Friday, August 29, 2014
Sunday, August 17, 2014
साहित्य में समाज की खोज
Posted: 16 Aug 2014 06:27 AM PDT
साहित्य में समाज के खोज के अर्थ को जानने से पहले हमें इस बात पर विचार कर लेना आवश्यक जान पड़ता है कि साहित्य और समाज में किस तरह के सम्बन्ध हैं ? क्योंकि साहित्य की अनेक परिभाषाएँ दी गईं हैं । बालकृष्ण भट्ट ने साहित्य को 'जन समूह के हृदय का विकास' माना है तो महावीर प्रसाद द्वेदी ने साहित्य को 'ज्ञानराशि का संचित कोश' माना है । मुक्तिबोध ने 'कलाकृति को जीवन की पुनर्रचना' माना है और रामचन्द्र शुक्ल ने साहित्य को 'जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब' माना है । साहित्य समाज में होने वाली घटनाओं को केवल हूबहू प्रस्तुत नहीं कर देता बल्कि समस्याओं से निकलने की राह भी दिखाता है । शायद इसीलिए प्रेमचंद ने 'साहित्य को समाज के आगे.आगे चलने वाली मशाल' कहा है । इसके साथ ही वह साहित्य का उद्देश्य सिर्फ मनोरंजन करना नही मानते हैंए बल्कि साहित्य को व्यक्ति के 'विवेक को जाग्रत करने वाला' तथा 'आत्मा को तेजोदीप्त' बनाने वाला मानते हैं । कहने का अर्थ यह है कि सभी विद्वान साहित्य से समाज के घनिष्ट सम्बन्ध तो स्वीकार करते हैं ।
अब प्रश्न उठता है कि साहित्य में अभिव्यक्त समाज को कैसे देखा जाए ! इस पर कई सवाल उठते हैं । क्या साहित्य में अभिव्यक्त समाज को हम प्रामाणिक मान सकते हैं ? जबकि साहित्य में साहित्यकार की कल्पनाएँए आशाएँ एवं आकांक्षाएँ भी व्यक्त होती हैं । इन प्रश्नों पर विचार करते हुए हमें पाश्चात्य जगत् के विद्वानों की मान्यताओं पर भी ध्यान देना चाहिए । 'साहित्य से समाज का घनिष्ट संबंध सबसे पहले नारी मादाम स्तेल स्वीकार करते हुए साहित्य, समाज और राजनीति में भी घनिष्ट संबंध स्थापित किया ।'1 'आगे चलकर मादाम स्तेल की मान्यता का विकास तेन ने किया । तेन साहित्य को समाज के बारे में जानने के लिए प्रमुख स्रोत स्वीकार करते थे रिचर्ड हो गार्ड ने भी 'साहित्य कल्पना' से 'समाजशास्त्रीय कल्पना' का संबंध स्वीकार करते हैं ।'2 चूंकि साहित्यकार भी सभ्यताए संस्कृति और समाज की ही निर्मित है । उनकी कलपनाएँ और आकांक्षाएँ भी इसी समाज से अर्जित होती हैं, अत: साहित्य में समाहित कलपनाओं का भी समाजशास्त्रीय अधययन संभव है । हम देखते हैं कि साहित्यिक रचना एक सामाजिक कर्म है और कृति एक 'सामाजिक उत्पादन' । रचना दृ भाषाए भाव और विचारों का विन्यास है । रचना का मर्म उसकी संवेदना और उसकी मानवीय चिंताएं सामाजिक मनोभूमि पर ही प्रतिष्ठित होती हैं । एक सर्जक किसी रचना को जो रूप.आकार और कल्पना देता है वह समाजनिष्ठ होती है । समाज जो कि एक अमूर्त अवधारणा है, उसका सघन और अधिक वर्चस्वकारी रूप हम समूह और समुदाय में देखते हैं । साहित्य रचना और बोध की प्रक्रिया कभी भी अपने सामाजिक संदर्भ से अप्रभावित नहीं रही है । चूंकि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और मनुष्य की मनुष्यता की अभिव्यक्ति कला और साहित्य के माघ्यम से होती है । साहित्य यदि संवेदनवान होता है तो इसीलिए की उसमें मानव जीवन की उपस्थित भी है । मानव वस्तु नही है इसीलिए उसकी संवेदना वस्तु की तरह ठोस नही होती । साहित्य सृजन हमारा भौतिक सौन्दर्य नही है बल्कि वह हमारी आत्मा का सौन्दर्य हैए वह हमारी भावना और मानस का सौन्दर्य है । मनुष्य के प्रत्येक विचार उसके भाव, उसके कार्य, समुदाय अथवा समाज के भावों,विचारों तथा कार्यों से अविच्छिन्न रूप से सम्बद्ध रहते हैं । क्योंकि समाज से बाहर व्यक्ति का सामाजिक अस्तित्व ही नही रहता । इसीलिए तो जिसे असामाजिक या व्यक्तिवादी साहित्य कहा जाता है उसका भी समाज से एक तरह का रिश्ता होता है और साहित्य में समाज को खोजने का अर्थ निश्चित करते समय इसका भी ध्यान रखना चाहिए । हम देखते हैं कि केवल रचना में ही समाज नही होता बल्कि रचना के हर स्तर पर यहाँ तक कि शिल्प, भाषा,संरचना सबमें समाज की अभिव्यक्ति होती है । अब सवाल उठता है कि क्या साहित्य में समाज सीधे.सीधे उतरता है ? अगर हमें कुछ साल पहले का इतिहास जानना हो तो क्या हम साहित्य की मदद ले सकते हैं ?यदि हम स्तंत्रता संग्राम के समय का साहित्य उठाते हैं तो पाते हैं कि उस समय का साहित्य लोगों को जागरुक कर रहा था । इस संदर्भ में अमृतलाल नागर की 'गदर के फूल' और मैथलीशरण गुप्त की 'भारत.भरती' जैसी रचनाएँ देखी जा सकती हैं । स्वतंत्रता संग्राम के समय की रचनाओं में विद्रोह के स्वर मुखर हो रहे थे, इसलिए उस समय की कविताओं, कहानियों,उपन्यासों और नाटकों को प्रतिबंधित किया जा रहा था । अत: स्पष्ट है कि साहित्य समाज और राजनीति से निर्पेक्ष नहीं होता है और अगर देखा जाए तो साहित्य का इतिहास भी समाज के इतिहास से कटा नहीं रह सकता क्योंकि साहित्य का इतिहास भी समाज से जुड़ा हुआ होता है । किसी विद्वान ने सही ही कहा है कि साहित्य में सिर्फ तिथियाँ नही हैं, बाकी वह पूर्ण सामाजिक इतिहास होता है । इसलिए यदि हम सामाजिक इतिहास को ठीक से समझना चाहते हैं तो हमें साहित्य के शरण में जाना पड़ेगा । आज तक जो भी इतिहास लिखे गये हैं उसमें अधिकांश शासक वर्ग के दृष्टिकोण से लिखे गये हैं जिसमें प्राय: कुलीन वर्ग का ही प्रतिनिधित्व रहता है । आम जन प्राय: उसमें से गायब ही रहता है । यह सब तभी जान पाते हैं जब हम उस इतिहास में अभिव्यक्त समाज की खोज करते हैं । शायद इसीलिए आज 'सबल्टर्न हिस्ट्री' की मांग हो रही है । और इस प्रकार के इतिहास लेखन में उस समय का साहित्य काफी मदद्गार साबित हो सकता है । जैसे मध्ययुगीन स्त्रियों, दलितों एवं वनवासियों की स्थिति के बारे में 'रामचरितमानस' से जाना जा सकता है । यदि हमें स्वतंत्रता के बाद आंचलिक क्षेत्र में किस तरह राजनीतिक स्थिति थी उसे समझना होता है तो हम रेणु के 'मैला आंचल' को लेते हैं । यदि हम दलित जीवन की यंत्रणा को समझना चाहते हैं तो ओमप्रकाश वाल्मीकि सहित अनेक दलित साहित्यकारों की रचनाओं को पढ़ते हैं,और वर्तमान समय में देखा जाय तो स्त्री जीवन की विडम्बनाओं, इच्छाओं और आकांक्षाओं की पूरी अभिव्यक्ति मैत्रेयी पुष्पा, प्रभाखेतान, अनामिका आदि की रचनाओं में प्रखर रूप से सामने आयी हैं और यदि हम उत्तर भारत के किसानों के जीवन को समझना चाहते हैं तो 'गोदान' को उठाते हैं । यहाँ मेरे कहने का अर्थ यही है कि इन सारी रचनाओं नें अभिव्यकत समाज की खोज करते हैं तभी हम यह जान पाते कि' 'गोदान' किसान जीवन की महागाथा है' । हजारी प्रसाद द्वेदी ने तो प्रेमचंद के विषय में यहाँ तक कह देते हैं कि 'अगर आप उत्तर भारत के समस्त जनता के आचार दृविचार जानना चाहते हैं तो प्रेमचंद से उत्तम परिचायक आपको नहीं मिल सकता' । इस प्रकार के विचार साहित्य में समाज के खोज के अर्थ को अच्छी तरह से साबित करते हैं । बीसवीं सदी के दूसरे.तीसरे दशक का सामाजिक इतिहास 'गोदान' से अच्छा कहाँ मिलेगा । साहित्य में समाज के खोज की प्रक्रिया में उपलब्ध समाजशास्त्रीय पद्धतियों से बहुत मदद मिल सकती है । उदाहरण के लिए रणेन्द्र के उपन्यास 'ग्लोबल गाँव के देवता' में आदिवासी जीवन की समस्याओं, विस्थापन की समस्या तथा जमीन्दार एवं आदिवासी समुदाय के बीच के संघर्षों को मार्क्सवादी समाजशास्त्रीय पद्धति एवं ,अस्मितावादी, आलोचना पद्धति की मदद् से बेहतर तरीके से प्रस्तुत कर सकते हैं । इसी तरह से विभिन्न रचनाओं में समाज की खोज संरचनावादी, अनुभववादी आदि अध्ययन पद्धतियों से भी की जा सकती है । साहित्य में समाज के खोज का उद्देश्य, साहित्य के सामाजिक आधार को रेखांकित करना है तथा समाज की बदलती परिस्थितियों के साथ साहित्य में परिवर्तन को बतलाना है । इस प्रक्रिया के तहत'नए समाज' के निर्माण में रचनाकार की आकांक्षओं और 'रचना प्रक्रिया' को महत्व देना भी आलोचक का दायित्व हो सकता है । इस प्रकार साहित्य में समाज गहरे रूप से व्याप्त है और उसकी खोज की जानी चाहिए क्योंकि साहित्य 'अंतत तिथिरहित सामाजिक इतिहास है ।' संदर्भ.सूची 1- मैनेजर पाण्डेय . साहित्य के समाजशास्त्र की भूमिका, हरियाणा साहित्य अकादमी पंचकूला, तृतीय संस्करण - 2006, पृष्ठ संख्या - 13 2. वही पृष्ठ संख्या - 18 सहायक.ग्रंथ.सूची 1. मैनेजर पाण्डेय . आलोचना की सामाजिकता,वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली,2005 2. संपा..निर्मला जैन . साहित्य का समाजशास्त्रीय चिंतनए हिन्दी माध्यम कार्यान्वयन निदेशालय, नई दिल्ली विश्वविद्यालय, 1986 -सोनम मौर्या पी.एच.डी. प्रथम वर्ष मोबाइल नं.9013892748 जे. एन. यू. |
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