र के दवा होने जैसे पोंगापंथी विचारों का पूरी शालीनता से तर्कसहित खंडन करते।

2020 में उन्होंने अध्ययन और चिंतन की परंपरा को शुरू करने के लिए सिरसा के कामगार भवन में गुरबख्श मोंगा जी एवम् अन्य कुछ साथियों के साथ मिलकर राहुल सांकृत्यायन पुस्तकालय शुरू किया। पुस्तकालय के लिए आर्थिक संसाधन जुटाने और किताबें उपलब्ध करवाने के लिए उन्होंने टीम के रूप में डोर टू डोर अभियान चलाया। उन्होंने किसी साथी से आर्थिक सहयोग लिया, किसी से पुस्तकों की सूची मंगवाई, किसी से पुस्तके मंगवाईं और बढ़िया पुस्तकालय की शुरुआत की। उससे भी बड़ा काम कि पुस्तकालय के अंदर हर रविवार विचार-विमर्श की प्रक्रिया चलाई। इस  विचार-विमर्श में कोई वक्ता होने की बजाय सभी उपस्थित साथी अपने-अपने विचार रखते तथा बहस करते। यह विचार-विमर्श अक्सर ही किसी पुस्तक पर, किसी तात्कालिक मुद्दे पर या किसी शख्सियत के जीवन पर होता था। महीने में एक बार किसी विषय पर विचार गोष्ठी या सेमिनार होता था और इस सेमिनार में वे सिरसा जि़ले के ही प्रबुद्ध नौजवान साथियों को मौका देते, उनका हौसला बढ़ाते। उन्होंने 14 अप्रैल 2021 को पुस्तकालय में डॉ. अम्बेडकर के जन्म दिवस पर एक कार्यक्रम किया था, हमें क्या पता था कि यह उनके जीवन का अंतिम कार्यक्रम होगा!

भारतभूषण जी का असामयिक निधन उनके परिवार एवं समाज के लिए अपूरणीय क्षति है। जिन साथियों ने भारतभूषण जी के साथ काम किया है वे उनके काम को, उनके व्यक्तित्व को कभी भुला नहीं सकते। उनके कार्यों और अध्ययन चिंतन की परंपरा को आगे बढ़ाना ही उनको सच्ची श्रद्धांजलि होगी। भारतभूषण जी, आप सदैव हमारी स्मृतियों में बने रहेंगे!

(लेखक हरियाणा ज्ञान-विज्ञान समिति के राज्य शिक्षा कोर ग्रुप के सदस्य और हरियाणा विद्यालय अध्यापक संघ, सिरसा के ज़िला सचिव हैं।)



नया हिंदी सिनेमा : दलित मुक्ति का संघर्ष

- जवरीमल्ल पारख

1990 के दशक में दक्षिणपंथी और सांप्रदायिक उभार ने ऐसी परिस्थितियां पैदा कर दीं जिनकी वजह से दलितों पर हमले बढ़ते चले गए। अंतरजातीय और अंतरगोत्रीय विवाह को रोकने के नाम पर उत्तर-पश्चिम भारत में जाति आधारित खाप पंचायतें सक्रिय होने लगीं और 'ऑनर किलिंगÓ के नाम पर युवाओं की हत्याएं होने लगीं। कुछ $िफल्मकारों ने इनको लेकर $िफल्में भी बनाने का साहस दिखाया। आक्रोश (2010), खाप (2011), गुड्डू रंगीला (2015), धड़क (2018) आदि में इसी विषय को उठाया गया था। नीरज गैवान की $िफल्म मसान (2015) में भी सवर्ण और दलित के बीच के प्रेम को कहानी का विषय बनाया गया है। 

'ऑनर किलिंगÓ पर बनने वाली अधिकतर $िफल्में लोकप्रिय विधा में बनी हैं, इसलिए इस प्रश्न को जितनी गंभीरता से लिया जाना चाहिए उतनी गंभीरता से नहीं लिया गया है। इस दृष्टि से मराठी में बनी $िफल्म सैराट ज्यादा प्रभावशाली है जिससे प्रेरित होकर हिंदी में धड़क (2018) बनी थी। मराठी में बनी सैराट (2016) एक मछुआरे युवक प्रशांत काले (आकाश थोसर) और उच्च जाति (पाटिल) की युवती अर्चना (रिंकु राजगुरु) की प्रेम कहानी है। अर्चना और प्रशांत एक ही कॉलेज में साथ-साथ पढ़ते हैं और उनमें आपस में प्रेम हो जाता है। अर्चना के पिता तात्या पाटिल (सुरेश विश्वकर्मा) गांव के धनी और शक्तिशाली व्यक्ति हैं। जब उन्हें  इस बात की जानकारी मिलती है कि एक गरीब मछुआरे का बेटा उनकी बेटी से प्रेम करता है तो उसके साथ ज़बरदस्त मारपीट की जाती है, उसके घर वालों को डराया-धमकाया जाता है, यहां तक कि उसकी हत्या करने की कोशिश की जाती है। अर्चना को भी घर में कैद कर लिया जाता है। लेकिन एक दिन वह अपने प्रेमी के साथ घर से भाग जाती है। दोनों का पीछा किया जाता है लेकिन किसी तरह बचते-बचाते वे दोनों हैदराबाद पहुंच जाते हैं। जीवनयापन के लिए उनके पास कुछ नहीं होता। लेकिन वे साहस नहीं छोड़ते। छोटी-मोटी नौकरियां करते हुए आखिरकार वे शादी करने और अपना घर बसाने में कामयाब हो जाते हैं। उनका एक बेटा भी होता है। दूसरी जाति की लड़की से संबंध बनाने के कारण प्रशांत के घर वालों को भी का$फी परेशानियों का सामना करना पड़ता है। प्रशांत की छोटी बहन से कोई शादी करने के लिए तैयार नहीं होता। हैदराबाद में रहते हुए अर्चना को बीच-बीच में अपने घर-परिवार की याद आती है। वह कभी-कभार अपनी मां को $फोन करती है। धीरे-धीरे उसके पिता और भाई को भी अर्चना और प्रशांत के हैदराबाद में होने की जानकारी मिल जाती है। अर्चना को लगता है कि उसके पिता और भाई का गुस्सा अब समाप्त हो गया है। एक दिन उसका भाई प्रिंस अपने बिरादरी के कुछ लोगों के साथ उनके घर पहुंच जाते हैं। बहन अपने भाई और उनके साथ आने वाले का स्वागत करती है। अपने माता-पिता द्वारा भेजे उपहार पाकर खुश होती है। उन सबके लिए चाय बनाती है और पति के हाथों उनके पास चाय भेजती है। उनका लगभग दो साल का बेटा किसी पड़ोस की स्त्री के साथ घर से बाहर है। उसी दौरान पड़ोसी औरत बच्चे को घर के दरवाज़े पर छोड़ जाती है। बच्चा जब अंदर जाता है तो उसे अंदर $फर्श पर पड़ी खून से लथपथ अपने माता-पिता की लाशें दिखाई देती हैं। 

सवर्णवादी मानसिकता का जो ज़हर अर्चना के घर-परिवार और बिरादरी वालों की नसों में बह रहा था, उसका असर इतने सालों बाद भी कम नहीं हुआ था। दलित लड़के के साथ अपने घर की बेटी का विवाह उनके लिए जाति-बिरादरी के सामने अपनी प्रतिष्ठा का धूल में मिल जाना था। इसी उच्च जाति के होने के गर्व और प्रतिष्ठा को बचाने  के लिए वे अपनी ही बेटी और दामाद की हत्या कर डालते हैं। सैराट हालांकि लोकप्रिय सिनेमा की विधा में ही बनी है लेकिन निर्देशक नागराज मंजुले ने इसके माध्यम से 'ऑनर किलिंगÓ की भयावहता को कहीं भी कम नहीं होने दिया है।

मुल्क (2018) और थप्पड़ (2020) जैसी महत्त्वपूर्ण $िफल्म बनाने वाले अनुभव सिन्हा अपनी $िफल्म आर्टिकल 15 (2019) के माध्यम से 'ऑनर किलिंगÓ के एक और सत्य को सामने लाते हैं। भारतीय संविधान के आर्टिकल 15 में समानता के मूल अधिकार की विस्तार से व्याख्या की गई है। इस आर्टिकल के अनुसार, 'राज्य किसी भी नागरिक के साथ धर्म, नस्ल, जाति, लिंग और जन्म के स्थान के आधार पर भेदभाव नहीं करेगाÓ। लेकिन हम रोज़ाना देखते हैं कि संविधान की इस धारा की किस तरह धज्जियां उड़ाई जाती हैं। $िफल्म की कहानी आइपीएस अधिकारी अयान रंजन (आयुष्मान खुराना) के माध्यम से कही गई है जिसकी पहली पोस्टिंग उत्तर प्रदेश के लालगांव में हुई है। अपने ऑ$िफस तक पहुंचते-पहुंचते उसे एहसास हो जाता है कि किस तरह उसका अपना महकमा जातिवाद के ज़हर से ग्रसित है। संविधान कुछ भी कहता हो लेकिन वहां मनुष्य को उसके कामों से नहीं बल्कि उसकी जाति से पहचाना जाता है। जाति ही तय करती है कि किसके हाथ का पानी पीना है और किसके हाथ का नहीं, या उसके साथ मनुष्य की तरह व्यवहार करना है या जानवर की तरह। जो केस सबसे पहले उसके सामने आता है, वह दो नाबालिग लड़कियों की हत्या का है जिनकी लाशें उनके घर के बाहर पेड़ों पर लटकी मिलती हैं (ठीक ऐसी ही घटना बदायूं में हुई थी)। विभाग के ही ब्राह्मण पुलिस इंसपेक्टर ब्रह्मदत्त (मनोज पाहवा) उसे यह समझाने की कोशिश करता है कि यह 'ऑनर किलिंगÓ का केस है। ये दोनों लड़कियां घर से भाग गई थीं। उनके आपस में समलैंगिक रिश्ते थे इसलिए उनके घर वालों ने उनको मारकर पेड़ों पर लटका दिया। अगर कोई केस बनता है तो उनके घर वालों पर ही बनता है। लेकिन अयान रंजन जल्दी ही समझ जाता है कि जो कहानी उसे बताई जा रही है, सच्चाई उससे कुछ अलग है। उसे यह भी पता चलता है कि दो नहीं, तीन लड़कियां गायब हुई थीं जिनमें से दो लड़कियों की तो लाशें मिल गई थीं लेकिन तीसरी लड़की पूजा का अभी भी कुछ पता नहीं है। एक जूनियर लेडी डॉक्टर से जिसने उन लड़कियों का पोस्ट मार्टम किया था, उसे मालूम पड़ता है कि इन लड़कियों के साथ सामूहिक बलात्कार हुआ था और उसके बाद इनकी हत्या की गई। अयान रंजन पर राजनीतिक दबाव डाला जाता है कि 'ऑनर किलिंगÓ बताकर केस को क्लोज़ कर दे। सीनियर डॉक्टर अवधेश ऐसी ही रिपोर्ट भी दे देता है कि उनके साथ बलात्कार नहीं हुआ था और बच्चियों के पिताओं ने ही उनकी हत्या की है। अयान रंजन का दोस्त सत्येंद्र (आकाश दभाडे) जो लाशें मिलने के दिन से गायब है, उससे पूरी सच्चाई मालूम पड़ती है कि इस हत्या और बलात्कार में अंशु नहारिया नामक एक ठेकेदार और ब्रह्मदत्त दोनों शामिल थे और निहाल सिंह (सुशील पांडेय) जिसकी बहन अमली (सुंबुल तो$कीर) अयान रंजन के घर खाना बनाती है, उसने भी लड़कियों के साथ बलात्कार किया था। सत्येंद्र के सामने ही लाशें पेड़ पर लटकाई गई थीं। अंशु नहारिया के यहां बहुत से दलित लड़के-लड़कियां काम करती थीं जिन्हें पच्चीस रुपये रोज़ की मज़दूरी मिलती थी। इन लड़कियों ने मज़दूरी पच्चीस रुपये से बढ़ाकर अ_ाइस रुपये करने की मांग की थी। बस इसीलिए उनको और उनकी जाति को उनकी औकात दिखाने के लिए उनके साथ बलात्कार किया गया, हत्या की गई और उनको पेड़ों पर लटका दिया गया। अयान रंजन अंशू नहारिया का डीएनए टेस्ट कराता है और उसे यह सच्चाई भी मालूम पड़ जाती है कि बलात्कार अंशु नहारिया ने किया था। उसके नाम का वारंट जारी हो जाता है। वह $फरार हो जाता है और $फरारी के दौरान ही ब्रह्मदत्त उसकी हत्या कर देता है, ताकि जांच की आंच उस तक न पहुंचे। अयान रंजन को इस मामले से हटाने के लिए मामला सीबीआई को सौंप दिया जाता है और सीबीआई का अधिकारी अपने राजनीतिक आका के आदेशानुसार अयान रंजन को निलंबित कर देता है और मामले को र$फा-द$फा करने का प्रयत्न करता है। इसके बावजूद अपने विभाग के लोगों की मदद से अयान रंजन न केवल पूरे मामले के सबूत इक_े करने में कामयाब होता है, वह ब्रह्मदत्त को भी गिर$फ्तार करता है और तीसरी लड़की पूजा को भी जंगल से ढूंढ़ निकालता है जो डर के मारे वहां छुपी हुई थी।

यह $िफल्म एक साथ कई स्तरों पर चलती हैं। दलितों के साथ होने वाले हर तरह के अत्याचार और उत्पीड़न को यह $िफल्म अपनी कहानी का हिस्सा बनाती है। $िफल्म में दो और कहानियां समानांतर चलती हैं। एक, राजनीति की जहां दलित नेता शांति प्रसाद और एक ब्राह्मण महंत हिंदू एकता के नाम पर दलित और ब्राह्मण एकता का नारा देते हैं ताकि चुनावों में दलितों के वोट हासिल किए जा सकें। दूसरी कहानी भीम सेना के निषाद (मोहम्मद ज़ीशान अय्यूब) और गौरा (सयानी गुप्ता) की है, जो दलितों के अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं। निषाद पहले भी राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत जेल जा चुका है और अब भी वह भूमिगत है। उसका दलित राजनीति से मोहभंग हो चुका है। वह कहता भी है कि 'हम कभी हरिजन हो जाते हैं, कभी बहुजन हो जाते हैं, लेकिन कभी जन नहीं हो पाते कि इस जनगण में हमारी भी गिनती होÓ। मंदिर में प्रवेश के नाम पर जब कुछ दलितों की सरेआम पिटाई होती है तो वह मरे हुए मवेशी उठाने वालों और स$फाई मज़दूरों की हड़ताल करवा देता है। सीबीआई की जांच के दौरान निषाद को सादे वेश में पुलिस उठा ले जाती है और एनकाउंटर के नाम पर उसकी हत्या कर दी जाती है। निषाद इस $िफल्म का नायक नहीं है, वह भविष्य की उन $िफल्मों का नायक है जहां वह दलितों के शोषण और उत्पीड़न की कहानी खुद कहेगा। इस चरित्र में रोहित वेमुला, चंद्रशेखर रावण और जिग्नेश मेवाणी की झलक नज़र आती है। अयान रंजन की पत्नी अदिति अपने पति की इस बात पर कि 'उन्हें बस हीरो चाहिएÓ कहती है कि उन्हें ऐसे लोग चाहिए जो किसी हीरो का इंतज़ार न करें। निषाद ऐसा ही दलित नायक है जो अभी हाशिए पर है। यह प्रसंग संभवत: इस आलोचना से बचने के लिए है कि इस $िफल्म का नायक भी एक ब्राह्मण है और $िफल्म यह कहती प्रतीत हो सकती है कि दलितों का उद्धार भी सवर्णों के नेतृत्व बिना मुमकिन नहीं है। 

आर्टिकल 15 यह बताने में कामयाब है कि भारतीय व्यवस्था किस हद तक दलितों के प्रति क्रूर और हिंसक है। $िफल्म, व्यवस्था की इस सच्चाई को, उसके अंदर की सड़न को सामने लाने में कामयाब है, जिसे पानी के प्रतीक द्वारा कई तरह से दिखाया गया है। िफल्म के आरंभ में ही अयान रंजन को बोतल का पानी पीने से रोका जाता है क्योंकि वह बोतल एक पासी की दुकान से आई है। दलितों की हड़ताल से हर तर$फ लगता गंदगी का ढेर और सड़कों पर बहता गटर का पानी, उसी गटर में गंदगी सा$फ करने उतरते लोग जिन्हें सवर्ण जातियां इंसान मानने से भी इन्कार करती हैं और पूजा को ढूंढ़ने के लिए कीचड़ भरे एक तालाब में उतरकर उसे पार करते पुलिस महकमे के लोग और उनकी अगुवाई करता अयान रंजन। जब उससे पूछा जाता है कि क्या आप इस कीचड़ में उतरेंगे तो वह कहता है, एक न एक दिन तो ब्राह्मणों को भी कीचड़ में उतरना ही पड़ेगा। $िफल्म में गटर साफ करने के लिए दलित ही उतरता है लेकिन दलित लड़की पूजा को ढूंढ़ने के लिए अयान रंजन का अपने साथियों के साथ कीचड़ में उतरना और पूजा को ढूंढ़ निकालना प्रतीकात्मक भी है। जिस दलित का पानी पीने से $िफल्म के आरंभ में उसे रोका गया था, उसी ढाबे में बैठकर पानी भी पीते हैं और रोटी भी खाते हैं। लेकिन लड़ाई सिर्फ इतनी नहीं है। दलित के साथ खाना खाने का ढोंग तो महंत भी करता है। लड़ाई इससे ज़्यादा बड़ी है। हमारा संविधान जो प्रत्येक भारतीय नागरिक को समानता का अधिकार देता है, उस संविधान को इस व्यवस्था ने ही कूड़ेदान में डाल दिया है। अयान रंजन कहता भी है कि 'असली लड़ाई यही है कि उस किताब की चलानी पड़ेगीÓ, उस किताब की, यानी संविधान की। उसमें लिखे मूल अधिकारों और आर्टिकल 15 को सच्चे अर्थों में लागू करने की। जबकि निषाद इस व्यवस्था को ही बदलना चाहता है, हिंसा के रास्ते से नहीं वरन जन-जागृति और जन-आंदोलन के रास्ते से क्योंकि वह यह जान चुका है कि हिंसा को कुचलना व्यवस्था के लिए आसान होता है।


(पारख जी इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय से हिंदी के सेवानिवृत्त प्रो$फेसर, $िफल्म समीक्षक एवं लेखक हैं।)


Saturday, October 1, 2022

AIPSN NEP 2020

 AIPSN Suggests the following as Campaign Strategy for NEP 2020:

a. a new, simple Leaflet in different languages directly addressing students, teachers, parents etc be prepared highlighting major issues and dangers, along with a brief Summary of the AIPSN overall critique (Position Paper)
b. reinvigorate JFME but, given present weaknesses at State level, AIPSN should also form broader “JFME Plus” platforms in each State bringing together all stakeholders
c. full efforts be made to involve not only committed Unions and Left/progressive organizations and individuals but all sections so as not to appear partisan-political
d. common people, parents, teachers, students who are very confused about NEP need to be convinced and mobilized; sections of the middle-classes even think high fees, privatization, vocational courses etc etc are good measures

5. Activities Combination of virtual and physical Campaign (as per Covid norms) depending on local conditions:
a. State level Coalition/Platform Meetings
b. State level Conventions
c. State level Activists Camps
d. District level Conventions
e. Public protests activities (at different levels depending on State capability)
f. National-level Policy-level advocacy and lobbying by AIPSN core Group

मेरा गांव

 मेरा गाँव ____________________


पुलिस सिपाही और दरोगा सरपंचों ने हाथ मिलाये ।।
मलंग दो दो तीन हरेक जाति के इनके संग आये।।
1
महज दबंग नहीं अब मलंग के कब्जे में गाँव हुआ
सरपंच के बाएं दायें बनके लूट  का अब काम हुआ
पहले बी डी ओ की मार्फ़त गाँव का पैसा लगता था
बी डी ओ सरपंच मिलके हमारे गाँव को ठगता था
अब मलंग दबंग और पुलिस साथ हुए हैं सरपंच के
विकास का पैसा बलि चढ़ा आज इनके छल प्रपंच के
ठेकेदारी प्रथा छाई देश में देश को आज बर्बाद किया 
हरेक क्षेत्र में ठेकेदारों को आज पूरी तरह आबाद किया
गाँव के बाकी नब्बे लोग भूखे प्यासे ही आज खटते हैं
उनकी मेहनत के बहोत से हिस्से मलंगों बीच  बँटते हैं
बहन बेटी बहु महिला पर  इन सबकी बुरी नजर देखो
चरित्रहीन का फिर दोष लगाते करते मुश्किल डगर देखो
बिन ब्याही गर्भवती की संख्या गाँव में बढ़ रही बताते हैं
आस पडौस चाचा ताऊ भाई के हत्थे चढ़ रही बताते हैं
इसके अलावा भी सेक्श माफिया गाँव में जा पहुंचा है
शहरों की सड़ांध का असर अब तो गाँव तक आ पहुंचा है
दारू ने हरेक गाँव में बहुत ही जयादा कहर ढाया देखो
घर कोई बचा नहीं शायद कोई मेंबर ही बच पाया देखो  
बिना बयाहे गरीब नौजवान दारू पास अपने बुलाती देखो
दिमाग दिल और जिगर को धीमें धीमें खाती जाती देखो
दारू ने आज चोर हमको अहिस्ता अहिस्ता बनाया देखो
पत्नी का गहना  इसके लिए हमने कभी तो है चुराया देखो
यह गाँव है मेरा इसका कैसे आज सुधार और  विकास करूँ
भाईचारा डग्वारा  सब लौटेगा आज कैसे मैं ये विश्वास करूँ
उम्मीद है और यकीन मुझको वह सुबह कभी तो आयेगी
गाँव में इंसान बसेंगे एक दिन ये हैवानियत हार जायेगी
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सिंघु बॉर्डर

 किसान सभा सोनीपत सर्व कर्मचारी संघ हरियाणा , सीटू,  जन स्वास्थ्य अभियान हरियाणा द्वारा सिंघु बॉर्डर सोनीपत पर स्वास्थ्य सहायता कैम्प का संचालन किया 4 दिसम्बर 2020 से जुलाई 2021 तक किया गया। हर्षिता, पूजा, अनुदित (बीएससी नर्सिंग स्टूडें ) , आशा वर्करज यूनियन राज्य महासचिव सुनीता सुदेश आशा वर्कर जिन्होंने लगातार कैंप का संचालन किया । सीटू राज्य राज्य केंद्र की तरफ से सीटू राज्य अध्यक्ष सुरेखा जी ने इस कैंप का लगातार निरीक्षण किया ।सुनीता पूनम छवि पम्मी तमाम आशा वर्करों ने कैम्प को चलाने में अहम भूमिका निभाई है कैंप पर ड्यूटी करने वाली आशा वर्कर्स ने अपने गांव से आसपास के गांव से किसानों से चंदा इकट्ठा करके कैंप पर दवाइयां भी मुहैया करवाने के जिम्मेदारी निभाई । छत्तीसगढ़ से भी डॉक्टरों की टीम ने 8 दिन तक कैंप में ड्यूटी की है   राज कुमार दहिया फार्मासिस्ट, नेत्र चिकित्सा सहायक राजबीर बेरवाल , स्वास्थ्य निरीक्षक सुरेश उचाना की टीम और डॉ सुरेश शर्मा जी प्रधान सामाजिक चिकित्सा महासंघ पानीपत और उनकी 10-  12 आर एम पी डॉक्टरों की टीम अपना तहेदिल से सहयोग दिया।

    10 दिसम्बर 2020 को 659 मरीजों को परामर्श दिया और दवाएं दी। इसी प्रकार 29 दिसम्बर को 162 मरीजों को परामर्श दिया गया। इसी प्रकार रोजाना परामर्श दिया जाता था। कुल ----------मरीज देखे गए ।
जन स्वास्थ्य अभियान हरियाणा

beer's shared items

Will fail Fighting and not surrendering

I will rather die standing up, than live life on my knees:

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